Thursday, August 19, 2010

तुलसी का पुनः भारत आगमन

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

भक्ति के प्रभाव से निष्कपट मुक्ति भाव से
संत तुकाराम सदेह स्वर्ग को सिधारे
किन्तु तुलसीदास समय के अन्तराल को
पार कर सदेह ही भारत में पुनः पधारे
सम्वत् सोलह सौ अस्सी बाद सन (उन्नीस सौ) पच्यासी में
धर्म दशा देखने पहुँचे दिल्ली द्वारे
जनता के मन में 'मानस' के प्रति कुछ रहे न रहे
गूँज रहे थे धर्म निरपेक्षता के नारे।

फिर तुलसीदास ने काशी में जा कर देखा
तो अपनी धर्म नगरी को ज्यों का त्यों पाया
लेकिन रह गये दंग रंग देख पण्डों का
फैली थी सब तरफ भंग दण्ड की माया
और प्रयागराज के भरद्वाज आश्रम में
रामायण के बदले 'सत्यकथा' को पाया
भक्ति प्रदर्शित करती थीं महिलाएँ सब
परम पवित्र थी उनकी कंचन काया।

अपने ही कलियुग वर्णन को तुलसी ने
यत्र-तत्र-सर्वत्र साकार रूप में देखा
भारत में धोती-साड़ी गायब थी जनता की
लगा न सके वे पेंट-कोट ब्लाउज का लेखा
सोचा तुलसी ने अंग्रेजी में मानस लिख दूँ
जिसमें कहीं भी न पाई जावे लक्ष्मण रेखा
काम हमारा यह होगा भारत के हित में
गड़ रहा जहाँ नित कान्वेण्ट का मेखा।

अपनी इस भारत यात्रा में तुलसी जी ने
देखे अनगिनती डिप्लोमेटिक रावण
हर घर में थी अशोक वाटिका सुशोभित
थिरक रहा था दहेज दैत्य का नर्तन
'मोहि कपट छल छिद्र न माया' कह कर
लाद दिया था मानव पर रूखा बन्धन
इसीलिये गायब थे तुलसी के राम यहाँ
पनप रहा था प्रवंचना का काला धन

सन्तों को बने असन्त देखा दास तुलसी ने
गाते अपनी डफली पर अपना राग
आतंक, त्रास, उग्रता, पशुता और नीचता,
जगा चुके थे सभी अपना अपना भाग
पुण्य भूमि में सन्तों को भी दुष्टों ने ललकारा
विचरण करते तुलसी ने देखे अनेकों नाग
अपने ही वर्णित कलियुग वर्णन को साकार देख
तुलसीदास चले गये भारत को त्याग।

(रचना तिथिः 22-08-1985)

4 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

जहां रहते नहीं राम
तु्लसी का क्या काम

बहुत सुंदर रचना।
आभार

पूनम श्रीवास्तव said...

lalit ji bahut achhi postyatharthta se paripurn.
अपनी इस भारत यात्रा में तुलसी जी ने
देखे अनगिनती डिप्लोमेटिक रावण
हर घर में थी अशोक वाटिका सुशोभित
थिरक रहा था दहेज दैत्य का नर्तन
'मोहि कपट छल छिद्र न माया' कह कर
लाद दिया था मानव पर रूखा बन्धन
इसीलिये गायब थे तुलसी के राम यहाँ
पनप रहा था प्रवंचना का काला धन
poonam

प्रवीण पाण्डेय said...

इस कलियुग में किसी का भी टिक पाना कठिन है।

रानीविशाल said...

सन्तों को बने असन्त देखा दास तुलसी ने
गाते अपनी डफली पर अपना राग
आतंक, त्रास, उग्रता, पशुता और नीचता,
जगा चुके थे सभी अपना अपना भाग
पुण्य भूमि में सन्तों को भी दुष्टों ने ललकारा
विचरण करते तुलसी ने देखे अनेकों नाग
अपने ही वर्णित कलियुग वर्णन को साकार देख
तुलसीदास चले गये भारत को त्याग।
आदरणीय
सादर नमस्कार !

वर्तमान परिपेक्ष्य का वास्तविक चित्रण करती आपकी यह रचना ....बहुत प्रभावशाली है !
ये दशा देख संत चित्त कैसे ना व्यथित हो ...साधुवाद !
सादर
http://kavyamanjusha.blogspot.com/