Wednesday, July 7, 2010

बंद रहा टिप्पणी-बाजार... ब्लोगजगत में मचा हाहाकार

"बिन टिप्पणी सब सून!"

पोस्ट लिखें, टिप्पणियाँ भी मिले पर टिप्पणियाँ पोस्ट में ना दिखे तो हिन्दी ब्लोगजगत में हाहाकार मचना तो स्वाभाविक ही है। परसों याने कि पाँच जुलाई की शाम से ही कुछ ऐसा होने लग गया कि मेल में तो सूचना मिलती है कि पोस्ट पर टिप्पणियाँ आई है किन्तु डैशबोर्ड पर और पोस्ट पर वे टिप्पणियाँ नदारद हैं। ऐसी स्थिति कल दिन भर रही। गहन चिन्ता में डाल दिया गूगल बाबा ने ब्लोगरों को।

अब ब्लोगर बाबा भी क्या करे? बारहों महीने-आठों काल, प्रत्येक दिन चौबीसों घंटे अनवरत रूप से काम करते रहने पर कभी-कभी बीमार हो जाना कोई अस्वाभाविक बात तो नहीं है। सो गूगल बाबा के ब्लोगर की तबीयत भी शायद खराब हो गई होगी। बस बीमारी की इस अवस्था में उन्होंने टिप्पणियाँ दिखाना बंद कर दिया।

अब हिन्दी ब्लोगिंग का तो अस्तित्व ही टिप्पणी से है, टिप्पणियाँ ना मिले तो लोग ब्लोगिंग ही ना करें। हिन्दी ब्लोगिंग से ना तो बड़ी संख्या में पाठक ही मिल पाते हैं और ना कुछ कमाई ही हो पाती है। बस टिप्पणियाँ ही तो मिलती हैं और यदि टिप्पणियाँ मिलनी भी बंद हो जाये तो भला क्यों करेगा कोई हिन्दी ब्लोगिंग?

शुक्र है कि आज टिप्पणियाँ दिखाई देने लग गई हैं और लगता है कि गूगल बाबा का ब्लोगर अब स्वस्थ हो चले हैं। हमारी कामना यही है कि वे सदैव स्वस्थ ही रहें।

Tuesday, July 6, 2010

भोजन को सुस्वादु बनाने वाला ग्रेव्ही अर्थात् करी याने कि तरी

भारतीय ग्रेव्ही, जिसे कि अक्सर करी और तरी भी कहा जाता है, का अपना अलग ही इतिहास है। जी हाँ, आपको जानकर आश्‍चर्य होगा कि भारतीय करी का इतिहास 5000 वर्ष पुराना है। प्राचीन काल में, जब भारत आने के लिये केवल खैबर-दर्रा ही एकमात्र मार्ग था क्योंकि उन दिनों समुद्री मार्ग की खोज भी नहीं हुई थी। उन दिनों में भी यहाँ आने वाले विदेशी व्यापारियों को भारतीय भोजन इतना अधिक पसंद था कि वे इसे पकाने की विधि सीख कर जाया करते थे और भारत के मोतियों के साथ ही साथ विश्‍वप्रसिद्ध गरम मसाला खरीद कर अपने साथ ले जाना कभी भी नहीं भूलते थे।


करी शब्द तमिल के कैकारी, जिसका अर्थ होता है विभिन्न मसालों के साथ पकाई गई सब्जी, से बना है। ब्रिटिश शासनकाल में कैकारी अंग्रेजों को इतना पसंद आया कि उन्होंने उसे काट-छाँट कर छोटा कर दिया और करी बना दिया। आज तो यूरोपियन देशों में करी इंडियन डिशेस का पर्याय बन गया है।

Monday, July 5, 2010

कोई दम तोड़ दे तो तोड़ दे पर भारत बंद रहेगा

बीमार को अस्पताल नहीं पहुँचा सकते क्योंकि भारत बंद है। कोई यदि उसे अस्पताल तक पहुँचाना भी चाहे तो उसे रोक दिया जायेगा और यदि न रुके तो उसका वाहन जला दिया जायेगा। कोई दम तोड़ दे तो तोड़ दे पर भारत बंद रहेगा।

शक्ति-प्रदर्शन करने वालों को बंद करके अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने से ही मतलब होता है, उन्हें भला इससे क्या मतलब है कि रोज कमाने और रोज खाने वाले कितने लोगों के घर में चूल्हे नहीं जले, होटलों में खाना खाना जिनकी मजबूरी है ऐसे कितने ही लोग भूखे रह गये, वाहनों के अभाव में कितने ही लोग कार्यालय नहीं जा पाये और काम न होने से राष्ट्र का कितना नुकसान हुआ, कितने ही बीमारों ने अस्पताल न पहुँच पाने या दवा न मिल पाने के कारण दम तोड़ दिया ....

Sunday, July 4, 2010

मरने की आरजू में जीता ही चला आया हूँ

इक आग के दरिया में मै डूब के आया हूँ
जिल्लत है मिली मुझको पर इश्क नहीं पाया हूँ

कुचले हैं मेरे अरमां टूटी है मेरी आशा
गैरों का सताया हूँ अपनों का रुलाया हूँ

दिल में थे जितने अरमाँ आँखों में जितने सपने
अपने पे लुटाना था तुझ पे ही लुटाया हूँ

एहसास है मुझको ये भी तेरे प्यार में डूबा हूँ
अपना न रहा अब मैं तेरा भी न हो पाया हूँ

बरबाद हो गया हूँ चाहत में तेरी अब तक
पाना था तुझको लेकिन खुद को ही गवाँया हूँ

खोने के बाद तुझको मरने की तमन्ना है
मरने की आरजू में जीता ही चला आया हूँ

Saturday, July 3, 2010

ऐसे सीखा बूढ़े तोते ने राम राम कहना!

बूढ़ा तोता राम राम कहना नहीं सीख सकता"। अब हम भी तो बूढ़े हो गये हैं याने कि अब हम भी कुछ सीख नहीं सकते। पर कोशिश करने में क्या हर्ज है; आखिर कम्प्यूटर चलाना, वर्ड, एक्सेल, पॉवरपाइंट, पेजमेकर आदि हमने सन् 1996 में खुद का कम्प्यूटर खरीदने के बाद ही, याने कि छियालीस साल की उम्र के बाद ही, तो सीखा है, और वह सब भी खुद ही कोशिश करके। बस फोटोशॉप ही तो सीख नहीं पाये क्योंकि उसे सीखने की कभी प्रबल इच्छा ही नहीं हुई हमारी। और अब जब इसे सीखने की इच्छा हो रही है तो लगता है कि कहीं "सिर तो नहीं फिर गया है" हमारा। पर हमने भी ठान लिया कि सीखेंगे और जरूर सीखेंगे। आखिर जब ललित शर्मा जी हमारा हेडर बना सकते हैं तो हम खुद क्यों नहीं?

बस फिर क्या था। तत्काल मोबाइल किया राजकुमार सोनी जी को अजय सक्सेना जी का नंबर लेने के लिये, क्योंकि वे ग्राफिक्स के विशेषज्ञ हैं और फोटोशॉप के के टूल्स के बारे में जानकारी उन्हीं से मिल सकती थी। उन्हें फोन करके थोड़ी सी जानकारी ली और बैठ गये कम्प्यूटर के सामने फोटोशॉप खोलकर।

अब हम सोचने लगे कि किसी प्राकृतिक दृश्य में कुछ हेर फेर किया जाये। झट से नेट से खोजकर ये वाला चित्र ले आयेः


कहा जाता है कि "नेचर इज गॉड" याने कि "प्रकृति ही परमेश्वर है", तो हम अब प्रकृति और परमेश्वर को चित्र द्वारा दर्शाने की कोशिश करने के लिये परमेश्वर अर्थात् ॐ का भी ये चित्र ले आयेः


और इन दोनों चित्रों को छेड़ते-छाड़ते यह नया चित्र बना डालाः


इसके बाद हमारे दिमाग में फिर खुराफात सूझी। सोचने लगे कि ताजमहल को आगरे से समुद्र में लाया जाये। तो नेट से समुद्र और ताजमहल के निम्न चित्र खोज लायेः


और हमारे खुराफात का परिणाम यह निकलाः



और आखिर में अपने इस ब्लोग "धान के देश में" के लिये ये हेडर बना डालाः


तो इस बूढ़े तोते ने आखिर राम राम कहना सीख ही लिया!

Friday, July 2, 2010

सच बोलूँगा तो माँ मारेगी और झूठ बोलूँगा तो बाप कुत्ता खायेगा

एक फिल्म आई थी "साधू और शैतान" और उस फिल्म के कामेडियन हीरो नायक ने उसमें एक डॉयलाग बोला था "सच बोलूँगा तो माँ मारेगी और झूठ बोलूँगा तो बाप कुत्ता खायेगा"

मेरे साथ गाहे-बगाहे ऐसी परिस्थितियाँ आती रहती हैं कि 'सच बोलूँगा तो माँ मारेगी और झूठ बोलूँगा तो बाप कुत्ता खायेगा'। स्वैच्छिक सेवानिवृति के बाद इंटरनेट में झक मारते रहता हूँ ताकि कुछ कमाई हो जाये। एक जगह 'सेल्फ ड्राफ्टिंग' का काम भी करता हूँ। इंटरनेट से चाहे कमाई हो या न हो पर जहाँ काम करने जाता हूँ वहाँ से तो कुछ रुपये बन ही जाते हैं।

सच पूछो तो ये 'रुपया' भी बहुत कमीनी चीज है। जिसके पास नहीं है क्या क्या नहीं करवाता उससे? अकरणीय से भी अकरणीय करवाता है, इज्जत-आबरू तक उतार देता है। जिसके पास नहीं है उसे तो तंगाता ही है और जिसके पास है उसे भी बर्बाद करने पर तुला रहता है। पर किसी ने ठीक ही कहा है कि संसार में रुपया ही सब कुछ नहीं है, रुपये से बढ़ कर भी बहुत सारी चीजें हैं पर मुश्किल यह है कि वे चीजें भी रुपये से ही खरीदनी पड़ती हैं।

आप यही सोच रहे हैं न कि मैं नशा करके लिखने बैठा हूँ, बहक गया हूँ, विषय कुछ है और लिख कुछ रहा हूँ। पर ऐसा कतइ नहीं है। मैं विषयान्तर नहीं कर रहा हूँ जनाब, आ रहा हूँ विषय पर। बात यह है कि मैं झूठ को पसंद नहीं करता। अब आप सोचेंगे कि मैं धार्मिक हूँ, आदर्शवादी हूँ, महान हूँ, ये हूँ, वो हूँ, न जाने क्या क्या हूँ और इसीलिये झूठ को पसंद नहीं करता। पर आपकी सोच बिल्कुल गलत है। दरअसल मैं जब भी झूठ बोलता हूँ तो तत्काल पकड़ा जाता हूँ और सिर्फ इसीलिये मैं झूठ को पसंद नहीं करता। हमेशा छीछालेदर करवा देता है मेरा।

तो मैं बता रहा था कि मैं कहीं पर सेल्फ ड्राफ्टिंग का काम भी करता हूँ। मेरा पूरा काम 'करेस्पांडिंग' का है। सारी चिट्ठी-पत्री अंग्रेजी में होती हैं और 'बॉस' अंग्रजी समझ तो लेता है पर 'ड्राफ्टिंग' नहीं कर पाता। इसीलिये मुझे क्या लिखना है हिंदी में बताया जाता है और मैं उसका अंग्रेजी में अनुवाद कर के तथा टाइप कर के दे देता हूँ। और इसी काम की वजह से ऐसी परिस्थिति में फँस जाता हूँ कि 'सच बोलूँगा तो माँ मारेगी और झूठ बोलूँगा तो बाप कुत्ता खायेगा'।

आगे की बात लिखने के पहले यह बता दूँ कि यह कहावत कैसे बनी। बात यह है कि लड़के के बाप ने बड़े शौक से मटन लाकर अपनी पत्नी को दिया और बोला कि इसे तैयार कर के रखना। ड्यूटी से वापस आकर खाउँगा। लड़के की माँ ने मटन बनाया और कैसा बना है जानने के लिये चखा। मटन इतना जोरदार बना था लड़के की माँ को बार-बार उसे चखने की इच्छा होने लगी और चखते-चखते वह पूरा मटन चट कर गई। मटन के खत्म हो जाने पर उसे भय ने घेरा कि पति वापस आयेगा तो बहुत नाराज होगा। उसे एक उपाय सूझा, उसने पास के मुहल्ले के एक आवारा कुत्ते को मारा और उसके मटन को पका कर रख दिया। लड़का सब कुछ देख रहा था और परेशान था कि क्या करूँ। 'सच बोलूँगा तो माँ मारेगी और झूठ बोलूँगा तो बाप कुत्ता खायेगा'।

हाँ तो जहाँ मैं सेल्फ ड्राफ्टिंग का काम करता हूँ वहाँ का 'बॉस' बहुत रुपये वाला आदमी है। बहुत बड़ा व्यवसाय है उसका। पर वहाँ पर सच का प्रयोग 'दाल में नमक' के हिसाब से किया जाता है। रुपये यदि लेने के निकलते हैं तो देनदार को फोन पर फोन करके ऐसा तंगाया जाता है कि 'नानी याद आ जाये'। जितना लेना निकलता है उसमें पता नहीं क्या क्या चार्जेस, ब्याज आदि जोड़ कर अधिक से अधिक बताये जाते हैं। और अगर रुपये किसी को देने के निकलते हैं तो ऐसे आदमी को फोन अटेंड करने के लिये कहा जाता है जिसे कि लेनदार जानता ही नहीं। (आजकल कॉलर आईडी फोन और मोबाइल होने के कारण पता तो चल ही जाता है कि फोन किसका है।) और फोन अटेंड करने वाला बड़े मजे के साथ कह देता है कि 'बॉस' आवश्यक मीटिंग में है, मुख्यालय से बाहर गया है आदि आदि। वैसे 'बॉस' भी अपनी जगह सही है, यदि व्यवसायी झूठ नहीं बोलेगा तो रुपये कैसे कमायेगा।

तो साहब झूठ बोलने तक ही सीमित रहे वहाँ तक तो ठीक है पर मुझसे तो चिट्ठी पत्री में भी झूठ लिखने के लिये भी कहा जाता है। मैं मना करने की कोशिश करता हूँ तो 'बॉस' कहता है, "अरे अवधिया जी, बोलने से ही तो आपका झूठ पकड़ा जाता है न, आपके चेहरे के भाव देख कर या आपकी आवाज सुन कर। पर चिट्ठी में न तो आपके चेहरा दिखाई पड़ता है और न ही आपकी आवाज सुनाई पड़ती है। फिर क्यों मना करते हैं आप?"

अब क्या करूँ साहब, झूठ लिखने के लिये अंतरात्मा (यदि इस नाम की कोई वस्तु हो तो) धिक्कारती है और 'बास' के अपने साथ अच्छे व्यवहार तथा रुपये कमाने की लालसा के कारण काम छोड़ना हो नहीं पाता। बस इसीलिये ऐसी परिस्थितियों में फँस जाता हूँ कि 'सच बोलूँगा तो माँ मारेगी और झूठ बोलूँगा तो बाप कुत्ता खायेगा'।

Thursday, July 1, 2010

एडमाया - हिन्दी ब्लोगिंग से कमाई का नया साधन!

गूगल एडसेंस की तर्ज पर ऑनलाइन विज्ञापन करने वाली एक नई भारतीय कंपनी आई है एडमाया!


पूर्व में गूगल एडसेंस के विज्ञापन हिन्दी भाषा वाली साइट्स में दिखाये जाते थे किन्तु नवंबर 2007 से गूगल ने हिन्दी साइट्स में अपने विज्ञापन दिखाने बंद कर दिये क्योंकि हिन्दी उनकी अधिकृत भाषा की सूची में नहीं है। ऐसे में एडसेंस की ही तर्ज पर विज्ञापन दिखाने वाली नई कंपनी एडमाया का आना हिन्दी ब्लोगर्स के लिये स्वागतेय है। एडमाया विशेष तौर पर हिन्दी साइट्स के लिये ही है और हिन्दी के ब्लोग्स में अपने विज्ञापन दिखाती है। एडमाया के विज्ञापन "प्रति क्लिक भुगतान" विज्ञापन होते हैं याने कि किसी ने आपके ब्लोग पर एडमाया के विज्ञापन पर क्लिक किया और आपकी कमाई हुई!

एडमाया में अपना पंजीकरण (registration) करना बहुत ही आसान है। बस यहाँ क्लिक करके एडमाया के रजिस्ट्रेशन फॉर्म को भर दीजिये और लगभग चौबीस घंटे प्रतीक्षा कीजिये स्वीकृति मेल आने का। स्वीकृति मेल आने के बाद एडमाया में लागिन करके विज्ञापन का कोड प्राप्त करके अपने ब्लोग में उसे लगा दीजिये। बस इतना ही तो आपको करना है।

एडमाया से फिलहाल बहुत अधिक कमाई की उम्मीद तो नहीं की जा सकती क्योंकि एक तो अभी यह कंपनी एकदम नई है और इन्हें अभी सीमित संख्या में ही विज्ञापन मिला हुआ है, और दूसरे हिन्दी ब्लोग्स के पास पाठकों की कमी भी है। फिर भी कुछ भी कमाई ना होने से कुछ तो कमाई के होने को तो बेहतर ही माना जायेगा कहा भी गया है; "नहीं मामा से काना मामा अच्छा"!

और हाँ, इस बात का अवश्य ही ध्यान रखें कि एडमाया के विज्ञापन को लगाने के बाद न तो स्वयं ही अपने विज्ञापनों पर क्लिक करना है और न ही अपने परिजनों, मित्रों या परिचितों से क्लिक करवाना है। ऐसा करना वास्तव में धोखा देना है और आपके इस धोखे की पोल देर-सबेर खुल ही जाना है जो कि सोने की अंडा देने वाली मुर्गी को एक बार में ही मार डालना सिद्ध होगा।

आप एडमाया में विज्ञापनदाता के रूप में भी पंजीकरण करवा के अपने ब्लोग का विज्ञापन भी रु. के न्यूनतम दर पर कर सकते हैं!