Monday, September 6, 2010

खुशी

भारत में आज मुम्बई, कोलकाता, दिल्ली जैसे विशाल महानगर हैं जिनमें देश भर के पढ़े-लिखे लोग आजीविका के चक्कर में आकर निवास करते हैं; छोटे-छोटे मगर आलीशान फ्लैटों में रहते हैं जिनमें न तो आँगन ही होता है और न ही अतिथि के लिए स्थान। सुबह नौ-दस बजे वे टिड्डीदलों की भाँति दफ्तर की तरफ निकल पड़ते दिखाई दिया करते हैं। पापी पेट के लिए लाखों-करोड़ों स्त्री-पुरुष गाँव-देहातों को छोड़कर महानगरों में आ बसे हैं। इन महानगरों में बड़े-बड़े मिल और कल कारखाने हैं जिनमें लाखों मजदूर एक साथ मजदूरी करके पेट पालते हैं और गन्दी बस्तियों में, मुर्गे-मुर्गियों के दड़बों की भाँति, झोपड़पट्टियों में रहते हैं।

और सभी खुश हैं!

एक समय वह भी था जब भारत में लोग गाँव-देहातों-कस्बों में रह कर खेती करते या घर पर अपने-अपने हजारों धन्धे करते थे। छोटे से छोटा गाँव भी उन दिनों अपनी हर जरूरत के लिए आत्मनिर्भर हुआ करता था। प्रत्येक आदमी बहुत कम खर्च में सीधे-सादे ढंग से मजे में रहता था। अपना मालिक आप! अपने आप में सम्पूर्ण आत्मनिर्भर! परिश्रम, सादा जीवन और आत्मनिर्भरता उनके स्वभाव के अंग थे क्योंकि उनके बगैर एक क्षण भी काम नहीं चल सकता था। स्थानीय शासकों मसलन मालगुजारों, जमींदारों आदि की स्वेच्छाचारिता से तंग भी होते थे और उनकी दयाशीलता से निहाल भी।

और सभी भी खुश थे!

Sunday, September 5, 2010

आत्म निर्भर होना बेहतर है कि नौकरी कर के नौकर बनना?

आटोरिक्शा में बैठा तो देखा कि आटोचालक तो अपना परिचित सुखदेव है जो कि पेट्रोल पंप में काम किया करता था। पूछने पर उसने बताया कि पेट्रोल पंप की नौकरी से उसे मालिक ने निकाल दिया तो उसने आटो चलाना शुरू कर दिया। प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा था कि वह अब पहले से ज्यादा खुश है क्योंकि जितनी अधिक मेहनत करता है उसी के हिसाब से कमाई भी होती है, नौकरी में तो सिर्फ बँधी-बँधाई तनख्वाह ही मिलती थी और साथ में मालिक की घुड़की भी।

नौकरी करने का अर्थ होता है किसी का नौकर बन जाना। चाहे कोई कितना भी बड़ा अफसर क्यों ना हो, उसके ऊपर हुक्म चलाने वाला कोई ना कोई बड़ा अफसर अवश्य ही होता है। नौकरी करने वाले को भले ही बड़े से बड़ा पद मिल जाए पर वह अपना मालिक आप कभी बन ही नहीं सकता।

किन्तु विडम्बना यह है कि आज शिक्षा का उद्देश्य ही नौकरी पाना बन कर रह गया है। हर कोई चाहता है कि उसे बड़ी से बड़ी नौकरी मिले। भले ही नौकरी मिल जाने के बाद याने कि नौकर बन जाने के बाद उसे प्रतिदिन बारह से पन्द्रह घंटों तक पिसना ही क्यों ना पड़े, अपने से ऊपर वाले अफसर का घर के नौकर से भी बदतर व्यहार सहन करना पड़े, तीज-त्यौहार, जन्मदिन तथा अन्य पारिवारिक खुशियों के अवसर पर भी परिवार से दूर रहना पड़े, हुक्म होने पर आधी रात को नींद से जागकर भी दफ्तर दौड़ना पड़े।

क्यों कमाते हैं हम? अपने परिजनों की खुशी के लिए ही ना! किन्तु नौकरी कर के हम धन तो कमा सकते हैं पर क्या अपने बीबी-बच्चों को क्या वह खुशी दे सकते हैं जसके कि वे हकदार हैं? बेटे का जन्मदिन है, वह पापा का बेसब्री से इन्तजार कर रहा है पर पापा को आज ही प्रोजेक्ट पूरा कर के देना है वरना नौकरी छूट जाने का डर है। मजबूर है वह इसलिए अपने बच्चे के जन्मदिन में उपस्थित नहीं रह सकता।

आज हमें नौकर बनना पसन्द है और आत्मनिर्भरता की तो हमारे दिमाग में कल्पना तक भी  नहीं आ पाती। हमारी ऐसी सोच हमारी शिक्षा की देन है हमें। हमारी सरकार की शिक्षानीति ही यही है कि वह राष्ट्र में नौकर तैयार करे, ऐसे नौकर जिनका उद्देश्य मात्र रुपया कमाना हो चाहे उसके लिए उसे अपना स्वाभिमान भी खोना पड़े। यह शिक्षा हमें स्वार्थ सिखाती है, ऐसे लोगों का निर्माण करती है जो अपने स्वार्थ के लिए राष्ट्र को भी बेच देने के लिए तत्पर हो जाएँ।

कभी हमारे बुजुर्ग हमसे कहा करते थेः

उत्तम खेती मध्यम बान।
निषिद चाकरी भीख निदान।।

अर्थात् कृषिकार्य सर्वोत्तम कार्य है और व्यापार मध्यम, नौकरी करना निषिद्ध है क्योंकि यह निकृष्ट कार्य है और भीख माँगना सबसे बुरा कार्य है।

पर आज की शिक्षा नीति ने उपरोक्त कथन की कुछ भी कीमत नहीं रहने दिया है। क्या ऐसी शिक्षानीति जारी रहनी चाहिए या इसमे परिवर्तन की जरूरत है? क्या एक ऐसी शिक्षानीति की आवश्यकता नहीं है जो हमें आत्मनिर्भरता की ओर ले जाये, हममें राष्ट्रीय भावना पैदा करे, हमें अपनी सभ्यता, संस्कृति और गौरव का सम्मान करना सिखाए?

Saturday, September 4, 2010

दूसरों को बदलने की कोशिश करने से अच्छा है कि स्वय को ही बदल लें... कल की कहानी का अगला किश्त..

मैं किश्तों में कही जाने वाली किसी पोस्ट की अगली किश्त लिखने के पहले यह सुनिश्चित कर लेना उचित समझता हूँ कि पहले वाली किश्त कितनी सफल रही थी? चिट्ठाजगत के धड़ाधड़ पठन में मेरे पोस्ट को अच्छा स्थान मिलना सिद्ध करता है कि कल की कथा को बहुत सारे लोगों ने पढ़ा और इस बात की मुझे खुशी है। टिप्पणियों की संख्या से किसी पोस्ट के स्तर को मापना मेरी फितरत में शामिल नहीं है इसलिए मुझे धड़ाधड़ टिप्पणियाँ से कुछ खास मतलब नहीं रहता। मैं टिप्पणियों को बुरा-भला नहीं कहता किन्तु आजकल अधिक से अधिक टिप्पणियाँ पाने का जो क्रेज बन गया है उसे अवश्य ही मैं अच्छा नहीं समझता। खैर, मेरे विचार से सभी सहमत हों यह जरूरी नहीं है, 'मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना'! मैं दूसरों के समक्ष अपने विचार तो अवश्य ही रख सकता हूँ जरूरी नहीं हैं कि वे मेरे विचार से प्रभावित हों। वैसे भी दूसरों को बदलने की कोशिश करने से अच्छा है कि स्वय को ही बदल लें।

तो अब प्रस्तुत है आचार्य चतुरसेन जी "सोना और खून" के कल के अंश से आगे की कहानीः

(कृपया पूर्व की कथा यहाँ पढ़ें - एक बार पढ़ा है और बार-बार पढ़ने की इच्छा है)

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बादशाह ने उसका नाम रखा कुदसिया बेगम। उसे नवाब का खिताब दिया, जो किसी दूसरी बेगम को प्राप्त न था। और उसे ताज पहनने का भी अधिकार दे दिया। अपने सौन्दर्य, प्रतिभअ और खुशअखलाक के कारण वह उस विशाल महलसरा में सब बेगमों की सरताज बन गई। नसीरुद्दीन हैदर उसके गुलाम बने हुए थे। सम्पत्ति उसकी ठोकरों में थी। वह खुले हाथों खर्च करती थी। रुपये-अशर्फियाँ उसके लिए कंकर-पत्थरों का ढेर थीं। उसका केवल पानों का खर्च रोजाना आठ सौ रुमया था। सेरों मोती चूने के लिए रोज पीसे जाते थै। रोज सौ रुपये के फूलों के हार उसके लिए मोल लिए जाते थे। सात सौ रुपये माहवार उसकी चूड़ियों का खर्च था, जो उसकी दासियाँ पहनती थीं। उसके बावर्चीखाने में छः सौ रुपया रोज खर्च होता था। सोने के थाल में सब प्रकार के रत्नों का सतनजा प्रति सन्ध्या को अपने सिरहाने रखकर सोती थी। और प्रातःकाल होते ही वह गरीबों को खैरात कर दिया जाता था। उसकी पोशाक के लिए हजार रुपये रोज खर्च किए जाते थे, जिसे वह सिर्फ एक बार पहनकर शैदानियों को दे देती थी।

गर्मियों में जो खस की टट्टियाँ उसके लिए लगाई जाती थीं, वह केवड़ा और गुलाब से छिड़की जाती थीं। सर्दियों में ऊनी कपड़ों के गट्ठे के गट्ठे उसके अमलों में बाँटे जाते थे। दस-दस हजार रुपयों की लागत की उसकी रजाइयाँ बनती थीं। और एक बार ओढ़ लेने के बाद जिसके भाग्य में होती थीं, उसे बख्श दी जाती थीं। वह एक-एक लाख रुपये रुपये जल्सेवालियों को दे डालती थी। उसे नवाब का खिताब दिया गया था और वह रत्नजटित ताज सिर पर पहनती थी।

बसन्त की ऋतु थी बेगममहल में हर कोई बसन्ती बाना पहने था। बादशाह का खास बाग सजाया गया था। मैदान में अपने-अपने डेरे-तम्बू डालकर दरबारी अमीर-उमरा और राजकर्मचारी जश्न मना रहे थे।

बादशाह को बड़ी लालसा थी कि इस बेगम के गर्भ से पुत्र उत्पन्न हो और उसे वह अपना वारिस बनाए। इस काम के लिए बड़े-बड़े उपचार किए गए थे। बड़े-बड़े हकीम, तबीब, वैद्य, स्याने-दीवाने बुलाए गए थे। बड़े-बड़े पीर, फकीर, शाह और औलिया वहाँ पहुँचे थे। उनकी अच्छी बन पड़ी थी। सबने अच्छी लूट मचाई थी। बहुत-से निर्धन धनी हो गए। राज्य भर के फकीरों को निमन्त्रण दिया क्योंकि बेगम को गर्भ रह गया था। रियाया में जश्न मनाने का हुक्म जारी हो गया था।

चारों तरफ फव्वारे चल रहे थे। खवासनियाँ दौड़-धूप कर रही थीं। बादशाह एक मसनद पर अधलेटे पड़े थे। कुदसिया बेगम उनके पहलू में थीं। खवासें शराब के प्याले बादशाह को देतीं और बादशाह उन्हें कुदसिया बेग के होंठों से लगाकर और आँखें बन्द करे पी जाते थे। नाचनेवालियाँ नाच रही थीं। एक नाचनेवाली की अदा पर फिदा होकर बेगम ने जअपने गले का जड़ाऊ हार उसकी ओर फेंककर सबको वहाँ से भाग जाने का संकेत किया। सबके चले जाने पर हँसकर उसने बादशाह के गले में हाथ डाल दिया और कहा, "मेरे मालिक, तुम्हारी इनायत से मैं नाचीज क्या से क्या हो गई। तुमने मुझको इस कदर निहाल कर दिया कि अब मैं दुनिया को आनन-फानन में निहाल कर सकती हूँ।"

बादशाह ने उसका मधर चुम्बन लिया। एक आह भरी और कहा, "प्यारी बेगम, तुमसे मुझे जो राहत मिली है, उसके सामने यह बादशाहत भी हेच है। लाओ, अपने हाथ से एक प्याला दो। अपने होंठों से छूकर उसमें अमृत डालकर।"

बेगम ने हँसकर दो प्याले शराब लबालब भरे और बादशाह को दिए।

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आज लखनऊ के बाजार में बड़ी उत्तेजना फैली हुई थी। पहर दिन चढ़ गया, परन्तु अभी तक आधी से अधिक दूकानें बन्द थीं। बकरू नानबाई ने दूकान में तंदूर को गरमाने के बाद पाव-रोटी सजाते हुए पड़ोस के लाला मटरूमल से कहा, "चाचा मटरू, अभी तक दूकान नहीं खोली, इस तरह गुमसुम कैसे बैठे हो? दोपहर दिन चढ़ गया।

मटरू लाला सिकुड़े हुए दूकान के आगे हाथ में चाबियों का गुच्छा लिए बैठे थे। उन्होंने नाक-भौं सिकोड़कर कहा, "क्या करूँ दूकान खोलकर? अभी सरकारी हाथी आएँगे और सब जिन्स चबा जाएँगे। कौन लड़ेगा भला इन काली बलाओं से?"

"सचमुच चचा यह तो बड़ा अन्धेर है। कल ही की लो, पाँच सेर आटा गूंधकर रखा था, एक ही चपेट में सफा कर गया। तंदूर तोड़ गया घाट में। खुदा गारत करे। नवाब आसफुद्दौला के जमाने से दूकानदारी करता हूँ पर ऐसा अन्धेर तो देखा नहीं।"

"तुम अपने तंदूर और पाँच सेर आटे की गाते हो म्याँ! मेरी तो मन भर मक्का साफ कर गया। महावत साथ था। महावत को मैंने डाँटा तो वह शेर हो गया औ‌र उल्टा मुझी को आँख दिखाने लगा। कहने लगा 'मैं क्या करूँ? सरकार से फीलखाने के खर्च का रुपया मिलता ही नहीं; इसलिए एक-एक महावत अपने हाथी के साथ तीसरे दिन बाजार आता है। जो हाथ लगा उससे पेट भरता है।'.."

इतने में नसीबन कुंजड़िन वहाँ आ गई। उसने कहा, "अधेले की रोटी और अधेले का सालन दो म्याँ बकरू, जरी बोटियाँ ज्यादा डालना।"

"अधेले में क्या तुम्हें सारी देग उलट दूँ?"

"तो मरे क्यों जाते हो, सालन के नाम तो नीला पानी ही है।"

"लखनऊ भर में कोई साला मेरे जैसा सालन बना तो दे, टाँगों तले निकल जाऊँ। ला प्याला दे। कल हाथी ने तेरा भी तो नुकसान किया था।"

"ए खुदा की मार इस हाथी पर, मुआ टोकरे-भर खरबूजे खा गया। धेले तक की बोहनी न हुई थी, बस लाकर रखे ही थे। मैंने डराया तो मुआ सूंड उठाकर झपटा मेरे ऊपर। मैं भागी गिरती-पड़ती। पर किससे कहें, यहाँ लखनऊ में तो बस इन दाढ़ीजार फिरंगियों की चलती है। और किसी की दाद-फरियाद कोई नहीं सुनता।"

इसी समय मियाँ नियामत हुसैन चकलादार हाथ में ऐनक लिए आ बरामद हुए। फटा पायजामा, फिड़क जूतियाँ और पुरानी शेरवानी, दुबले-पतले, फूँस से आदमी। आते ही बोले, "म्याँ बकरू, झपाके से दमड़ी का रोगनजोश, दमड़ी की रोटी और अधेले की कलेजी दो।"

"खूब हैं आप, पैसे के तीन अधेले भुनाते हैं। लाइए पैसा नगद।"

"म्याँ अजब अहमक हो, चकलेदार हैं हम, कोई उठाईगीर नहीं।"

"माना आप चकलेदार हैं, इज्जतवाले हैं; मगर सुबह-सुबह उधार के क्या मानी? फिर पिछला भी बकाया है। अब आपको उधार भी दे् और अहमक भी बनें।"

"अगले-पिछले सभी देंगे, तनख्वाह मिलने पर।"

"यह तो मैं साल भर से सुनता आ रहा हूँ।"

"तो भई, मैं क्या करूँ? तीन बरस से तलब नहीं मिली।"

"तो छोड़ दो नौकरी।"

"नौकरी छोड़कर क्या करूँ?"

"घास खोदो।"

"कमजर्फ आदमी, हमें घास छीलने को कहता है। हम चकलादार हैं नहीं जानता!"

"तो हजरत, पैसा नगद दीजिए और सौदा लीजिए। क्या जरूरी है कि हम अपना माल दें और गालियाँ खाएँ?"

"अजब जमाना आ गया है, रज़ील लोग शरीफों का मुँह फेरते हैं, सरकारी अफसरों को आँखें दिखाते हैं।"

"तो साहब, हम तो अपना पैसा माँगते हैं। उधार बेचें तो खाएँ क्या?"

"तुफ है उसपर जो इस बार तनख्वाह मिलने पर तुम्हारा चुकता न करे। लो लोगों हम चले।"

"खैर इस वक्त तो लेते जाइए चकलादार साहब, हम रज़ील लोग हैं, मुल दुकान के आगे गाहक को खाली नहीं भेज सकते।"

"चकलादार साहब नर्म हुए। कहने लगे, "भई, हम क्या करें, मुल्केजमानिया साहब लोगों को लाखों रुपये रोज देते हैं, पर नौकरों को तलब नहीं मिलती। हाथी आवारा बाजारों में फिरते हैं, उन्हें राशन नहीं दिया जाता।"

इसी वक्त मौलाबख्श खानसामा आ गया। पिछली बात सुनकर कहा, "भई अब तो दो साल और तलब नहीं मिलेगी। नवाब कुदसिया बेगम को लड़का हुआ है। उसके जश्न मनान का हुक्म है। करोड़ों रुपया खर्च होगा। सुना नहीं तुमने, बेगम ने करोड़ रुपये का चबूतरा लुटवा दिया।"

"हाँ भाई, बादशाह हैं। पर रियाया का भी तो ख्याल रखना लाजिम है।"

"सामने की दुकान पर करीमा फुल्कियाँवाला गर्मागर्म फुल्कियाँ उतार रहा था। मियाँ अमजद तहमद कड़काते आए - एक पैसा झन्नाटे से थाल में फेंककर कहा, "म्याँ दे तो एक पैसे का गर्मागर्म।"

"एक पैसे की क्या लेते हो, कल्ला भी गर्म न होगा। दो पैसे की तो लो।"

"दो ही पैसे की दे दो यार, मगर चटनी जरा ज्यादा देना।"

फुल्कीवाले ने बीस फुल्कियाँ दोने में भरकर अमजद के हाथ में दीं और चटनी की हांडी आगे सरकाकर कहा, "ले लो जितनी जी चाहे।"

अमजद ने चटनी दोनो में भरी और कहा, "यार, चटनी तो बासी मालूम पड़ती है।"

"लो और हुई। म्याँ, अभी तो पाव भर खटाई की चटनी बनाई है। आप पहचानने में खूब मश्शाक हैं।"

"तो तेज क्यों होत हो म्याँ? मैंने बात ही तो कही।"

"और मैंने क्या तमाचा मारा? क्या जमाना आ गया! लखनऊ शहर में अब तमीजदारों की गुजर नहीं।"

"आक्खाह, तो आप तमीजदार है!"

ये बातें हो ही रहीं थीं कि हुसेनखां जमदार रकाबी लिए लपकत आए। बोले, "म्याँ करीम, जरा दो पैसे की फुल्कियाँ तो देना, यर घान जरा खरा करके निकालो, खूब फुल्कियाँ बनते हो यार! इस कदर मुँह लग गई हैं कि खुदा ही पनाह। नखास से आना पड़ता है तुम्हारी दुकान पर।"

"तो पैसे निकालिए साहब।"

"इसके क्या माने? शरीफों से ऐसी बात?"

"तो हुज़ूर, मैं उधार कहाँ से दूँ। गरीब दुकानदार हूँ। पेट भरने को सुबह-सुबह यहाँ पर खून जलाता हूँ। आप हैं कि सुबह-सुबह हाजिर। एक दिन, दो दिन, तीन दिन, आखिर कब तक? पूरे नौ आने उधार हो गए हैं।"

"इसे कहते हैं कमीनापना। न किसी की इज्जत का ख्याल, न रुतबे का। मुँह में आया बक गए। अबे, हम सरकारी जमादार हैं, चरकटे नहीं।"

"तो जमादार साहब, पैसे नकद दीजए, उधार की सनद नहीं।"

जमादार ने दो पैसे टेंट से निकालकर फेंक दिए। तैश में आकर बोले, "अबे, कौन तुमसे मुँह लगे। अब से जो तुम्हारी दुकान पर आए उसपर सात हर्फ।"

दुकानदार ने पैसे उठाए और जरा नर्म होकर कहा, "नाराज न हों। हम टके के आदमी, इतनी गुंजाइश कहाँ कि उधार सौदा दें, जमदार साहब! लीजिए चटनी चखिए, क्या नफ़ीस बनाई है। ये मियाँ कहते हैं - बासी है।"

उसने रक़ाबी में गर्मागर्म फुल्कियाँ और चटनी रख दी। जमादार साहब ने खुश होकर कहा, "ये फुल्कियाँ-चटनी तो तुम लखनऊ में बनाने वाले एक ही हो।"

"हुज़ूर यह आँच का खेल है, निगाह चूकी कि बिगड़ा।"

"भअई बड़ी कारीगरी का काम है, बस तुम्हारा ही दम है। पैसों का खयाल न करना, हाँ, बस तनख्वाय मिली कि तुम्हारे पैसे खरे। अजी बरसों से हम तुम्हारी दुकान से फुल्कियाँ लेते हैं। अब चलता हूँ। हसनू की दुकान से धेले का तम्बाकू और रज्जब कूंजड़े से धेले की अरबियाँ लेनी है। मगर यार हसनू का जंगी हुक्का हर वक्त तैयार रहता है। उर से जानेवाले पर लाजिम है कि एक कश जरूर लगाए। सौदा ले या न ले। ओफ्फो, दो पैसे की अफीम की पुड़या भी लेनी है। लो भई, अब तो सदर तक दौड़ना पड़ा।" जमादार तेजी से चल दिए।

चलते-चलते

कुछ लोगों ने मुझे मेल कर के "सोना और खून" उपन्यास को पढ़ने की इच्छा जाहिर की है और पूछा है कि क्या यह उपन्यास खरीदने के लिए उपलब्ध है? तो उनकी जानकारी के लिए मैं बता दूँ कि आचार्य चतुरसेन रचित सोना और खून उपन्यास चार भागों में हैं। चारों भाग आनलाइन खरीदी के लिए उपलब्ध है जिन्हें आप निम्न लिंक से खरीद सकते हैं


आचार्य चतुरसेन रचित सोना और खून भाग 1 यहाँ खरीदें
आचार्य चतुरसेन रचित सोना और खून भाग 2 यहाँ खरीदें
आचार्य चतुरसेन रचित सोना और खून भाग 3 यहाँ खरीदें
आचार्य चतुरसेन रचित सोना और खून भाग 4 यहाँ खरीदें

Friday, September 3, 2010

एक बार पढ़ा है और बार-बार पढ़ने की इच्छा है

मैं ऐसी रचनाओं की बात कर रहा हूँ जिन्हें बार-बार पढ़ने के बाद भी मैं नहीं अघाता पर उस बात पर आने के पहले यह बता दूँ कि इस पोस्ट का शीर्षक मैंने किस आधार पर दिया है। स्कूल के दिनों में मैंने 'किस्सा हातिमताई' पढ़ा था, जिसे बाद में फिर कभी पढ़ने का मौका ही नहीं मिला। हातिमताई से पूछे गए सात सवालों में से एक सवाल मेरी याददाश्त के अनुसार ऐसा था "एक बार देखा है और एक बार देखने की चाहत है"। मुझे लगा कि ऐसा ही कुछ शीर्षक शायद लोगों को आकर्षक लगे, सो मैंने इस पोस्ट का शीर्षक रख दिया "एक बार पढ़ा है और बार-बार पढ़ने की इच्छा है"। जिस प्रकार से किसी व्यक्ति का नाम अन्य लोगों को प्रभावित करती है उसी प्रकार से किसी पोस्ट का शीर्षक भी पाठकों को आकर्षित करता है। मेरा नाम यदि 'गोपाल कृष्ण अवधिया' ना होकर 'चिरकुट प्रसाद अवधिया' होता तो क्या लोग मुझसे प्रभावित होते? खैर, मेरे कहने का तात्पर्य है कि आखिर शीर्षक ही तो वह चीज होती है जो पाठकों की नजर में सबसे पहले आती है और यदि शीर्षक आकर्षक नहीं होगा तो पोस्ट को पढ़ेगा कौन?

तो मैं बता रहा था कि चन्द्रकान्ता सन्तति (देवकीन्नदन खत्री), गोदान (प्रेमचन्द), चित्रलेखा (भगवतीचरण वर्मा), वैशाली की नगरवधू और सोना और खून (आचार्य चतुरसेन) जैसी और भी अनेक रचनाएँ हैं जिन्हें बार-बार पढ़कर भी मैं नहीं अघाता। क्यों नहीं अघाता यह तो आप सोना और खून उपन्यास के निम्न रोचक अंश को पढ़कर ही जान पाएँगेः
दिल्ली के हज़रत निजामुद्दीन के मज़ार पर उस दिन बड़ी भीड़भाड़ थी। बेशुमार हिन्दू और मुसलमान स्त्री-पुरुष वहाँ आए थे। बहुत आ रहे थे, बहुत जा रहे थे। मज़ार का विस्तृत सहन स्त्री-पुरुषों से भरा था। हाजतमंद लोग मज़ार पर आकर दुआ-मुरादें माँग रहे थे। प्रसिद्ध था कि कोई ज़रूरतमन्द इस औलिया के दरगाह से बिना मुराद पूरी किए वापस नहीं लौटता। उर्स का जुलूस था। बहलियों, रथों, पालकियों और सवारियों का ताँता लग रहा था। शानदार मजलिस दरगाह पर जम रही थी। शागिर्द लोग और दूर-दूर के कव्वाल आए थै। दिल्ली के आस-पास के अकीदेवाले लोग हाज़िर थे। बहुत लोग फातिहा और दूसरे पवित्र पाठों का मन्द स्वर से उच्चारण कर रहे थे।

दो स्त्रियाँ बुर्का ओढ़े डोली से उतर कर धीरे-धीरे मज़ार की तरफ को चलीं। दरगाह की ड्योढ़ियों पर पहुँचकर दोनों ने बुर्का उठा दिया। उनमें एक अधेड़ उम्रे की मोटी-ताजी औरत थी। दूसरी असाधारण रूप-लावण्यवती बाला थी। अभी उसकी आयु चौदह बरस ही की होगी। वह फ़िरोज़ी रंग की ओढ़नी और जरी के काम का सुथना पहने थी। उसकी बड़ी-बड़ी कटोरी-सी आँखें मोती-सा रंग और ताजा सेब के समान चेहरा ऐसा लुभावना और अद्भुत था कि उसे देखकर उस पर से आँखें वापस खींच लेना असम्भव था।

दोनों ने दरगाह की ड्योढ़ियों पर जाकर घुटने टेक दिए। फूल और मिठाई चढ़ाई। मुजाविर ने दो फूल मज़ार से उठाकर बालिका को दिए। बालिका ने उन्हें आँखों से लगाया। वृद्धा ने कहा, "या हज़रत, मेरी बेटी को फरहत बख्शना।"

दोनों स्त्रियाँ वापस लौट चलीं। उन्हें इस बात का कुछ भी भान न था कि कोई उन्हें छिपी हुई नज़रों से देख रहा है।

परन्तु दो आदमी चुपचाप उन्हें देख रहे थे। एक की आयु पच्चीस के लगभग थी। रंग गोरा, बड़े-बड़े नेत्र, विशाल छाती और नोकदार नाक। स्पष्ट था कि कोई बड़ा आदमी छद्म वेश में है। इस व्यक्ति के शरीर पर साधारण वस्त्र थे। और वह खूब चौकन्ना होकर दरगाह में घूम रहा थअ। उसके पीछे उससे सटा हुआ दूसरा पुरुष था। यह पुरुष प्रौढ़ और कद्दावर था। वह परछाईं की भाँति उसके साथ था और उसकी प्रत्येक बात अदब से सुनता और जवाब देता थअ।

आगे वाले पुरुष ने कहा, "ज़मीर, देखा तूने उस गुलरू को?"

ज़मीर ने दबी ज़बान से कहा, "खुदाबन्द, हुक्म हो तो पता लगाऊँ?"

"जा डोली वाले कहारों से पूछ।"

ज़मीर ने एक चमचमाती अशर्फी कहार की हथेली पर रख दी। कहार आँखें फाड़-फाड़कर ज़मीर के मुँह की ओर देखने लगा। उसने कहा, "हुज़ूर क्या चाहते हैं?"

"खामोश", ज़मीर ने होंठों पर उँगली रखकर कहा, "यह कहो, सवारियाँ कहाँ से लाए हो?"

कहार ने झुककर ज़मीर के कान में कुछ कहा। ज़मीर सिर हिलाता हुआ लौटकर अपने स्वामी के पास आया। उसने हाथ बाँधकर कहा, "सब मालूम हो गया हुज़ूर।"

"उसे हासिल करना होगा।"

"जो हुक्म खुदाबन्द।"

"चाहे जिस भी कीमत पर।"

"जो हुक्म।"

दोनों भीड़ में मिल गए। डोली आँखों से ओझल हो गई।

उसी रात दोनों जआदमी एक अँधेरी गली में खड़े थे। सर्दी कड़ाके की और रात अँधेरी थी। गली में सन्नाटा था। ज़मीर ने कहा, "आलीजाह, कोठा तो यही है।"

"लेकिन खबरदार, मेरा नाम ज़ाहिर न हो।"

दोनों ऊपर चढ़ गए।

वेश्या का कोठा था। वहीं अधेड़ औरत रज़ाई लपेट छालियाँ कतर रही थी। नवागुन्तकों को उसने अपने साँप की-सी आँखों से घूरकर देखा। एक ने आँख ही आँख में संकेत किया। वृद्धा गम्भीर हो गई। दूसरे आगन्तुक ने कहा, "बड़ी बी, हम लोगों के आने से आपको कुछ तरद्दुद तो नहीं हुआ?"

"नहीं मेरे सरकार, यह तो आप ही की लौंडी का घर है। आराम से तशरीफ रखिए। और कहिए, बन्दी आपकी क्या खिदमत बजा लाए?"

इसी बीच दूसरे व्यक्ति ने कहा, "बड़ी बी, हुक्म हो तो ज़ीने की कुण्डी बन्द कर दूँ।" और उसने वृद्धा का संकेत पाकर द्वार बन्द कर दिया। अब वापस वृद्धा के निकट बैठकर उसने कहा, "बड़ी बी, हमारे सरकार तुम्हारी लड़की पर जी-जान से फिदा हैं। अगर तुम नाराज न हो तो इस बाबत कुछ बात करूँ?"

नायिका ने तन्त की बात उठती देखकर जरा तुनकमिज़ाजी से कहा, "यह तो सरकार की इनायत है, मगर आप जानते हैं, ये गंडेरियाँ नहीं हैं कि चार पैसे की खरीदी और चूस ली।"

वह व्यक्ति भी पूरा घाघ था। उसने कहा, "गंडेरियों की बात ही क्या है बड़ी बी, हर चीज के दाम हैं। और हर एक आदमी के बात करने का ढंग जुदा है। अगर तुम्हें नागवार गुज़रा हो तो हम लोग चले जाएँ।"

बुढ़िया नर्म पड़ गई। उसने जरा दबकर कहा, "आप इतने ही में नाराज हो गए, मैंने यही तो कहा था कि सरकार को हम जानते नहीं हैं। कौन हैं, क्या रुतबा है। सरा शहर जानता है यह ठिकाने का घराना है। मैं कुछ ऐसी रज़ील नहीं हूँ, आपके तुफ़ैल से बड़े-बड़े रईसज़ादों ने बन्दी की जूतियाँ सीधी की हैं।"

उस आदमी ने कड़े होकर कहा, "खैर, तो तुम्हारा जवाब क्या है?"

"बन्दी को क्या उज्र है? पर यह भी तो मालूम हो कि हुज़ूरेआली का इरादा क्या है?"

"वे चाहते हैं कि तुम्हारी लड़की को बेगम बनाएँ, वह खूब आराम से रहेगी। सरकार एक आला रईस हैं।"

बुढ़िया ने तपाक से कहा, "क्यों नहीं। बड़े-बड़े रईस यहाँ आए और यही सवाल किया। मगर मैंने अभी मंजूर नहीं किया। क्योंकि मेरा बेअन्दाज़ रुपया इसकी तालीम और परवरिश में खर्च हुआ है।"

अब अधीर होकर दूसरे पुरुष ने मुँह खोला। उसने कहा, "आखिर कितना, कुछ कहोगी भी?"

वेश्या ने चुंधी आँखें उस प्रभावशाली पुरुष के मुख पर डालकर कहा, "आलीज़ाह पचार हजार रुपया तो मेरा उसकी तालीम और परवरिश पर खर्च हो चुका है।"

दूसरे व्यक्ति ने कहा, "बड़ी बी, इतना अन्धेर क्यों करती हो!"

परन्तु बड़ी बी को बीच ही मे जवाब देने से रोककर प्रथम पुरुष ने कहा, "सौदे की जरूरत नहीं, यह लो।" उसने अपने वस्त्रों में छिपी हुई एक माला गले से उतारकर बुढ़िया के ऊपर फेंक दी। वह उठ खड़ा हुआ और बोला, "ज़मीर, उस परी पैकर को अपने हमराह ले आओ।"

ज़मीर ने कहा, "देखती क्या हो, दो लाख का माल है। अब तो पाँचों घी में और सिर कढ़ाई में! लखनऊ के बादशाह नसीरुद्दीन हैदर हैं। सफाई से चंडूल को फाँस लाया हूँ। अब इसमें से पचास हजार बन्दे को इनायत करो।"

बूढ़ी ने माला को चोली में छिपा  लिया। वह आनन्द से विह्वल होकर बेटी, बेटी पुकारने लगी। लड़की के आते ही वह उसके गले से लिपट गई। उसने कहा "मेरी बेटी, मलिका, अब तेरा इस बुढ़िया से बिछुड़ने का समय आ गया। जा, गरी माँ को भूल मत जाना। दोनों गले मिलकर रोईं। सलाह-मशविरे किए। पट्टियाँ पढ़ाई गईं। ज़मीर उसे डोली में बिठाकर वहाँ से चल दिया।

आचार्य चतुरसेन ने बहुत ही रोचकता के साथ इस कथा में आगे बताया है जिस नवाब नसीरुद्दीन ने एक वेश्या को खरीदने के लिए बात की बात में दो लाख रुपये खर्च कर कर दिए उसका खजाना उन दिनों खाली पड़ा था, बादशाह के अफसरों और कर्मचारियों को कई माह से तनख्वाह नहीं दिया गया था। हाथियों के खाने की व्यवस्था न हो पाने के कारण महावत उन हाथियों को हर तीन-चार दिनों में लखनऊ के बाजारों में खुलेआम छोड़ दिया करते थे वे हाथी बाजार के सभी खाने-पीने की जिन्सों को चट कर जाया करते थे।

मैं फिलहाल अपने अगले एक-दो पोस्टों में इस कथा को जारी रखूँगा इस उम्मीद के साथ कि आप लोगों को भी यह पसन्द आएगी।

चलते-चलते

कुछ लोगों ने मुझे मेल कर के "सोना और खून" उपन्यास को पढ़ने की इच्छा जाहिर की है और पूछा है कि क्या यह उपन्यास खरीदने के लिए उपलब्ध है? तो उनकी जानकारी के लिए मैं बता दूँ कि आचार्य चतुरसेन रचित सोना और खून उपन्यास चार भागों में हैं। चारों भाग आनलाइन खरीदी के लिए उपलब्ध है जिन्हें आप निम्न लिंक से खरीद सकते हैं:

आचार्य चतुरसेन रचित सोना और खून भाग 1 यहाँ खरीदें
आचार्य चतुरसेन रचित सोना और खून भाग 2 यहाँ खरीदें
आचार्य चतुरसेन रचित सोना और खून भाग 3 यहाँ खरीदें
आचार्य चतुरसेन रचित सोना और खून भाग 4 यहाँ खरीदें

Thursday, September 2, 2010

सठियाने वाली उम्र में ब्लोगिंग कर के तू कौन सा तुर्रमखां बन जाएगा?

पता नहीं किस झोंक में आईने के सामने खड़ा हो गया। आईने के सामने खड़ा हुआ ही था कि आवाज आई 'शर्म नहीं आती? सठियाने वाली उम्र में ब्लोगिंग करता है, क्या ऐसा करके समझता है कि तू बड़ा तुर्रमखां बन जाएगा'।

सुन कर आश्चर्य हुआ।, घर में उस दिन मेरे सिवा और कोई नहीं था, मैं अकेला ही था। इधर उधर देखने लगा कि आखिर ये आवाज कहाँ से आई? इतने में फिर से सुनाई पड़ा 'इधर उधर क्या देख रहा है? सामने देख, मैं तुझसे ही कह रहा हूँ'।

अरे, ये तो मेरी ही आवाज है और ठीक सामने से आ रही है। मैंने आइने को देखा तो मेरा प्रतिबिंब मुझसे कहने लगा, "हाँ हाँ, मैं तुझसे ही कह रहा हूँ कि सठियाने वाली उम्र में ब्लोगिंग कर के तू कौन सा तुर्रमखां बन जाएगा!"

मैं बोला, "भाई मेरे तुझे क्या ऐतराज है मेरे ब्लोगिंग करने पर? पर पहले ये बता कि तू है कौन?"

उसने जवाब दिया, "मैं तेरी 'अन्तरात्मा' हूँ।"

जवाब सुन कर मै भड़क उठा, "अबे क्यों झूठ बोल रहा है? 'अन्तरात्मा' नाम की चिड़िया आज के ज़माने में कहाँ पाई जाती है? वह तो एक ज़माने पहले ही मर चुकी है। फिर तू कहाँ से आ गया?

उसने मेरे भड़कने का बुरा नहीं माना, बोला, "यकीन करो कि मैं तुम्हारी अन्तरात्मा ही हूँ।"

मेरा गुस्सा कम नहीं हुआ, मैंने कहा, "मुझे क्या बेवकूफ़ समझते हो? मैंने कहा न कि 'अन्तरात्मा' नाम की चीज तो एक अरसे पहले ही मर चुकी है। फिल्मों में भी आइने के माध्यम से 'अन्तरात्मा' से हू-ब-हू करवाने की टेक्नीक आजकल खत्म हो गई है क्योंकि अन्तरात्मा नाम की कोई चीज होती ही नहीं है। 40-45 साल पहले अन्तरात्मा शायद मरी न रही हो और इसीलिए उस जमाने में यह टेक्नीक हुआ करती थी। जब अन्तरात्मा होती ही नहीं है तो फिर तू कहाँ से आ गया? क्या तेरा पुनर्जन्म हुआ है?"

उसने कहा, "अरे अब गुस्सा थूक भी दो यार, शान्त हो कर मेरी बात सुनो। वास्तव में मैं मरा नहीं था। सिर्फ 'कोमा' में चला गया था। 40 साल बाद 'कोमा' खत्म हुआ है और नींद टूट गई है।"

मैं बोला, "अच्छा नींद टूट गई है तो सिवा मुझे तंग करने के और कोई और काम नहीं रह गया है क्या तुम्हारे पास? मैंने तुमसे क्या परामर्श माँगा था कि सलाह देने चले आये?"

वो बोला, "नही भाई, मैं तुम्हें भला क्यों तंग करने चला। तुम और मैं तो एक ही हैं, अगर तुम्हें तंग करूंगा तो मैं स्वयं भी तंग हो जाउँगा। मैं तो केवल यह कहने आया था कि ये ब्लोगिंग व्लोगिंग नये जमाने की चीज है। नौजवानों के लिये है, तुम जैसे उम्रदराज लोगों के लिये नहीं। तुम्हीं बताओ कि आज तुम्हारी उम्र वाले कितने ब्लोगर हैं? तुम्हारे और अन्य ब्लॉगरों के बीच बहुत बड़ी खाई है 'जनरेशन गैप' का। तुम्हारे विचार अलग हैं और उनके अलग। वे टिप्पणियों को महत्व देते हैं तो तुम टिप्पणियों को गौण बता कर पाठकों की संख्या को महत्वपूर्ण बताते हो। तुम्हारे चिल्लाने से क्या लोग बदल जाएँगे या फिर जमाना बदल जाएगा? याद रखो तुम्हारी आवाज सिर्फ 'नक्कारखाने में तूती की आवाज' है। तुम कुछ भी नहीं कर सकते। तो तुम क्यों 'सींग कटा कर बछड़ों में शामिल होने' की कोशिश कर रहे हो? सठियाने की उम्र में ब्लोगिंग करके क्यों अपनी छीछालेदर करवाने पर तुले हो। बाज आ जाओ और बन्द कर दो अपनी ब्लोगिंग।"

मैंने कहा, "जब तुम 40 साल से कोमा में थे तो तुम्हें कैसे पता कि मेरी उम्र सठियाने की हो गई है? इन 40 सालों में क्या क्या बदल चुका है तुम जानते हो? क्या तुम जानते हो कि 'इकन्नी', 'दुआन्नी', 'चवन्नी' खत्म हो चुके हैं। 'मन-सेर-छटाक' के स्थान पर 'क्विंटल-किलो-ग्राम' आ गया है। 'तोला-माशा-रत्ती' को अब कोई नहीं जानता। गाँव कस्बे में, कस्बे नगर में और नगर महानगर में बदल चुके हैं। तुम्हारे कोमा में जाने के समय जो थोड़ी-सी ईमानदारी बची थी वह भी पूरी तरह से खत्म हो गई है। उस जमाने में नेता अगर खुद भर पेट खाता था तो जनता को भी थोड़ी सी खाने के लिये देता था, वैसे ही जैसे कि अगर कोई मटन खाता है तो हड्डी कुत्ते को डाल देता है, पर अब तो हड्डी तक को चबा लिया जाता है वो भी बिना डकार लिये। शिक्षा, चिकित्सा आदि सेवा कार्य से व्यसाय बन गये हैं। अब क्या क्या गिनाऊँ, और भी बहुत सारी बातें हैं। क्या जानते हो ये सब कुछ?"

उसने झेंप कर उत्तर दिया, "नहीं, ये सब तो मैं नहीं जानता।"

मैं बोला, "जब तुम ये सब नहीं जानते तो कैसे कह सकते हो कि मेरी सठियाने की उम्र है। दोस्त मेरे, मैं सठियाने की उम्र में नहीं हूँ बल्कि बहुत साल पहले ही से सठिया चुका हूँ। तुम्हें बता दूँ कि पहले आदमी साठ साल में सठियाता था पर अब कभी भी सठिया सकता है। सठियाने के लिये अब उम्र का कोई बन्धन नहीं रह गया है। और मैं ब्लोगिंग इसलिये करता हूँ क्योंकि मैं सठिया गया हूँ। ब्लोगिंग या तो सयाना आदमी कर सकता है या कोई नादान या फिर कोई सठियाया हुआ आदमी। ब्लोगिंग को जन्म दिया था सयाने आदमी ने। 'डॉलर', 'पाउंड', 'यूरो' जमा करने के उद्देश्य से, मतलब कि कमाई करने के लिये, अपनी भरी हुई तिजोरी को और अधिक भरने के लिये। पर ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो सिर्फ अपनी सन्तुष्टि के लिये, कमाई करने के बजाय अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई को खर्च कर के भी, ब्लोगिंग करते हैं। ऐसे लोग नादान होते हैं या फिर सठियाये हुये। अब बताओ मुझे कि मैं ब्लोगिंग कर रहा हूँ तो क्या मैं सठिया नहीं गया हूँ?"

मेरी बात सुन कर उसे ऐसा मानसिक आघात लगा कि वो फिर से 'कोमा' में चला गया।

Wednesday, September 1, 2010

कृष्ण और राम – असमानता में समानता

श्री कृष्ण और श्री राम दोनों ही भगवान विष्णु के अवतार हैं किन्तु यदि देखा जाए तो दोनों का चरित्र एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत प्रतीत होते हैं।

श्री राम का जन्म त्रेता युग में चैत्र शुक्ल नवमी को दिन के ठीक बारह बजे हुआ था जबकि श्री कृष्ण का जन्म द्वापर युग में भादों के कृष्णपक्ष अष्टमी को रात्रि के बारह बजे हुआ। जहाँ राम के जन्म के समय चारों ओर उजाला ही उजाला है वहीं कृष्ण के जन्म के समय घटाटोप अंधेरा है, मूसलाधार वर्षा होने के कारण अंधेरे की कालिमा अत्यधिक बढ़ गई है। सिर्फ रात और दिन तथा उजाला और अंधेरा का ही अन्तर नहीं है बल्कि पंचांग के हिसाब से तिथि भी एकदम विपरीत है। हिन्दू वर्ष बारह चन्द्रमासों का होता है और चैत्र माह से ठीक छः माह बीतने के बाद भादों माह आता है। जहाँ राम का जन्म शुक्लपक्ष में हुआ है वहीं कृष्ण का जन्म कृष्णपक्ष में हुआ है।

दूसरा बहुत बड़ा अन्तर है दोनों के वैवाहिक जीवन में। राम एकपत्नी व्रत रखते हैं तो कृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ हैं। राम स्वयं को सद् गृहस्थ दर्शाते हैं जबकि देखा जाये तो गृहस्थी का सुख उन्हें नहीं के बराबर ही मिला है। विवाह के कुछ दिनों पश्चात ही वनवास हो जाता है। वन में भी रावण उनकी पत्नी को हर कर ले जाता है। रावण का वध कर के पत्नी को जब वे वापस लाते हैं तो लोकापवाद के भय से उन्हें पत्नी का त्याग करना पड़ जाता है। तात्पर्य यह कि गृहस्थी का सुख उन्हें मिला ही नहीं फिर भी वे स्वयं को सद् गृहस्थ कहते हैं। इसके ठीक विपरीत कृष्ण को सदैव ही गृहस्थी का सुख मिला है, रुक्मणी; जाम्बवन्ती; सत्यभामा; कालिन्दी; मित्रबिन्दा; सत्या; भद्रा; लक्ष्मणा आठ पटरानियों के साथ ही साथ उनकी शेष सभी रानियाँ सदैव उनकी सेवा में प्रस्तुत रहती हैं किन्तु वे स्वयं को ब्रह्मचारी कहते हैं। जी हाँ अभिमन्यु के वध के पश्चात् जब सुभद्रा को मोह हो जाता है तो वे स्वयं के ब्रह्मचर्य शक्ति से ही सुभद्रा से अभिमन्यु की आत्मा का मिलाप करा के उनका मोह भंग करते हैं।

श्री राम मर्यादापुरषोत्तम कहलाते हैं क्योंकि उन्होंने सभी कार्य मर्यादा में रह कर ही किया किन्तु श्री कृष्ण ने मर्यादा को कभी बहुत अधिक महत्व नहीं दिया, अर्जुन की सहायता करने के लिये अपना वचन भंग करके शस्त्र धारण कर लिया, द्रोणाचार्य के वध के लिये धर्मराज युधिष्ठिर को असत्य का सहारा लेने के लिये प्रेरित कर दिया।

राम अपने मित्रों को बिना माँगे ही उनकी वांछित वस्तु दे देते हैं जैसे कि सुग्रीव और विभीषण को उन्होंने बिना माँगे ही क्रमशः बालि और रावण का राज्य प्रदान कर दिया। इसके विपरीत कृष्ण ने अपने मित्र सुदामा को उसके याचना करने के बाद ही वैभव प्रदान किया।

देखा जाये तो बहुत सारी विपरीतियाँ हैं दोनों अवतारों में किन्तु सभी विपरीतियों के बावजूद भी सबसे बड़ी समानता है कि दोनों अवतारों ने अपने काल में लोगों को त्रास, अन्याय, अधर्म आदि से मुक्ति दिलाई।

चलते-चलते

कृष्ण एक असाधारण पुरुष

चाहे कोई कृष्ण को अवतार माने या केवल एक ऐतिहासिक पात्र माने पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि वे एक असाधारण पुरुष थे। यही कारण है कि पौराणिक कथाओं से लेकर मध्यकालीन कवियों कि रचनाओं तक में वे एक प्रमुख पात्र रहे हैं। उनका व्यक्तित्व इतना असाधारण था कि न केवल हिन्दू बल्कि अन्य धर्मावलम्बियों में भी कृष्ण के भक्त पाये जाते हैं।

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भी श्री कृष्ण का विशेष व्यक्तित्व रहा है और इसीलिये भगवान विष्णु के दस अवतारों में से सिर्फ कृष्णावतार को ही पूर्णावतार माना गया है क्योंकि सभी दस अवतारों में सिर्फ श्री कृष्ण ही सोलह कलाओं से परिपूर्ण थे जो कि उन्हें पूर्णत्व प्रदान करता है।

गीता में श्री कृष्ण ने 'कर्म करो और फल की चिंता मत करो' कह कर बहुत ही सरल शब्दों में समस्त मानव जाति को जीवन के गूढ़ रहस्य से परिचय करवा दिया है। वास्तव में उनका यह संदेश किसी जाति, सम्प्रदाय या धर्मविशेष के लिये न होकर समस्त मानव जाति के लिये है।

कृष्ण जैसा अद्भुत तथा महान चरित्र न तो उनके जन्म के पहले ही कभी देखने में आया और न ही बाद में कभी आयेगा। यह चरित्र तो भूतो न भविष्यति बन कर रह गया है। इसी कारण से समस्त विश्व में कृष्ण के अनुयायी पाये जाते हैं।