Saturday, May 21, 2011

मोगरे की महक... खुले आकाश में झिलमिलाते तारे... और आँगन में रात्रि विश्राम...

समय कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चल पाता। चालीस-पैंतालीस साल का लम्बा अरसा गुजर गया पर लगता है कि अभी कल ही की तो बात है जबकि इन्हीं गर्मी के दिनों में मैं शाम का धुंधलका होते ही भगवान भास्कर के प्रखर ताप से तप्त घर के आँगन को ठण्डा करने के लिए उसमें बाल्टी-बाल्टी पानी डाला करता था। पानी के आँगन की भूमि के स्पर्श करते ही भाप का भभूका-सा उठने लगता था। ज्यों-ज्यों पानी अधिक पड़ते जाता था, भाप निकलना कम होते जाता था और दस-बारह बाल्टी पानी डाल लेने पर भाप निकलना बिल्कुल बंद हो जाता था। घण्टे-डेढ़ घण्टे के भीतर ही आँगन इतना ठण्डा हो जाता था कि उसकी शीतलता में उस भीषण गर्मी की रात में आराम से सोया जा सकता था। आँगन में खाटें बिछा दी जाती थीं और रात्रि भोजन के पश्चात् कुछ घूमने-घामने के बाद घर के सभी सदस्य अपनी-अपनी खटिया पर पड़ जाया करते थे। उन दिनों रायपुर सीमेंट-कंक्रीट का जंगल नहीं बना था, कम से कम हमारी पुरानी बस्ती क्षेत्र में तो प्रायः खपरैल वाले मकान ही थे इसलिए रात्रि के बढ़ने की गति के साथ हवा में ठण्डक भी बढ़ती जाती थी। हाँ नवतपा के दिनों में जब ग्रीष्म अपने चरम पर पहुँचने लगता था तो रात्रि में वायु का प्रवाह एकदम से थम जाया करता था और तब खटिया में पड़े-पड़े हाथ पंखा लेकर डुलाना मजबूरी बन जाया करती थी क्योंकि मेरे घर में उन दिनों बिजली का केवल एक ही टेबल-फैन हुआ करता था जो कि घर्र-घर्र करके घूमने के बावजूद भी घर के सभी सदस्यों को को हवा देने के लिए बिल्कुल ही अपर्याप्त था।

आँगन के एक कोने में एक छोटी सी फुलवारी थी जिसमें हमारे बाबूजी गुलाब और मोगरे लगाया करते थे। मैं उस फुलवारी के पास ही स्टूल रखकर उस पर टेबल-फैन रखकर चला दिया करता था। टेबल-फैन की हवा यद्यपि गर्मी को शान्त करने के लिए अपर्याप्त होती थी किन्तु मोगरे के फूलों की महक को हम तक पहुँचाने में अवश्य ही कारगर होती थी। मोगरे की उस भीनी-भीनी महक से अभिभूत मैं घण्टों आँगन के ऊपर खुले आकाश में झिलमिलाते तारों को देखा करता था। ध्रुव तारा तो खैर दिखाई न दे पाता था किन्तु अन्य तारों के सहित सप्तर्षि तारों को देखना मुझे बहुत ही भला लगता था। रात में जब कभी भी नींद खुलती थी, सप्तर्षियों को देखना मैं नहीं भूला करता था क्योंकि उनकी परिवर्तित स्थिति से मैं अनुमान लगा लिया करता था कि रात्रि कितनी बीत चुकी है। ब्राह्म मुहूर्त आने तक सप्तर्षियों की स्थिति रात्रि के आरम्भ की स्थिति के बिल्कुल विपरीत हो जाया करती थी।

और आज वही ग्रीष्म ऋतु है कि मैं अपने कमरे में कूलर की हवा में सोता हूँ जहाँ न तो मोगरे की महक है, न खुला आकाश और न वो झिलमिलाते तारे, हाँ उन दिनों की यादें अवश्य हैं।

8 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आज तो सच ही बचपन की याद दिला दी ... अब घर भी कहाँ हैं ऐसे जो आँगन में सोया जा सके ...
माचिस की डिब्बी जैसे घरों में क्या आसमां और क्या तारे देखें ?

Rahul Singh said...

शीतल और खुशबू भरी पोस्‍ट.

संगीता पुरी said...

सिर्फ यादें ही रह जाती हैं पुरानी बातों की !!

मनोज कुमार said...

बदलते समय और बीते दिनों का अच्छा कन्ट्रास्ट दिखाया है आपने।

Khushdeep Sehgal said...

मोगरे की महक देने वाली नोस्टेलजिया पोस्ट...

जय हिंद...

Smart Indian said...

मोगरे से सुवासित पोस्ट!

Sadhana Vaid said...

बहुत सुन्दर आलेख ! अब तो आँगन वाले घर ही दुर्लभ हो गये हैं ! शाम होते ही अपने घर के आँगन में भर भर बाल्टी पानी से छिड़काव करना ! फिर सबकी बान की चारपाइयाँ बिछा उन पर बिस्तर लगाना ! और फिर देर रात तक ट्रांजिस्टर पर तामीले इरशाद के भूले बिसरे गीत सुनना आपने सब याद दिला दिया ! आभार आपका !

अजित गुप्ता का कोना said...

ऐसा ही बचपन हमारा था। पंखे तो घरों में एकाध ही होते थे और कूलर तो कोई जानता भी नही था। आंगन में सभी खाट डालकर सोते थे, पास ही बड़ा सारा मोगरे का बगीचा था, उसी की महक और ठण्‍डक तथा तारों को गिनना आज भी सकून देता है।