प्रकृति ने भाँति-भाँति के पुष्पों से अपना श्रृंगार कर लिया है। भारतवर्ष के प्रहरी हिमालय के क्षेत्रों में गिरे हुए हिमकणों ने हिमशिला का रूप धारण कर लिया है। वायव्य (उत्तर-पश्चिम) दिशा से तीव्र गति से प्रवाहित होती हुई शीतल समीर की लहरों ने आर्यावर्त को अपने आगोश में समेट लिया है जिसके परिणामस्वरूप लोग ठण्ड से ठिठुरने लगे हैं। यद्यपि प्रचण्ड शीत ने भगवान भास्कर की किरणों की प्रखरता को विनष्टप्राय कर दिया है फिर भी सूर्य-किरणों का स्पर्श प्रिय लगने लगा है। अग्नि की ऊष्मा आकर्षित करने लगी है। पृथ्वी अन्नपूर्णा बन गई है और गोरस की नदियाँ बहने लगी हैं।
उपरोक्त बातें इस बात का द्योतक हैं कि हेमन्त ऋतु के प्रस्थान के साथ ही शिशिर ऋतु का आगमन हो चुका है।
शिशिर ऋतु में फूलों के पौधे फूलों से लद जाते हैं। बाजार में नर्सरी से बिकने वाले पुष्पयुक्त पौधों की भरमार दिखाई देने लगती है। सब्जियों के पौधे तथा लताएँ अपने उत्पादन की चरम स्थिति में पहुँच जाती है। बाजार सब्जियों से पट-सा जाता है। भोजन अत्यन्त सुस्वादु लगने लगता है और रसना उसका रस लेते हुए अघाती तक नहीं है। जठराग्नि इतनी तेज हो जाती है कि कुछ भी और कितना भी खाओ, सब पच जाता है।
शिशिर ऋतु की अपनी अलग ही प्राकृतिक विलक्षणता है जिसका वर्णन 'सेनापति' अलौकिक रूप से इस प्रकार करते हैं
सिसिर में ससि को सरूप वाले सविताऊ,
घाम हू में चाँदनी की दुति दमकति है।
सेनापति होत सीतलता है सहज गुनी,
रजनी की झाँईं वासर में झलकति है॥
चाहत चकोर सूर ओर दृग छोर करि,
चकवा की छाती तजि धीर धसकति है।
चंद के भरम होत मोद है कुमुदिनी को,
ससि संक पंकजनी फूलि न सकति है॥
अर्थात - शिशिर ऋतु में सूर्य भी चन्द्रमा के स्वरूप वाला हो जाता है और धूप में चाँदनी का भास होने लगता है। 'सेनापति' कहते हैं कि इस ऋतु में शीतलता सौ गुनी बढ़ जाती है जिसके कारण दिन में भी रात्रि का आभास सा होने लगता है। सूर्य को चन्द्रमा समझकर चकवा पक्षी उसी की ओर देखने में मग्न हो जाता है और चकवी की छाती धड़कने लगती है। कुमुदनी भी सूर्य को चन्द्र समझकर मुदित हो खिल उठती है और कमल सूर्य के चन्द्र होने की शंका के कारण खिल नहीं पाता।
Wednesday, January 5, 2011
Monday, January 3, 2011
महमूद का अभियान
लेखकः आचार्य चतुरसेन
महमूद ने गुजरात पर चढ़ाई तो अवश्य की और सोमनाथ को भंग भी किया, गुजरात और सोमनाथ को लूटा भी, फिर भी उसने अपनी सत्ता हिन्द में स्थापित करने की चेष्टा नहीं की। उसने बहुत-से प्रदेशों को सर किया, फिर भी उनमें सूबाओं द्वारा अपनी सत्ता जमाने का उद्योग नहीं किया। वह एक साहसी योद्धा अवश्य था, परन्तु उसे साम्राज्य का शौक नहीं लगा, उसे तो सम्पत्ति की ही भूख थी। और यही कारण था कि सोमनाथ के पराभव होने के बाद गुजरात पर ऐसी भयानक विपत्ति आकने पर भी समग्र गुजरात के जीवन का प्रवाह महमूद की पीठ फेरते ही पूर्ववत चलता रहा। यह एक बड़े ही आश्चर्य का विषय था। वास्तव में वह युग ही दूसरा था। महमूद जिस ऊजड़ प्रदेश में रहता था, वहाँ अनन्त भू-विस्तार उसके अधीन था। इसलिए उसे धरती की भूख नहीं थी। अमर कीर्ति की लालसा थी - धन का लोभ था।
कुछ इतिहासकार महमूद को धर्मान्ध कहते हैं। और उनका कहना यह है कि उसने सोमनाथ की मूर्ति भंग करने के लिए ही यह जिहाद का झण्डा उठाया था, परन्तु कुछ इतिहासकार उसे लुटेरा कहते हैं। सम्भवतः दोनों ही बातों में सत्य हो, और इन्हीं भावनाओं से प्रेरित होकर महमूद ने ऐसे भारी-भारी अभियान किए हों। फिर भी इतना तो कहना ही पड़ेगा कि महमूद के दुस्साहस में उसकी प्रजा का पूरा-पूरा हाथ था। महमूद बादशा था, फिर भी प्रजा का सेवक था। यह जमाना वोटोक्रेसी अथवा मिलिटरी डिक्टेटरशिप का था। परन्तु राज्य का कारोबार डेमोक्रेसी पद्धति पर चलता था। आज डेमोक्रेसी का युग है, पर कार बार सब डिक्टेटरशिप की रीति पर चलते हैं। स्टालिन की सोवियत सरकार तो यह कहती रही कि स्वातन्त्र्य के लिए ही यह डिक्टेटरशिप है।
महमूद का यह युग गज़नी की ज़ाहोज़लाली, राजा और प्रजा के प्रेम, मुसलमानों की साहसप्रियता, भारतीय क्षत्रियों के अनैक्य तथा विजि प्रजा के साथ महमूद की उदारता और मूर्ति-पूजा का विकृत रूप प्रकट करता है।
ऐतिहासिक आधार पर नीचे लिखी बातें प्रमाणित हैं -
सोमनाथ के विनाश और जीर्णोद्धार का विवरण श्री अमृतलाल पाण्ड्या ने इस प्रकार दिया है -
इस प्रकार एक के बाद दूसरा आक्रमणकारी आता गया जाता गया, और सोमनाथदेव अपना चोला बदलता गया। वे सब आक्रमणकारी आज नहीं रहे, परन्तु देवाधिदेव सोमनाथ आज भी उसी स्थान पर सुप्रतिष्ठित हैं। सम्पूर्ण विश्व में आज के दिन सुपूजित इतना प्राचीन देवता कोई दूसरा नहीं है।
(सामग्री आचार्य चतुरसेन के उपन्यास "सोमनाथ" से साभार)
महमूद ने गुजरात पर चढ़ाई तो अवश्य की और सोमनाथ को भंग भी किया, गुजरात और सोमनाथ को लूटा भी, फिर भी उसने अपनी सत्ता हिन्द में स्थापित करने की चेष्टा नहीं की। उसने बहुत-से प्रदेशों को सर किया, फिर भी उनमें सूबाओं द्वारा अपनी सत्ता जमाने का उद्योग नहीं किया। वह एक साहसी योद्धा अवश्य था, परन्तु उसे साम्राज्य का शौक नहीं लगा, उसे तो सम्पत्ति की ही भूख थी। और यही कारण था कि सोमनाथ के पराभव होने के बाद गुजरात पर ऐसी भयानक विपत्ति आकने पर भी समग्र गुजरात के जीवन का प्रवाह महमूद की पीठ फेरते ही पूर्ववत चलता रहा। यह एक बड़े ही आश्चर्य का विषय था। वास्तव में वह युग ही दूसरा था। महमूद जिस ऊजड़ प्रदेश में रहता था, वहाँ अनन्त भू-विस्तार उसके अधीन था। इसलिए उसे धरती की भूख नहीं थी। अमर कीर्ति की लालसा थी - धन का लोभ था।
कुछ इतिहासकार महमूद को धर्मान्ध कहते हैं। और उनका कहना यह है कि उसने सोमनाथ की मूर्ति भंग करने के लिए ही यह जिहाद का झण्डा उठाया था, परन्तु कुछ इतिहासकार उसे लुटेरा कहते हैं। सम्भवतः दोनों ही बातों में सत्य हो, और इन्हीं भावनाओं से प्रेरित होकर महमूद ने ऐसे भारी-भारी अभियान किए हों। फिर भी इतना तो कहना ही पड़ेगा कि महमूद के दुस्साहस में उसकी प्रजा का पूरा-पूरा हाथ था। महमूद बादशा था, फिर भी प्रजा का सेवक था। यह जमाना वोटोक्रेसी अथवा मिलिटरी डिक्टेटरशिप का था। परन्तु राज्य का कारोबार डेमोक्रेसी पद्धति पर चलता था। आज डेमोक्रेसी का युग है, पर कार बार सब डिक्टेटरशिप की रीति पर चलते हैं। स्टालिन की सोवियत सरकार तो यह कहती रही कि स्वातन्त्र्य के लिए ही यह डिक्टेटरशिप है।
महमूद का यह युग गज़नी की ज़ाहोज़लाली, राजा और प्रजा के प्रेम, मुसलमानों की साहसप्रियता, भारतीय क्षत्रियों के अनैक्य तथा विजि प्रजा के साथ महमूद की उदारता और मूर्ति-पूजा का विकृत रूप प्रकट करता है।
ऐतिहासिक आधार पर नीचे लिखी बातें प्रमाणित हैं -
- ईस्वी सन् 1025 में महमूद ने आक्रमण किया।
- क्षत्रिय राजाओं के भय से उसे मरुस्थली की राह से आना पड़ा।
- रास्ते में गुर्जरेश्वर भीम के भय से उसे कच्छ के महारन से वापस जाना पड़ा।
- उसने सोमनाथ का मन्दिर तोड़ा।
- वह आया और चला गया। किन्तु गुजरात का राजकीय, सामाजिक और धार्मिक जीवन अभंग ही रहा। इस आक्रमण को इतना तुच्छ समझा गया कि हेमचन्द्र, सोमेश्वर और मेरुतुंग-जैसे इतिहासकारों ने उसकी कहीं चर्चा तक नहीं की।
- गुजरात की सत्ता और समृद्धि में कुछ भी कमी न आई, क्योंकि उसके सात ही वर्ष बाद 1032 में मन्त्रीश्वर विमलदेवशाह ने आबू पर आदिनाथ का मन्दिर बनवाया, जिसमें अठारह करोड़ रुपए खर्च हुए।
सोमनाथ के विनाश और जीर्णोद्धार का विवरण श्री अमृतलाल पाण्ड्या ने इस प्रकार दिया है -
विनाशः- | जीर्णोद्धारः- |
महमूद गज़नवी ईस्वी सन् 1024 | भीमदेव प्रथम, ईस्वी सन् 1026 कुमारपाल, ईस्वी सन् 1196 |
अलफ खान, ईस्वी सन् 1297 अहमदशाह, ईस्वी सन् 1314 शम्सखान, ईस्वी सन् 1318 | महीपाल, ईस्वी सन् 1325 |
मुजफ्फरखान दूसरा, ईस्वी सन् 1394 तातारखान, ईस्वी सन् 1520 औरंगजेब मारफत, ईस्वी सन् 1706 | अहिल्याबाई होल्कर, ईस्वी सन् 1765 |
इस प्रकार एक के बाद दूसरा आक्रमणकारी आता गया जाता गया, और सोमनाथदेव अपना चोला बदलता गया। वे सब आक्रमणकारी आज नहीं रहे, परन्तु देवाधिदेव सोमनाथ आज भी उसी स्थान पर सुप्रतिष्ठित हैं। सम्पूर्ण विश्व में आज के दिन सुपूजित इतना प्राचीन देवता कोई दूसरा नहीं है।
(सामग्री आचार्य चतुरसेन के उपन्यास "सोमनाथ" से साभार)
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