Wednesday, July 6, 2011

समय बीतते जाता है रिवाजें बदलती जाती हैं

वक्त बीतने के साथ ही साथ रीति-रिवाजें भी बदलती चली जाती हैं। एक समय था जबकि मेरे समाज में किसी का जन्म दिन सिर्फ हिन्दू तिथि के अनुसार ही मनाया जाता था, अंग्रेजी तिथि को कोई भी व्यक्ति उन दिनों किसी प्रकार का भी महत्व नहीं देता था। जन्म दिन मनाया भी जाता था तो बेहद सादगी के साथ। आँगन में आटे से रंगोली बना दी जाती थी,  रिश्तेदारों तथा परिचितों को निमन्त्रण दे दिया जाता था, उन्हें प्रेमपूर्वक सोहारी-बरा खिलाकर तृप्त किया जाता था और वे बच्चे को आशीर्वाद दे कर चले जाया करते थे। गिफ्ट आदि देने का कोई आडम्बर नहीं, बड़ों का आशीर्वाद को ही सबसे बड़ा उपहार माना जाता था।

और आज मेरे अपने घर में ही यदि किसी का जन्मदिन मनाना है तो अंग्रेजी तिथि और अंग्रेजी परम्परा के अनुसार मनाया जाता है, केक काटकर।

आज ये बातें इसीलिए याद आ गईं क्योंकि आज आषाढ़ शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि है जो कि मेरी दादी के लिए विशेष दिन था क्योंकि आज के दिन ही वे उस पुरानी प्रथा के अनुसार मेरा जन्मदिन मनाया करती थीं।

आज दादी भी नहीं रहीं और वह प्रथा भी।

Monday, July 4, 2011

मन्दिर के तहखाने से मिली विपुल धन राशि क्या अब आज के सफेदपोश लुटेरों से बच पाएगी?

केरल के पद्मनाभ स्वामी मन्दिर से मिली एक लाख करोड़ की विशाल धनराशि सौभाग्य से आज तक तो तुर्क, मुगल, अग्रेज आदि लुटेरों से बची रही किन्तु प्रश्न यह उठता है कि क्या यह अब आज के सफेदपोश लुटेरों से बच पाएगी? क्या इस विपुल सम्पदा पर देश के धन को विदेशी बैंकों में जमा कराने वाले नर-गिद्धों की नजरें नहीं गड़ी होंगी? अवश्य ही उनकी नजरें गड़ी होंगी और अब तक उन्होंने मंडराना भी शुरू कर दिया होगा। बन्दर-बाँट की योजनाएँ बननी आरम्भ हो गई होंगी। कहीं यह धन भी तो लुटेरों के हाथ तो नहीं लग जाएगा? क्या इस देश की भूखी-नंगी जनता भूखी-नंगी ही रहेगी?

मन्दिर में मिला यह खजाना तो प्राचीन भारत के वैभव की एक बानगी मात्र है। न जाने ऐसे कितने खजाने भारत के अनेक अन्य मन्दिरों, रजवाड़ो, रियासतों में रही होंगी जिन्हें विदेशी लूट लूट कर ले गए। तुर्कों, यवनों आदि के द्वारा इस देश की धनराशि को अनेक बार लूट कर अपने देश ले जाने के बाद भी भारत माता की अकूत धन-सम्पदा में किंचित मात्र भी कमी नहीं आई। यह देश "सोने की चिड़िया ही बनी रही। दूध-दही की नदियाँ बहती थीं भारत भूमि में! रत्नगर्भा वसुन्धरा थी उसके पास! शाहजहाँ और औरंगजेब का जमाना आने तक भारत भूमि न जाने कितनी बार लुट चुकी थी पर उसकी अपार सम्पदा वैसी की वैसी ही बनी हुई थी। इस बात का प्रमाण यह है कि दुनिया का कोई भी इतिहासज्ञ शाहजहाँ की धन-दौलत का अनुमान नहीं लगा सका है। उसका स्वर्ण-रत्न-भण्डार संसार भर में अद्वितीय था। तीस करोड़ की सम्पदा तो उसे अकेले गोलकुण्डा से ही प्राप्त हुई थी। उसके धनागार में दो गुप्त हौज थे। एक में सोने और दूसरे में चाँदी का माल रखा जाता था। इन हौजों की लम्बाई सत्तर फुट और गहराई तीस फुट थी। उसने ठोस सोने की एक मोमबत्ती, जिसमें गोलकुण्डा का सबसे बहुमूल्य हीरा जड़ा था और जिसका मूल्य एक करोड़ रुपया था, मक्का में काबा की मस्जिद में भेंट की थी। लोग कहते थे कि उसके पास इतना धन था कि फ्रांस और पर्शिया के दोनों महाराज्यों के कोष मिलाकर भी उसकी बराबरी नहीं कर सकते थे। सोने के ठोस पायों पर बने हुए तख्त-ए-ताउस में दो मोर मोतियों और जवाहरात के बने थे। इसमें पचास हजार मिसकाल हीरे, मोती और दो लाख पच्चीस मिसकाल शुद्ध सोना लगा था, जिसकी कीमत सत्रहवीं शताब्दी में तिरपन करोड़ रुपये आँकी गई थी। इससे पूर्व इसके पिता जहांगीर के खजाने में एक सौ छियानवे मन सोना तथा डेढ़ हजार मन चाँदी, पचास हजार अस्सी पौंड बिना तराशे जवाहरात, एक सौ पौंड लालमणि, एक सौ पौंड पन्ना और छः सौ पौंड मोती थे। शाही फौज अफसरों की दो हजार तलवारों की मूठें रत्नजटित थीं। दीवाने-खास की एक सौ तीन कुर्सियाँ चाँदी की तथा पाँच सोने की थीं। तख्त-ए-ताउस के अलावा तीन ठोस चाँदी के तख्त और थे, जो प्रतिष्ठित राजवर्गी जनों के लिए थे। इनके अतिरिक्त सात रत्नजटित सोने के छोटे तख्त और थे। बादशाह के हमाम में जो टब सात फुट लम्बा और पाँच फुट चौड़ा था, उसकी कीमत दस करोड़ रुपये थी। शाही महल में पच्चीस टन सोने की तश्तरियाँ और बर्तन थे। वर्नियर कहता है कि बेगमें और शाहजादियाँ तो हर वक्त जवाहरात से लदी रहती थीं। जवाहरात किश्तियों में भरकर लाए जाते थे। नारियल के बराबर बड़े-बड़े लाल छेद करके वे गले में डाले रहती थीं। वे गले में रत्न, हीरे व मोतियों के हार, सिर में लाल व नीलम जड़ित मोतियों का गुच्छा, बाँहों में रत्नजटित बाजूबंद और दूसरे गहने नित्य पहने रहती थीं।

इस देश की नियति तो सदा से लुटना ही रहा है।

सन् 712 में दुर्दान्त लुटेरा मोहम्द बिन कासिम भारत से सत्रह हजार मन सोना, छः हजार ठोस सोने की मूर्तियाँ, जिनमें से एक मूर्ति तीस मन की थी, और असंख्य हीरे-मोती-माणिक्य लूट कर ले गया।

सन् 1000 से 1027 के दौरान महमूद गजनवी गुजरात के सोमनाथ मंदिर की अकूत धन-सम्पदा को लूट ले गया।

चौदहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में तैमूर केवल पन्द्रह दिन के भीतर ही लूट-खसोट और कत्ले-आम करके अथाह धन राशि के साथ वापस लौट गया।

इसके कोई सवा सौ वर्ष बाद बाबर ने आक्रमण किया। यद्यपि मुगलों द्वारा भारत को ही अपना घर बना लेने के कारण भारत की सम्पत्ति उनके काल में भारत में ही रही, किन्तु लूटा तो उन्होंने भी हमें।

फिर आए मक्कार और फरेबी अंग्रेजो व्यापारी के भेष में। भारत की इस अतुल सम्पदा को लूट कर इंग्लैंड भेज उन्होंने। लूट की इस धनराशि से ही उनके देश में प्रथम औद्यौगिक क्रान्ति हो पाई थी और विश्व का सर्वाधिक धनाड्य देश भारत कंगाल बनकर रह गया था। बावजूद इसके भारत की मेहनतकश जनता भारत को फिर से अमीर बनाना शुरू कर दिया किन्तु उनकी मेहनत की कमाई को इस देश के ही सफेदपोश बेईमान लुटेरों ने लूटना शुरू कर दिया और जनता की कमाई के चार सौ करोड़ रुपये पहुँच गए विदेशी बैंकों में।

आज तक तो यह देश लुटता ही चला आ रहा है पर क्या यह आगे भी लुटता चला जाएगा? क्या यही नियति है इस देश की?

भारत में राष्ट्रीय भावना की कमी हमेशा से ही रही। हमेशा से यह देश रजवाड़ों, रियासतों में बँटा रहा। कभी हम वैष्णव, शाक्त, तान्त्रिक, वाममार्गी, कापालिक, शैव और पाशुपत धर्म जैसे सैकड़ों मत-मतान्तर वाले बनकर बड़ी कट्टरता से परस्पर संघर्ष करते रहे तो कभी जाति भेद के आधार पर आपस में लड़ते रहे। हम कभी भी एक नहीं हो पाए और यह देश कभी भी एक राष्ट्र नहीं बन पाया। हमारी इस कमजोरी ने हमें हजार से भी अधिक वर्षों तक परतन्त्रता की बेड़ियाँ पहनाए रखी। विदेशी हम पर शासन करते रहे। और आज? आज देखने में तो यह देश एक राष्ट्र दिखाई देता है किन्तु बोली-भाषा-प्रान्तीयता आदि के आधार पर आपस में लड़ाई आज भी जारी है। आज भी हम एक नहीं हैं। ऐसे हाल में हम आज भी लूटे तो जाएँगे ही।

(इस पोस्ट में आँकड़े आचार्य चतुरसेन की कृतियों से लिए गए हैं।)

Friday, July 1, 2011

आज स्कूल में दुकान होते हैं, कल दुकानों में स्कूल हुआ करेगा

जुलाई का महीना आ गया। यह जुलाई का महीना हमारे लिए अपनी पिछली कक्षा की पुस्तकों को आधी कीमत में बेचने तथा नई कक्षा के लिए आधी कीमत में पुस्तकें खरीदने का हुआ करता था। हमारे शहर रायपुर के सत्ती बाजार स्थित श्री राम स्टोर्स, जो कि उन दिनों पुरानी पुस्तकें खरीदने तथा बेचने का एकमात्र स्थान हुआ करता था, के सामने स्कूल के विद्यार्थियों की भीड़ जमा होती थी। बच्चे आते थे श्री राम स्टोर्स में अपनी किताबें बेचकर अगली कक्षा की किताबें खरीदने के उद्देश्य से किन्तु कुछ पैसे बचाने की लालच में स्वयं एक दूसरे से ही खरीदना और बेचना शुरू कर दिया करते थे। एक दूसरे से वार्तालाप शुरू हो जाया करता था - "ए तेरे को चौथी कक्षा का सामाजिक अध्ययन चाहिए क्या?" "नहीं मुझे तो सामान्य विज्ञान की पुस्तक चाहिए" "तेरे पास बाल भारती है क्या?" और दुकान संचालक डाँट-डाँट कर उन्हें भगाना शुरू कर देता था क्योंकि उससे उसका धंधा जो चौपट होने लगता था। थोड़ी देर के लिए तो बच्चे दूर भाग जाते थे पर कुछ ही देर बाद फिर से वहीं इकट्ठे होकर अपना वही काम शुरू कर देते थे।

पर आज के स्कूलों में तो हर साल ही पुस्तकों को बदल देने की परिपाटी चल पड़ी है। क्यों न चले आखिर? यदि बच्चे पुरानी पुस्तकों को आपस में एक-दूसरे को बेचने-खरीदने लगें तो स्कूलों से या स्कूल द्वारा नियत दुकानों से पुस्तकें कौन खरीदेगा? स्कूलों को मिलने वाले कमीशन का क्या होगा? आज तो स्कूलों में न केवल कापी-किताब बल्कि वस्त्र, टाई, जूते, मोजे सभी कुछ बिक रहे हैं। आज तो स्कूल में ही दुकान है पर लगता है कि आने वाले दिनों में दुकानों में स्कूल हुआ करेगा।