Friday, October 7, 2011

भारतीय फिल्मों में गीतों का चलन

बिरला ही कोई व्यक्ति होगा जो फिल्मी गीतों का दीवाना न हो। भारतीय फिल्मों के गीत न केवल भारत में अपितु संसार भर के देशों में भी लोकप्रिय होते रहे हैं। एक जमाना था जब रूस में तो राज कपूर की फिल्मों के गीतों की तूती बोलती थी, रशियन लोग हिन्दी गाने गुनगुना कर खुश होते थे। फिल्मी गीतों पर आधारित रेडियो प्रोग्राम बिनाका गीतमाला ने कई दशकों तक रेडियो श्रोताओं को सम्मोहित कर के रखा था। रेडियो सीलोन, विविध भारती, आल इण्डिया रेडियो आदि का अस्तित्व ही फिल्मी गीतों से था।

भारत में सिनेमा के आने के पहले नाटक और नौटंकियों का चलन था। उस जमाने में बहुत सी नौटंकी कम्पनियाँ हुआ करती थीं जो कि पूरे भारत में अपना ताम-झाम लेकर घूम-घूम कर नाटक-नौटंकी दिखाया करती थीं, भारत में जगह-जगह लगने वाले मेलों में तो इन नौटंकी कम्पनियों की धूम हुआ करती थी। फिल्म "तीसरी कसम" की नायिका तो ऐसी ही एक नौटंकी कम्पनी की हीरोइन ही थी तथा फिल्म "गीत गाता चल" में भी नौटंकी कम्पनियों का बहुत अच्छा सन्दर्भ है। इन नाटकों तथा नौटंकियों में संवाद के साथ गीत गाने का भी चलन था, वास्तव में लोग नाच-गाना देखने के लिए ही नौटंकियों में जाया करते थे। बाद में सिनेमा का चलन हो जाने पर शनैः-शनैः नौटंकी कम्पनियाँ समाप्त हो गईं तथा सिनेमा को ही नाटक-नौटंकियों का एक नया रूप माना जाने लगा। यही कारण है कि फिल्मों में गानों का रिवाज चल निकला।

सिनेमा के प्रारम्भिक दिनों में फिल्म में काम सिर्फ उन्हीं कलाकारों को काम मिलता था जिन्हें गायन तथा संगीत का बी ज्ञान हो क्योंकि उन्हें अपना गाना खुद ही गाना पड़ता था। फिर सन् 1935 में न्यू थियेटर ने अपनी फिल्म "धूप छाँव" में प्लेबैक गायन का सिस्टम शुरू किया और इस नये सिस्टम ने भारतीय फिल्म संगीत के स्वरूप को ही पूरी तरह से बदल डाला। प्रभात पिक्चर्स ने केशवराव भोले को, जिन्हें कि पश्चिमी ऑर्केस्ट्रा का पर्याप्त अनुभव था, गानों में पियानो, हवायन गिटार और वायलिन जैसे पाश्चात्य वाद्ययंत्रों के प्रयोग के लिए नियुक्त किया जिसके परिणामस्वरूप शान्ता आप्टे, जिसके ऊपर फिल्म "दुनिया ना माने" (1937) में एक पूर्ण अंग्रेजी गाना फिल्माया गया, प्रभात पिक्चर्स की अग्रणी कलाकार बन गईं। सन् 1939 में व्ही. शान्तारम ने फिल्म "आदमी" में एक बहुभाषी गाना रखा। प्लेबैक सिस्टम का प्रयोग शुरू हो जाने पर ऐसे गायकों को भी फिल्मों में गाने का मौका मिलने लगा जिन्हें अभिनय में रुचि नहीं थी। पारुल घोष, अमीरबाई कर्नाटकी, जोहराबाई अम्बालावाली, राजकुमारी, अरुण कुमार आदि शरू-शुरू के प्लेबैक सिंगर थे।

के.एल. सहगल, पंकज मलिक, के.सी. डे आदि के समय में गाने सिर्फ शास्त्रीय संगीत के आधार पर बनाये जाते थे और उनमें बहुत कम वाद्य यन्त्रों का प्रयोग किया जाता था किन्तु प्लेबैक सिस्टम आने के बाद गानों में लोक-संगीत तथा पाश्चात्य संगीत का भी पुट आने लगा। भारत के अनेक क्षेत्रों में अनेक प्रकार के लोक-संगीत होने का बहुत बड़ा फायदा फिल्म संगीत को मिलने लगा। फिल्मी गीतों की धुनों में बंगाली, पंजाबी आदि लोक-संगीतों का प्रयोग करके गानों को मधुरतर से मधुरतम रूप दिया जाने लगा और लोग उन धुनों पर थिरकने लगे। लोगों में उन दिनों फिल्मी गानों के प्रति उन्माद का कैसा आलम था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सन् 1925 में बनी फिल्म इन्द्रसभा में 71 गाने थे।

कालान्तर में नौशाद, सी. रामचंद्र, चित्रगुप्त, हेमंत कुमार, रोशन, एस.डी. बर्मन, खय्याम, जयदेव, सलिल चौधरी, मदन मोहन, शंकर जयकिशन, ओ.पी. नैयर, कल्याणजी आनंदजी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर.डी. बर्मन जैसे तीव्र कल्पनाशील संगीतकारों और मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, किशोर कुमार, महेन्द्र कपूर, लता मंगेशकर, सुमन कल्याणपुर, आशा भोंसले जैसे प्रतिभावान गायक गायिकाओं के संगम से फिल्म संगीत दिन-प्रतिदिन निखरता ही चला गया।

सन् 1950 से 1975-80 तक भारतीय फिल्म संगीत का स्वर्णकाल रहा। फिर उसके बाद मैलोडियस संगीत ह्रास के दिन आने लगे, फिल्मी गानों में मैलोडी के स्थान पर हारमोनी बढ़ने लग गई और फिल्म संगीत का एक नया रूप आया जिसका चलन अभी भी है।

Saturday, October 1, 2011

हिन्दी की प्यारी बहन उर्दू

जब भारत की अनेक भाषाओं की बात चले तो उर्दू को भुला देना बहुत मुश्किल होता है। देखा जाए तो हिन्दी और उर्दू ऐसी दो ऐसी बहनें हैं जो एक-दूसरे के बिना रह ही नहीं सकतीं। रोजमर्रा की बोलचाल वाली हमारी हिन्दी में सैकड़ों ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है जो कि उर्दू के हैं और हिन्दी ने उसे अपना लिया है - जैसे कि हम "विशेष रूप से" कहने के स्थान पर प्रायः "खास तौर पर" का इस्तेमाल (अब यहीं देखिए कि मैंने "प्रयोग" जैसे हिन्दी शब्द के स्थान पर "इस्तेमाल" जैसा उर्दू शब्द टाइप कर डाला) करते हैं। हमें कभी भी नहीं लगता कि "खास" (विशेष), "तौर" (रूप या प्रकार), "शख्स" (व्यक्ति) "सुबह" (प्रातः), "आरजू" (अभिलाषा), "रिश्ता" (सम्बन्ध) इत्यादि शब्द हिन्दी के न होकर उर्दू के हैं, उल्टे हमें ये सारे शब्द हिन्दी के ही लगते हैं। इसी प्रकार से उर्दू के विद्वान भी सैकड़ों हिन्दी शब्दों को अपनी उर्दू रचना में शामिल कर लेते हैं। बिना एक दूसरे के शब्दों को अपनाए हिन्दी और उर्दू में से किसी भी एक का काम चल ही नहीं सकता। हिन्दी के सुविख्यात साहित्यकार प्रेमचंद जी की रचनाओं में न केवल उर्दू शब्दों के भरमार मिलते हैं बल्कि उन्होंने अपनी कृतियों को उर्दू लिपि में ही लिखा था।

यह भी सही है कि आम लोगों के बीच हिन्दी के चलन में आने बहुत पहले ही से उर्दू का चलन था। यही कारण है कि हिन्दी के आरम्भिक दिनों की रचनाओं में उर्दू शब्दों की बहुतायत पाई जाती है। देवकीनन्दन खत्री जी, जिन्होंने अपने जमाने में हिन्दी को सबसे अधिक पाठक दिए, जानते थे कि उन दिनों उर्दू का चलन हिन्दी की अपेक्षा बहुत ज्यादा है इसीलिए उन्होंने अपने उपन्यास "चन्द्रकान्ता" के आरम्भ में ढेर सारे उर्दू शब्दों का प्रयोग किया और "चन्द्रकान्ता सन्तति" के अन्त तक पहुँचते-पहुँचते शनैः-शनैः उनका प्रयोग कम करते हुए हिन्दी के अधिक से अधिक शब्दों का प्रयोग किया है।

उर्दू वास्तव में तुर्की का एक शब्द है जिसका अर्थ होता है "पराया" या "खानाबदोश"। हिन्दी की तरह ही उर्दू का जन्म भारत में हुआ है और यह भाषा कैसे बनी यह जानना भी बहुत रोचक है। मुगल शासनकाल में उनकी सैनिक छावनी में फारसी, अरबी, हिन्दी तथा हिन्दी की विभिन्न उपभाषाओं के जानने वाले सैनिक एक साथ रहा करते थे जिन्होंने आपस की बोलचाल के लिए एक नई भाषा विकसित कर ली जो कि उर्दू कहलाई। यही कारण है कि उर्दू को लोग अक्सर खेमे की या छावनी की भाषा कहा करते थे। अमीर खुसरो, मीर तक़ी मीर, मिर्जा ग़ालिब, फैज़ अहमद फैज़ जैसे विद्वानों को यह भाषा भा गई और उन्होंने इसका साहित्यिक रूप विकसित करना शुरू कर के इस एक प्रकार से कविता की भाषा बना दिया। ब्रिटिश शासन के आने पर इसने राज्य भाषा का दर्जा भी पा लिया। भारत-पाक विभाजन के समय भारत छोड़कर पाकिस्तान जाने वालों के साथ यह भाषा पाकिस्तान चली गई और वहाँ की मुख्य भाषा बन गई।

उर्दू भाषा की एक अलग प्रकार की अपनी मिठास है जो कि मुंशी प्रेमचंद, ख़्वाज़ा अहमद अब्बास, सआदत हसन मंटो, कृष्ण चन्दर, इस्मत चुग़ताई, बलवन्त सिंह जैसे अनेकों रचनाकारों को लुभाती रही। भारत में सवाक् सिनेमा के आने पर हिन्दुस्तानी भाषा अर्थात् उर्दू मिश्रित हिन्दी के रूप में यह फिल्मों में छा गई और आम जनता इससे अच्छी तरह से वाक़िफ़ होने लगी। आज भी भारत में उर्दू के कद्रदानों की संख्या बहुत अधिक है क्योंकि उर्दू खालिस तौर पर एक हिन्दुस्तानी ज़ुबान है।