Sunday, November 6, 2011

देव प्रबोधनी एकादशी अर्थात् देव उत्थान एकादशी अर्थात देव उठनी एकादशी

कार्तिक मान के शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन, जिसे कि देव प्रबोधनी एकादशी, देव उत्थान एकादशी तथा देव उठनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है, क्षीरसागर में शेषशय्या पर शयन करते हुए भगवान विष्णु के योगनिद्रा से जागृत होने का दिन है। इसी दिन से शादी-विवाह आदि जैसे समस्त मांगलिक कार्यों का, जो कि देव के शयन काल के दौरान नहीं मनाए जा सकते, पुनः आरम्भ हो जाता है। पद्मपुराण के अनुसार इस दिन भगवान शालिग्राम तथा माता तुलसी का विवाह हुआ था।

(चित्र iskconsurat.com से साभार)

आप सभी को देव प्रबोधनी एकादशी की शुभकामनाएँ!

भगवान शालिग्राम और माता तुलसी आपकी मनोकामनाएँ पूर्ण करें!

Saturday, November 5, 2011

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के विषय में कुछ जानकारी

जिन लोगों ने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना सर्वस्व यहाँ तक कि प्राण तक न्यौछावर कर दिया, हम लोगों में अधिकतर लोग उनके विषय में, दुर्भाग्य से, बहुत कम जानते हैं। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भी उन महान सच्चे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों में से एक हैं जिनके बलिदान का इस देश में सही आकलन नहीं हुआ। देखा जाए तो अपनी महान हस्तियों के विषय में न जानने या बहुत कम जानने के पीछे दोष हमारा नहीं बल्कि हमारी शिक्षा का है जिसने हमारे भीतर ऐसा संस्कार ही उत्पन्न नहीं होने दिया कि हम उनके विषय में जानने का कभी प्रयास करें। होश सम्भालने बाद से ही जो हमें "महात्मा गांधी की जय", "चाचा नेहरू जिन्दाबाद" जैसे नारे लगवाए गए हैं उनसे हमारे भीतर गहरे तक पैठ गया है कि देश को स्वतन्त्रता सिर्फ गांधी जी और नेहरू जी के कारण ही मिली। हमारे भीतर की इस भावना ने अन्य सच्चे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों को उनकी अपेक्षा गौण बना कर रख दिया। हमारे समय में तो स्कूल की पाठ्य-पुस्तकों में यदा-कदा "खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी...", "अमर शहीद भगत सिंह" जैसे पाठ होते भी थे किन्तु आज वह भी लुप्त हो गया है। ऐसी शिक्षा से कैसे जगेगी भावना अपने महान हस्तियों के बारे में जानने की? अस्तु।
  • नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था।
  • उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माता का नाम प्रभावती था।
  • सुभाष चन्द्र बोस अपनी माता-पिता की 14 सन्तानों में से नौवीं सन्तान थे।
  • जानकीदास बोस को ब्रिटिश सरकार ने रायबहादुर का खिताब दिया था और वे चाहते थे कि उनका पुत्र आई.सी.एस. (आज का आई.ए.एस.) अधिकारी बने, इसलिए पिता का मन रखने के लिए सुभाष चन्द्र बोस सन् 1920 में आई.सी.एस. अधिकारी बने।
  • महज एक साल बाद ही अर्थात् सन् 1921 में वे अंग्रेजों की नौकरी छोड़कर राजनीति में उतर आए।
  • सन् 1938 में सुभाष चन्द्र बोस बोस कांग्रेस के अध्यक्ष हुए। अध्यक्ष पद के लिए गांधी जी ने उन्हें चुना था और कांग्रेस का यह रवैया था कि जिसे गांधी जी चुन लेते थे वह अध्यक्ष बन ही जाता था क्योंकि हमने सुना है कि जो भी अध्यक्ष बनता था वह वास्तव में 'डमी' होता था, असली अध्यक्ष तो स्वयं गांधी जी होते थे और चुने गए अध्यक्ष को उनके ही निर्देशानुसार कार्य करना पड़ता था।
  • द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों की कठिनायों को मद्देनजर रखते हुए सुभाष चन्द्र बोस चाहते थे कि स्वतन्त्रता संग्राम को अधिक तीव्र गति से चलाया जाए किन्तु गांधी जी को उनके इस विचार से सहमत नहीं थे। परिणामस्वरूप बोस और गांधी के बीच मतभेद पैदा हो गया और गांधी जी ने उन्हें कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटाने के लिए कमर कस लिया।
  • गांधी जी के विरोध के बावजूद भी कांग्रेस के सन् 1939 के चुनाव में सुभाष चन्द्र बोस फिर से चुन कर आ गए। चुनाव में गांधी जी समर्थित पट्टाभि सीतारमैया को 1377 मत मिले जबकि सुभाष चन्द्र बोस को 1580। गांधी जी ने इसे पट्टाभि सीतारमैया की हार न मान कर अपनी हार माना।
  • गांधी जी तथा उनके सहयोगियों के व्यवहार से दुःखी होकर अन्ततः सुभाष चन्द्र बोस ने 29 अप्रैल, 1939 को कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।
  • तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सुभाषचन्द्र बोस को ग्यारह बार गिरफ्तार किया और अन्त में सन् 1933 में उन्हें देश निकाला दे दिया।
  • 1934 में पिताजी की मृत्यु पर तथा 1936 में काँग्रेस के (लखनऊ) अधिवेशन में भाग लेने के लिए सुभाष चन्द्र बोस दो बार भारत आए, मगर दोनों ही बार ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर वापस देश से बाहर भेज दिया।
  • यूरोप में रहते हुए सुभाषचन्द्र बोस ने सन् 1933 से ’38 तक ऑस्ट्रिया, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, फ्राँस, जर्मनी, हंगरी, आयरलैण्ड, इटली, पोलैण्ड, रूमानिया, स्वीजरलैण्ड, तुर्की और युगोस्लाविया की यात्राएँ कर के यूरोप की राजनीतिक हलचल का गहन अध्ययन किया और उसके बाद भारत को स्वतन्त्र कराने के उद्देश्य से आजाद हिन्द फौज का गठन किया।
  • नेताजी का नारा था "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा"।
  • 18 अगस्त 1945 को हवाई जहाज से मांचुरिया की ओर जाते हुए व लापता हो गए तथा उसके बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये।
  • नेताजी की मृत्यु (?) आज तक इतिहास का एक रहस्य बना हुआ है?

Thursday, November 3, 2011

'तुमको पिया दिल दिया बड़े नाज से....' गाने के संगीत निर्देशक - जी.एस. कोहली

एक उच्च कोटि के फिल्म संगीत निर्देशक में जो प्रतिभाएँ होनी चाहिए, उन सभी प्रतिभाओं के होने के बावजूद भी संगीतकार जी.एस. कोहली को बतौर स्वतन्त्र संगीत निर्देशक के कुछ गिनी-चुनी कम बजट वाली तथा स्टंट फिल्में ही मिल पाईं। वैसे तो उन्होंने सन् 1960 में प्रदर्शित अपनी पहली ही फिल्म 'लम्बे हाथ' के गीत "प्यार की राह दिखा दुनिया को रोके जो नफरत की आँधी...." से अपनी पहचान बना ली थी, पर सर्वाधिक लोकप्रियता उन्हें सन् 1963 में प्रदर्शित फिल्म 'शिकारी' के गीत "तुमको पिया दिल दिया बड़े नाज से...." से ही मिली।

एक लम्बे समय तक संगीत निर्देशक ओ.पी. नैय्यर के सहायक रहे जी.एस. कोहली के संगीत में नैय्यर साहब के स्वर तथा रीदम शैली का प्रभाव स्पष्ट रूप से झलकता है। कोहली जी के संगीत में गायक कलाकारों के कण्ठस्वर के साथ बाँसुरी, सितार, सेक्सोफोन, गिटार, ग्रुप वायलिन आदि वाद्ययन्त्रों का संयोजन धुन को अत्यन्त कर्णप्रिय बना देता था, और उस पर ढोलक की विशिष्ट थाप तो धुन क मादकता से भर देता था। जरा याद करें 'अगर मैं पूछूँ जवाब दोगे ये दिल क्यों मेरा तड़प रहा है....', 'माँगी हैं दुआएँ हमने सनम इस दिल को धड़कना आ जाए...' जैसी गानों को! याद करके ही फड़क उठेंगे आप।

नैय्यर जी की तरह कोहली जी ने लता जी से कभी भी परहेज नहीं किया इसलिए कोहली जी के संगीत संयोजन में गाये लता जी के गानों को सुन कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि नैय्यर जी और लता जी का भी साथ बना होता तो वह 'सोने पर सुहागा; ही होता!

Tuesday, November 1, 2011

यदि सरदार पटेल ने दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति न दिखाई होती तो हैदराबाद भी भारत के लिए कश्मीर के जैसा ही हमेशा के लिए सरदर्द बन गया होता

जब पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस को भारत परतन्त्रता की बेड़ियों से आजाद हुआ तो उस समय लगभग 562 देशी रियासतें थीं जिन पर ब्रिटिश सरकार का हुकूमत नहीं था। उनमें से जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर को छोडक़र अधिकतर रियासतों ने स्वेज्छा से भारत में अपने विलय की स्वीकृति दे दी। जूनागढ़ का नवाब जूनागढ़ का विलय पाकिस्तान में चाहता था। नवाब के इस निर्णय के कारण जूनागढ़ में जन विद्रोह हो गया जिसके परिणामस्वरूप नवाब को पाकिस्तान भाग जाना पड़ा और जूनागढ़ पर भारत का अधिकार हो गया। हैदराबाद का निजाम हैदराबाद स्टेट को एक स्वतन्त्र देश का रूप देना चाहता था इसलिए उसने भारत में हैदराबाद के विलय कि स्वीकृति नहीं दी। यद्यपि भारत को 15 अगस्त 1947 के दिन स्वतन्त्रता मिल चुकी थी किन्तु 18 सितम्बर 1948 तक, याने कि पूरे 1 वर्ष, 1 माह और 4 दिन तक हैदराबाद भारत से अलग ही रहा। इस पर तत्कालीन गृह मन्त्री सरदार पटेल ने हैदराबाद के नवाब की हेकड़ी दूर करने के लिए 13 सितम्बर 1948 को सैन्य कार्यवाही आरम्भ कर दिया (यद्यपि वह सैन्य कार्यवाही ही था किन्तु उसे पुलिस कार्यवाही बतलाया गया था जिसका नाम 'ऑपरेशन पोलो' रखा गया था)। भारत की सेना के समक्ष निजाम की सेना टिक नहीं सकी और उन्होंने 18 सितम्बर 1948 को समर्पण कर दिया। हैदराबाद के निजाम को विवश होकर भारतीय संघ में शामिल होना पड़ा।

सरदार पटेल शुरू से ही हैदराबाद पर सैनिक कार्यवाही करना चाहते थे किन्तु तत्कालीन प्रधान मन्त्री जवाहर लाल नेहरू सैनिक कार्यवाही के पक्ष में नहीं थे। उनका विचार था कि सैन्य कार्यवाही के द्वारा हैदराबाद मसले को सुलझाने में पूरा खतरा तथा अन्तर्राष्ट्रीय जटिलताएँ उत्पन्न होने की सम्भावना थी। वे चाहते थे कि हैदराबाद में की जानेवाली सैनिक कार्रवाई को स्थगित कर दिया जाए। तत्कालीन गवर्नर जनरल माउंटबेटन भी नेहरू के ही पक्ष में थे। नेहरू की इस असहमति के कारण ही हैदराबाद के ऊपर सैन्य कार्यवाही करने में सरदार पटेल को इतना विलम्ब हुआ। प्रख्यात कांग्रेसी नेता प्रो.एन.जी. रंगा की भी राय थी कि विलंब से की गई कार्रवाई के लिए नेहरू और माउंटबेटन जिम्मेदार हैं। रंगा लिखते हैं कि 'जवाहरलाल नेहरू की सलाहें मान ली होतीं तो हैदराबाद मामला उलझ जाता'।

अब आप ही सोचिए कि यदि सरदार पटेल ने उस समय अपनी दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए सैन्य कार्यवाही नहीं किया होता तो क्या आज हैदराबाद भी कश्मीर की तरह से भारत के लिए हमेशा का सरदर्द नहीं बन गया होता?

यहाँ पर उल्लेखनीय है कि एक बार सरदार पटेल ने स्वयं श्री एच.वी.कामत को बताया था कि ''यदि जवाहरलाल नेहरू और गोपालस्वामी आयंगर कश्मीर मुद्दे पर हस्तक्षेप न करते और उसे गृह मंत्रालय से अलग न करते तो मैं हैदराबाद की तरह ही इस मुद्दे को भी आसानी से देश-हित में सुलझा लेता।"

इन बातों को आप जानते हैं, फिर भी दोहरा रहा हूँ

  • शल्यचिकित्सा के जनक सुश्रुत हैं।
  • 'सिद्धान्त शिरोमणि' के रचयिता हैं सुविख्यात भारतीय गणितज्ञा एवं ज्योतिषाचार्य भास्कराचार्य!
  • पृथ्वी के द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने में लगने वाले समय की शुद्ध गणना आज से हजारों साल पहले कर ली थी। उनके अनुसार उसका मान 365.258756484 दिन था।
  • तथाकथित पाइथागोरस के प्रमेय को हजारों साल पहले बोधायन ने खोज लिया था। बोधायन को 'पाई' के मान की भी जानकारी थी।
  • नौकायन की कला का जन्म ६००० वर्ष पूर्व सिन्धु नदी में हुआ था।
  • तक्षशिला विश्वविद्यालय विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय है।
  • श्रीधराचार्य ने ग्यारहवीं शताब्दी में द्विघातीय समीकरणों का प्रतिपादन किया।
  • अठारहवीं सदी तक भारत संसार का सबसे सम्पन्न देश था।
  • भारत की सम्पदा से आकर्षित होकर क्रिस्टोफर कोलम्बस भारत को खोजने निकला था पर भारत को खोजने के लिए निकले कोलंबस ने अमेरिका को खोज डाला।
  • सैकड़ों वर्षों से चली आ रही गलतफ़हमी को दूर करते हुए अमेरिकी संस्था IEEE ने यह सिद्ध कर दिया है कि बेतार के संचार का आविष्कार मारकोनी ने नहीं बल्कि प्रोफ़ेसर जगदीश चन्द्र बोस ने किया था।