Thursday, December 1, 2011

होल्डर से जेल पेन तक

सन् 1958 में जब मैं दूसरी कक्षा पास करके तीसरी में पहुँचा तो पहली बार मेरे बस्ते में, जो कि कपड़े का एक साधारण झोला होता था, कापी, कलम और दवात को जगह मिली, दूसरी कक्षा तक तो सिर्फ स्लेट और पेंसिल से काम चल जाता था। कापी, कलम (होल्डर), दवात पाकर मैं बहुत खुश और उत्तेजित था। घर में बाबूजी (अपने पिताजी को मैं बाबूजी कहा करता था) के पास कोरस स्याही की गोली हमेशा मौजूद रहती थी, सो एक गोली के आधे टुकड़े को पीसकर अपनी छोटी सी दवात में घोल ली और कलम के निब को उसमें डुबो-डुबो कर कितना कुछ लिख मारा था मैंने, अपनी कापी में नहीं बल्कि बाबूजी, जो कि अपनी रचनाओं के लिए कोरे कागज का स्टॉक के लिए हमेशा रखा करते थे, के कागजों पर। आराम कुर्सी पर बैठे बाबूजी भी मुझे लिखते देखकर खुश हो रहे थे। कलम-दवात के जैसे ही अब तो आराम कुर्सी भी देखने को नहीं मिलते।
तीसरी से आठवीं कक्षा तक मैं कलम दवात ही प्रयोग करता था। उन दिनों हमें फाउण्टेन पेन से लिखने के लिए सख्त मनाही हुआ करती थी क्योंकि माना जाता था कि वैसा करने से हमारे अक्षर बिगड़ जाएँगे। बाबूजी मुझसे कहते थे कि बेटा तुम लोग को तो निब वाली कलम से लिखने की इजाजत भी है, हमें तो अपने जमाने में भर्रू का कलम बना कर लिखना पड़ता था। हाई स्कूल याने कि नवीं कक्षा पहुँचने के बाद ही मुझे फाउण्टेन पेन, जिसमें निब को बार-बार स्याही में डुबोने की जरा भी झंझट नहीं होती थी, प्रयोग करने के लिए मिला। फाउण्टेन पेन मिलने के बाद दवात में कोरस स्याही या प्रभात नीली स्याही का स्थान कैमल इंक ने ले लिया क्योंकि फाउण्टेन पेन के के भीतर कोरस या प्रभात स्याही सूख जाया करती थी, केवल कैमल स्याही ही उसके लिए उपयुक्त था।

अब तो फाउण्टेन पेन भी बीते जमाने की बात हो चली है क्योंकि उसका स्थान जेल पेन ने ले लिया है। वैसे भी आज के जमाने में आदमी के पास लिखने का काम ही कहाँ रह गया है, कम्प्यूटर ने लिखने के काम को खत्म सा कर दिया है।