अब अगर कोई ब्लोगर है तो लिखेगा ही। आखिर लिखना कौन सी बड़ी बात है? बड़ी बात तो है लिखे हुए को पढ़वाना। क्या मतलब हुआ लिखने का यदि किसी ने पढ़ा ही नहीं? असली मेहनत तो अपने लिखे को दूसरों को पढ़वाने में लगती है। बड़ी माथा-पच्ची करनी पड़ती है। पाठक जुटाना कोई हँसी खेल नहीं है। ढूँढ-ढूँढ कर सैकड़ों ई-मेल पते इकट्ठे करने होते हैं। लिखने के बाद सभी को ई-मेल से सूचित करना पड़ता है कि मेरा ब्लोग अपडेट हो गया है।
अब आप पूछेंगे कि जब एग्रीगेटर्स आपके लेख को लोगों तक पहुँचा ही देते हैं तो फिर मेल करने की जरूरत क्या है? तो जवाब है - भाई कोई जरूरी तो नहीं है कि सभी लोग एग्रीगेटर्स को देख रहें हों और मानलो देख भी रहें हों तो आपके लेख को मिस भी तो कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि लोगों को मेल करो।
अब अगर आप कहेंगे कि यदि लेख अच्छा होगा तो लोग पढ़ेंगे ही, चाशनी टपकाओगे तो चीटियाँ तो अपने आप आयेंगी। इसके जवाब में मैं बताना चाहूँगा कि आप पाठकों की नब्ज नहीं पहचानते। आप नहीं जानते कि ये पाठक बड़े विचित्र जीव होते हैं, कुछ भी ऊल-जलूल चीजों को तो पढ़ लेते हैं पर अच्छे लेखों की तरफ झाँक कर देखते भी नहीं। पर पाठकों को अच्छे लेख पढ़वाना हमारा नैतिक कर्तव्य है इसलिए मेल करके उनका ध्यान खींचो, उन्हें सद्बुद्धि दो और सही रास्ते पर लाओ।
भाई, ई-मेल तो फोकट में होता है पर जब ई-मेल का जमाना नहीं था तो हमारे कवि मित्र और गुरु लोगों को फोन से अपनी कविता सुनाया करते थे। एक बार जब मैं उनके यहाँ पहुँचा तो वे फोन में कह रहे थे - वर्षा-वर्णन पर मेरी ताजी कविता सुनें, इतना अच्छा लिखा है कि सुनकर आप तुलसीदास जी का "शरद् वर्णन" और "सेनापति" का "ऋतु वर्णन" भूल जायेंगे। तो सुनिये - "बारिश हुई, मेढक टर्राया, सड़कों में भी पानी भर आया ...." दूसरी ओर से आवाज आई - बकवास बन्द कर साले और बता मेरा फोन नंबर तुझे किसने दिया? गुरु बोले - मैं तो अपनी हर कविता लिखने के तत्काल बाद ही फोन में कुछ भी नंबर घुमा देता हूँ और जिसे लग जाए उसे अपनी कविता सुना देता हूँ।
खैर, मुझे तो अपनी उम्र का भी लाभ मिलता है और कुछ पाठक वैसे ही मिल जाते हैं क्योंकि लोग सोचते हैं - वयोवृद्ध ब्लोगर ने लिखा है अवश्य पढ़ना चाहिये (अब मैं तो स्वयं को वयोवृद्ध ही कहूँगा ना भले ही यह अलग बात है कि लोग सोचते हैं कि आज साले बुड़्ढे ने भी लिखा है चलो एक नजर डाल ही लें)। फिर भी मैंने हजारों ई-मेल पते संग्रह कर रखे हैं और उनके द्वारा सभी को अपने लेख के बारे में सूचित करता हूँ। यदि आपको भी कभी मेरा मेल मिल जाए तो आपसे गुजारिश हैं कि न तो उसे मिटाइयेगा और न ही उसका बुरा मानियेगा।
वाह!
ReplyDeleteआप भी मेल भेजते हैं? पहले मैं भी भेजता था. एक दिन हमारे एक पाठक जी ने हड़का दिया. तब से मेल भेजना बंद कर दिया. लेकिन आप कहते हैं तो फिर से शुरू करता हूँ.
हम तो आते हैं आपकी तकनीकी लेखन क्षमता और ज्ञान से प्रभावित हो कर कि यार रिटायर होने के बाद भी कितना अच्छा तकनीकी ज्ञान रखते, लिखते हैं।
ReplyDeleteमेरा नाम होगा तो निकाल दीजिएगा उस हजार ईमेल की सूची से क्योंकि हम तो ऐसे ही खिंचे चले आते हैं :-)
हम न तो मेल भेजते हैं न मेल आने पर टिप्पणी देते हैं जिस ने हमे झेला उसे हम भी झेलते हैं हां अगर को विश्य मन को छू जाये तो जरूर पढ लेते हैं आलेख अच्छा है इस लोये टिपियाने आ गये आभार्
ReplyDeleteफिर भी मैंने हजारों ई-मेल पते संग्रह कर रखे हैं और उनके द्वारा सभी को अपने लेख के बारे में सूचित करता हूँ।
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कृपया हमें न भेजें। हम वैसे ही पढ़ ले रहे हैं! :)
चलो एक नजर डाल ही ली..अब आपने लिखा है न!!!
ReplyDeleteकुछ ले दे कर आऊट ऑफ ईमेल सेटेलमेन्ट कर लिजिये, क्या ईमेल की झंझट में पड़ना!
ReplyDeleteAap logon ko padhen, log aapko padhenge.
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
बधाई !
ReplyDeleteSAHI KAHA JANAAB
ReplyDeleteक्या सही बात है! रोज की कोई ५०० पोस्ट लिखी जा रही हैं हिन्दी ब्लॉग्स पर. इन सबकी सूचना रोज अलग-अलग ईमेल से मिले तो एग्रीगेटर की जरूरत ही खत्म हो जाये. :-)
ReplyDeleteआपने पोस्ट को कोई लेबल नहीं दिया है, शायद इसी वजह से कुछ लोगों को लेख में अंतर्निहित व्यंग्य को समझने में कठिनाई हो रही है.