(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
मैं धार्मिक हूँ, मैं मार्मिक हूँ,
मत्था टेका करता हूँ,
उग्र कभी बन जाता हूँ तब,
शस्त्र इकट्ठा करता हूँ।
पूजा-घर में हथियारों को,
फूल समझ रख देता हूँ,
रक्त चढ़ा कर गुरु-चरणों में,
नित्य भजन कर लेता हूँ।
ईश्वर का भी सरदार बना,
अकड़ दिखाया करता हूँ,
निरपराध निर्दोषों को मैं,
मार गिराया करता हूँ।
कभी किसी से डरा न करता,
बस सेना से दबता हूँ,
नाम धर्म का ले ले कर मैं,
बिना विचारे लड़ता हूँ।
धर्मात्मा और महात्मा हूँ,
जल्लादों से भी हूँ मैं बढ़ कर,
जल के बदले मदिरा पीता,
झूमा करता हूँ बढ़-चढ़ कर।
(रचना तिथिः शनिवार 14-09-1984)
धार्मिक के साथ मार्मिक होते ही सच्चा इंसान बन जाता है ..बहुत भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteइस धार्मिकता को नमन। सुन्दर पंक्तियाँ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता है हरिप्रसाद जी की
ReplyDeleteपढवाने के लिए आभार
जोहार ले
अज्ञानपूर्ण धार्मिकता की सच्चाई!!
ReplyDeleteस्व हरिप्रसाद जी की रचना सामयिक है।
पढवाने के लिए आभार
ReplyDeleteआज की धार्मिकता का कच्चा चिट्ठा।
…………..
अद्भुत रहस्य: स्टोनहेंज।
चेल्सी की शादी में गिरिजेश भाई के न पहुँच पाने का दु:ख..।
धर्मात्मा और महात्मा हूँ,
ReplyDeleteजल्लादों से भी हूँ मैं बढ़ कर,
जल के बदले मदिरा पीता,
झूमा करता हूँ बढ़-चढ़ कर।
नही हमे नही बनना ऎसा... आज बहुत से लोग ऎसे ही धार्मिक तो है.... आज के हालात पर हरिप्रसाद जी की सुंदर रचना, धन्यवाद
रचना के भाव बहुत सुन्दर है।बहुत बढिया प्रस्तुति।आभार।
ReplyDeletebahut achhcha
ReplyDeleteबहुत गहन अभिव्यक्ति, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
avadhiyaa ji apne samay ke bade kavya-hastakshar thay. yah kavitaa unke ''kabeeree'' tevar ke nikat hai. aaj bhi samayik hai. dhanyvaad, ki aapne apne pitaji ke shreshtha lekhan ko samane lane ka upakram shuroo kiyaa hai.
ReplyDeletebehtreen rachna.... log kab samjhenge?
ReplyDeleteबहुत सुन्दर..... वाह वाह
ReplyDeleteहरिप्रसाद जी को पढवाने के लिए आभार.
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