Friday, December 10, 2010

हेमन्त ऋतु से बढ़कर साइकियाट्रिस्ट भला कौन होगा?

कहते हैं कि साइकियाट्रिस्ट्स किसी आदमी को हिप्नोटाइज करके उसे उसके उम्र के पीछे ले जाते हैं। ऐसा करने के लिए साइकियाट्रिस्ट को अपनी शक्ति का प्रयोग करके उस व्यक्ति को हिप्नोटिक ट्रांस में लाना पड़ता है। किन्तु हेमन्त ऋतु तो किसी भी व्यक्ति को प्राकृतिक रूप से ही उसके उम्र के पीछे धकेल देने का सामर्थ्य रखती है। प्रतिवर्ष इस ऋतु की ठिठुरा देने वाली ठण्ड, ठण्डे मौसम के बीच "विन्टर मानसून" की फुहारें और अगहन या पौष माह में सावन जैसी झड़ी, झड़ी खत्म होने पर उठने वाली भोर का घनघोर कुहासा, साँस छोड़ने तथा मुँह खोलने पर भाप का निकलना आदि बरबस ही मुझे मेरे उम्र से पीछे ठकेलते हुए मेरे बचपन तक ले जाती है। आँखों के सामने बचपन में सूखे हुए चरौटे के पौधों को उखाड़ कर उसका “भुर्री जलाने” याने कि अलाव जलाने और “भुर्री तापने” के दृश्य एक दिवास्वप्न की भाँति तैरने लगते हैं। याद आने लगता है भुर्री तापते हुए चोरी-छिपे कद्दू की सूखी हुई बेल के टुकड़े को सिगरेट बनाकर धूम्रपान करके मुँह और नाक से धुआँ निकालने का आनन्द लेना, ठण्ड में ठिठुरते हुए साइकल पर घूमने जाना, एकाध मील दूर निकलते ही खेतों का सिलसिला शुरू हो जाना, खेतों में तिवरा और अलसी और मेढ़ों में अरहर के पौधों का लहलहाना, खेतों से चोरी छिपे तिवरा उखाड़ कर खाना या वापस आकर तिवरा को जलते “भुर्री” में डाल कर “होर्रा” बनाकर खाना!

कितनी ठण्ड पड़ती थी उन दिनों रायपुर में हर साल! अब तो रायपुर आदमियों और इमारतों का जंगल बन कर रह गया है और यहाँ ठण्ड पड़ती ही नहीं, यदि थोड़ी सी ठण्ड पड़ती भी है तो सिर्फ शीत लहर चलने पर ही पड़ती है।

एक ओर तो हेमन्त ऋतु मुझे हर्षाती है तो दूसरी ओर यह सोचकर दुःख भी होता है कि आज मेरे ही बच्चों को छः ऋतुओं के नाम तक नहीं मालूम हैं। मेरे बार-बार यह बताने के बाद भी कि वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर नामक छः ऋतुएँ और पूर्व, ईशान, उत्तर, वायव्य, पश्चिम, नैऋत्य, दक्षिण तथा आग्नेय नामक आठ दिशाएँ होती हैं, वे इन ऋतुओं और दिशाओं के नाम को याद नहीं रख पाते।

अस्तु, यदि वसन्त ऋतु की अपनी अलग मादकता है तो हेमन्त ऋतु का अपना अलग सुख है। यह हेमन्त ऋतु श्री रामचन्द्र जी की भी प्रिय ऋतु रही है! तभी तो आदिकवि श्री वाल्मीकि रामायण में लिखते हैं:
सरिता के तट पर पहुँचने पर लक्ष्मण को ध्यान आया कि हेमन्त ऋतु रामचन्द्र जी की सबसे प्रिय ऋतु रही है। वे तट पर घड़े को रख कर बोले, “भैया! यह वही हेमन्त काल है जो आपको सर्वाधिक प्रिय रही है। आप इस ऋतु को वर्ष का आभूषण कहा करते थे। अब शीत अपने चरमावस्था में पहुँच चुकी है। सूर्य की किरणों का स्पर्श प्रिय लगने लगा है। पृथ्वी अन्नपूर्णा बन गई है। गोरस की नदियाँ बहने लगी हैं। राजा-महाराजा अपनी-अपनी चतुरंगिणी सेनाएँ लेकर शत्रुओं को पराजित करने के लिये निकल पड़े हैं। सूर्य के दक्षिणायन हो जाने के कारण उत्तर दिशा की शोभा समाप्त हो गई है। अग्नि की उष्मा प्रिय लगने लगा है। रात्रियाँ हिम जैसी शीतल हो गई हैं। जौ और गेहूँ से भरे खेतों में ओस के बिन्दु मोतियों की भाँति चमक रहे हैं। ओस के जल से भीगी हुई रेत पैरों को घायल कर रही है। …

9 comments:

  1. बचपन के दिन भुलाए नहीं जा सकते हैं . .. शहरों में बढ़ते कंक्रीटिंग और ओदयोगीकरण के कारण पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचा है ... मौसम में काफी तबदीली आई है ... एक समय था की जबलपुर में जोरदार ठण्ड पड़ती थी और लोग ठण्ड से सिहर जाते थे ...और दांत कटकटाने लगते थे ...ओह वो दिन काश फिर से आ जाते ..... बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति के लिए आभारी हूँ ....

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  2. बचपन के दिन भुलाए नहीं जा सकते हैं . .. शहरों में बढ़ते कंक्रीटिंग और ओदयोगीकरण के कारण पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचा है ... मौसम में काफी तबदीली आई है ... एक समय था की जबलपुर में जोरदार ठण्ड पड़ती थी और लोग ठण्ड से सिहर जाते थे ...और दांत कटकटाने लगते थे ...ओह वो दिन काश फिर से आ जाते ..... बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति के लिए आभारी हूँ ....

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  3. ऋतुओं का मनोवैज्ञानिक प्रभाव।

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  4. हर मौसम का अपना आनंद है और यहां चाहे हेम न हो हेमंत और उसके रसिक तो हैं ही.

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  5. ऐसा लगता है कि बचपन के दिन में सर्दी भी बहुत थी और बरसात भी खूब थी। लेकिन इस बार तो लगता है कि उदयपुर में सर्दी पड़ कर रहेगी। कहीं बचपन से भी और पीछे ना ले जाए यह ॠतुएं।

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  6. मुझे भी बचपन के दिन याद आ जाते हैं... अपनी ननिहाल में गुजारे....

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  7. बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !

    आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।

    आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें

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  8. आज सुबह सुबह निहाल कर दिए आप! यहाँ लखनऊ में हेमंत के प्रारम्भ में दो तीन दिन वर्षा हुई और मैं बस ...
    इसका उल्लेख अपने जारी उपन्यास में भी कर गया।
    वाल्मीकि का जाड़े का वर्णन अतुलनीय है। विशुद्ध भारतीय लैंडस्केप को जितनी सरलता, बारीकी और आत्मीयता के साथ वह चित्रित करते हैं, वह अपने आप में मील का पत्थर है।
    कभी कभी लिखते हुए आप सोचे भी नहीं रहते कि उसके नाद से किसकी वीणा झंकृत हो जाएगी! ... दूर कहीं किसी के मन में बहुत आत्मीय सा घटित हो जाता है।

    बहुत बहुत आभार इस लेख के लिए।

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