समय कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चल पाता। चालीस-पैंतालीस साल का लम्बा अरसा गुजर गया पर लगता है कि अभी कल ही की तो बात है जबकि इन्हीं गर्मी के दिनों में मैं शाम का धुंधलका होते ही भगवान भास्कर के प्रखर ताप से तप्त घर के आँगन को ठण्डा करने के लिए उसमें बाल्टी-बाल्टी पानी डाला करता था। पानी के आँगन की भूमि के स्पर्श करते ही भाप का भभूका-सा उठने लगता था। ज्यों-ज्यों पानी अधिक पड़ते जाता था, भाप निकलना कम होते जाता था और दस-बारह बाल्टी पानी डाल लेने पर भाप निकलना बिल्कुल बंद हो जाता था। घण्टे-डेढ़ घण्टे के भीतर ही आँगन इतना ठण्डा हो जाता था कि उसकी शीतलता में उस भीषण गर्मी की रात में आराम से सोया जा सकता था। आँगन में खाटें बिछा दी जाती थीं और रात्रि भोजन के पश्चात् कुछ घूमने-घामने के बाद घर के सभी सदस्य अपनी-अपनी खटिया पर पड़ जाया करते थे। उन दिनों रायपुर सीमेंट-कंक्रीट का जंगल नहीं बना था, कम से कम हमारी पुरानी बस्ती क्षेत्र में तो प्रायः खपरैल वाले मकान ही थे इसलिए रात्रि के बढ़ने की गति के साथ हवा में ठण्डक भी बढ़ती जाती थी। हाँ नवतपा के दिनों में जब ग्रीष्म अपने चरम पर पहुँचने लगता था तो रात्रि में वायु का प्रवाह एकदम से थम जाया करता था और तब खटिया में पड़े-पड़े हाथ पंखा लेकर डुलाना मजबूरी बन जाया करती थी क्योंकि मेरे घर में उन दिनों बिजली का केवल एक ही टेबल-फैन हुआ करता था जो कि घर्र-घर्र करके घूमने के बावजूद भी घर के सभी सदस्यों को को हवा देने के लिए बिल्कुल ही अपर्याप्त था।
आँगन के एक कोने में एक छोटी सी फुलवारी थी जिसमें हमारे बाबूजी गुलाब और मोगरे लगाया करते थे। मैं उस फुलवारी के पास ही स्टूल रखकर उस पर टेबल-फैन रखकर चला दिया करता था। टेबल-फैन की हवा यद्यपि गर्मी को शान्त करने के लिए अपर्याप्त होती थी किन्तु मोगरे के फूलों की महक को हम तक पहुँचाने में अवश्य ही कारगर होती थी। मोगरे की उस भीनी-भीनी महक से अभिभूत मैं घण्टों आँगन के ऊपर खुले आकाश में झिलमिलाते तारों को देखा करता था। ध्रुव तारा तो खैर दिखाई न दे पाता था किन्तु अन्य तारों के सहित सप्तर्षि तारों को देखना मुझे बहुत ही भला लगता था। रात में जब कभी भी नींद खुलती थी, सप्तर्षियों को देखना मैं नहीं भूला करता था क्योंकि उनकी परिवर्तित स्थिति से मैं अनुमान लगा लिया करता था कि रात्रि कितनी बीत चुकी है। ब्राह्म मुहूर्त आने तक सप्तर्षियों की स्थिति रात्रि के आरम्भ की स्थिति के बिल्कुल विपरीत हो जाया करती थी।
और आज वही ग्रीष्म ऋतु है कि मैं अपने कमरे में कूलर की हवा में सोता हूँ जहाँ न तो मोगरे की महक है, न खुला आकाश और न वो झिलमिलाते तारे, हाँ उन दिनों की यादें अवश्य हैं।
Saturday, May 21, 2011
Wednesday, May 18, 2011
अपने शरीर के विषय में आप कितना जानते हैं?
- आपका शरीर 24 घण्टे में 23040 बार श्वास-प्रश्वास क्रिया करता है और 438 घनफुट हवा श्वास में लेता है।
- आपका शरीर 24 घण्टे में 750 मांस पेशियों को उपयोग में लाता है।
- आपका शरीर 24 घण्टे में 70 लाख मस्तिष्क कोशिकाओं को व्यायाम देता है।
- आपका शरीर 24 घण्टे में 85.6 केलोरी ताप छोड़ता है।
- आपका शरीर 24 घण्टे में 450 घनफुट/टन शक्ति तैयार करता है।
- आप 24 घण्टे में लगभग 4800 शब्द बोलते हैं।
- आप 24 घण्टे में लगभग 1.5 से 2 लिटर पानी पीते हैं।
- आपका शरीर 24 घण्टे में लगभग 1.43 पॉइन्ट पसीना निकालता है।
- आपके शरीर के भीतर आपका खून 24 घण्टे में 16.80 करोड़ मील यात्रा करता है।
- आपका हृदय 24 घण्टे में 1,03,689 बार धड़कता है।
- एक सामान्य व्यक्ति के शरीर में औसतन 5-6 लिटर खून होता है।
- खून की गति 65 कि.मी. प्रति घण्टा होती है।
- मुख से मलद्वार तक पाचन संस्थान की नली की लम्बाई 32 फुट होती है; छोटी आँत 22 फुट और बड़ी आँत 8 फुट होती है।
Tuesday, May 17, 2011
तेरी रातों के लिए दिल को जलाया हमने
हुस्न और इश्क में संसार का शाश्वत सत्य है। ये दोनों अर्थात् हुस्न और इश्क एक दूसरे के बिना अधूरे हैं फिर भी इन दोनों में कभी टकराव होता है, कभी अनबन होती है, कभी चुहलबाजी होती है और अन्ततः दोनों सदा के लिए एक दूसरे के होकर रह जाते हैं।
हुस्न और इश्क के अहं के टकराव को बहुत ही सुन्दर और सटीक लफ्ज़ दिए हैं महान शायर मज़रूह सुल्तानपुरी ने!
(हुस्न)
ज़ुल्फ की छाँव में चेहरे का उजाला लेकर
तेरी वीरान-सी रातों को सजाया हमने
(इश्क)
मेरी रातों में जलाये तेरे जल्वों ने चराग
तेरी रातों के लिए दिल को जलाया हमने
ये तेरे गर्म से लब, ये तेरे जलते रुख़सार
देख हमको के बनाया है इन्हें दिल का क़रार
कैसे अंगारों को सीने से लगाया हमने
तेरी रातों के लिए दिल को जलाया हमने
(हुस्न)
हम ने हर दिल को सिखाया है धड़कने का चलन
देके उल्फत की तड़प, देके मोहब्बत की जलन
तुझसे दीवाने को इन्सान बनाया हमने
तेरी वीरान-सी रातों को सजाया हमने
(इश्क)
सीख ले रस्म-ए-वफ़ा हुस्न भी दीवानों से
दास्तां अपनी भरी है इन्हीं अफ़सानों से
रख दिया सर को जहाँ फिर न उठाया हमने
तेरी रातों के लिए दिल को जलाया हमने
और मज़रूह साहब के इन शानदार लफ्ज़ों को मधुर धुन में ढाल कर अमर कर दिया प्रसिद्ध संगीतकार ओ.पी. नैयर जी ने!
फिल्म फिर वही दिल लाया हूँ के इस गाने को यदि आप डाउनलोड करना चाहें तो लिंक है
ज़ुल्फ की छाँव में…..
हुस्न और इश्क के अहं के टकराव को बहुत ही सुन्दर और सटीक लफ्ज़ दिए हैं महान शायर मज़रूह सुल्तानपुरी ने!
(हुस्न)
ज़ुल्फ की छाँव में चेहरे का उजाला लेकर
तेरी वीरान-सी रातों को सजाया हमने
(इश्क)
मेरी रातों में जलाये तेरे जल्वों ने चराग
तेरी रातों के लिए दिल को जलाया हमने
ये तेरे गर्म से लब, ये तेरे जलते रुख़सार
देख हमको के बनाया है इन्हें दिल का क़रार
कैसे अंगारों को सीने से लगाया हमने
तेरी रातों के लिए दिल को जलाया हमने
(हुस्न)
हम ने हर दिल को सिखाया है धड़कने का चलन
देके उल्फत की तड़प, देके मोहब्बत की जलन
तुझसे दीवाने को इन्सान बनाया हमने
तेरी वीरान-सी रातों को सजाया हमने
(इश्क)
सीख ले रस्म-ए-वफ़ा हुस्न भी दीवानों से
दास्तां अपनी भरी है इन्हीं अफ़सानों से
रख दिया सर को जहाँ फिर न उठाया हमने
तेरी रातों के लिए दिल को जलाया हमने
और मज़रूह साहब के इन शानदार लफ्ज़ों को मधुर धुन में ढाल कर अमर कर दिया प्रसिद्ध संगीतकार ओ.पी. नैयर जी ने!
फिल्म फिर वही दिल लाया हूँ के इस गाने को यदि आप डाउनलोड करना चाहें तो लिंक है
ज़ुल्फ की छाँव में…..
Monday, May 16, 2011
भूली-बिसरी यादें
कालचक्र घूमने के साथ ही साथ किसी बात की स्मृति भी धूमिल पड़ते जाती है। जीवन की महत्वपूर्ण घटनाएँ भी समय बीतने के साथ मस्तिष्क के गहरे गर्त में समा जाती है और हम उन्हें भूल जाया करते हैं। किन्तु कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बरसों से भूली हुई कोई बात अचानक अवचेतन मस्तिष्क के गर्त से उभरकर चेतन में वापस आ जाती है।
ईश्वर ने मनुष्य के मनुष्य के मस्तिष्क को विचित्र रूप से रचा है। हर पल, हर क्षण मस्तिष्क के भीतर विचार बुलबुले की भाँति उठते रहते हैं, ऐसा एक भी क्षण नहीं होता जबकि मस्तिष्क विचारशून्य हो। प्रायः चेतन और अचेतन मस्तिष्क से ही उठने वाले विचारों के ये बुलबुले हमारे भीतर कौंधते रहते है, विचारों के बुलबुले तो अवचेतन मस्तिष्क से भी उठते रहते हैं किन्तु अत्यन्त गहराई में होने के कारण वे ऊपर तक नहीं आ पाते। हाँ कभी कोई बुलबुला सतह तक आ जाए तो वही हमारी भूली-बिसरी याद बन कर रह जाता है।
इस पोस्ट के उपरोक्त पंक्तियों को लिखने के लिए इसलिए सूझा क्योंकि आज एक पुराना फिल्मी गीत, जिसे कभी मैं बहुत पसन्द करता था पर बाद में बिल्कुल ही भूल गया था, अचानक याद आ गया - वो गीत है फिल्म भूत बंगला का "ओ मेरे प्यार आजा..."। राहुल देव बर्मन की बनाई यह धुन मुझे बहुत ही पसन्द है, लीजिए आप भी सुनिए, उम्मीद है कि आपको भी पसन्द आएगा।
ईश्वर ने मनुष्य के मनुष्य के मस्तिष्क को विचित्र रूप से रचा है। हर पल, हर क्षण मस्तिष्क के भीतर विचार बुलबुले की भाँति उठते रहते हैं, ऐसा एक भी क्षण नहीं होता जबकि मस्तिष्क विचारशून्य हो। प्रायः चेतन और अचेतन मस्तिष्क से ही उठने वाले विचारों के ये बुलबुले हमारे भीतर कौंधते रहते है, विचारों के बुलबुले तो अवचेतन मस्तिष्क से भी उठते रहते हैं किन्तु अत्यन्त गहराई में होने के कारण वे ऊपर तक नहीं आ पाते। हाँ कभी कोई बुलबुला सतह तक आ जाए तो वही हमारी भूली-बिसरी याद बन कर रह जाता है।
इस पोस्ट के उपरोक्त पंक्तियों को लिखने के लिए इसलिए सूझा क्योंकि आज एक पुराना फिल्मी गीत, जिसे कभी मैं बहुत पसन्द करता था पर बाद में बिल्कुल ही भूल गया था, अचानक याद आ गया - वो गीत है फिल्म भूत बंगला का "ओ मेरे प्यार आजा..."। राहुल देव बर्मन की बनाई यह धुन मुझे बहुत ही पसन्द है, लीजिए आप भी सुनिए, उम्मीद है कि आपको भी पसन्द आएगा।