आवारगी में हद से गुजर जाना चाहिये
लेकिन कभी कभार तो घर जाना चाहिये
मुझसे बिछड़ कर इन दिनों किस रंग में हैं वो
ये देखने रक़ीब के घर जाना चाहिये
लेकिन कभी कभार ...
उस बुत से इश्क कीजिये लेकिन कुछ इस तरह
पूछे कोई तो साफ मुकर जाना चाहिये
लेकिन कभी कभार ...
अफ़सोस अपने घर का पता हम से खो गया
अब सोचना ये है कि किधर जाना चाहिये
लेकिन कभी कभार ...
बैठे हैं हर फसील में कुछ लोग ताक में
अच्छा है थोड़ी देर से घर जाना चाहिये
लेकिन कभी कभार ...
रब बेमिसाल वज़्म का मौसम भी गया
अब तो मेरा नसीब संवर जाना चाहिये
लेकिन कभी कभार ...
नादान जवानी का ज़माना गुजर गया
अब आ गया बुढ़ापा सुधर जाना चाहिये
लेकिन कभी कभार ...
बैठे रहोगे दश्त में कब तक हसन रज़ा
जीना अगर नहीं है तो मर जाना चाहिये
लेकिन कभी कभार ...
उपरोक्त गज़ल मेरी पसंद के गज़लों में से एक है, उम्मीद है आपको भी पसंद आयेगी। सुनना चाहें तो यहाँ सुन सकते हैं:
आभार इस प्रस्तुति का. विडियो पसंद आया.
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ReplyDeletevastav me bahut almast gajal hai,,,,,post karne ke liye vakai shukriya..............
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