Thursday, June 5, 2008

गैस-डीजल-पेट्रोल

और भी मँहगी हो गईं गैस-डीजल-पेट्रोल।
खर्च बढ़ी दस फीसदी अकल हो गई गोल॥
अकल हो गई गोल कुछ भी समझ न आये।
सभी रहे हैं सोच कैसे जायें क्या खायें?
साइकिल ले लें आज से खायें छोटे कौर।
भूलें सपना कार का मँहगाई बढ़ गई और॥

3 comments:

Udan Tashtari said...

सही संकल्प है..उठाये रहिये. यूँ तो साईकिल भी सस्ती कहाँ रही, मगर फिर भी चल जायेगा. :)

Rajesh Roshan said...

हा हा हा. बढ़िया कविता जोड़ी है

बालकिशन said...

सरजी अपन को तो साइकिल भी चलानी नहीं आती.
मेरा क्या होगा?
बू हू हू हू