उनके प्रभाव से भला कोई बचा है?
तुलसीदास जी लिखते हैं:
सम्पूर्ण जगत् में स्त्री-पुरुष संज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थे वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गये। वृक्षों की डालियाँ लताओं की और झुकने लगीं, नदियाँ उमड़-उमड़ कर समुद्र की ओर दौड़ने लगीं। आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरण करने वाले समस्त पशु-पक्षी सब कुछ भुला कर केवल काम के वश हो गये। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महायोगी भी काम के वश होकर योगरहित और स्त्री-विरही हो गये। मनुष्यों की तो बात ही क्या कहें, पुरुषों को संसार स्त्रीमय और स्त्रियों को पुरुषमय प्रतीत होने लगा।यह कथा रामचरितमानस बालकाण्ड से
सती जी के देहत्याग के पश्चात् जब शिव जी तपस्या में लीन हो गये थे उसी समय तारक नाम का एक असुर हुआ। उसने अपने भुजबल, प्रताप और तेज से समस्त लोकों और लोकपालों पर विजय प्राप्त कर लिया जिसके परिणामस्वरूप सभी देवता सुख और सम्पत्ति से वंचित हो गये। सभी प्रकार से निराश देवतागण ब्रह्मा जी के पास सहायता के लिये पहुँचे। ब्रह्मा जी ने उन सभी को बताया, "इस दैत्य की मृत्यु केवल शिव जी के वीर्य से उत्पन्न पुत्र के हाथों ही हो सकती है। किन्तु सती जी के देह त्याग के बाद शिव जी विरक्त हो कर तपस्या में लीन हो गये हैं। सती जी ने हिमाचल के घर पार्वती जी के रूप में पुनः जन्म ले लिया है। अतः शिव जी के पार्वती से विवाह के लिये उनकी तपस्या को भंग करना आवश्यक है। तुम लोग कामदेव को शिव जी के पास भेज कर उनकी तपस्या भंग करवाओ फिर उसके बाद हम उन्हें पार्वती जी से विवाह के लिये राजी कर लेंगे।"
ब्रह्मा जी के कहे अनुसार देवताओं ने कामदेव से शिव जी की तपस्या भंग करने का अनुरोध किया। इस पर कामदेव ने कहा, "यद्यपि शिव जी से विरोध कर के मेरा कुशल नहीं होगा तथापि मैं आप लोगों का कार्य सिद्ध करूँगा।"
इतना कहकर कामदेव पुष्प के धनुष से सुसज्जित होकर वसन्तादि अपने सहायकों के साथ वहाँ पहुँच गये जहाँ पर शिव जी तपस्या कर रहे थे। वहाँ पर पहुँच कर उन्होंने अपना ऐसा प्रभाव दिखाया कि वेदों की सारी मर्यादा मिट गई। कामदेव की सेना से भयभीत होकर ब्रह्मचर्य, नियम, संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य आदि, जो विवेक की सेना कहलाते हैं, भाग कर कन्दराओं में जा छिपे। सम्पूर्ण जगत् में स्त्री-पुरुष संज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थे वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गये। वृक्षों की डालियाँ लताओं की और झुकने लगीं, नदियाँ उमड़-उमड़ कर समुद्र की ओर दौड़ने लगीं। आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरण करने वाले समस्त पशु-पक्षी सब कुछ भुला कर केवल काम के वश हो गये। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महायोगी भी काम के वश होकर योगरहित और स्त्री विरही हो गये। मनुष्यों की तो बात ही क्या कहें, पुरुषों को संसार स्त्रीमय और स्त्रियों को पुरुषमय प्रतीत होने लगा।
जी हाँ, गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं:
जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥
सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाई। संगम करहिं तलाव तलाई॥
जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
पसु पच्छी नभ जल थलचारी। भए कामबस समय बिसारी॥
मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥
देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥
इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥
भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥
धरी न काहूँ धीर सबके मन मनसिज हरे।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥
किन्तु कामदेव के इस कौतुक का शिव जी पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। इससे कामदेव भी भयभीत हो गये किन्तु अपने कार्य को पूर्ण किये बिना वापस लौटने में उन्हें संकोच हो रहा था इसलिये उन्होंने तत्काल अपने सहायक ऋतुराज वसन्त को प्रकट कर किया। वृक्ष पुष्पों से सुशोभित हो गये, वन-उपवन, बावली-तालाब आदि परम सुहावने हो गये, शीतल-मंद-सुगन्धित पवन चलने लगा, सरोवर कमल पुष्पों से परिपूरित हो गये, पुष्पों पर भ्रमर गुंजार करने लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे, अप्सराएँ नृत्य एवं गान करने लगीं।
इस पर भी जब तपस्यारत शिव जी का कुछ भी प्रभाव न पड़ा तो क्रोधित कामदेव ने आम्रवृक्ष की डाली पर चढ़कर अपने पाँचों तीक्ष्ण पुष्प-बाणों को छोड़ दिया जो कि शिव जी के हृदय में जाकर लगे। उनकी समाधि टूट गई जिससे उन्हें अत्यन्त क्षोभ हुआ। आम्रवृक्ष की डाली पर कामदेव को देख कर क्रोधित हो उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोल दिया और देखते ही देखते कामदेव भस्म हो गये।
कामदेव की स्त्री रति अपने पति की यह दशा सुनते ही रुदन करते हुए शिव जी पास आई। उसके विलाप से द्रवित हो कर शिव जी ने कहा, "हे रति! विलाप मत कर। जब पृथ्वी के भार को उतारने के लिये यदुवंश में श्री कृष्ण अवतार होगा तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न होगा और तुझे पुनः प्राप्त होगा। तब तक वह बिना शरीर के ही इस संसार में व्याप्त होता रहेगा। अंगहीन हो जाने के कारण लोग अब कामदेव को अनंग के नाम से भी जानेंगे।"
इसके बाद ब्रह्मा जी सहित समस्त देवताओं ने शिव जी के पास आकर उनसे पार्वती जी से विवाह कर लेने के लिये प्रार्थना की जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।
हमारे धार्मिक ठेकेदारों की माया है, जिन्होंने मनुष्य की एक मूल आवश्यकता को पाप कहकर उसे इतना विकृत बना दिया है कि वह मनुष्य के दिमाग में 24 घंटे घूमता रहता है।
ReplyDelete--------
महफ़ज़ भाई आखिर क्यों न हों एक्सों...?
जिसपर है दुनिया को नाज़, उसका जन्मदिवस है आज।
Tum apane kabile Ko dekho..
Deleteबहुत ही उम्दा रचना है लाजवाब लेख है
ReplyDeleteमन तो बहुत कुछ लिखने को कर रहा है । पर ज्यादा कुछ न कहते हुए यही कहूंगा-
वाऊ, रियली तुस्सी ग्रेट हो
ज़ाकिर जी,
ReplyDeleteइस पोस्ट में तो मनुष्य की उस मूल आवश्यकता को कहीं पर भी पाप नहीं बताया गया है। किसी भी चीज की अति तो खराब ही होती है।
जाकिर और अवधिया जी,
ReplyDeleteकाम एक प्राकृतिक भावना और उद्वेग है जो सभी जीवित द्विलिंगी प्राणियों में देखने को मिलता है। वस्तुतः यह जीवन की निरंतरता के लिए आवश्यक है। यदि यह भाव नहीं हो तो जीव समागम ही नहीं करेंगे और संतति न होने से जीव नष्ट हो जाएंगे। यह भावना/उद्वेग जीवों के जीवन और आचरण को भी प्रभावित करता है। कथाकारों ने इसी भाव का दैवीकरण कर दिया है।
इसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए।
जाकिर जी काम भावना को पाप कभी नहीं बताया गया। हाँ समाज में नैतिक मूल्यों की अवहेलना कर उस का प्रयोग करने को अवश्य ही पाप की श्रेणी में रखा गया है। काम आवश्यकता नहीं है यह तो जीव का नैसर्गिक गुण है।
Nice
ReplyDeletebahut umdaa post.........
ReplyDeleteabhinandan !
बढ़िया पोस्ट।
ReplyDeleteरचना अच्छी लगी।
ReplyDeleteकथा के माध्यम से बहुत अच्छे से आपने काम के बारे में समझाने का प्रयास किया......
ReplyDeleteद्विवेदी जी ने सही कहा है कि शास्त्रों में "काम" को कहीं भी पाप की संज्ञा नहीं दी गई है...सिर्फ उसकी अति को ही पाप माना गया है ।
अति सर्वत्र वर्जयेत....
आपको नए साल (हिजरी 1431) की मुबारकबाद !!!
ReplyDeleteBilkul sahi Dada ki ati sarvatra varjyet....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और हृदयस्पर्शी वर्णनं है यह मानस का -उद्धरण के लिए आभार !
ReplyDeleteआप ने बहुत सुंदर लेख लिखा, मै दिनेशराय द्विवेदी जी की टिपण्णी से सहमत हुं,
ReplyDeleteधन्यवाद, बालकांड से यह प्रसंग बहुत दिनो बाद पढ़ा , बहुत अच्छा लगा ।
ReplyDeleteअच्छी लगी
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