Saturday, March 22, 2008

रंग

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविताएँ)

रंग जमना, रंग उड़ना, रंग फीका पड़ना,
रंग में भंग हो जाना -
आजकल मामूली बात है
दुनिया के जंग में रंग की घात है,
अमीरों का दिन ही दिन -
और गरीबों की रात ही रात है।

रंग से घबरा गये सूरदास,
उन्होंने अनुभव किया कि -
काले रंग पर कोई रंग चढ़ता ही नहीं,
पर आज काले पर सफेदी ही सफेदी चढ़ी है,
स्वतंत्र भारत में काले की ही महिमा बड़ी है,
काला बाजारी, काले कारनामे,
काले झण्डे, ब्लैकमेल का खेल,
घी की जगह जमा हुआ तेल,
कला धन, काला मन,
सब ओर काले रंग की उभारें आ गई हैं
बदनीयती के दलदल में दुनिया समा गई है।
सूरदास आज होत तो देखते कि -
सभी रंगों पर कालिमा छा गई है।

लाल-पीला होना सभी जानते हैं
जमाने के रंग को सभी पहचानते हैं
रं बदलने में गिरगिट को गुरु मानते हैं
पर ;ॐ शान्ति' कह कर -
लड़ाई के रंग-ढंग को सभी टालते हैं
यही दुरंगी दुनिया है -
जहाँ कपट-कुरंग को सभी पालते हैं।

(रचना तिथिः 27-07-1983)

भंग की तरंग में

पंख बिना उड़ जाऊँ उल्लू के संब में,
बहुरंगी चाल चलूँ गिरगिट के रंग में,
सिकन्दर को पछाड़ूं हिटलरी उमंग में,
झूम झूम उछलूंगा अनोखे ढंग में।

ठहाके लहाऊंगा प्रसंग-अप्रसंग में,
बातें खूब करूंगा भोले के संग में,
अति भोजन कर लूंगा भूख के उछंग में,
पेड़े-बर्फी-लड्डू नाचेंगे अंग में।

डिस्को डांस करूंगा डूब कर अनंग में,
दंग करूंगा जग को ऊधम-हुड़दंग में,
नहीं रहूँगा अनपढ़ हिन्दी के संग में,
अंग्रेजी बोलूंगा भंग की गरंग में।

(रचना तिथिः 14-11-1989)