Friday, April 6, 2012

लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हो तो हनुमान जी के चरित्र से शिक्षा लो

चैत्र माह की पूर्णिमा अर्थात् हनुमान जयन्ती। आज ही के दिन वानरराज केसरी और अंजना के घर हनुमान जी का जन्म हुआ था। समस्त भारतवर्ष में आज के दिन हनुमान जी के भक्त श्रद्धा और उल्लास के साथ हनुमान जयन्ती का पर्व मनाते हैं। मान्यता है कि हनुमान जी भगवान शंकर के ग्यारहवें रुद्र के अवतार हैं।



हम कार्य करते हैं लक्ष्य की प्राप्ति के लिए। किन्तु किए गये कार्य के परिणामस्वरूप कभी लक्ष्य प्राप्त होता है तो कभी नहीं भी होता। यदि हम रामभक्त हनुमान जी के चरित्र का अध्ययन करें तो हमें पता चलता है कि उन्होंने जो भी कार्य किया, वह सफल ही हुआ। दुर्गम से दुर्गम कार्य को हनुमान जी ने सुगमता के साथ पूर्ण किया। इसीलिए गोस्वामी श्री तुलसीदास जी "हनुमान चालीसा" में लिखते हैं -

दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥

रामायण में आदिकवि वाल्मीकि ने हनुमान जी के चरित्र को सर्वोच्च बना दिया है। सीता की खोज में जाने वाले वानरों में सिर्फ हनुमान जी पर ही श्री राम को सर्वाधिक भरोसा था, यही वजह है कि उन्होंने सीता जी से भेंट होने पर पहचान स्वरूप देने के लिए अपनी मुद्रिका किसी अन्य वानर को देने के स्थान पर सिर्फ हनुमान जी को ही दिया था। श्री राम को पूर्ण विश्वास था कि हनुमान अवश्य ही सीता जी को खोज कर उनसे भेंट करेंगे।

लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रमुख बातें हैं -

लक्ष्य के प्रति समर्पित होना - चाहे राम को सुग्रीव का मित्र बनाने का कार्य हो, चाहे सीता जी की खोज का कार्य, हनुमान जी सदैव अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित रहते हैं।

लक्ष्य प्राप्ति के लिए सुगम मार्ग का निर्धारण करना - लंका नगरी में प्रवेश करना एक अत्यन्त कठिन कार्य था किन्तु हनुमान जी इसके लिए भी सुगम मार्ग निकाल ही लेते हैं।

आत्मविश्वास से परिपूर्ण होना - हनुमान जी आत्मविश्वास से कितने परिपूर्ण थे यह इसी बात से पता चलता है कि दुश्मन की नगरी लंका में वे एक बार भी विचलित नहीं होते।

कठिन से कठिन समय में भी त्वरित निश्चय लेना - सीता जी से भेंट होने के बाद लंका से वापस आने के पहले हनुमान जी तत्काल निश्चित कर लेते हैं कि शत्रु को अपना बल प्रदर्शित करके उसका नुकसान भी करना है ताकि शत्रु का आत्मबल कम हो जाए।

यदि हम हनुमान जी के चरित्र से शिक्षा ग्रहण करते हुए अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु कार्य करें तो लक्ष्य की प्राप्ति में कदापि कोई सन्देह न रहे।

Thursday, April 5, 2012

विक्रम बेताल - भ्रष्टाचार कथा

हमेशा की तरह बेताल ने कहानी शुरू की, "सुन विक्रम! जिसे तू जम्बूद्वीप अथवा आर्यावर्त के नाम से जानता है, कालान्तर में उस देश का नाम भारतवर्ष हो गया। भारतवर्ष में अनेक राज्य थे और विभिन्न राजा उन राज्यों में राज्य किया करते थे। राष्ट्रीय भावना की कमी होने के कारण वे राजा आपस में ही लड़ते रहते थे। उनकी आपसी फूट की इस कमजोरी का लाभ विदेशियों ने उठाया और भारतवर्ष पहले तो यवनों और बाद में मलेच्छों के अधीन हो गया। सहस्र से भी अधिक वर्षों तक भारत परतन्त्र ही रहा। जब भारतवर्ष मलेच्छों के अधीन था तो उसी समय द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया। इस विश्वयुद्ध ने मलेच्छों की शक्ति को क्षीण कर दिया जिसके कारण मलेच्छों को भारतवर्ष को स्वतन्त्र करने के लिए विवश होना पड़ा।

"भारतवर्ष के स्वतन्त्र हो जाने के बाद 64 वर्षों तक निरन्तर विकास की गंगा बहती रही। किन्तु विकास की गति से कई गुना अधिक गति से भ्रष्टाचार भी निरन्तर बढ़ता गया। अनेक प्रकार के घोटाले हुए। देश का धन काले धन के रूप में विदेशी बैंकों में जमा होने लगा।"

इतनी कथा सुनाकर बेताल ने विक्रम से पूछा, "बता विक्रम स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत में भ्रष्टाचार तीव्र गति से क्यों बढ़ा?"

विक्रम ने उत्तर दिया, "द्वितीय विश्वयुद्ध भारत तथा उन अन्य देशों के लिए जो मलेच्छों के गुलाम थे, एक वरदान सिद्ध हुआ। इसी वरदान स्वरूप भारत को स्वतन्त्रता मिली। किन्तु भारत को अभिशाप स्वरूप ऐसे राजनेता भी मिले जिन्होंने अपने स्वार्थपूर्ति के लिए देश को गर्त में ढकेल दिया। उन राजनेताओं के प्रचार स्वरूप भारत की प्रजा समझने लगी कि भारत का विकास हो रहा है जबकि विकास के नाम पर विदेशी शिक्षा, सभ्यता, संस्कृति को ही उन राजनेताओं ने भारत में पनपाया और आगे बढ़ाया। मलेच्छों का एकमात्र उद्देश्य था भारत को लूटना। अतः उन्होंने अपने इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही भारत में ऐसा संविधान बनाया था जो लुटेरों के पक्ष में हो। भारत की प्रजा को मानसिक रूप से सदा के लिए गुलाम बनाने के लिए भी उन्होंने विशेष शिक्षा-नीति तैयार किया था। जहाँ भारत की प्राचीन शिक्षा-नीति परोपकार, कर्तव्यनिष्ठा, धैर्य, सन्तोष आदि की शिक्षा देती थी वहीं मलेच्छों की शिक्षा-नीति व्यक्ति को स्वार्थ, भ्रष्टाचार आदि की शिक्षा देती थी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारत की बागडोर जिन राजनेताओं के हाथ में आई वे वस्तुतः दिखने में भारतीय तो थे किन्तु मन से अंग्रेज ही थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा भी अंग्रेजों के देश में हुई थी। उन राजनेताओं का भी उद्देश्य अंग्रेजों की भाँति भारत को लूटना ही था। इसी कारण से उन्होंने अंग्रेजों के बनाए संविधान, न्याय-व्यवस्था, शिक्षा-नीति आदि को ज्यों का त्यों, या किंचित फेर-बदल के साथ अपना लिया ताकि भारत को लूटने का कार्य आगे भी जारी रहे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी जो देश अपनी संस्कृति और सभ्यता को भूल कर विदेशी संस्कृति और सभ्यता को ही अपनाता है उस देश का पतन निश्चित होता है और उस देश में भ्रष्टाचार तथा घोटालों का तीव्र गति से बढ़ना एक सामान्य बात होती है।"

विक्रम के उत्तर देते ही बेताल वापस पेड़ पर जाकर लटक गया।