Saturday, August 14, 2010

14 अगस्त - आज के दिन ही देश के टुकड़े हुए थे

विभाजन पूर्व भारत

(चित्र नेशनल ज्योग्रफिक से साभार)

विभाजन पश्चात् भारत

(चित्र स्रोतः http://www.columbia.edu/itc/mealac/pritchett/00maplinks/modern/maps1947/aftermax.gif)

महात्मा गांधी ने विभाजन के पूर्व हिन्दुओं से अनुरोध किया था कि वे अपना घर बार छोड़ कर कहीं न जाएँ क्योंकि देश का विभाजन नहीं होगा। भरी सभा में उनका कथन था - "यदि पाकिस्तान बनेगा तो मेरी लाश पर बनेगा"

(चित्र स्रोतः http://www.hindu.com/th125/gallery/thim001.htm)

विभाजन के दौरान हुए दंगों में मारे गये लोगों की लाशों का ढेर

(चित्र स्रोतः http://news.bbc.co.uk/2/shared/spl/hi/pop_ups/06/south_asia_india0s_partition/html/7.stm)

दंगों में मारे गये लोगों का सामूहिक अग्नि संस्कार

(चित्र स्रोतः http://news.bbc.co.uk/2/shared/spl/hi/pop_ups/06/south_asia_india0s_partition/html/9.stm)

पाकिस्तान से भारत आने वाली रेलगाड़ी

(चित्र स्रोतः http://www.hindu.com/th125/gallery/thim004.htm)

दिल्ली से पाकिस्तान जाने वाली रेलगाड़ी

(चित्र स्रोतः http://en.wikipedia.org/wiki/File:Train-to-pakistan-delhi1947.jpg)

शरणार्थी शिविर

(चित्र स्रोत http://www.columbia.edu/itc/mealac/pritchett/00routesdata/1900_1999/partition/camps/camps.html)

एक और शरणार्थी शिविर

(चित्र स्रोत http://www.columbia.edu/itc/mealac/pritchett/00routesdata/1900_1999/partition/camps/camps.html)

पंजाब उच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति श्री जी.डी. खोसला की पुस्तक ‘‘The stern Reckoning’’ पुस्तक से कुछ उद्धरण:

गाड़ियाँ भर-भरकर निर्वासितों के दल हिन्दुस्तान आने लगे। उसका ब्यौरा भी हृदय विदीर्ण करने वाला है। वह भयाक्रान्त मानवता का बड़ा प्रवाह बह रहा था। डिब्बों में साँस लेने जितना भी स्थान न था। डिब्बों की छत पर बैठकर भी लोग आते थे। पश्चिमी पंजाब के मुसलमानों का आग्रह था कि लोगों का स्थानान्तरण होना चाहिए, परन्तु वह इतने सीधे, बिना किसी छल के हो, यह उन्हें नहीं भाता था। इन हिन्दुओं के जाते समय भयानकता, क्रूरता, पशुता अमानुषता, अवहेलना आदि भावों का अनुभव मिलना ही चाहिए, ऐसी उनकी सोच थी। उसी के अनुसार उनका व्यवहार था।

(छेदक 12 ए 9)

किसी स्टेशन पर गाड़ी घण्टों ठहरती थी। उस विलम्ब का कोई कारण न था। पानी के नल तोड़ दिए गए थे। अन्न अप्राप्य किया जाता था। छोटे बच्चे भूख और प्यास से छटपटा कर मरते थे। यह तो सदा का अनुभव बना था। एक अधिकृत सूचना के अनुसार माता-पिताओं ने अपने बच्चों को पानी के स्थान पर अपना मूत्र दिया, किन्तु यह भी उनके पास होता तो ! निर्वासितों पर हमले हुआ करते थे। उनको ले जाने वाले ट्रक और लारियाँ रास्ते में रोकी जाती थीं। लड़कियाँ भगायी जाती थीं। जो युवावस्था में थीं, ऐसी लड़कियों पर बलात्कार हुआ करते थे। वे भगायी भी जाती थीं और दूसरे लोगों की हत्या की जाती थी। यदि कोई पुरुष बच जाए, उसे अपने प्राण बच गए, यह मानकर ही संतुष्ट रहना पड़ता था।

(छेदक 12 ए 10)

निर्वासितों का काफिला झुण्ड की भाँति चल रहा था। वृद्ध पुरुषों तथा स्त्रियों का चलते-चलते दम घुट जाता था। वे मार्ग के किनारे मरने के लिए ही छोड़े जाते थे। काफिला आगे बढ़ जाता था। उनकी देखभाल करने का किसी के पास समय न होता था। रास्ते शवों से भरे थे। शव गल जाते थे। उनसे दुर्गन्ध फैलती थी। कुत्ते और गिद्ध उन्हें अपना भोजन बनाते थे। ऐसे समूह मानो मनुष्य की पराभूत चित्त की, शोक विह्वल और अगनित मन की अन्त्ययात्रा ही थी।

(छेदक 12 ए 11)

अल्पसंख्यकों का बरबस निष्कासन करना, यही मुस्लिम लीग और पाकिस्तान की रचना को प्रोत्साहित करने वालों का मन्तव्य था। अतएव उन लोगों से सद्व्यवहार, सहानुभूति अथवा सुविधाओं की अपेक्षा करना अर्थहीन था। उनके सैनिक और आरक्षीगण (पुलिस) उनके यात्रारक्षी दल प्रायः मुसलमान थे। उनसे निर्वासितों को रक्षण मिलना असंभव ही था। निर्वासितों को भी उन पर विश्वास न था। क्योंकि उन्हें रक्षण देने की अपेक्षा, अपने धर्मबन्धुओं द्वारा चलाए लूटपाट के अभियान में हाथ बंटाने का उन्हें अधिक मोह हुआ करता था।

(छेदक 12 ए 12)

पश्चिमी पंजाब से आई निर्वासितों की गाड़ियों पर कई हमले हुआ करते थे, किन्तु 14 अगस्त, 1947 के पश्चात् जो हमले हुए, वे अत्यधिक क्रूरतापूर्वक थे। सितम्बर में झेलम जिले के पिंडदादनखान गाँव से चल पड़ी गाड़ियों पर तीन स्थानों पर आक्रमण हुए। दो सौ स्त्रियों को या तो मारा गया या भगाया गया था। वहाँ से निकली गाड़ी पर वजीराबाद के पास हमला हुआ। वह गाड़ी सीधे रास्ते से लाहौर जाने के बजाय टेढ़े रास्ते सियालकोट की ओर घुमायी गयी। यह सितम्बर में हुआ। अक्टूबर में सियालकोट से आने वाली एक गाड़ी पर ऐसा ही अत्याचारी प्रयोग किया गया, किन्तु जनवरी, 1948 में बन्नू से निकली गाड़ी पर गुजरात स्थानक पर विशेष रूप से क्रूर हमला हुआ। हिन्दुओं का घोर संहार हुआ। उसी गाड़ी पर खुशाब स्थानक पर भी हमला हुआ। सरगोधा और लायलपुर के रास्ते वह गाड़ी सीधी लाहौर लाई जाने के बजाय खुशाब, मालकवाल, लालामोसा गुजरात और वजीराबाद जैसे दूर के मार्ग से लाहौर लाई गई। बिहार का सैनिकदल यात्रारक्षा के लिए नियुक्त किया गया था, उन पर भी शस्त्रधारी पठानों ने हमला किया था, गोलियाँ बरसायी थीं। यात्रारक्षी दल ने प्रत्युत्तर में गोली चलायी, किन्तु शीघ्र ही उनका गोला बारुद समाप्त हो गया। जैसे ही पठानों को यह भान हुआ, तीन सहस्त्र पठानों ने गाड़ी पर हमला कर दिया। पाँच सौ लोगों को कत्ल कर दिया। यात्री अधिकतर बन्नू की ओर के थे और उनमें से कुछ धनवान थे। उनको लूट लिया गया। यह सब जनवरी, 1948 में हुआ।

(छेदक 12 ए 13)

(कोटेड सामग्री http://pustak.org/bs/home.php?bookid=4418 से साभार)

देश का विभाजन एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी। विभाजन एक ऐसा घाव है जो हमेशा हमेशा के लिए नासूर बन कर रह गया है।

Friday, August 13, 2010

हिन्दू-मुस्लिम में परस्पर प्रेम और सौहार्द्र

इतिहास गवाह है कि हिन्दू-मुस्लिम में परस्पर प्रेम और सौहार्द्र हमेशा था और आज भी है! इस प्रेम और सौहार्द्र का एक बेमिसाल मिसाल देते हुए आचार्य चतुरसेन जी अपने उपन्यास "सोना और खून" में लिखते हैं:

रात को मियाँ पलंग पर दराज़ हुए तो उनका खास खिदमतगार पीरू पलंग के पाँयते बैठकर उनके पैर दबाने लगा। हमीद ने पेचवान जँचा कर रख दिया। मियाँ ने हुक्के में एक-दो कश लिए और हमीद को हुक्म दिया कि छोटे मियाँ जग रहे हों तो उन्हे जरा भेज दो।

बड़े मियाँ का सन्देश पाकर छोटे मियाँ ने आकर पिता को आदाब किया। बड़े मियाँ ने हुक्के की नली मुँह से हटाकर कहा, "अहमद, कल अलसुब्बह ही मुक्तेसर चलना है। तुम भी चले चलना जरा।"

"मेरा वहाँ क्या काम है?"

."काम नहीं, चौधरी बहुत याद करते हैं तुम्हें। जब-जब जाता हूँ तभी पूछते हैं। भई एक ही नेक-खसलत रईस हैं।"

"लेकिन अब्बा हुजूर, मुझे तो वहाँ जाते शर्म आती है।"

"शर्म किसलिए बेटे?"

"हम लोग उनके कर्जदार हैं, और इस बार भी आप इसी मकसद से जा रहे हैं।"

"तो क्या हुआ! सूद उन्हें बराबर देते हैं और रियासत पर कर्जा लेते हैं। फिर चौधरी ऐसे शरीफ हैं कि आँखें ऊँची कभी करते देखा नहीं। हमेशा 'बड़े भाई' कहते हैं। ........ और हाँ, एक टोकरा अमरूद और सफेदा, उम्दा चुनकर रख लेना मियाँ पीरू, तुम चले जाओ अभी इसी वक्त बाग में।"

पीरू सिर झुकाकर चला गया। अहमद ने कुछ नाराजी के स्वर में कहा, "आप नौकरों के सामने भी ...."

छोटे मियाँ पूरी बात न कह सके, बीच में ही बड़े मियाँ ने मीठ लहजे में कहा, "पीरू तो नौकर नहीं है। घर का आदमी है। खैर, तो तैयार रहना। और हाँ, वह गुप्ती भी ले चलना।"

"वह किसलिए?"

"चौधरी को नज़र करूँगा। उम्दा चीज है।"

"उम्दा चीजें घर में भी तो रहनी चाहिए।"

"मगर दोस्तों को सौगात भी तो उम्दा ही जानी चाहिए।"

"दोस्ती क्या, चौधरी समझेगा मियाँ कर्ज के लिए खुशामद कर रहे हैं।"

"तौबा, तौबा, ऐसा भला कहीं हो सकता है! चौधरी एक ही दाना आदमी है। चलो तो तुम, मिलकर खुश होओगे।"

छोटे मियाँ जब जाने लगे तो बड़े मियाँ ने टोककर कहा, "अमां जरा रघुवीर हलवाई के यहाँ कहला भेजना - मिठाई अभी भेज दे। कल ही मैंने कहला दिया था, तैयार रखी होगी। सुबह तो बहुत देर हो जाएगी।

बड़े मियाँ देर तक हुक्का पीते रहे। पीरू मियाँ आकर फिर पैर दबाने लगे। पैर दबाते-दबाते पीरू ने कहा हुजूर बस, अब तो हज को चल ही दीजिए। आपके तुफैल से गुलाम को भी ज़ियारत नसीब हो जाएगी।"

"मियाँ पीरू, हज की मैं दिली तमन्ना रखता हूँ। मगर दिल मसोसकर रह जाता हूँ। सोचता हूँ, साहबजादा घर-बार संभाल लें, उनकी शादी हो जाए तो बस मैं चल ही दूँ।"

...........

...........

(पीरू बोला) ...... जब तक हुजूर का साया उनके सर पर है, उन्हें किस बात का गम है! इसी से शायद वे बेफिक्रे हैं।"

"लेकिन भई, मैं भी अब पचासी को पार कर चुका। सुबह का चिराग हूँ।"

"तौबा, तौबा, यह क्या कल्मा ज़बान पर लाए हुजूर! जी चाहता है अपना मुँह पीट लूँ। हुजूर का दम गनीमत है।"

बड़े मियाँ हँस दिए। उन्होंने कहा, "तैयारी कर दो पीरू! जरा दिन गर्माए तो बस चल ही दें। ...."

...........

...........

चौधरी बीमार थे। दिल्ली दे कोई हकीम उनका इलाज कर रहे थे। उन्हें जब बड़े मियाँ की आमद की सूचना दी गई तो उन्होंने अपने पलंग के पास ही बुला लिया। छोटे मियाँ को देखकर चौधरी खुश हो गए। साहब-सलामत के बाद चौधरी ने कहा, "आपको मैं याद ही कर रहा था। शायद आजकल में आदमी भेजकर बुलवाता।"

"तो आपने तो खबर भी नहीं दी, इस कदर तबीयत खराब हो गई। अब इंशाअल्लाताला जल्द सेहत अच्छी हो जाएगी, मगर अहतियात शर्त है। हकीम साहब क्या फर्माते हैं? आदमी तो लायक मालूम देते हैं।"

जी हाँ, बीस सालों से मेरे यहाँ इलाज करते हैं। हज़रत बादशाह सलामत के भी ये ही तबीब हैं हकीम नज़ीरअली साहब।"

"जानता हूँ आलिम आदमी हैं। सुना है बड़े नब्बाज़ हैं।"

"लेकिन वे इलाज ही तो कर सकते हैं, जिन्दगी में पैबन्द तो लगा नहीं सकते।"

"यह आप क्या फर्मा रहे हैं!"

"बस अब मेरा आखरी वक्त है। इस गिदोनवा में सिर्फ एक आप मेरे हमदर्द हैं। बिटिया सयानी हो गई है, इसके हाथ पीले हो जाते तो इतमीनान से मरता। अब भगवान मर्जी।"

"लेकिन चौधरी, आप इस कदर पस्तहिम्मत क्यों हो रहे हैं? आ जल्द अच्छे हो जाएँगे।"

"खैर, तो आपसे मेरी एक आरजू है। आप मेरे बड़े भाई हैं, अब इस घर की देखभाल आप पर ही छोड़ता हूँ। नादान बच्चे हैं, आप ही को उनकी सरपरस्ती करनी होगी। सब भाई समझदार और दाना आदमी हैं, उम्मीद है खानदान को दाग न लगने पाएगा, सिर्फ आपका साया सर पर रहना चाहिए।"

"उस घर से भी ज्यादा यही घर मेरा है चौधरी, आप किसी बात की फिक्र मत कीजिए। क्या साहबजादी की बात कहीं लगी है?"

"अभी नहीं। उसे तो बस पढ़ने की ही धुन लग रही है। बेगम समरू जब से तशरीफ लाई हैं, उसका सिर फिर गया है। बेगम ने ही उसे पढ़ाने को एक अंग्रेज लेडी रखवा दी है। देखता हूँ उसकी सोहबत में वह नई-नई बातें सीखती जा रही है। मगर बिना माँ की लड़की है। सात भाइयों में अकेली! सभी की आँखों का तारा। इसी से हम लोग कोई उसकी तबीयत के खिलाफ काम करना नहीं चाहते।"

"यही हाल छोटे मियाँ का है। हज़रत सलामत के कहने से इसे फिरंगियों के मिशन कालेज में दाखिल किया था। अब अंग्रेजी पढ़कर नई दुनिया की नई बातें करता है।"

...........

...........

इसी वक्त मंगला हाथ में दूध का गिलास लेकर कमरे में आ गई। ......

कमरे में बाहरी आदमियों आदमियों को देख वह ठिठकी, और मुँह फेरकर लौट चली। पर चौधरी ने क्षीण स्वर में कहा, "चली आओ बेटी, चली आओ; दादाजान हैं, पहचाना नहीं! .... । चाचाजान भी हैं बेटी, उन्हें नमस्कार करो।"

मंगला ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया। चौधरी ने कहा, "दो गिलास दूध और ले आ बेटी, दादा और चाचा के लिए।"

मंगला तेजी से चली गई। दोनों हाथों में दो गिलास दूध भरकर ले आई। उसके साथ ही एक खिदमतगार बड़े-से थाल में गुड़ के गिंदोड़े भरकर मियाँ के सामने रख गया।

...........

...........

(चौधरी ने कहा) ".........खैर, यह कहो इस वक्त तकलीफ कैसे की?"

"यों ही चला आया। बिटिया को देखने को दिल बेचैन था। छोटे मियाँ भी आपको सलाम करना चाहते थे।"

"होनहार हैं, ज़हीन हैं, ईश्वर ने चाहा तो नेकनामी और इज़्ज़त का वह रुतबा हासिल करेंगे कि जिसका नाम .....।" चौधरी ने प्रेम से छोटे मियाँ की ओर देखा। उनका हाथ पकड़कर अपने पलंग के पास खींच गोद में बिठा लिया। बड़े मियाँ ने कहा, "चौधरी चाचा को मुकर्रर सलाम करो बेटे।"

छोटे मियाँ ने अदब से खड़े होकर चौधरी को सलाम किया। 'जीते रहो, जीते रहो!' चौधरी ने प्रेम-विभोर होकर कहा।

...........

...........

"...... क्या मालगुजारी अदा हो गई?"

"अभी कहाँ, वह रुपया जो आपके यहाँ से उस दिन आया था, दूसरे एक जरूरी काम में खर्च हो गया। लेकिन चौधरी, आप इस वक्त परेशान न हों। कुछ इन्तजाम हो ही जाएगा। अभी तो आप अपनी सेहत पर ध्यान दीजिए।"

लेकिन चौधरी ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। थोड़ी देर इधर-उधर की बातें हुईं। .....

खाने का वक्त हुआ। दोनों ने खाना खाया।

तीसरे पहर जब वे चौधरी के पलंग के पास रुखसत लेने पहुँचे, तो चौधरी ने एक कागज उनके हाथ में थमा दिया। बड़े मियाँ ने देखा - तमाम कर्जे की भरपाई की चुकता रसीद थी। बड़े मियाँ ने आश्वर्यचकित होकर चौधरी की ओर देखकर कहा, "यह क्या चौधरी?"

"बस, दुलखो मत बड़े भाई! साहबज़ादे पहली बार मेरी ड्योढ़ी आए हैं। यह उनकी नज़र है।"

"लेकिन यह तो तमाम कर्जे की भरपाई रसीद है!"

"तो क्या हुआ? आपकी सखावत ने तो सारी रियासत को रेहन रख दिया। अब छोटे मियाँ को मेरी तरफ से यह छोटा-सा नज़राना है।"

"यह न हो सकेगा चौधरी, यह भी कोई इन्साफ है! तौबा, तौबा!"

चौधरी की आँखों में पानी भर आया। उन्होंने कहा, "बड़े भाई, मेरे साथ इस कदर सख्ती! ऐसी बेरुखी! आप तो कभी ऐसे न थे। भला सोचो तो, हमारे आपके बीच कोई फर्क है। मैंने तो कभी उस घर को अपने घर से अलग नहीं समझा। जैसे मुझे अपने बच्चों का ख्याल है, वैसे ही छोटे मियाँ का भी है। फिर यह मेरा आखरी वक्त है। छोटे मियाँ को मैं कैसे छूँछे हाथ रहने दे सकता हूँ।"

"तो जमींदारी पर ही क्या मौकूढ है? खुदा ने चाहा तो उसे कम्पनी बहादुर की कोई अच्छी-सी नौकरी मिल जाएगी।"

"मिल जाएगी तो अच्छा ही है। मगर बाप-दादों की जायदाद से भी तो मियाँ को बरतरफ नहीं किया जा सकता।"

"कौन बरतरफ करता है, चौधरी! तुम्हारा रुपया मय सूद चुकता करके जमींदारी छूट जाएगी, तब वही मालिक होगा।"

"अच्छी बात है, रसीद तो आप रख लीजिए। जब रुपया हो उसे मेरी तरफ से छोटे मियाँ की शादी में दुलहिन को दहेज दे दीजिएगा।"

"यह तो वही बात हुई।"

"तो दूसरी बात कहाँ से हो सकती है!"

"खैर, तो आप जानिए और छोटे मियाँ, मैं तो मंजूर नहीं कर सकता।"

"तो छोटे मियाँ को हुक्म दे दीजिए।"

"नहीं, हुक्म भी नहीं दे सकता।"

"अच्छा साहबज़ादे, यह कागज तुम रख लो।"

".... आप इसरार न कीजिए। और यह रसीद अपने पास ही रखिए। अब्बा हुजूर जब आपका रुपया ब्याज समेत चुकता कर देंगे, तो यह रसीद ले लेंगे।"

"तो बेटे, तुम अपने इस बूढ़े चाचा की इतनी-सी बात टालते हो।"

"चाचाजान, यह ऊसूल की बात है।"

"बेटे, तुम जानते हो, मैं बूढ़ा आदमी हूँ, कमजोर हूँ, बीमार हूँ; मेरा दिल टूट जाएगा। अगर तुम यह कागज न लोगे।"

बड़े मियाँ ने कहा, "चौधरी, छोटी रकम नहीं है, चालीस हजार से ऊपर की रकम होगी। आखिर खुदा के सामने मैं क्या जवाब दूँगा?"

"तो तुमने मेरा दिल तोड़ दिया बड़े भाई," चौधरी ने कातर कण्ठ से कहा।

बड़े मियाँ की भी आँखें भीग गईं, उन्होंने कहा़, "खैर, एक वादा करें तो मैं मियाँ को रसीद लेने की इज़ाजत दे सकता हूँ।"

"कैसा वादा?"

"कि जब भी रुपये का बन्दोबस्त हो जाए, रुपया आप ले लेंगे।"

"खैर यही सही। अच्छा सम्भालिए।"

"यह क्या?"

"यह दो तोड़े हैं, मालगुजारी भी अदा कर दीजिए और हज भी कर आइए। कम हो तो खबर भेज दीजिए, रुपया पहुँच जाएगा।"

"लेकिन ....."

"लेकिन क्या बड़े भाई!" उन्होंने खिदमतगार को पुकारकर कहा, "तोड़े रथ में रख आ। और दो सवार साथ जाकर बड़े मियाँ को पहुँचा आएँ। लो बेटे सम्भाल कर रखो।" उन्होंने ने रसीद छोटे मियाँ के हाथ में दे दी। तीनों ही आदमियों की आँखें गीली थीं। बड़ी देर तक सन्नाटा रहा। छोटे मियाँ ने कहा, "अब्बा हुजूर, वह गुप्ती आप चाचाजान को नज़र करने लाए थे न!"

...........

...........

.... (चौधरी के बेटे) सुरेन्द्रपाल ने पीछे से पुकारा, "यह क्या तायाजी, आप जा रहे हैं, बिना मेरी इजाजत लिए ही।"

बड़े मियाँ रथ में चढ़ते-चढ़ते ठिठक गए, उन्होने कहा, "बड़ी गलती हुई बेटा! लेकिन इजाजत दे दो। सूरज छिप रहा है और सर्दी की रात है, पहुँचते-पहुँचते अन्धेरा हो जाएगा।"

"आपको इजाजत दे सकता हूँ, मगर भाई साहब को नहीं।"

"ये फिर आ जाएँगे, अभी तो छुट्टियाँ हैं।"

"यह नहीं हो सकता। मैं आज इन्ही के लिए तमाम दिन परेशान रहा हूँ।"

"परेशान क्यों रहे बेटे?"

"शिकार के बन्दोबस्त में। कछार में एक नया शेर आया है। .....। आदमखोर है। उधर गाँवों में उसने बहुत नुकसान किया है। बस, सुबह आप आए तो मैंने तय कर लिया कि भाई साहब और मैं शिकार करेंगे उसका। अब सब बन्दोबस्त हो गया है। और आप खिसक रहे हैं चुपचाप। यह नहीं हो सकेगा।" उसने आगे बढ़कर छोट मियाँ का हाथ पकड़ लिया। शेर की शिकार की बात सुनकर छोटे मियाँ का कलेजा उछलने लगा। कभी शेर का शिकार नहीं किया था। यों बन्दूक का निशाना अच्छा लगाते थे। कभी-कभी शिकार भी करते थे। मगर मुर्गाबियों और हिरनियों का। सुनकर खुश हो गए। उन्होंने मुस्कुराकर बड़े मियाँ की ओर देखा।

बड़े मियाँ ने कहा, "तो बेटे, रह जाओ दो दिन भाई के पास।"

बड़े मियाँ चले गए। छोटे मियाँ को खींचकर सुरेन्द्रपाल अपने कमरे में ले गए। दोनों की समान आयु थी। रात-भर में दोनों तरुण पक्के दोस्त हो गए।

...........

...........

सुरेन्द्रपाल ने कहा, "शर्त बदो।"

"कैसी शर्त?"

"शेर अगर तुम्हारी गोली से मरे तो मैं यह अँगूठी तुम्हें नज़र करूँगा। लेकिन यदि मेरी गोली सर हुई तो बोलो तुम मुझे क्या दोगे?" सुरेन्द्र ने हँस कर कहा।

...........

...........

छोटे मियाँ ने हँसकर कहा, "अच्छी बात है। मेरे पास एक चीज है, अगर शेर तुम्हारी गोली से मरा तो मैं वह चीज तुम्हें नज़र करूँगा।"

"वह क्या चीज है? दिखाओ पहले!"

"नहीं, दिखाउँगा नहीं। छोटी-सी चीज है। मुमकिन है तुम्हारी अँगूठी के बराबर कीमती हो। लेकिन तुम्हें वह कबूल करनी होगी।"

...........

...........

दोनों दोस्त हरबे-हथियार से लैस हो बैठे। हाँका हुआ। शेर की दहाड़ सुनकर छोटे मियाँ के हाथ-पाँव फूल गए, उनसे निशाना नहीं सधा, गोली खता हो गई। सुरेन्द्रपाल की गोली ने शेर का काम तमाम कर दिया। खुशी-खुशी दोनों दोस्त मंच से उतरे। शिकार की नाप-तोल की। घर आए। जब छोटे मियाँ चलने लगे तो उन्होंने कहा, "शर्त नज़राना हाजिर करता हूँ।"

"अरे मैं तो भूल ही गया था। अब जाने दो भाईजान। हकीकत में, अपने यह अँगूठी तुम्हें नज़राने के तौर पर देना चाहता था। शिकार की शर्त का महज बहाना था।"

"यह न होगा, शर्त पूरी करना फर्ज है। यह लीजिए।"

उन्होंने जेब के भीतर हाथ डालकर वह रसीद निकाली ‌र सुरेन्द्पाल के हाथ पर रख दी।
आज भी हिन्दू-मुस्लिम में परस्पर प्रेम और सौहार्द्र के बेमिसाल नमूने देखने को मिलते हैं। वे एक दूसरे के भलाई के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहते हैं। अलगाववादी और आतंकवादी तो क्या, दुनिया की कोई भी ताकत इस प्रेम और सौहार्द्र को खत्म नहीं कर सकती।

Thursday, August 12, 2010

क्या हिन्दी ब्लोग्स कभी व्यावसायिक हो पाएँगे?

ब्लोग याने कि वेबलॉग की शुरुवात हुई थी निजी किन्तु सार्वजनिक दैनन्दिनी के रूप में। अंग्रेजी ब्लोग्स की बात करें तो यह कहा जा सकता है बहुत ही तेजी के साथ उनकी की लोकप्रियता बढ़ती चली गई। लोकप्रियता बढ़ने के साथ ही साथ निजी-सार्वजनिक दैनन्दिनी वाले उनके रूप में भी परिवर्तन होता चला गया और वे व्यावसायिक होते चले गए। आज अंग्रेजी के प्रायः ब्लोग्स पूर्ण रूप से व्यावसायिक हैं। अंग्रेजी ब्लोग्स की व्यावसायिकता ने 'वर्क एट होम', 'वर्क फ्रॉम होम', 'फायर योर बॉस' आदि नई मान्यताओं को जन्म दिया। अनेक लोग अपनी नौकरी छोड़कर सफल व्यावसायिक ब्लोगर्स बन गए!

हिन्दी ब्लोग्स के साथ ऐसी बात नहीं रही, उन्हें उस प्रकार से लोकप्रियता नहीं मिल पाई जिस प्रकार से अंग्रेजी ब्लोग्स को मिली। वास्तव में हिन्दी जानने वाले नेट यूजर्स की एक बहुत बड़ी संख्या आज भी हिन्दी ब्लोग्स के अस्तित्व से ही अन्जान है। हिन्दी ब्लोग्स सर्च इंजिनों में अपनी पहचान नहीं बना पाए, उन्हें सदैव एग्रीगेटरों के सहारे की आवश्यकता बनी रही है। यही कारण है कि ब्लोगवाणी जैसे लोकप्रिय एग्रीगेटर के बंद हो जाने का अवसाद आज भी अधिकतर हिन्दी ब्लोगर्स के भीतर बना हुआ है। एग्रीगेटर्स के सहारे टिके होने के कारण हिन्दी ब्लोग्स को प्रायः हिन्दी ब्लोगर्स ही पढ़ते हैं। प्रायः सामान्य नेट यूजर्स की रुचि एग्रीगेटर्स में नहीं  नहीं होती, वे सर्च इंजिनों में अपने रुचि के विषयों को ही खोजते हैं। इसी कारण से हिन्दी ब्लोग्स के पाठकों की कमी बनी रहती है जिसके कारण से हिन्दी ब्लोग्स में व्यावसायिकता की क्षमता नहीं बन पाती।

तो क्या कभी हिन्दी ब्लोग्स कभी व्यावसायिक हो पाएँगे?

हमारा तो मानना है कि अवश्य बन पाएँगे यदि हिन्दी ब्लोगर्स पाठक बढ़ाने के उद्देश्य से पाठकों की रुचियों को ध्यान में लेखन करें। टिप्पणियों की संख्या के बादले पाठकों की संख्या को अधिक महत्वपूर्ण समझें। जाने-अनजाने में हम ब्लोगरों और हमारे एग्रीगेटरों ने ही टिप्पणियों को महत्वपूर्ण बना दिया है। चिट्ठाजगत यदि 'धड़ाधड़ टिप्पणियाँ' के बदले धड़ाधड़ पठन को डीफॉल्ट हॉटलिस्ट बना दे याने कि मुख्य हॉट लिस्ट में अधिक टिप्पणियाँ पाने वाले ब्लोग्स के स्थान पर अधिक पढ़े जाने वाले ब्लोग्स दिखाई देने लगें तो ब्लोगरगण टिप्पणियाँ बढ़ाने की अपेक्षा पाठक बढ़ाने की ओर अधिक ध्यान देने लग जायेंगे। ऐसा करने से कई प्रकार के तिकड़म कर के टिप्पणी बढ़ाने वाले भी हतोस्साहित होंगे तथा चिट्ठाजगत के साख में भी वृद्धि होगी।

कुछ लोगों को यह भी लग सकता है कि आखिर हम हिन्दी ब्लोग्स की तुलना अंग्रेजी ब्लोग्स से क्यों करते हैं? इस प्रश्न का उत्तर बहुत ही सरल है। स्वयं को जानने के लिए हमें तुलना करनी ही पड़ती है, यदि हम तुलना ना करें तो न तो कभी हम स्वयं को जान पायेंगे और न ही कभी आत्म-मुग्धता से हमें मुक्ति मिल पायेगी। तुलना ही है जो कि हमें उन्नति की ओर अग्रसर करती है।

Wednesday, August 11, 2010

साग-सब्जी-तरकारी-भाजी

सोच रहा हूँ कि आज क्या लिखूँ अपने पोस्ट में? कुछ भी नहीं सूझ रहा है और खीझ रहा हूँ खुद पर। क्या हर रोज कुछ ना कुछ लिखना जरूरी है? न लिखूँ तो क्या फर्क पड़ जायेगा? और लिखता हूँ तो भी क्या फर्क पड़ जाता है? कुछ लोग पढ़ लेते हैं तो कुछ लोग 'वाह वाह' भी कर देते हैं। पर फर्क कुछ नहीं पड़ता। हिन्दी की गलतियाँ देख कर अनुस्वार और चन्द्रबिन्दु के बारे में लिखा तो क्या लोगों ने सही हिन्दी लिखना शुरू कर दिया? सोचता हूँ कि क्या एक मैंने ही हिन्दी का ठेका ले रखा है? अकेला चना भाड़ फोड़ सकता है क्या?

जब देखो तब किसी ना किसी बात से कुढ़ता रहता हूँ। लोगों को अंग्रेजी के बारह महीनों के नाम याद हैं पर हिन्दू वर्ष के बारह महीनों के नाम याद नहीं। कितनी ही बार कितने ही लोगों को बता चुका हूँ कि हिन्दू वर्ष के बारह महीनों के नाम हैं - चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ (जेठ), आषाढ़ श्रावण (सावन), भाद्रपक्ष (भादों), आश्विन (क्वार), कार्तिक, मार्गशीष (अगहन), पूस, माघ, फाल्गुन (फागुन)। पर क्या फायदा? कोई याद रखने की कोशिश भी करता है क्या? आज के बच्चे हिन्दी की गिनती नहीं जानते, पूछते हैं कि अड़सठ याने कि सिक्सटी एट ही होता है ना? जब हिन्दी की गिनती ही नहीं आती तो पहाड़ा याद रखने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। हमारी संस्कृति दिनों-दिन रसातल में जाती जा रही है। अच्छे संस्कारों में कमी आती जा रही है। ऐसी ही बहुत सारी बातें सोच-सोच कर कुढ़ता हूँ। पूरी तरह से सठिया गया हूँ। अपनी ही हाँकते रहता हूँ। कई बार दूसरों को सीख दी है "जैसी चले बयार पीठ तैसी कर लीजे" पर जमाने के साथ खुद को कभी भी नहीं बदल पाया। जानता हूँ कि खुद को तो बदला जा सकता है, जमाने को नहीं। पर बार-बार जमाने को ही बदलने की नाकाम कोशिश करता हूँ। यह भी जानता हूँ कि ऐसा करना मूर्खता है पर जान-बूझ कर बार-बार मूर्खता करता हूँ और लोगों की नजर में बुरा भी बनता हूँ। अपने पोस्ट में ही नहीं बल्कि अपने मिलने वालों से बात-चीत करते समय भी कुछ न कुछ उपदेश-सा दे दिया करता हूँ। मेरे सामने तो वे मेरी उम्र का लिहाज कर के मेरी हाँ में हाँ मिला देते हैं पर पीठ पीछे जरूर यही कहते होंगे - 'स्साला खूँसट बुड्ढा, हमेशा होशियारी झाड़ते रहता है'।

"अब जरा कम्प्यूटर के सामने से हटिए और जाकर सब्जी ले आइए।"

मेरी सोच का सिलसिला टूटता है। पर क्षण भर बाद सोच का एक नया सिलसिला शुरू हो जाता है। सब्जी शब्द सुनकर याद आ जाता है कि एक फिल्म के किसी संवाद में "आलू की भाजी" का जिक्र था। मराठी में सब्जी को भाजी ही कहा जाता है जबकि हमारे यहाँ पालक, मेथी, बथुआ, चौलाई आदि को ही भाजी कहा जाता है। भाजी याने कि सिर्फ पत्ते वाली सब्जियाँ। अचानक सोचने लगता हूँ कि आखिर सब्जी शब्द कैसे बना होगा? क्या करना है मुझे यह जानकर कि सब्जी शब्द क्यों और कैसे बना? मैं कोई भाषाविद् हूँ क्या? अपनी सोच को झटकने की कोशिश करता हूँ पर सोच है कि चिपक कर रह गई है। उर्दू में 'हरा' को 'सब्ज' कहा जाता है, जरूर सब्जी शब्द सब्ज से ही बना होगा। सब्जी याने कि हरे रंग की सब्जियाँ - मटर, सेम आदि! तो फिर साग और तरकारी क्या होता है? शायद जो सब्जी नहीं होती याने कि हरे रंग की नहीं होती उसे तरकारी कहते हैं - आलू, टमाटर आदि। और साग? लगता है कि साग शब्द का प्रयोग शायद सब्जी-भाजी-तरकारी सभी के मेल के लिये किया जाता है, मांसाहार के लिए भी। अपने इस विश्लेषण से न तो पूर्णतः संतुष्ट हूँ और न असंतुष्ट।

"अजी, गए नहीं अभी तक?"

मेरी तन्द्रा टूटती है। उठ जाता हूँ सब्जी लाने जाने के लिए। सोच में अभी भी घूम रहा है साग-सब्जी-तरकारी-भाजी!

Tuesday, August 10, 2010

टोनही मंत्र सिद्ध करने का दिन - हरेली

अमावस की घोर अंधेरी रात! घोर अंधेरा! नदी के उस पार श्मशान में बार-बार बंग-बंग करके जलती-बुझती कोई चीज!

छत्तीसगढ़ में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने कभी ऐसे दृश्य के बारे में ना सुना हो। उस जलती-बुझती चीज को टोनही बरना कहा जाता है। बताया जाता है कि प्रतिवर्ष हरेली अर्थात् श्रावण कृष्ण अमावस्या की रात्रि को टोनही औरतें जादू-टोना करने वाली औरतें अपना मंत्र सिद्ध करती हैं। उनका मंत्र ढाई अक्षरों का होता है जिसे सिद्ध करने के लिए वे हरेली की रात्रि को निर्वस्त्र होकर श्मशान-साधना करती हैं। मंत्र सिद्ध करते समय उनके मुँह में एक प्रकार की जड़ी होती है जिसके कारण उनके मुँह से टपकने वाली लार अग्नि के समान प्रज्वलित होते जाती है। एक जमाने में जब कभी भी छत्तीसगढ़ के किसी गाँव में हैजे का प्रकोप हुआ करता था तो उस प्रकोप को गाँव में लाने का आरोप इन टोनही औरतों पर अवश्य रूप से लग जाया करता था।

आज छत्तीसगढ़ में टोनही की अवधारणा तो समाप्तप्राय हो चुकी है किन्तु इनका डर शायद अभी भी बाकी है। यही कारण है कि आज के दिन प्रत्येक घर के दरवाजों में नीम की पत्तियों वाली छोटी-छोटी डंगाले टंगी हुई दिखाई देती हैं। रायपुर में तो आटो रिक्शा तक में भी नीम की ये डालियाँ टंगी हुई दिखाई दे रही हैं। वास्तव में हम अंध-विश्वास को तो दूर कर लेते हैं किन्तु अंध-विश्वास के कारण भय को अपने भीतर से नहीं भगा पाते। अज्ञात का डर मनुष्य को आरम्भ से ही सताता रहा है और शायद अन्त तक सताता ही रहेगा।

हरेली को छत्तीसगढ़ में एक विशिष्ट त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। यह हिन्दू वर्ष (चैत्र-फाल्गुन) का प्रथम त्यौहार है जबकि होली अन्तिम! हरेली के दिन छत्तीसगढ़ में गाँव का बैगा गाँव की रक्षा करने के लिए ग्राम-देवता की पूजा करता है जिसके आयोजन के प्रत्येक ग्रामवासी सहयोग-राशि प्रदान करता है। दिन में त्यौहार की खुशियाँ मनाई जाती है किन्तु रात्रि को अत्यन्त भयावह माना जाता है।

Monday, August 9, 2010

एक पोस्ट फिल्मी गीतों भरा

फिल्मी गीतों पर आधारित यह एक हल्का-फुल्का पोस्ट है यारों बकवास लगे तो मुझे ना दोष देना और बोर लगे तो आगे पढ़ना छोड़ देना!

यदि आप याद करने की कोशिश करेंगे तो आपको याद आयेगा कि आपके जीवन में एक समय ऐसा था जब न किसी प्रकार की फिक्र थी न चिंता। था तो सिर्फ आह्लाद! वसन्त हो या पतझड़, प्रसन्नता के आवेग में नीला अम्बर झूमता सा प्रतीत होता था - झूमे रे नीला अम्बर झूमे....! उम्र के उस पड़ाव में किसी ने ऐसा जादू डाल रखा था कि मन का मोर मतवाला होकर नृत्य करने लगता था - मन मोर हुआ मतवाला किसने जादू डाला रे....! जीवन के इस मौज में बाइक लेकर इस बस्ती से उस बस्ती गाते हुए घूमा करते थे - बस्ती बस्ती पर्वत पर्वत गाता जाये बंजारा लेकर दिल का इकतारा....। किसी की मुस्कुराहटों पर निसार हो जाने, किसी के दर्द को अपना लेने, किसी के लिये दिल में प्यार होने को ही आप जिन्दगी समझा करते थे - किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार किसी का दर्द हो सके ले उधार किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार जीना इसी का नाम है....। आपको अपना दिल आवारा लगा करता था और पता ही नहीं था कि वह कब किस पर आ जायेगा - है अपना दिल तो आवारा न जाने किस पे आयेगा....

ऐसे में न जाने कब यौवन ने अपना जादू चलाया और मदन ने आपके हृदय में अधिकार जमा लिया। कहीं पर आपको आपकी सपनों की रानी दिखाई पड़ गई। किशोरावस्था और यौवनावस्था की उस वयःसन्धि उसकी यही हसरत हुआ करती थी कि वह पंछी बनकर आकाश में उड़ जाये - पंछी बनूँ उड़ती फिरूं मस्त गगन में....! आपका हृदय उसकी ओर खिंचते चला गया। आपको पूर्ण रूप से आभास था कि उसका हृदय भी आपके लिये आतुर रहा करता है पर न तो आप उस तक जा पाते थे और न ही वो आपको बुला पाती थी - हम से आया न गया उनसे बुलाया ना गया फासला प्यार में दोनों से मिटाया ना गया....। पर एक दिन जाने कैसे आपने क्या कह दिया और उसने क्या सुन लिया कि बात बन गई - जाने क्या तूने कही जाने क्या मैंने सुनी बात कुछ बन ही गई....!

अब तो आप प्रतिदिन उसके घर का चक्कर लगाने लगे। उसके घर की खिड़की के पास पहुँचने पर आपके होठों से अपने आप सीटी की आवाज निकल उठती थी। आपके सपनों की रानी यह देख कर कह उठती थी - शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो....। पर आप कहाँ मानने वाले थे? पहुँच ही जाया करते थे आँखें चार करने के लिये और नैनों के मिलते ही चैन उड़ जाया करता था - नैन मिले चैन कहाँ....

उसे भी यही लगने लग गया था कि किसी ने उसे अपना बना कर मुस्कुराना सिखा दिया है - किसी ने अपना बना के मुझको मुस्कुराना सिखा दिया....। उसके होठ मुस्कुरा उठते थे, कंगना खनक उठता था और उसकी सखियाँ कह उठती थीं - जानू जानू रे काहे खनके है तोरा कंगना....!

दोनों का मेल-मिलाप बढ़ता गया! दोनो का जीवन प्यार भरी घड़ियाँ बन गईं - जिंदगी प्यार की दो चार घड़ी होती है....। दोनों के दिलों के तार धड़कने लगे थे - धड़कने लगी दिल की तारों की दुनिया....। आप उससे उसके प्यार के विषय में पूछ बैठते थे और वह कह उठती थी - मुहब्बत ऐसी धड़कन है जो समझाई नहीं जाती....। आप उससे अपने प्यार को कभी ना भुलाने का वादा करने के लिए कहा करते थे - ये वादा करो चांद के सामने भुला तो ना दोगे मेरे प्यार को....

आप तनहा होते थे तो आपके हृदय के द्वार पर कोई अपनी पायल की झंकार लिये आ जाया करता था - कौन आया मेरे मन के द्वारे पायल की झंकार लिये....

दिन-रात बेकरारी बनी रहती थी और मिलन होने पर ही बड़ी मुश्किल से करार आता था - बड़ी मुश्किल से दिल की बेकरारी को करार आया....। उसे एक अनजाना सा डर भी बना रहा करता था कि कहीं आप उसे छोड़ तो नहीं देंगे और वह आपसे कह उठती थी - चले जाना नहीं नैन मिलाके सैंया बेदर्दी....। जब कभी भी आप उसकी नजरों से छुप जाया करते थे वह प्यार के अनोखे दर्द से तड़प उठा करती थी - छुप गया कोई रे दूर से पुकार के दरद अनोखे हाय दे गया प्यार के....। अपने सामने आपको न पाकर उसे यही लगता था - जो दिल में खुशी बन कर आये वो दर्द बसा कर चले गये....। प्यार की शीतल जलन ने आप दोनों का चैन और आराम को छीन लिया था - हम प्यार में जलने वालों को चैन कहाँ आराम कहाँ....

और फिर अचानक आपको उससे दूर जाना पड़ गया था। उसने समझा था कि आप बहाना बना कर उससे दूर चले गए हैं - जाना था हमसे दूर बहाने बना लिये अब तुमने कितनी दूर ठिकाने बना लिये....। दिन-रात उसका हृदय सिर्फ आप को ही पुकारा करता था कभी वह कहती थी - आन मिलो आन मिलो श्याम साँवरे.... तो कभी - आ लौट के आजा मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं....। शाम की तनहाइयाँ उसके गम को और भी बढ़ा दिया करती थी - ये शाम की तनहाइयाँ ऐसे में तेरा गम....। आपके पास ना होने से उसे चांद का निकलना भी न भाता था - चांद फिर निकला मगर तुम ना आये जला फिर मेरा दिल करूँ क्या मैं हाये....। अपनी अटारी पर बदरी को देखकर उसका दिल कह उठता था - जा री जा री ओ कारी बदरिया मत बरसो री मोरी अटरिया परदेस गये हैं सँवरिया....। उसे तो लगने लग गया था कि आपने उसे भुला दिया है - मोहे भूल गये साँवरिया....। आपकी जुदाई के गम में वह बरबस गुनगुना उठती थी - तेरी याद में जल कर देख लिया अब आग में जल कर देखेंगे....

उससे दूर के कारण आपका दिल भी रो उठता था - आज तुमसे दूर होकर ऐसे रोया मेरा प्यार चाँद रोया साथ मेरे रात रोई बार बार....। आपका दिल बार बार बस उसे ही पुकारा करता था - आ जा रे अब मेरा दिल पुकारा रो रो के गम भी हारा....। उसके इंतजार में आपकी जिन्दगी दर्द बन चुकी थी - आ जा के इंतजार में जाने को है बहार भी तेरे बगैर जिन्दगी दर्द बन के रह गई....। आपको सिर्फ यही लगा करता था - हम तुझसे मुहब्बत करके सनम हँसते भी रहे रोते भी रहे....

और फिर आप फिर वापस आए थे। जब आप शहर की सीमा में स्थित नदी के उस पार पहुँचे थे तो प्रसन्नता से वह कह उठी थी - उस पार साजन इस पार सारे ले चल ओ माझी किनारे....। उसकी आँखों की प्यास बुझ गई थी - घर आया मेरा परदेसी प्यास बुझी मेरे अखियन की....। आपके घर वापस आ जाने पर उसका जिया मचलने लगा था - जबसे बलम घर आये जियरा मचल मचल जाये....

फिर अन्ततः आपका प्यार परवान चढ़ा था। वो छोड़ बाबुल का घर मोहे पी के नगर आज जाना पड़ा.... कहते हुए आपके घर आ गई थी और अपने जनम को सफल बनाने के लिये आपसे अनुरोध किया था - आज सजन मोहे अंग लगालो जनम सफल हो जाये....

चलते-चलते

पोस्ट में उल्लेखित गीतः

  1. झूमे से नीला अम्बर झूमे.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, तलत महमूद, संगीत - सलिल चौधरी, गीतकार - शैलेन्द्र, फिल्म - एक गाँव की कहानी, प्रदर्शन वर्ष -1957)
  2. मन मोर हुआ मतवाला किसने जादू डाला रे.... (गायक/गायिका -  सुरैया, संगीत - सचिन देव बर्मन, गीतकार - नरेन्द्र शर्मा, फिल्म - अफसर, प्रदर्शन वर्ष - 1950)
  3. बस्ती बस्ती पर्वत पर्वत गाता जाये बंजारा लेकर दिल का इकतारा.... (गायक/गायिका - बंजारा मोहम्मद रफी, संगीत - मदन मोहन, गीतकार - साहिर लुधियानवी, फिल्म - रेल्वे प्लेटफार्म, प्रदर्शन वर्ष -1955)
  4. किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार किसी का दर्द हो सके ले उधार किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार जीना इसी का नाम है.... (गायक/गायिका - मुकेश, संगीत - शंकर जयकिशन, गीतकार - शैलेन्द्र, फिल्म - अनाड़ी, प्रदर्शन वर्ष -1959)
  5. है अपना दिल तो आवारा न जाने किस पे आयेगा.... (गायक/गायिका - हेमन्त कुमार, संगीत - सचिन देव बर्मन, गीतकार - मजरूह सुल्तानपुरी, फिल्म - सोलवाँ साल, प्रदर्शन वर्ष -1958)
  6. उड़ती फिरूं मस्त गगन में.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - शंकर जयकिशन, गीतकार - हसरत जयपुरी, फिल्म - चोरी चोरी, प्रदर्शन वर्ष -1956)
  7. हम से आया न गया उनसे बुलाया ना गया फासला प्यार में दोनों से मिटाया ना गया.... (गायक/गायिका - तलत महमूद, संगीत - मदन मोहन, गीतकार - राजेन्द्र कृशन, फिल्म - देख कबीरा रोया, प्रदर्शन वर्ष -1957)
  8. जाने क्या तूने कही जाने क्या मैंने सुनी बात कुछ बन ही गई.... (गायक/गायिका - गीता दत्त, संगीत - सचिन देव बर्मन, गीतकार - साहिर लुधियानवी, फिल्म - प्यासा, प्रदर्शन वर्ष -1957)
  9. शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो.... (गायक/गायिका - चीतलकर, लता मंगेशकर, संगीत - सी.रामचन्द्र, गीतकार - राजेन्द्र कृशन, फिल्म - अलबेला, प्रदर्शन वर्ष -1951)
  10. नैन मिले चैन कहाँ.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, मन्ना डे, संगीत - शंकर जयकिशन, गीतकार - शैलेन्द्र, फिल्म - बसंत बहार, प्रदर्शन वर्ष -1956)
  11. किसी ने अपना बना के मुझको मुस्कुराना सिखा दिया.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - शंकर जयकिशन, गीतकार - शैलेन्द्र, फिल्म - पतिता, प्रदर्शन वर्ष -1953)
  12. जानू जानू रे काहे खनके है तोरा कंगना.... (गायक/गायिका - आशा भोंसले, गीता दत्त, संगीत - सचिन देव बर्मन, गीतकार - शैलेन्द्र, फिल्म - इंसान जाग उठा, प्रदर्शन वर्ष -1959)
  13. जिंदगी प्यार की दो चार घड़ी होती है.... (गायक/गायिका - हेमन्त कुमार, लता मंगेशकर, संगीत - सी. रामचन्द्र, गीतकार - राजेन्द्र कृशन, फिल्म - अनाकली, प्रदर्शन वर्ष -1953)
  14. धड़कने लगी दिल की तारों की दुनिया.... (गायक/गायिका - आशा भोंसले, महेन्द्र कपूर, संगीत - एन दत्ता, गीतकार - साहिर लुधियानवी, फिल्म - धूल का फूल, प्रदर्शन वर्ष -1959)
  15. मुहब्बत ऐसी धड़कन है जो समझाई नहीं जाती.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - सी. रामचन्द्र, गीतकार - हसरत जयपुरी, फिल्म - अनारकली, प्रदर्शन वर्ष -1953)
  16. ये वादा करो चांद के सामने भुला तो ना दोगे मेरे प्यार को.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, मुकेश, संगीत - शंकर जयकिशन, गीतकार - हसरत जयपुरी, फिल्म - राजहठ, प्रदर्शन वर्ष -1956)
  17. कौन आया मेरे मन के द्वारे पायल की झंकार लिये.... (गायक/गायिका - मन्ना डे, संगीत - मदन मोहन, गीतकार - राजेन्द्र कृशन, फिल्म - देख कबीरा रोया, प्रदर्शन वर्ष -1957)
  18. बड़ी मुश्किल से दिल की बेकरारी को करार आया.... (गायक/गायिका - शमशाद बेगम, संगीत - नौशाद, गीतकार - जां निसार अख्तर, फिल्म - नग़मा, प्रदर्शन वर्ष -1953)
  19. चले जाना नहीं नैन मिलाके सैंया बेदर्दी.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - हुस्नलाल भगतराम, गीतकार - राजेन्द्र कृशन, फिल्म - बड़ी बहन, प्रदर्शन वर्ष - 1950)
  20. छुप गया कोई रे दूर से पुकार के दरद अनोखे हाय दे गया प्यार के.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - हेमन्त कुमार, गीतकार - राजेन्द्र कृशन, फिल्म - चम्पाकली, प्रदर्शन वर्ष -1957)
  21. जो दिल में खुशी बन कर आये वो दर्द बसा कर चले गये.... (गायक/गायिका - लता मंगेषकर, संगीत - हुस्नलाल भगतराम, गीतकार - राजेन्द्र कृशन, फिल्म - बड़ी बहन, प्रदर्शन वर्ष - 1950)
  22. हम प्यार में जलने वालों को चैन कहाँ आराम कहाँ.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - मदन मोहन, गीतकार - राजेन्द्र कृशन, फिल्म - जेलर, प्रदर्शन वर्ष -1958)
  23. जाना था हमसे दूर बहाने बना लिये अब तुमने कितनी दूर ठिकाने बना लिये.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - मदन मोहन, गीतकार - राजेन्द्र कृशन, फिल्म - अदालत, प्रदर्शन वर्ष -1958)
  24. आन मिलो आन मिलो श्याम साँवरे.... (गायक/गायिका - गीता दत्त, मन्ना डे, संगीत - सचिन देव बर्मन, गीतकार - साहिर लुधियानवी, फिल्म - देवदास, प्रदर्शन वर्ष -1955)
  25. आ लौट के आजा मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - एस एन त्रिपाठी, गीतकार - भरत व्यास, फिल्म - रानी रूपमती, प्रदर्शन वर्ष -1957)
  26. ये शाम की तनहाइयाँ ऐसे में तेरा गम.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - शंकर जयकिशन, गीतकार - शैलेन्द्र, फिल्म - आह, प्रदर्शन वर्ष -1953)
  27. आ जाओ तड़पते हैं अरमां अब रात गुजरने वाली है.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - शंकर जयकिशन, गीतकार - हसरत जायपुरी, फिल्म - आवारा, प्रदर्शन वर्ष -    1951)
  28. चांद फिर निकला मगर तुम ना आये जला फिर मेरा दिल करूँ क्या मैं हाये.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - सचिन देव बर्मन, गीतकार - मजरूह सुल्तानपुरी, फिल्म - पेइंग गेस्ट, प्रदर्शन वर्ष -1957)
  29. जा री जा री ओ कारी बदरिया मत बरसो री मोरी अटरिया परदेस गये हैं सँवरिया.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - सी. रामचन्द्र, गीतकार - राजेन्द्र कृशन, फिल्म - आजाद, प्रदर्शन वर्ष -1955)
  30. मोहे भूल गये साँवरिया.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - नौशाद, गीतकार - शकील बदाँयूनी बैजू, फिल्म - बावरा, प्रदर्शन वर्ष -1953)
  31. तेरी याद में जल कर देख लिया अब आग में जल कर देखेंगे.... ( लता मंगेशकर, संगीत - हेमन्त कुमार, गीतकार - राजेन्द्र कृशन, फिल्म - नागिन, प्रदर्शन वर्ष -1954)
  32. आज तुमसे दूर होकर ऐसे रोया मेरा प्यार चाँद रोया साथ मेरे रात रोई बार बार.... (गायक/गायिका - मुकेश, संगीत - उषा खन्ना, गीतकार - अन्जान, फिल्म - दायरा, प्रदर्शन वर्ष -1953)
  33. आ जा रे अब मेरा दिल पुकारा रो रो के गम भी हारा.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, मुकेश, संगीत - शंकर जयकिशन, गीतकार - हसरत जयपुरी, फिल्म - आह, प्रदर्शन वर्ष -1953)
  34. आ जा के इंतजार में जाने को है बहार भी तेरे बगैर जिन्दगी दर्द बन के रह गई.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, संगीत - शंकर जयकिशन, गीतकार - शैलेन्द्र, फिल्म - हलाकू, प्रदर्शन वर्ष -1956)
  35. हम तुझसे मुहब्बत करके सनम हँसते भी रहे रोते भी रहे.... (गायक/गायिका - मुकेश, संगीत - शंकर जयकिशन, गीतकार - हसरत जायपुरी, फिल्म - आवारा, प्रदर्शन वर्ष -1951)
  36. उस पार साजन इस पार सारे ले चल ओ माझी किनारे.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - शंकर जयकिशन, गीतकार - हसरत जयपुरी, फिल्म - चोरी चोरी, प्रदर्शन वर्ष -1956)
  37. घर आया मेरा परदेसी प्यास बुझी मेरे अखियन की.... (गायक/गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - शंकर जयकिशन, गीतकार - शैलेन्द्र, फिल्म - आवारा, प्रदर्शन वर्ष -1951)
  38. जबसे बलम घर आये लता जियरा मचल मचल जाये.... (गायक/गायिका - मंगेशकर, संगीत - शंकर जयकिशन, गीतकार - हसरत जायपुरी, फिल्म - आवारा, प्रदर्शन वर्ष -1951)
  39. छोड़ बाबुल का घर मोहे पी के नगर आज जाना पड़ा.... (गायक/गायिका - शमशाद बेगम, संगीत - नौशाद, गीतकार - शकील बदाँयूनी, फिल्म - बाबुल, प्रदर्शन वर्ष -1950)
  40. आज सजन मोहे अंग लगालो जनम सफल हो जाये.... (गायक/गायिका - गीता दत्त, संगीत - सचिन देव बर्मन, गीतकार - साहिर लुधियानवी, फिल्म - प्यासा, प्रदर्शन वर्ष -1957)

Sunday, August 8, 2010

ब्लोग तो हर कोई बना सकता है ना! ब्लोग बनाना भला क्या मुश्किल काम है?

"नमस्कार लिख्खाड़ानन्द जी!"

"नमस्काऽऽर! आइये आइये टिप्पण्यानन्द जी!"

"आज हम आपके पास अपनी कुछ शंकाओं के समाधान के लिए आए हैं लिख्खाड़ानन्द जी!"

"हम अवश्य ही आपकी शंकाओं का निवारण करेंगे टिप्पण्यानन्द जी! बताइये आपकी क्या शंकाएँ हैं?"

"तो यह बताइये लिख्खाड़ानन्द जी, जब किसी फिल्म को देखकर दर्शक कहें कि बहुत ही बेकार फिल्म है तो फिल्म बनाने वाला इसके जवाब में दर्शक से यह नहीं कहता कि तुम्ही कोई अच्छी सी फिल्म बना कर दिखाओ, जब किसी कवि सम्मेलन में श्रोता किसी कवि की कविता को हूट करते हैं तो कवि श्रोताओं से यह नहीं कहता कि तुम्ही कोई अच्छी सी कविता लिख कर दिखाओ तो फिर जब कोई पाठक किसी ब्लोग पोस्ट को पढ़ कर उसकी निरर्थकता के बारे में कुछ कहता है तो उससे कुछ सार्थक करके दिशा बदलने के लिए क्यों कहा जाता है? उन्हें पनठेलिये, मजमा लगाने वाले और खुद कुछ भी नहीं करने वाले क्यों कहा जाता है?"

"बहुत ही सीधी और सरल सी बात है टिप्पण्यानन्द जी! फिल्म हर कोई नहीं बना सकता, कविता भी हर कोई नहीं कर सकता पर ब्लोग तो हर कोई बना सकता है ना! ब्लोग बनाना भला क्या मुश्किल काम है? और आपको हम बता दें कि ब्लोग बना लेने को ही सार्थक कर के दिशा बदलना कहा जाता है! यदि हम पनठेलियों और मजमा लगाने वालों को प्रोत्साहित कर के ब्लोगर बना दें तो फिर वे भी सार्थक करने वालों की श्रेणी में आ जायेंगे। ब्लोगर बनाना तो देश और समाज के लिए बहुत ही कल्याणकारी काम है! और फिर किसी को ब्लोगर बनाने का सबसे बड़ा फायदा तो खुद को ही मिलता है ना! जिस किसी को भी आप ब्लोगर बनाते हैं वह आपका पक्का मुरीद हो जाता है और आपके प्रत्येक पोस्ट में टिप्पणी करना नहीं भूलता। यदि कभी कोई आपकी आलोचना करे तो वह आपके गुट का सदस्य बनकर आपके पक्ष में जी-जान लड़ा देने के लिए हमेशा तैयार रहता है!"

"लगता है कि खुदा-ए-शाह 'खुदगर्ज' को आपने आपने ही ब्लोगर बनाया है! तभी तो वे आपकी किसी भी आलोचना-समालोचना का सामना करने के लिए हमेशा सामने आ जाते हैं।"

"हें हें हें हें, आप तो बड़ी दूर की कौड़ी ले आया करते हैं!"

"लिख्खाड़ानन्द जी! हमने तो हिन्दी में सिर्फ 'लघु', 'लघुतर' और 'लघुतम' ही पढ़ा है किन्तु आजकल कथा-कहानियों के साथ 'लघुत्तम' विशेषण का प्रयोग देखने में आ रहा है।"

"टिप्पण्यानन्द जी! आपने कभी लघुत्तम समापवर्तक नहीं पढ़ा है क्या?"

"पढ़ा तो है लिख्खाड़ानन्द जी! किन्तु वह तो गणित से सम्बन्धित शब्द है, कथा-कहानियों के साथ लघुत्तम विशेषण का प्रयोग क्या व्याकरण की दृष्टि से अनुचित नहीं है?"

"आप भी अजीब सिड़ी आदमी हैं! आज हिन्दी के व्याकरण का ज्ञान कितने लोगों को है? आप ही बताइए कि सही हिन्दी का प्रयोग कितने लोग लोग करते हैं आज के जमाने में? कितने ही ट्रकों और बसों के पीछे 'हार्न दिजीये' लिखा होता है, पेट्रोल पंप में 'यहाँ पेट्रोल मीलता है' लिखा होता है। शासकीय कार्यालयों में जाकर देखें कि कैसी हिन्दी का चलन है वहाँ पर। आज तक किसी ने कभी कोई ऐतराज किया है क्या? फिर लघुत्तम कथा पर आपको ऐतराज करने का क्या अधिकार है? हम तो कहेंगे कि लघुतम के स्थान पर लघुत्तम का प्रयोग तो और भी अधिक प्रभावशाली है। हम तो यह भी कहेंगे कि लघुत्तम लघु और उत्तम शब्दों की संधि से बना हुआ शब्द है याने कि लघुत्तम कथा का अर्थ है लघुकथाओं में उत्तम लघुकथा!"

"संधि और समास तो हमने भी पढ़ा है पर जिस प्रकार से आप संधि-विच्छेद कर रहे हैं वैसा तो कभी नहीं पढ़ा भई!"

"आप हमारे पास शंका-समाधान के लिए आए हैं या हम से शास्त्रार्थ करने के लिए? भूल जाइये आप अपने जमाने में पढ़ी हुई हिन्दी को। वह पुराने जमाने की हिन्दी हो गई। हिन्दी तो जमाने के साथ-साथ बदलती ही रही है! एक जमाने में गाँधी जी ने 'साहब राम' और 'बेगम सीता' वाली हिन्दुस्तानी हिन्दी चलाई थी। और आज के जमाने में वही हिन्दी चलती है जिसे आज के महान साहित्यकार, पत्रकार, प्रकाशक और हम जैसे महान ब्लोगर लिखते और पढ़वाते हैं। आज हिन्दी की कोई भी नामी पत्र-पत्रिका या अखबार को पढ़ कर देख लीजिए आपको चन्द्रबिन्दु का प्रयोग कहीं नहीं मिलेगा, आज की हिन्दी में 'बच्चा हँस रहा है' कोई नहीं लिखता, 'बच्चा हंस रहा है' ही लिखा जाता है। आज के पाठक 'हंस' और 'हँस' के चक्कर में नहीं पड़ा करते। आज के जमाने में तो पढ़ने वालों को बस समझ में आना चाहिए कि आप क्या कहना चाहते हैं, हिन्दी में हिज्जे और व्याकरण की गलतियों को कोई नहीं देखता। जो लोग आज भी शुद्ध हिन्दी की बात करते हैं वे लोग लकीर के फकीर हैं। ऐसे बेवकूफों की बात कोई सुनने वाला भी नहीं है। इन मूर्खों को तो यह भी नहीं पता है कि यदि हम लोग नहीं लिखते तो हिन्दी कब की रसातल में चली गई होती!"

"धन्यवाद लिख्खाड़ानन्द जी! आपसे हमेशा ज्ञान की बातें ही सीखने को मिलती हैं। अब मैं चलता हूँ, नमस्कार!"

"नमस्कार!"