Saturday, September 25, 2010

"वो सुबह हमीं से आयेगी" या "वो सुबह कभी तो आयेगी"?

साहिर साहब ने एक गीत लिखा था "वो सुबह हमीं से आयेगी" किन्तु फिल्म "फिर सुबह होगी" में उन्होंने अपने उसी गीत को "वो सुबह कभी तो आयेगी" के रूप में बदल दिया था। प्रस्तुत हैं दोनों गीतः

साहिर लुधियानवी

वो सुबह हमीं से आयेगी

जब धरती करवट बदलेगी, जब क़ैद से क़ैदी छूटेंगे
जब पाप घरौंदे फूटेंगे, जब ज़ुल्म के बन्धन टूटेंगे
उस सुबह को हम ही लायेंगे, वो सुबह हमीं से आयेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी

मनहूस समाजों ढांचों में, जब जुर्म न पाले जायेंगे
जब हाथ न काटे जायेंगे, जब सर न उछाले जायेंगे
जेलों के बिना जब दुनिया की, सरकार चलाई जायेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी

संसार के सारे मेहनतकश, खेतो से, मिलों से निकलेंगे
बेघर, बेदर, बेबस इन्सां, तारीक बिलों से निकलेंगे
दुनिया अम्न और खुशहाली के, फूलों से सजाई जायेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी

अब देखिए साहिर जी अपने उसी गीत को कैसे दूसरा रूप दे देते हैः

वो सुबह कभी तो आयेगी

इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती नज़्में गायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

जिस सुबह की खातिर जुग-जुग से, हम सब मर-मर कर जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में, हम जहर के प्याले पीते हैं
इन भूखी प्यासी रूहों पर, इक दिन तो करम फर्मायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

माना कि अभी तेरे मेरे, अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर, इन्सानों की कीमत कुछ भी नहीं
इन्सानों की इज्जत जब झूठे, सिक्कों में न तोली जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

दौलत के लिये जब औरत की, इस्मत को न बेचा जायेगा
चाहत को न कुचला जायेगा, ग़ैरत को न बेचा जायेगा
अपनी काली करतूतों पर, जब ये दुनिया शर्मायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर, ये भूख के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर, दौलत की इजारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

मजबूर बुढ़ापा जब सूनी, राहों की धूल न फांकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी, गलियों में भीख न मांगेगा
ह़क मांगने वालों को जिस दिन, सूली न दिखाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

फ़ाको की चिताओं पर जिस दिन, इन्सां न जलाये जायेंगे
सीनों के दहकते दोज़ख में, अर्मां न जलाये जायेंगे
ये नरक से भी गन्दी दुनिया, जब स्वर्ग बनाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

Friday, September 24, 2010

पितृ पक्ष अर्थात् मृतक पूर्वजों की स्मृति का प्रावधान

आज हमारा अस्तित्व सिर्फ इसलिए है क्योंकि कभी हमारे पूर्वजों का अस्तित्व था, यदि हमारे पूर्वज न होते तो हमारा होना भी असम्भव था। मृत्यु के पश्चात् मृतक की स्मृति मात्र ही रह जाती है जो कि समय बीतने के साथ क्षीण होते जाती है। यह स्मृति क्षीण न होने पाए इसीलिए हिन्दू दर्शन में पितृपक्ष का प्रावधान है। वर्ष में पन्द्रह दिन अर्थात् भाद्रपद के सम्पूर्ण कृष्णपक्ष को पितरों को समर्पित किया गया है। हिन्दू दर्शन के अनुसार मृत्यु सिर्फ शरीर की होती है और आत्मा को अमर माना गया है अतः पितरों की आत्मा की शान्ति के लिए पितृपक्ष में उनके नाम से तर्पण तथा श्राद्ध किया जाता है।

हिन्दू दर्शन में पितरों को मोक्ष दिलवाने के लिए उनका श्राद्ध करना पुत्र का अनिवार्य कर्तव्य माना गया है। पितरों के मोक्ष का महत्व इतना अधिक है कि राजा सगर के साठ हजार पुत्रों, जिन्हें कपिल ऋषि ने शाप देकर भस्म कर दिया था, की मुक्ति के लिए सगर के पौत्र अंशुमान तथा अंशुमान के पुत्र दिलीप ने देवलोक से गंगा को भूलोक में लाने के लिए घोर तपस्या की किन्तु सफल न पाये तो दिलीप के पुत्र भगीरथ ने इस कार्य को पूरा किया और अपने पूर्वजों को मुक्ति दिलाई (लिंक)। मनुष्य जीवन में सफलता के लिए माता-पिता की सेवा कर तथा पितरों की आत्मा की शान्ति प्रदान कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करने की बड़ी महत्ता है।

पितृ पक्ष में पितरों की क्षुधा-शान्ति के लिए कौओं को भोजन कराने का विधान है। कौए के साथ साथ गौ, श्वानादि प्राणियों को भी भोजन दिया जाता है। इन विधानों का प्रत्यक्षतः पितरों से कुछ सम्बन्ध नहीं है ये मात्र लोकरीतियाँ ही प्रतीत होती हैं। शायद ये लोकरीतियाँ प्राणीमात्र पर दया करने के उद्देश्य ही बनाई गई हैं।

Thursday, September 23, 2010

भारत में आलू का इतिहास

भारत में शायद ही कोई ऐसा रसोईघर होगा जहाँ पर आलू ना मिले। हमारे देश में सबसे ज्यादा उगाई जाने वाली फसलों में गेहूँ, धान तथा मक्का के बाद आलू का ही नंबर आता है। सब्जी तथा बहुत से स्वादिष्ट व्यञ्जन बनाने के लिए सम्पूर्ण भारत में आलू का प्रयोग किया जाता है। पर शायद आपको यह जानकर आश्चर्य हो कि आज से लगभग 400 साल पहले भारत में आलू के बारे में लोग जानते ही नहीं थे।

ज्ञात जानकारी के अनुसार लगभग 7000-10000 वर्ष पहले आलू का घरेलू प्रयोग मध्य पेरु मे होता था। माना जाता है कि आलू की खेती सर्वप्रथम कैरिबियन में आरम्भ हुआ जहाँ पर इसे 'कमाटा' (camata) या 'बटाटा' (batata) के नाम से जाना जाता था। 16वीं शताब्दी में यह 'बटाटा' स्पेन पहुँचा और वहाँ पर उसकी खेती होने लगी तथा स्पेन से सम्पूर्ण यूरोप में 'बटाटा' का निर्यात् होने लगा। इस बीच 'बटाटा' का नाम परिवर्तित होकर 'पटाटा' (patata) बन गया जो कि इंग्लैंड जाकर 'पोटाटो' (potato) हो गया। स्पेन से निकल कर यह 'पोटाटो' पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, बेल्जियम तथा जर्मनी तक फैल गया। कालान्तर में सम्पूर्ण यूरोप तथा एशिया के कई देशों में आलू की खेती होने लगी।

माना जाता है कि 17वीं शताब्दी के आरम्भ में पुर्तगालियों ने भारत के पश्चिमी समुद्रतटों में आलू को बटाटा के नाम से उगाना शुरू किया। एक मान्यता यह भी है कि आलू भारत में 17वीं शताब्दी के अन्तिम दौर में ब्रिटिश मिशनरियों के साथ आया और ब्रिटिश व्यापारियों ने उसी समय बंगाल में कलकत्ता के आसपास के इलाकों में इसे बेचना शुरू किया, उसी काल में पोटाटो का हिन्दी नाम आलू बना। सन् 1841-42 में अंग्रेजों ने नैनीताल जैसे पहाड़ी इलाकों में आलू की खेती शुरू कर दी और आलू दिनों-दिन तेजी के साथ लोकप्रिय होते चला गया।

विश्व भर में आलू के अनेक व्यञ्जन बनाय॓ जाते हैं।

Wednesday, September 22, 2010

तू मानव है, तू चाहे तो ...

तू मानव है, तू चाहे तो
पत्थर को भी पानी कर दे
जन जन के जीवन में तू
सुख समृद्धि और वैभव भर दे!

मरुस्थली में फूल खिला दे
मिट्टी से सोना उपजा दे
तेरे हाथों में वो बल है
चट्टानों को मोम बना दे
अतुल शक्ति का स्वामी है तू
विष को भी तू अमृत कर दे!

जन-जन के जीवन में तू
सुख समृद्धि और वैभव भर दे!

शांतिदूत तू समस्त विश्व का
दुःख-दारिद्य का महाकाल है
अवनि और अंबर हैं तेरे
तू ज्ञान का महाजाल है
एक बार फिर आत्मज्ञान से
विश्वपटल आलोकित कर दे!

जन जन के जीवन में तू
सुख समृद्धि और वैभव भर दे!

उठ जाये तो देवतुल्य तू
गिर जाये तो पशु से बदतर
गिरने में अपयश है तेरा
उठ जाना ही है श्रेयस्कर
एक बार फिर इतना उठ तू
देवगणों को विस्मित कर दे!

जन जन के जीवन में तू
सुख समृद्धि और वैभव भर दे!

Tuesday, September 21, 2010

क्या हम अपनी प्राचीन गौरव-गाथा को भुलाते नहीं जा रहे हैं?

भारत की प्राचीन गौरव-गाथा को सम्पूर्ण विश्व मानता है। किन्तु दुःख की बात तो यह है कि हम भारतीय ही अपनी प्राचीन सभ्यता, जीवन और परिपाटी को भूल चुके हैं। आज से हजारों वर्ष पूर्व पंजाब का आविष्कार और संस्थापन करने वाले आर्यों की उन असाधारण विजयों के संस्कार क्या हमें याद हैं? मैं उन्हीं आर्यों की बात कर रहा हूँ जो दुरूह उत्तर के उत्तुंग हिमालय के अंचलों को विदीर्ण करके भारत की शश्य-श्यामला भूमि में आए थे और प्रबल राज्यों की स्थापना की थी। उन्हीं आर्यों ने भारत के प्रशान्त वातावरण में अगम्य-अगाध अध्यात्मतत्व को खोज निकाला था जो कि अत्यन्त प्राचीन होते हुए भी आज तक ताजे और बहुमूल्य बने हुए हैं। क्या हम जानते हैं कि कुरुओं और पांचालों की प्राचीन राजधानियाँ कहाँ थीं? क्या हमें पता है कि मगध के राजसिंहासन पर बैठ कर कब-कब किन-किन हिन्दू सम्राटों ने शासन किया था? हम तो यह भी नहीं जानते कि हमारे किन पूर्वजों ने विशाल महासागरों को अतिक्रान्त करके चीन, अरब, यवद्वीप और पाताल में अपने उपनिवेश कायम किए थे। क्या हमें आन्ध्र, गुप्त, नाग आदि महाराज्यों के विषय में जानकारी है? शकों ने किस प्रकार से भारत को आक्रान्त किया था और विक्रम ने उन्हें कैसे पददलित किया था? एलोरा और अजन्ता की गुफाएँ, साँची के स्तूप, भुवनेश्वर और जगन्नाथ के मन्दिरों का निर्माण किस-किस ने किया था?

इस उद्देश्य से कि हम भारतीय अपनी प्राचीन सभ्यता, संस्कृति, गौरव को भूल जाएँ, एक सुनियोजित शिक्षा-नीति के तहत भारतीयों को अंग्रेजी की शिक्षा देने का आरम्भ सन् 1835 में आरम्भ किया गया, जो कि कमोबेश आज तक चली आ रही है। इस शिक्षा-नीति का निर्माण लॉर्ड मैकॉले ने किया था जिसने सन् 1833 में चार्टर पर पार्लियामेंट में भाषण देते हुए कहा था, "मैं चाहता हूँ कि भारत में यूरोप के समस्त रीति-रिवाजों को जारी किया जाए, जिससे हम अपनी कला और आचारशास्त्र, साहित्य और कानून का अमर साम्राज्य भारत में कायम करें। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हम भारतवासियों की एक ऐसी श्रेणी उत्पन्न करें जो हमारे और उन करोड़ों के बीच में, जिन पर हमें शासन करना है, दुभाषिए का काम दें; जिनके खून तो हिन्दुस्तानी हों, पर रुचि अंग्रेजी हो। संक्षेप में अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीय तन से भारतीय, पर मन से अंग्रेज हो जाएँ, जिससे अंग्रेजों का विरोध करने की उनकी भावना ही नष्ट हो जाए।"

परन्तु, जिन दिनों मैकॉले ने अपने उपरोक्त विचार व्यक्त किए थे, उसी काल में अनेक पाश्चात्य विद्वानों की नजर भारतीय सांस्कृतिक सम्पदा पर भी पड़ रही थी। उन दिनों के पहले तक यूरोप भारत को धन-धान्य से भरा-पूरा, नवाबों और मुग़लों का देश समझता था और उसकी दृष्टि लूट-खसोट पर थी, सभ्यता और संस्कृति के उद्गम के सम्बन्ध में यूरोप का विश्वास था कि उसका आरम्भ यूनान और फिलिस्तीन से हुआ है; वे यह भी समझते थे कि वही देश संसार में सबसे प्राचीन सभ्यता वाले हैं। भारत को तब तक यूरोप के लोग एक अर्द्धसभ्य देश समझते थे। परन्तु जब यूरोप के निवासियों ने संस्कृत सीखी तो उनका परिचय उपनिषद् तथा कुछ जैन और बौद्ध ग्रन्थों से हुआ। जिन दिनों प्लासी का युद्ध हो रहा था, उन्हीं दिनों दुपरोन नामक एक फ्रेंच नवयुवक भारत में प्राचीन पाण्डुलिपयाँ यत्नपूर्वक खोजता फिर रहा था। वह भारत से लगभग अस्सी पाण्डुलिपयाँ अपने साथ फ्रांस ले गया। इन पाण्डुलिपियों में एक पाण्डुलिपि दाराशिकोह द्वारा फारसी-अनूदित उपनिषदों की भी थी। दुपरोन ने लैटिन में इसका अनुवाद करके 'औपलिखत' नाम से प्रकाशित किया, जिसे पढ़कर जर्मन का प्रसिद्ध दार्शनिक शॉपेनहार आश्चर्यविमूढ़ हो गया और उसके मुँह से ये उद्गार निकले कि 'इसने मेरी आत्मा की गहराई को हिलकोर दिया है। इसके प्रत्येक शब्द से मौलिक विचार ऊपर उठते हैं जिससे भारतीय विचारधारा का वातावरण आप ही उठ खड़ा होता है। ऐसा प्रतीत होता है मानों ये विचार हमारे अपने आत्मिक बन्धु के विचार हों। हमारे मनों पर जो यहूदी-संस्कारों की रूढ़ियाँ और अंधविश्वास छाए हुए हैं, वे इन विचारों के स्पर्श-मात्र से एकबारगी ही गायब हो जाते हैं। सारे संसार में इसके जोड़ का कोई और ग्रन्थ नहीं हो सकता। जीवन-भरफ में मुझे यही एक आश्वासन प्राप्त हुआ है और मृत्युपर्यन्त यह मेरे साथ रहेगा।'

जर्मनी में उपनिषदों के अध्ययन से विचारों का जागरण उसी प्रकार से हुआ जैसे रिनासां के समय में प्राचीन यूनानी साहित्य के सम्पर्क से सारे यूरोप में हुआ था। इसके बाद जोहान फिक्टे और पॉल दूसान ने वेदान्त के सत्य को संसार का सबसे बड़ा सत्य माना, और नीत्शे ने मनुस्मृति को पढ़ा तो उसने उसे बाइबिल से कई गुना श्रेष्ठ कहा।

न्याय के क्षेत्र में हिन्दुओं पर शासन उन्हीं के धर्मशास्त्रो के अनुसार करने के विचार से वारेन हेस्टिंग्ज ने पहले-पहल धर्मशास्त्रों का अनुवाद फारसी और अंग्रेजी भाषा में कराया। इसके अतिरिक्त विलायत से आए हुए जजों और वकीलों को उसने संस्कृत पढ़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने यद्यपि कचहरी की आवश्यकता के लिए संस्कृत पढ़ी, पर जब उन्होंने वहाँ का भाव-गाम्भीर्य और विचारों का मार्दव देखा तो वे एकबारगी अभिभूत हो उठे। इसके बाद सन् 1784 में सर विलियम जोन्स ने, जो उन दिनों कलकत्ता के प्रधान न्यायाधीश थे, एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की तथा स्वयं कालिदास की 'शकुन्तला' का अनुवाद किया और 'ऋतुसंहार' का एक सम्पादित संस्करण प्रकाशित कराया।

इसके एक बरस बाद सर चार्ल्स विलिकिन्स ने 'भगवद्गीता' का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया। सर जोन्स संस्कृत पर मुग्ध हो गए। उन्होंने सन् 1784 में मानव-धर्मशास्त्र नाम से मनुस्मृति का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया और जब सन् 1786 में एशियाटिक सोसाइटी का अधिवेशन हुआ तो यह घोषणा कर दी कि संस्कृत परम अद्भुत भाषा है, और लैटिन और ग्रीक से अधिक सम्पन्न है। उन्होंने यह भी विचार प्रकट किया कि गोथिक और केल्टिक भाषा-परिवार का उद्गम संस्कृत ही है। आगे इसी बुनियाद पर फ्रांजवाय, मैक्समूलर और ग्रिम ने तुलनात्मक भाषा-विज्ञान का महल खड़ा किया। इसके तत्काल बाद यूरोप के पण्डितों ने निरुक्त और व्याकरण का मनन किया और फोनेटिक्स लिखना आरम्भ किया।

विलियम जोन्स की मृत्यु के बाद उनके कनिष्ठ सहकारी हेनरी टॉमस कोलब्रुक एक महान प्राच्यविद्या-विशारद प्रसिद्ध हुए। इन्होंने हिन्दू-धर्मशास्त्र, दर्शन, व्याकरण, ज्योतिष और धर्म का बड़ा ही गम्भीर अध्ययन एशियाटिक रिसर्चेज में प्रकाशित किया। वेदों का भी एक प्रामाणिक विवरण 'आन द वेदाज' सबसे प्रथम उन्होंने निकाला।

मैक्समूलर, जो कि एक जर्मन होने के बावजूद अंग्रेजी शासन का एक स्तम्भ था, ने सायण के भाष्य पर महत्वपूर्ण अध्ययन किया और उसके बाद उसने वेदों का भाष्य किया, जिसने पूरे यूरोप की आँखें खोल दीं। वेदभाष्य से बढ़कर एक काम उसने  यह किया कि तुलनात्मक भाषा-विज्ञान और तुलनात्मक अध्ययन की परम्परा स्थापित की। इसका परिणाम यह हुआ कि यूरोप के मोह-अन्धकार का पर्दा फट गया। अब तक वे जो यह मानते आ रहे थे कि फिलिस्तीन और यूनान सबसे पुराने देश हैं, और हिब्रू भाषा सबसे पुरानी है, ये सब मान्ताएँ बिखर गईं। मैक्समूलर ने प्रमाणित कर दिया कि संसार की प्राचीनतम जाति आर्य है और प्राचीनतम साहित्य वेद है। इस प्रकार जर्मन विद्वानों ने भारतीय साहित्य, दर्शन और धर्म का जो बखान किया, उसने ईसाइयों के उस प्रचार को भी मिथ्या कर दिया जो वे भारत से बाहर करते थे कि भारत अर्द्ध-शिक्षित देश है।

श्लीगल बन्धुओं ने जर्मन भाषा के द्वारा यूरोप में भारतीय ज्ञान का काफी विस्तार किया। वेद, उपनिषद, भगवद्गीता, मनुस्मृति, शकुन्तला और वेणीसंहार को देखकर जर्मन कवि और विद्वान विस्मय से मूढ़-मुग्ध हो गए। इस साहित्य के भाव और विचार नये क्षितिज के थे। श्लीगल ने गीता की प्रशंसा पागलों की भाँति की और कहा, "ओ ईश्वरत्व के व्याख्याता, तुम्हारी वाणी के प्रभाव से मनुष्य का हृदय ऐसे अकथनीय आनन्द की भूमि में पहुँच जाता है, जो अत्यन्त उच्च, सनातन और ईश्वरीय है। मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ और तुम्हारे चरणों में अपना अभिनन्दन भेंट करता हूँ।" भारतीय काव्यों की विलक्षणता पर सकर्ट ने प्रकाश डाला। गेटे ने शकुन्तला पर प्रशस्ति लिखी। गेटे आदि ने संस्कृत-परम्पराओं को अपनाया और श्लीगल से हाइने तक जर्मन कविता में भारतीय भाव फैलत ही रहे।

यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि हम समस्त संसार द्वारा स्तुत्य अपनी ही संस्कृति, सभ्यता, और गौरव को निरन्तर रूप से भुलाते ही चले जा रहे हैं।

टीपः इस पोस्ट में विचार, भाव तथा सामग्री आचार्य चतुरसेन के उपन्यास "सोना और खून" से लिए गए हैं।

Monday, September 20, 2010

ब्राह्मण ब्लोगर नाऊ जात देख गुर्राऊ

छत्तीसगढ़ी में एक हाना (लोकोक्ति) है "बाम्हन कूकुर नाऊ जात देख गुर्राऊ"! मतलब यह कि एक ब्राह्मण स्वयं को दूसरे ब्राह्मण से श्रेष्ठ बताने की कोशिश करता है, एक नाई दूसरे नाई को सहन नहीं कर सकता और एक गली के कुत्ते अपनी गली में दूसरी गली के कुत्ते के आ जाने पर उस पर गुर्राने लगते हैं। इस हाने (लोकोक्ति) से हमारा परिचय कल ही हुआ है। कल जब हम अपनी बेटी के घर गए तो उसकी गली के कुत्ते हम पर भौंकने लगे।

हमने जवाँई जी को बताया कि उनकी गली के कुत्ते हम पर भौंक रहे थे तो उन्होंने कहा, "पापा जी ऐसा तो होता ही है, जब किसी दूसरी गली का इस गली में आता है तो ..."

हम भौंचक से हो गए और हमारे मुँह से निकल पड़ा, "क्याऽऽऽ"

तो जमाई जी ने कहा, "आपने तो सुना ही होगा 'बाम्हन कूकुर नाऊ जात देख गुर्राऊ'!"

इस प्रकार से इस छत्तीसगढ़ी लोकोक्ति से हमारा परिचय हो गया। पर इस हाने को सुनकर हमारे भीतर का गब्बर जाग उठा और कहने लगा, "गलत है ये हाना। 'दोपाये दो और चौपाया एक', बहुत बेइन्साफी है ये। या तो तीनों के तीनों चौपाये होने चाहिए या फिर तीनों के तीनों दोपाये! इसलिए अब हम तीनों को ही दोपाये बनाय देते हैं - 'ब्राह्मण ब्लोगर नाऊ जात देख गुर्राऊ'!"

हमें लगा कि हमारे भीतर का गब्बर ठीक ही तो कह रहा है। दो आदमियों के साथ एक जानवर होने का भी भला कोई तुक है? तीनों को आदमी ही होना चाहिए। तीसरे आदमी के लिए ब्लोगर ही सबसे अधिक उपयुक्त है क्योंकि एक ब्लोगर ऊपरी तौर पर दूसरे ब्लोगर के पोस्ट में मिश्री की डली जैसी टिप्पणी तो करता है पर भीतरी तौर से गुर्राता भी है 'उसके पोस्ट में मेरे पोस्ट से टिप्पणियाँ ज्यादा क्यों?' अब मैं ऐसा पोस्ट लिख कर दिखाउँगा जिसमें सबसे ज्यादा टिप्पणियाँ होंगी।

हम खुश हुए कि हमारे भीतर के गब्बर से प्रेरणा पाकर हमने एक नई लोकोक्ति की रचना कर डाली है। हो सकता है कि भविष्य में इस नई लोकोक्ति के लिए लोग यह कह कर हमारी तारीफ करें कि  'स्साला एक जी.के. अवधिया था यार, जिसने इस लोकोक्ति को बनाया'!

चलिए जब लोकोक्ति की बात चली है तो हम इतना और लिख दें कि "जब जीवन का यथार्थ ज्ञान नपे-तुले शब्दों में मुखरित होता है तो वह लोकोक्ति बन जाता है" याने कि लोकोक्ति एक प्रकार से "गागर में सागर" होता है। छत्तीसगढ़ी में लोकोक्ति को "हाना" के नाम से जाना जाता है। छत्तीसगढ़ी भाषा में बहुत से सुन्दर हाने हैं जिन्हें उनके हिन्दी अर्थसहित जानकर आपको बहुत आनन्द आयेगा। यहाँ पर हम कुछ ऐसे ही रोचक छत्तीसगढ़ी हाना उनके हिन्दी अर्थ सहित प्रस्तुत कर रहे हैं:

  • "अपन पूछी ला कुकुर सहरावै" अर्थात् अपनी तारीफ स्वयं करना, हिन्दी में इसके लिए है "अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना"।
  • "चलनी में दूध दुहय अउ करम ला दोष दै" अर्थात् खुद गलत काम करना और किस्मत को दोषी ठहराना।
  • "घर के जोगी जोगड़ा आन गाँव के सिद्ध" अर्थात् घर के ज्ञानी को नहीं पूछना और दूसरे गाँव के ज्ञानी को सिद्ध बताना याने कि आप कितने ही ज्ञानी क्यों न हों घर में आपको ज्ञानी नहीं माना जाता।
  • "अपन मरे बिन सरग नइ दिखय" अर्थात् स्वयं किये बिना कोई कार्य नहीं होता।
  • "रद्दा में हागै अउ आँखी गुरेड़ै" अर्थात् रास्ते में गंदगी करना और मना करने वाले पर नाराज होना, इसी को हिन्दी में कहते हैं "उल्टा चोर कोतवाल को डाँटै"।
  • "आज के बासी काल के साग अपन घर में काके लाज!" अर्थात् अपने घर में रूखी-सूखी खाने में काहे की शर्म याने कि "रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी, देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जी"।
  • "अड़हा बैद परान घातिया" अर्थात् नीम-हकीम खतरा-ए-जान।
  • "कउवा के रटे ले बइला नइ मरय" अर्थात् कौवा के रटने से बैल मर नहीं जाता याने कि किसी के कहने से किसी की मृत्यु नहीं होती।
  • "उप्पर में राम-राम तरी में कसाई" अर्थात् "मुँह में राम बगल में छुरी"।
  • "करनी दिखय मरनी के बेर" अर्थात् किये गये अच्छे या बुरे कर्मों की परीक्षा मृत्यु के समय होती है।
  • "खेलाय-कुदाय के नाव नइ गिराय पराय के नाव" अर्थात् प्रशंसा कम मिलती है और अपयश अधिक।

Sunday, September 19, 2010

हे विकराले! हे कटुभाषिणी! हे देवि! हे भार्या!

हे आर्यावर्त की आधुनिक आर्या!
हे विकराले! हे कटुभाषिणी!
हे देवि! हे भार्या!

पाणिग्रहण किया था तुझसे
सोच के कि तू कितनी सुन्दर है,
पता नहीं था
मेरी बीबी मेरी खातिर
"साँप के मुँह में छुछूंदर है"

निगल नहीं पाता हूँ तुझको
और उगलना मुश्किल है
समझा था जिसको कोमलहृदया
अब जाना वो संगदिल है

खब्त-खोपड़ी-खाविन्द हूँ तेरा
जीवन भर तुझको झेला हूँ
"पत्नी को परमेश्वर मानो"
जैसी दीक्षा देने वाले गुरु का
सही अर्थ में चेला हूँ

बैरी है तू मेरे ब्लोगिंग की
क्यूँ करती मेरे पोस्ट-लेखन पर आघात है?
मेरे ब्लोगिंग-बगिया के लता-पुष्प पर
करती क्यों तुषारापात है?

हे विकराले! हे कटुभाषिणी!
हे देवि! हे भार्या!

बस एक पोस्ट लिखने दे मुझको
और प्रकाशित करने दे
खाली-खाली हृदय को मेरे
उल्लास-उमंग से भरने दे
तेरे इस उपकार के बदले
मैं तेरा गुण गाउँगा
स्तुति करूँगा मैं तेरी
और तेरे चरणों में
नतमस्तक हो जाउँगा।

यह मत कहना कि पुराने पोस्ट को फिर से लगा दिया, भई इतवार का दिन है आज...