Monday, January 26, 2009

भारत के प्रति लॉर्ड मेकॉले के विचार (2)

कल के मेरे पोस्ट में नीरज जी की टिप्पणी

.....लेकिन मैकाले को भारत में बिना किसी ठोस शोध के वैसे ही काले में पोत दिया गया है। जिस वक्त्व्य की बात आप कर रहे हैं, वो मैकाले ने कभी दिया ही नहीं.....

तथा बहुत पहले उनके द्वारा लिखे "मैकाले: सत्य कहीं कुछ और तो नहीं" को पढ़ने के बाद सोचने पर मजबूर हो गया हूँ कि कहीं वास्तव में हम पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर मैकॉले को भला बुरा तो नहीं कह रहे हैं।

हम वही लिखते हैं जिसे कि हमने कहीं पढ़ा है या सुना है, लिखते समय हमारा कुछ न कुछ पूर्वाग्रह भी अवश्य होता है। किन्तु कोई लेखक, चाहे वह मैं होऊँ या चिपलूनकर जी या कोई अन्य, जब मैकॉले जैसे किसी व्यक्ति के विरुद्ध कुछ लिखता है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि लेखक का उसके प्रति कोई व्यक्तिगत शत्रुता है। मेरा तो मानना है कि मैकॉले वास्तव में बहुत बड़े विद्वान थे। वास्तव में विरोध मैकॉले जैसे किसी व्यक्तिविशेष के प्रति नहीं बल्कि एक पूरी जातिविशेष, जिसने कि हमें वर्षों तक गुलाम बना रखा था, के प्रति होता है।

प्रश्न यह उठता है कि मैकॉले के जिस वक्तव्य की बात मैंने कल अपने पोस्ट में लिखा था उसे मैकॉले ने दिया था या नहीं? नीरज जी का मानना है कि मैकॉले ने वो वक्तव्य दिया ही नहीं था।  कोइनराड एल्स्ट (Koenraad Elst) के शोधपत्र से पता चलता है कि सन्  1835 में मैकॉले भारत में थे अतः ब्रिटिश पार्लियामेंट में वे वक्तव्य कैसे दे सकते हैं। कुछ अन्य लोगों का मानना है कि मैकॉले ने वो वक्तव्य सन् 1833 में दिया था न कि   1835 में। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैकॉले ने कुछ न कुछ वक्तव्य दिया तो अवश्य था (क्योंकि धुआँ तभी उठता है जब कहीं कोई चिंगारी होती है) पर शायद अन्य लोगों ने उसे तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया।

किन्तु सच्चाई यही है कि मैकॉले का विचार भी अन्य अंग्रेजों की तरह भारत को दबे कुचले राष्ट्र के रूप में देखना ही था। ये अलग बात है कि अन्य अंग्रेज भारत को बहुत ज्यादा दबा कुचला देखना चाहते थे और मैकॉले भारत को कुछ कम दबा कुचला देखना चाहते थे क्योंकि वे अन्य अंग्रेजों की तुलना में अधिक बुद्धिमान थे। वे राज्य चलाने के लिये लिपिकीय कार्यों जैसे छोटे कामों को भारतीयों से ही करवाना चाहते थे अर्थात् भारतीयों की सहायता से ही भारतीयों को गुलाम बनाये रखना।

Sunday, January 25, 2009

भारत के प्रति लॉर्ड मेकॉले के विचार

सन्  1835 में ब्रिटिश पार्लियामेंट में लॉर्ड मेकॉले ने कहा था:

"मैंने लम्बाई से लेकर चौड़ाई तक समस्त भारत की यात्रा की है और अपनी इस यात्रा के दौरान मैंने एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जो कि भिखारी हो, चोर हो। मुझे इस देश में ऐसी दौलत, ऐसी उच्च नैतिक मूल्य, ऐसी क्षमता वाले लोग दिखाई दिये हैं कि मैं नहीं समझता कि, जब तक हम यहाँ की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत, जो कि इस देश की रीढ़ की हड्डी है, को तोड़ न दें, हम इस देश को कभी भी विजित कर पायेंगे और इसीलिये मैं प्रस्तावित करता हूँ कि हम उसके पुराने और प्राचीन शिक्षा प्रणाली, उसकी संस्कृति को बदल दें ताकि भारतीय समझने लगें की यह सब (अपनी वस्तुएँ) विदेशी हैं और अंग्रेजी हमारी अपनी भाषा से अधिक महान है, वे अपने आत्म सम्मान, अपनी मूल आत्म-संस्कृति को खो दें और वैसे बन जायें जैसा कि हम चाहते हैं, भारत सचमुच में हमारा शासित राष्ट्र बन जाये।"


"I have traveled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is a beggar, who is a thief. Such wealth I have seen in this country, such high moral values, people of such calibre, that I do not think we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is her spiritual and cultural heritage, and, therefore, I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self-esteem, their native self-culture and they will become what we want them, a truly dominated nation."