Friday, January 28, 2011

हमें भारतीयों के महान कार्यों पर गर्व नहीं होता, सिर्फ आश्चर्य होता है

जब कभी भी मित्रों तथा परिचितों को मैं बताता हूँ कि प्राचीन भारत विज्ञान के क्षेत्र में अत्यन्त उन्नत था तो पहले तो उन्हें विश्वास ही नहीं होता। किन्तु विभिन्न तर्कों तथा प्रमाणों के द्वारा जब मैं अपनी बात को सिद्ध कर देता हूँ तो उन्हें हमारे पूर्वजों के विज्ञान के विषय में विशेषज्ञ होने पर गर्व नहीं होता, सिर्फ आश्चर्य होता है।

ऐसी बहुत सारी घटनाओं का वर्णन श्री सुरेश सोनी जी अपने विभिन्न लेखों में करते है जिनमें से कुछ सन्दर्भ नीचे दिए जा रहे हैं

(1)
डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम अपनी पुस्तक ‘इण्डिया-2020 में : ए विजन फॉर न्यू मिलेनियम’ में बताते हैं कि मेरे घर की दीवार पर एक कैलैण्डर टँगा है, इस बहुरंगी कैलैण्डर में सैटेलाइट के द्वारा यूरोप, अफ्रीका आदिमहाद्वीपों के लिए गये चित्र छपे हैं। ये कैलैण्डर जर्मनी में छपा था। जब भी कोई व्यक्ति मेरे घर में आता था तो दीवार पर लगे कैलैण्डर को देखता था, तो कहता था कि वाह! बहुत सुन्दर कैलैण्डर है! तब मैं कहता था कि यह जर्मनी में छपा है। यह सुनते ही उसके मन में आनन्द के भाव जग जाते थे। वह बड़े ही उत्साह से कहता था कि सही बात है, जर्मनी की बात ही कुछ और है, उसकी टेक्नालॉजी बहुत आगे है। उसी समय जब मैं उसे यह कहता कि कैलैण्डर छपा तो जरुर जर्मनी में है किन्तु जो चित्र छपे हैं उसे भारतीय सैटेलाइट नें खींचे हैं, तो दुर्भाग्य से कोई भी ऐसा आदमी नही मिला जिसके चेहरे पर वही पहले जैसे आनन्द के भावआये हों। आनन्द के स्थान पर आश्चर्य के भाव आते थे, वह बोलता था कि अच्छा! ऐसा कैसे हो सकता है? और जब मै उसका हाथ पकड़कर कैलैण्डर के पास ले जाता था और जिस कम्पनी ने उस कैलैण्डर को छापा था, उसने नीचे अपना कृतज्ञता ज्ञापन छापा था ”जो चित्र हमने छापा है वो भारतीय सैटेलाइट नें खींचे हैं, उनके सौजन्य से हमें प्राप्त हुए हैं।” जब व्यक्ति उस पंक्ति को पढ़ता था तो बोलता था कि अच्छा! शायद, हो सकता है।
(2)
दूसरी घटना भी इन्ही से सम्बन्धित है जब वे सिर्फ वैज्ञानिक थे।। दुनिया के कुछ वैज्ञानिक रात्रिभोज पर आये हुए थे, उसमें भारत और दुनिया के कुछ वैज्ञानिक और भारतीय नौकरशाह थे। उस भोज में विज्ञान की बात चली तो राकेट के बारे में चर्चा चल पड़ी। डॉ. कलाम नें उस चर्चा में भाग लेते हुए कहा कि कुछ समय पूर्व मैं इंलैण्ड गया था वहाँ एक बुलिच नामक स्थान है, वहाँ रोटुण्डा नामक म्युजियम है। जिसमे पुराने समय के युध्दों में जिन हथियारों का प्रयोग किया गया था, उसकी प्रदर्शनी भी लगाई गयी थी। वहाँ पर आधुनिक युग में छोड़े गये राकेट का खोल था। और आधुनिक युग के इस राकेट का प्रथम प्रयोग श्रीरंगपट्टनममें टीपू सुल्तान पर जब अंग्रेजों ने आक्रमण किया था, उस युध्द में भारतीय सेना नें किया था। इस प्रकार आधुनिक युग में प्रथमराकेट का प्रक्षेपण भारत नें किया था। डॉ. कलाम लिखते हैं किः

जैसे ही मैने यह बात कही एक भारतीय नौकरशाह बोला मि. कलाम! आप गलत कहते हैं, वास्तव में तो फ्रेंच लोगों ने वह टेक्नोलॉजी टीपू सुल्तान को दी थी। डॉ. कलाम नें कहा ऐसा नही है, आप गलत कहते हैं! मैं आपको प्रमाण दूँगा। और सौभाग्य से वह प्रमाण किसी भारतीय का नही था, नही तो कहते कि तुम लोगों ने अपने मन से बना लिया है। एक ब्रिटिश वैज्ञानिक सर बर्नाड लावेल ने एक पुस्तक लिखी थी ”द ओरिजन एण्ड इंटरनेशनल इकोनॉमिक्स ऑफ स्पेस एक्सप्लोरेशन” उस पुस्तक में वह लिखते हैं कि ‘उस युध्द में जब भारतीय सेना नें राकेट का उपयोगकिया तो एक ब्रिटिश वैज्ञानिक विलियम कांग्रेह्वा ने राकेट का खोल लेकर अध्ययन किया और उसका नकल करके एक राकेट बनाया। उसने उस राकेट को 1805 में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पिट के सामनें प्रस्तुत किया और उन्होने इसे सेनामें प्रयुक्त करनें की अनुमति दी।’ जब नैपोलियन के खिलाफ ब्रिटेन का युध्द हुआ तब ब्रिटिश सेना नें राकेट का प्रयोग किया।अगर फ्रेंचो के पास वह टेक्नोलॉजी होती तो वे भी सामने से राकेट छोड़ते, लेकिन उन्होने नही छोड़ा। जब यह पंक्तियाँ डॉ. कलामनें उस नौकरशाह को पढ़ाई तो उसको पढ़कर  भारतीय नौकरशाह बोला, बड़ा दिलचस्प मामला है। डॉ. कलाम नें कहा यह पढ़कर उसे गौरव का बोध नही हुआ बल्कि उसको दिलचस्पी का मामला लगा|
(3)
संस्कृत भारती नामक संगठन देश में संस्कृत के प्रचार-प्रसार और उसे जन भाषा बनाने की दृष्टि से विगत कुछ वर्षों से कार्य कर रहा है। इस संगठन ने संस्कृत मात्र धर्म-दर्शन ही नहीं अपितु विज्ञान तथा तकनीक की भी भाषा है, इसे लोगों को बताने की दृष्टि से गणित, भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, नक्षत्र विज्ञान आदि के जो संदर्भ प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में उपलब्ध हैं, उनका आधुनिक वैज्ञानिक खोजों से कैसा साम्य है, यह बताने वाले पांच भित्तिचित्र तैयार किये हैं। उसे प्रचारित-प्रसारित किया जाए, इस दृष्टि से भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के प्रमुख अधिकारियों के साथ वार्तालाप हेतु फरवरी २००१ में संस्कृत भारती के राष्ट्रीय संगठन मंत्री च.मू.कृष्णशास्त्री अपने साथ पांचों भित्तिचित्र लेकर गये। वार्तालाप के समय वे भित्तिचित्र अधिकारियों के देखने के लिए उनके सामने रखे गये।

उनमें गणित से संबंधित भित्तिचित्र के प्रारंभ में ही उन अधिकारियों ने देखा कि शताब्दियों पूर्व आर्यभट्ट ने (पाई) का मान ३.१४१६ निकाला था तो आश्चर्य के साथ उन्होंने उद्गार व्यक्त किये, ‘अच्छा (पाई) का मान हमारे पूर्वजों ने इतने वर्ष पूर्व निकाल लिया था।' यह घटना इंगित करती है कि भारत वर्ष में विज्ञान के विकास की दिशा निर्धारित करने वाले व्यक्ति भारत वर्ष में विज्ञान की परंपरा की सामान्य जानकारी से भी अनभिज्ञ हैं।
(4)
पुरी के पूर्व शंकराचार्य भारती कृष्ण तीर्थ जी ने अपनी साधना द्वारा शुल्ब सूत्रों और वेद की पृष्ठभूमि से गणित के कुछ अद्भुत सूत्रों और उपसूत्रों का आविष्कार किया। इन १६ मुख्य सूत्रों और १३ उपसूत्रों के द्वारा सभी प्रकार की गणितीय गणनाएं, समस्याएं अत्यंत सरलता और शीघ्रता से हल की जा सकती हैं। इन सूत्रों के आधार पर उन्होंने एक पुस्तक लिखी ‘वैदिक मैथेमेटिक्स।‘ पुस्तक के महत्व को ध्यान में रखते हुए मुम्बई में टाटा द्वारा मूलभूत शोध हेतु स्थापित संस्थान (टाटा इंस्टीट्यूट फार फन्डामेंटल रिसर्च) में कुछ लोग गये और वहां के प्रमुख से आग्रह किया कि गणित के क्षेत्र में यह एक मौलिक योगदान है, इसका परीक्षण किया जाये तथा इसे पुस्तकालय में रखा जाये। तब इस संस्थान ने इसे यह कहकर स्वीकृति नहीं दी कि हमारा इस पर विश्वास नहीं है। जिस पुस्तक को नकार दिया गया वह देश में विचार का विषय आगे चलकर तब बनी जब एक विदेशी गणितज्ञ निकोलस ने इंग्लैंड से मुम्बई आकर कुछ गणितज्ञों के सामने इन अद्भुत सूत्रों के प्रयोग बताकर कहा कि यह तो ‘मैजिक‘ है। इसका प्रचार-प्रसार टाइम्स आफ इंडिया ने किया। यह घटना बताती है कि एक विदेशी इसका महत्व न बतलाता तो उसे मानने की हमारी मानसिकता नहीं थी।
(5)
भूतपूर्व मानव संसाधन विकास तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डा.मुरली मनोहर जोशी १९६२ में उत्तर प्रदेश की पाठ्यक्रम समिति के सदस्य बने। अपने अध्ययन के दौरान उनके ध्यान में आया कि गणित का विद्यार्थी जिस पायथागोरस थ्योरम के कारण भयभीत रहता है उस प्रमेय को पायथागोरस के पूर्व भारत वर्ष में बोधायन ने हल किया था। पायथागोरस की पद्धति जहां दीर्घ, क्लिष्ट व उबाऊ थी वहीं बोधायन की पद्धति अत्यंत संक्षिप्त व सरल थी। अत: उन्होंने पाठ्यक्रम समिति के सदस्यों को यह तथ्य बताया और आग्रह किया कि हमारे यहां इसे बोधायन प्रमेय कहा जाए तो इससे जहां एक ओर विद्यार्थियों को एक सरल पद्धति मिलेगी, वहीं दूसरी ओर हमारे देश का यह अवदान है, यह जानकर उनका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। लेकिन पाठ्यक्रम समिति के सदस्य तैयार नहीं हुए। लोगों को सहमत करने का वे प्रयत्न करते रहे। इसी कड़ी में एक और तथ्य उनके ध्यान में आया। एडवर्ड टेलर, जो विश्व के एक प्रमुख भौतिक शास्त्री रहे तथा हाइड्रोजन बम, परमाणु बम बनाने में जिनका योगदान रहा और जो नोबल पुरस्कार से सम्मानित हुए, ने एक पुस्तक लिखी है ‘सिम्पलिसिटी एंड साइंस‘। इस पुस्तक में उन्होंने कहा कि विज्ञान की पढ़ाई, दुरूह, जटिल व उबाऊ नहीं होनी चाहिए अपितु सरल, सुगम व आनंद देने वाली होनी चाहिए। इस दृष्टि से गणितीय समस्याएं कितनी सरलता से हल हो सकती हैं, उसके उदाहरण के रूप में उन्होंने बोधायन प्रमेय का उदाहरण दिया था। डा.जोशी ने जब एडवर्ड टेलर के प्रमाण को पाठ्यक्रम समिति को बताया, तब उन्होंने कहा अच्छा आपका इतना आग्रह है तो हम इसे ‘पायथागोरस बोधायन प्रमेय‘ कर देते हैं।

उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि हम भारतीयों का अपनी संस्कृति, सभ्यता, भाषा से विश्वास उठ चुका है, हमारा स्वाभिमान नष्ट हो चुका है। और यह हुआ है स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी हमारे देश में विदेशियों के विचारों पर आधारित शिक्षानीति के जारी रहने के कारण। अंग्रेज तो चाहते ही थे कि हमारा स्वाभिमान पूरी तरह से नष्ट हो जाए ताकि हम हमेशा-हमेशा के लिए उनकी गुलामी के जंजीरों में जकड़े रहें। पर यह बात समझ से बाहर है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश के कर्णाधारों ने उनकी षड़यन्त्रयुक्त शिक्षा नीति को क्यों जारी रहने दिया? क्या हमारे देश में ऐसे विद्वान नहीं हैं जो पूर्ण रूप से भारतीयता पर आधारित शिक्षानीति का निर्माण कर सकें?

अभी भी यदि हम सँभल जाएँ तो एक बार फिर से भारत को जगद्गुरु का श्रेय दिलवा सकते हैं।

Thursday, January 27, 2011

भारतीय ज्ञान के प्रतीक - यज्ञवेदी

आज जिसे हम हवनकुण्ड या यज्ञकुण्ड कहते हैं वह वास्तव में यज्ञवेदी हैं। "तंत्रार्णव" में बताया गया है कि यज्ञ की वेदी समस्त ब्रह्माण्ड का एक छोटा रूप ही है। इस सृष्टि की रचना ब्रह्मा जी ने सृष्टियज्ञ करके ही किया था। वेदों में अश्वमेध यज्ञ, राजसूय यज्ञ जैसे अनेक यज्ञों के विषय में वर्णन है। इन सभी यज्ञों के लिए भिन्न-भिन्न आकृतियों वाली वेदियाँ हुआ करती थीं। तैत्तिरीय ब्राह्मण कहता है कि जो स्वर्ग प्राप्ति की कामना से यज्ञानुष्ठान करता है उसे श्येन (बाज) पक्षी की आकृति जैसी वेदी बनवानी चाहिए क्योंकि श्येन की उड़ान समस्त पक्षियों में श्रेष्ठ है; ऐसी वेदी बनवाने वाला स्वयं श्येन का रूप लेकर उड़ते हुए स्वर्गलोक पहुँच जाता है।

यज्ञ की वेदियों की आकृति कितनी जटिल होती थीं इसका अनुमान नीचे के चित्रों को को देखकर लगाया जा सकता हैः

 

(चित्र http://www.ece.lsu.edu/kak/axistemple.pdf के सौजन्य से साभार)

यज्ञ की वेदियों में त्रिभुज, चतुर्भुज जिसमें वर्ग तथा आयत दोनों ही होते थे, षट्भुज, अष्टभुज, वृत आदि रेखागणितीय आकार सम्मिलित रहते थे तथा उन रेखागणितीय आकृतियों के क्षेत्रफल भी पूर्वनिर्धारित तथा निश्चित अनुपात में हुआ करते थे। आकृतियों के आकार-प्रकार, क्षेत्रफल आदि की गणना के लिए सूत्र बनाए गए थे जिन्हें शुल्बसूत्रों के नाम से जाना जाता है। बोधायन एवं आपस्‍तम्‍ब के शुल्बसूत्र प्रमुख माने जाते हैं। आपको शायद ज्ञात होगा, और यदि आप नहीं जानते हैं तो जानकर आपको आश्चर्य होगा, कि त्रिभुज की भुजाओं के वर्ग से सम्बन्धित जिस प्रमेय का प्रतिपादन करने के लिए ग्रीक लोग पैथागोरस को श्रेय देते हैं, उसके विषय में हमारे आचार्यों को पैथागोरस के काल से हजारों वर्ष पहले ही न केवल ज्ञान था बल्कि वे उस प्रमेय का यज्ञवेदी बनाने के लिए व्यवहारिक रूप से प्रयोग भी किया करते थे। बोधायन अपने शुल्बसूत्र में कहते हैं

समचतुरसस्याक्ष्णया रज्जुः पार्श्वमानी तिर्यङ्मानी च यत्पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोति।

इसका अर्थ है, किसी आयात का कर्ण क्षेत्रफल में उतना ही होता है, जितना कि उसकी लम्बाई और चौड़ाई के वर्गों का योग होता है, दूसरे शब्दों में कहा जाए तो किसी वर्ग के कर्ण का क्षेत्रफल स्वयं उस वर्ग के क्षेत्रफल से दोगुना होता है। हमारे पूर्वजों के इस ज्ञान को ग्रीक दार्शनिक तथा गणितज्ञ पैथागोरस अपने शब्दों में इस प्रकार कहते हैं कि किसी समकोण त्रिभुज के कर्ण का वर्ग उस त्रिभुज की अन्य दो भुजाओं के वर्गों के योग के बराबर होता है।

इन शुल्बसूत्रों में विशेषरूप से निर्धारित रेखागणितीय आकृतियों के निर्माण के विषय में बहुत से विवरण हैं तथा यह भी बताया गया है कि एक रेखागणितीय आकृति के क्षेत्रफल के बराबर या किसी निश्चित अनुपात के क्षेत्रफल वाले दूसरी रेखागणितीय आकृति कैसे बनाया जा सकता है जैसे कि एक आयत के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल वाले त्रिभुज, चतुर्भुज आदि बनाना।

यज्ञवेदियों के निर्माण के लिए विशेषज्ञ आचार्यों द्वारा इन्हीं सूत्रों का प्रयोग किया जाता था। दूरी की इकाई अंगुल होती थी जो कि जो कि आज के एक इंच के लगभग तीन चौथाई के बराबर होती थी। अंगुल को यव तथा तिल में पुनः विभाजित किया गया था, 8 यव या 34 तिल के बराबर एक अंगुल हुआ करता था। रेखागणितीय आकृतियों की भुजाओं, कर्णों आदि को नापने के लिए डोरी का प्रयोग किया जाता था जिसे कि रज्जु कहा जाता था।

बोधायन ने न केवल पैथागोरस प्रमेय (Pythagorean Ttheorem), जिसे कि अब (Boudhayan Ttheorem) के नाम से जाना जाता है, का ज्ञान दिया बल्कि अंक 2 के वर्गमूल ज्ञात करने सूत्र भी निम्न रूप में हमें दियाः



ऐसा प्रतीत होता है कि शुल्बसूत्रों का प्रयोग उस काल में भवन, अट्टालिकाएँ आदि के निर्माण के लिए भी अवश्य ही हुआ करता रहा होगा। वाल्मीकि रामायण में अयोध्या, मिथिला, लंका के साथ ही साथ अनेक अन्य नगरों का वर्णन मिलता है जिनमें अनेक सुन्दर विशाल अट्टालिकाएँ, भवन, बावड़ियाँ, वाटिकाएँ तथा उपवन, बावड़ियाँ आदि बने होने का विवरण मिलता है जिनके निर्माण के लिए ज्यामितीय ज्ञान का होना अत्यावश्यक है। अतः यही कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में शुल्बसूत्रों का प्रयोग वास्तु से सम्बन्धित निर्माणकार्य में भी हुआ करता था। हमारा तो यह भी विश्वास है कि वर्तमान ताज महल के निर्माण में भी शुल्बसूत्रों का ही प्रयोग हुआ है।

भारत भूमि आरम्भ से ही ज्ञान का भण्डार रहा है और इसीलिए हमारा देश जगद्गुरु के रूप में जाना जाता था। पाश्चात्य विद्वानों ने हमारे वैदिक साहित्य का अपनी भाषाओं में अनुवाद अठारहवीं शताब्दी के अंत या उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में कर डाला था जिन पर शोध आज तक जारी है। प्राचीनकाल के आचार्यों के इन जटिल सूत्रों के विषय में जानकर विश्व के समस्त विद्वजन आज भी हतप्रभ हैं।

Wednesday, January 26, 2011

गणतन्त्र दिवस पर किसलिए खुश हैं आप?

आज आप परस्पर गणतन्त्र दिवस की शुभकामनाओं का आदान प्रदान कर रहे हैं क्योंकि बड़े खुश हैं आप!

पर किसलिए खुश हैं आप?

श्रीनगर के लाल चौक में तिरंगा नहीं फहराया जा सकता इसलिए?

विदेशी बैंकों में काला धन जमा करने वालों की लिस्ट मिल गई है पर उनका सार्वजनिक नहीं किया जाएगा इसलिए?

आतंक का राक्षस न जाने कब, किसे और कहाँ निगल ले इसलिए?

अफजल को फाँसी की सजा मिलने के बाद भी फाँसी नहीं लगी इसलिए?

कसाब कारागार में फाइव स्टार होटल वाली सुविधा पा रहा है इसलिए?

चार-छः महीनों के भीतर पेट्रोल के दाम तीन बार बढ़ाए गए इसलिए?

आपका बच्चा भोजन में दाल खाने को तरस रहा है और आपका नेता रु.1.50 में कटोरी भर के दाल खा रहा है इसलिए?

दाल, सब्जी आदि जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ गए हैं इसलिए?

मँहगाई आसमान छू रही है इसलिए?

प्याज, जो कि दैनिक जीवन का अंग सा बन गया था, अब सपना बन गया है इसलिए?

अपने बच्चों के गणवेश, पुस्तकें आदि स्कूल से ही या स्कूल द्वारा निर्धारित किसी निश्चित दुकान से चार पाँच गुना दाम देकर खरीदना पड़ रहा है इसलिए?

किसलिए खुश हैं आप?

सिर्फ इसलिए खुश हैं न कि भारत में गणतन्त्र है और आज गणतन्त्र दिवस मनाया जा रहा है!

पर कैसा गणतन्त्र है ये?

जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन वाला गणतन्त्र या नेता, अधिकारी और व्यापारी द्वारा, अधिकारी और व्यापारी के लिए, अधिकारी और व्यापारी का शासन वाला गणतन्त्र?

जरा सोचिए इन प्रश्नों के उत्तर और दीजिए जवाब।

किसलिए खुश हैं आप?

Sunday, January 23, 2011

2011 - एक अनूठा वर्ष

इतना तो आपने पत्र-पत्रिकाओं आदि मे पढ़ ही लिया होगा कि वर्ष 2011 में 1 अंक से सम्बन्धित अनेक दिनांक होंगे जैसे कि 1.1.11, 11.1.11, 11.1.11, 11.11.11 आदि। पर इसके अलावा भी 2011 की और भी कई विशिष्टताएँ हैं।

2011 एक रूढ़ अर्थात् अभाज्य संख्या है। रूढ़ या अभाज्य संख्या उस संख्या को कहा जाता है जिसमें स्वयं उस संख्या और 1 के सिवाय किसी अन्य संख्या का पूरा-पूरा भाग जा ही नहीं सकता जबकि इसके विपरीत यदि किसी संख्या में अन्य दूसरी संख्या का पूरा-पूरा भाग चला जाए तो उसे यौगिक संख्या कहते हैं। याने कि 2011 में स्वयं 2011 और 1 के सिवाय किसी अन्य का पूरा-पूरा भाग जा ही नहीं सकता।

2011 ग्यारह क्रमानुगत आने वाले रूढ़ संख्याओं का योग हैः

2011=157+163+167+173+179+181+191+193+197+199+211

साथ ही 2011 अन्य तीन क्रमानुगत आने वाले रूढ़ संख्याओं का योग भी हैः

2011=661+673+677

एक खुशखबरी यह भी है कि वर्ष 2011 विवाह के इच्छुक युवक-युवतियों के लिए शादी विवाह के कुल 222 मुहूत लेकर आया है, वर्ष 2011 के प्रायः हर तीसरे दिन शादी का शुभ मुहूर्त है। (अधिक विवरण के लिए यह लिंक देखें।)

वर्ष 2011 बीते दिनों को वापस लाने वाला वर्ष भी है, इसके एक एक-एक दिन वर्ष 2005 कें एक-एक दिन से बिल्कुल मिलते हैं। यदि विश्वास न हो रहा हो तो वर्ष 2005 और वर्ष 2011 के कैलेण्डरों का मिलान करके देख लें। यहाँ पर यह बताना भी उपयुक्त होगा कि इस शताब्दी के वर्ष 2013 और 2019, 2015 और 2020 तथा 2016 तथा 2022 में भी इसी प्रकार की समानता दिखाई देगी।

इस शताब्दी में दो और ऐसे रूढ़ संख्या वाले वर्ष आएँगे जो कि अन्य क्रमानुगत रूढ़ संख्याओं के योग वाले होंगे, पहला सन्.2027 और दूसरा सन् 2081।

2027 = 29+31+37+41+43+47+53+59+61+67+71+73+ 79+83+89+97+101+103+107+109+113+127+131+137+139

2027 की एक और विशेषता यह होगी कि इसके अंकों का योग याने कि (2+0+2+7=) 11 भी एक रूढ़ संख्या होगी।

2081 =401+409+419+421+431

तो फिलहाल वर्ष 2011 के मजे लें। हमारी शुभकामनाएँ हैं कि यह वर्ष आपके लिए मंगलमय हो!