Saturday, October 2, 2010

जय जवान! जय किसान!



शत् शत् नमन!

Friday, October 1, 2010

अपनी पसंद की फिल्में मुफ्त आनलाइन देखें

कुछ दिनों पहले सतीश पंचम जी ने फिल्म "पिया का घर" पर एक पोस्ट प्रकाशित किया था। इस बात में तो दो मत हो ही नहीं सकता कि "पिया का घर" एक स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करने वाली फिल्म है। सतीश जी के पोस्ट की टिप्पणियों से पता चलता है कि बहुत सारे लोगों ने इस लाजवाब फिल्म को नहीं देखा है। इसलिए हमें इस पूरी फिल्म के नेट में उपलब्ध व्हीडियो को अपने "हिन्दी वेबसाइट" में उपलब्ध करवाना उचित लगा। आप इसे यहाँ देख सकते हैं

फिल्म "पिया का घर" पूरी फिल्म देखें

आज नेट में खोजने पर प्रायः अपनी पसंद की पूरी फिल्में मिल जाती हैं अतः हमें नेट में जहाँ कहीं भी अच्छी फिल्में उपलब्ध मिलेंगी, उन फिल्मों को हम अपने "हिन्दी वेबसाइट" में उपलब्ध करवाते रहेंगे। फिलहाल तो फिल्म "पिया के घर" के साथ ही हमारा एक और पसंदीदा फिल्म "बावर्ची" वहाँ पर उपलब्ध है जिसे देखने के लिए आप निम्न लिंक को क्लिक कर सकते हैं

फिल्म "बावर्ची" पूरी फिल्म देखें

Thursday, September 30, 2010

इलाहाबाद हाई कोर्ट का साइट नहीं खुल रहा

लखनऊ जिला मजिस्ट्रेट श्री अनिल कुमार सागर के द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार फैसलों को अदालत की वेबसाइट पर भी लगाया जाएगा। इन फैसलों का सभी को बेसब्री से इंतजार है।  बजने बाद से ही अदालत की वेबसाइट को लोग खोलने का प्रयास कर रहे हैं किन्तु वेबसाइट खुल ही नहीं रहा है, वेबप्रॉक्सी साइट के माध्यम से भी नहीं। ट्विटर पर तो अदालत की वेबसाइट के क्रैश हो जाने की शंका वाले ट्वीट् तक आ रहे हैं।

लोगों की उत्सुक्ता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पूरा का पूरा गूगल सर्च अयोध्याविवादमय हो रहा है। इस पोस्ट के लिखते समय तक गूगल इंडिया ट्रेंड्स में हाट टॉपिक्स में पहले और दूसरे नंबर पर क्रमशः india ayodhya और high court allahabad हैं जबकि गूगल यूएसए ट्रेंड्स में इनका नंबर क्रमशः दूसरा और तीसरा है।





इलाहाबाद हाईकोर्ट के वेबसाइट के बनने के बाद यह पहला मौका है जबकि देश विदेश के करोड़ों लोग एक साथ उस पर हिट कर रहे हैं। अब देखना यह है कि अदालत की वेबसाइट कितने समय बाद खुलता है।

आज जरूरत है भारत में सदियों से चली आ रही धार्मिक उदारता को बनाए रखने की

भारत में सदियों से धार्मिक उदारता की परम्परा रही है। भारतवासी सदा ही एक दूसरे की आस्थाओं तथा धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते रहे हैं। भारत के हिन्दुओं और मुस्लिमों में परस्पर इतनी धार्मिक उदारता रही है कि वे आपस में दूध और पानी की तरह से मिल गए थे। मुहम्मद पैगम्बर साहब ने सातवीं शताब्दी के आरम्भ में इस्लाम की शिक्षा देना आरम्भ किया था किन्तु उसके पहले ही दक्षिण भारत में अरबों की अनेक बस्तियाँ बस चुकी थीं। ये समस्त अरब व्यापारी थे और भारतीयों से उनके अच्छे सम्बन्ध थे। पैगम्बर साहब की शिक्षा का प्रभाव भारत में बसे इन अरबों पर भी पड़ा था और वे मुसलमान बन गए थे। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत में मुस्लिमों के आक्रमण होने के बहुत पहले ही से इस्लाम भारत में आ चुका था। उन दिनों भी इस्लाम, जो कि भारत के लिए एक नया धर्म था, के विपरीत किसी प्रकार की घृणा की भावना नहीं थी। तत्कालीन भारत के वैष्णव, शाक्त, तान्त्रिक, वाममार्गी, कापालिक, शैव और पाशुपत आदि अनेक धर्मों के जैसे ही इस्लाम को भी भारत का एक धर्म मान लिया गया था। यहाँ तक कि नवीं शताब्दी के आरम्भ ही में मलाबार के राजा ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था और भारत में इस्लाम की प्रतिष्ठा बढ़ी।

उन दिनों भारत में जो भी मुसलमान फकीर और विद्वान अरब तथा ईरान से आकर भारत में बसते जाते थे, उनका आदर-सत्कार किया जाता था, सैकड़ों हिन्दू उनके चेले भी बन जाया करते थे। बहुत सारे फकीर इतने प्रसिद्ध हो गए थे कि हिन्दू और मुसलमान सभी उनके भक्त बन गए थे। धीरे-धीरे करके इस्लाम कोंकण, काठियावाड़ और मध्य भारत में भी जा पहुँचा। उस समय के ये इस्लाम के प्रचारक अपनी सच्चरित्रता और त्याग के कारण लोगों में अपना प्रभाव जमा चुके थे।

तेरहवीं शताब्दी के अन्त से सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक, जब तक कि मुसलमान भारत में अपने साम्राज्य-स्थापना के प्रयत्न करते रहे, कभी भी हिन्दू-मुस्लिम के बीच वैमनस्य कभी देखने में नहीं आया। इस काल में अरब के इस नये मत का प्रभाव न केवल उन लाखों भारतीयों पर ही नहीं पड़ा, जिन्होंने इस्लाम ग्रहण कर लिया था, अपितु भारतीयों के आम विचार, धर्म, साहित्य, कला और विज्ञान पर भी पड़ा था; कहना चाहिए कि समूची भारतीय सभ्यता ही भारत में मुग़ल-साम्राज्य की स्थापना से पहले ही इस्लाम के प्रभावित हो चुकी थी।

अकबर ने मुगल साम्राज्य की स्थापना धार्मिक उदारता की आधार शिला पर ही की थी। अकबर, जहांगीर और शाहजहां के काल में मुग़ल सम्राटों के दरबार में हिन्दू और मुसलमान दोनों के मुख्य त्यौहार समान उत्साह और वैभव से मनाए जाते थे। शाही दरबार के अलावा सामान्य जन भी एक दूसरे के त्यौहारों में प्रसन्नता के साथ शरीक हुआ करते थे। यहाँ तक कि मुस्लिम लोग तो अपने त्यौहारों में आने वाले हिन्दू अतिथियों की भावना का सम्मान करते हुए उनके भोजन के लिए अलग से भोजन पकाने वाले ब्राह्मणों की व्यवस्था किया करते थे तथा होली, दिवाली जैसे हिन्दुओं के त्यौहारों को स्वयं भी बड़े धूम-धाम के साथ मनाया करते थे। सभी भारतीय, चाहे वह हिन्दू हो चाहे मुसलमान, हर बात को एक ही दृष्टिकोण से देखते और घटनाओं को एक ही ढंग से अपनाते थे जिसके परिणामस्वरूप कभी भी किसी भी प्रकार के साम्प्रदायिक झगड़े कभी होते ही नहीं थे।

भारत में अंग्रेजों ने अपने कदम जमाने के उद्देश्य से ही उन दिनों के राजा-महाराजाओं तथा नवाबों के बीच फूट डालने के साथ ही साथ हिन्दू और मुसलमानों के बीच वैमनस्यता के बीच बोना आरम्भ किया। उनका बोया हुआ वह बीज जड़ पकड़ता गया और भारत के हिन्दू-मुसलमानों के बीच खाई बनने लगी। आज जरूरत है अंग्रेजों के लगाए इस वैमनस्यता के पेड़ को जड़ से उखाड़ फेंकने की और भारत में सदियों से चली आ रही धार्मिक उदारता को बनाए रखने की!

Wednesday, September 29, 2010

सातवीं से अठारहवीं शताब्दी तक का भारत (2)

औरंगजेब के समय तक भारत के अन्दर अंग्रेज व्यापारियों की स्थिति लगभग वैसी ही थी, जैसी हींग बेचने वाले काबुलियों की आपने देखी होगी। औरंगजेब की अनुदार नीति ने चारों ओर छोटी-छोटी परस्पर प्रतिस्पर्धा करने वाली रियासतें भारत में पैदा कर दी, जिससे केन्द्रीय शक्ति निर्बल हो गई और हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य खण्डित हो गया। औरंगजेब की मृत्यु के कुछ वर्षों बाद ही मद्रास और बंगाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी के षड्यन्त्र चलने लगे, जिनके फलस्वरूप औरंगजेब की मृत्यु के पचास वर्ष बाद प्लासी का युद्ध हुआ। उस समय अंग्रेजों का हित इस बात में था कि औरंगजेब की अनुदार नीति के कारण जो अव्यवस्था और अनैक्य भारत के हिन्दू-मुसलमानों में स्थापित हो चुका था, वह कायम ही रखा जाए और उन्होंने यही अपनी नीति बना ली।

इस समय भी सभ्यता, शक्ति और व्यवस्था में भारतीय अंग्रेजों से श्रेष्ठ थे। परन्तु उनमें एक बात की कमी थी। वह थी राष्ट्रीयता या देश-भक्ति, जो जनोत्थान और उद्योग-क्रान्ति से प्रभावित थी। अंग्रेजों और दूसरी यूरोपियन जातियों ने यह बात जान ली और उन्होंने इससे लाभ उठाकर एक शक्ति को दूसरी शक्ति से लड़ाने का धन्धा आरम्भ कर दिया। दिखाने के लिए उन्होंने अपना रूप निष्पक्ष का रखा, परन्तु भीतर ही भीतर भाँति-भाँति की साजिशों और चालों को चलकर उन्होंने बिखरी हुई भारतीय शक्तियों में ऐसा संग्राम खड़ा कर दिया कि वे शक्तियाँ स्वयं ही एक-दूसरे से टकराकर चकनाचूर होने लगीं।

इंगलैंड के पीछे किसी जातीय सभ्यता का इतिहास न था। किसी प्राचीन संस्कृति की छाप न थी। यद्यपि वह ईसाई धर्म स्वीकार कर चुका था, पर इस समय वह धर्मतंत्र भी साम्प्रदायिक कलह का रूप धारण कर रहा था। पाप-पुण्य, धर्माधर्म, नीति-अनीति के सांस्कृतिक आदर्श जैसे भारत में प्राचीन वैदिक, बौद्ध, जैन और हिन्दू धर्म के वेद, श्रुति, स्मृति, दर्शन और आचारशास्त्र के आधार पर भारतीय जनता में सहस्रों वर्षों से उनकी पैतृक सांस्कृतिक सम्पत्ति के रूप में चले आते थे, वैसा इंगलैंड में एक भी सांस्कृतिक सूत्र न था। इंगलैंड अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ तक घोर दरिद्रता, निरक्षरता और अन्धविश्वासों का दास बना हुआ था। नैतिक आदर्शों  पर सुसभ्य जीवन का इंगलैंड में जन्म ही हुआ था।

भारत जैसे समृद्ध देश के धन, सम्पदा, वैभव और जाहो-जलाली का हाल जब अंग्रेजों के कानों में पहुँचा तो उनकी लोलुप दृष्टि भारत की ओर गई और उनकी आवारा और साहसिक प्रकृति सत्रहवीं शताबदी के आरम्भ में उन्हें भारत तक खींच लाई। सौ वर्ष तक वे भारत की गलियों में कंधे पर बोझें का थैला लादे माल बेचते, व्यापार करते और धन कमाते फिरते रहे। बंदर की भाँति लाल-लाल चेहरेवाले फिरंगी के मुँह से उनकी अटपटी भाषा सुनने को बालक और स्त्रियाँ आतुर रहते, उनके आने पर उनके काँच के सस्ते सामान को हँसी उड़ाते और उन्हें तंग करते थे।

अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ ही में औरंगजेब की मृत्यु हुई और एकबारगी ही महान मुग़ल-तख्त डगमगा गया। इन सौ वर्षों में इन फिरंगियों की लालस बेहद बढ़ चुकी थी। किसी प्रकार के न्याय-अन्याय और धर्माधर्म का उन्हें विचार-संस्कार था ही नहीं। अब उनकी इच्छापूर्ति में बाधक कोई शक्ति भारत में नहीं थी। उन्होंने तिजारती कोठियों के बदले जगह-जगह किलेबंदियाँ करनी आरम्भ कर दीं। दुर्भाग्य से अपने ही में सीमित भारतीय राजाओं ने इस बात की कुछ परवाह नहीं की। उन्हें अनुमतियाँ और सुविधाएँ मिलती ही गईं। उनका बल बढ़ता गया। वे उचित-अनुचित उपायों से धन कमाते गए और सेना रखते गए। इस सेना के बल पर उन्होंने मद्रास और बंगाल के राजाओं के आपसी झगड़ों में पैर फँसाकर कभी इसका और कभी उसका पक्ष लेना आरम्भ कर दिया। कूटनीति और साजिशों द्वारा इनका बल बढ़ता गया। दिल्ली का दुर्बल साम्राज्य-केन्द्र अब इस योग्य न था कि वह केन्द्रीय शक्ति के रूप में इस स्थिति को समझे और उसपर नियन्त्रण करे। अतः उन्होंने भारतीय नरेशों को एक-दूसरे से लड़ाकर इलाके दखल करने आरम्भ कर दिए।

एक ही शब्द में यह कहा जा सकता है कि अंग्रेजों ने आँखें बंद करके भारत को हाथ में लिया।

(आचार्य चतुरसेन के उपन्यास "सोना और खून" से लिया गया अंश)

Tuesday, September 28, 2010

सातवीं से अठारहवीं शताब्दी तक का भारत (1)

सातवीं शताब्दी के आरम्भ ही में इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद ने अरब में इस्लाम की शिक्षा दी और उनके जीवन-काल में ही समूचा अरब मुसलमान हो गया था। इसके बाद उनकी मृत्यु के बाद सौ वर्षों के भीतर ही मेसोपोटामिया, सीरिया, जेरूसलम, ईरान, तातार, तुर्किस्तान और चीन का कुछ भाग, मिस्र, कारबेज तथा सम्पूर्ण उत्तरी अफ्रीका मुसलमानों ने जीतकर अपना महान साम्राज्य स्थापित कर लिया। विशाल रोमन साम्राज्य भी इनके हमलों से न बच पाया और इसके बाद स्पेन भी उसके अधीन हो गया। यह इस्लाम की शानदार पहली शताब्दी थी। इसके बाद तो रूस, यूनान, बलकान, पोलैंड, दक्षिण इटली, सिसली को लेकर आधे यूरोप पर इस्लाम की हुकूमत कायम हो गई, जो शताब्दियों तक रही।

भारत में मुहम्मद की मृत्यु के चार वर्ष बाद ही खलीफा उमर के जमाने में बंबई के निकट के थाना नामक स्थान में मुसलमानों की जल-सेना ने प्रवेश किया था, परन्तु खलीफा की आज्ञा से उसे वापस बुला लिया गया था। इसके बाद आठवीं शताब्दी के प्रथम चरण में मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में अरबों ने सिंध जय किया और मुलतान पर अधिकार कर लिया। इसके तीन सौ वर्ष बाद महमूद गज़नवी के आक्रमण हुए और इसके दो सौ वर्ष बाद तेरहवीं शताब्दी के प्रथम चरण में पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद भारत में इस्लामी राज्य स्थापित हो गया।

मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के कोई सौ वर्ष पूर्व ही सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु हो चुकी थी और उसके बाद ही राजपूतों की नजई जाति का उदय हुआ था। उन्होंने पश्चिम से चलकर उत्तर-पूर्वीय भारत तथा मध्य-भारत में अनेक छोटी-छोटी रियासतें स्थापित कर ली थीं। मुसलमानों के आने के ठीक पहले पंजाब से दक्षिण तक और बंगाल से अरब सागर तक लगभग समस्त देश राजपूतों के शासन में आ गया था। परन्तु कोई बड़ी शक्ति इन छोटी-छोटी रियासतों पर अंकुश रखने वाली न थी। इससे ये रियासतें निरन्तर परस्पर लड़ती थीं। प्राचीन महाराज्यों के अब केवल ध्वंस ही दिखाई देते थै।

इस समय धर्म-क्षेत्र में जभी वैसी ही अव्यवस्था हो गई थी। भारत में सम्प्रदायवाद का जोर था। वैष्णव, शाक्त, तान्त्रिक, वाममार्गी, कापालिक, शैव और पाशुपत धर्म वाले बड़ी कट्टरता से परस्पर संघर्ष करते रहते थे। कुछ लोग बड़े-बड़े विवादों, दार्शनिक विचारों में फँसे थे, पर सर्वसाधारण घोर अंधकार में था। जाति-भेद पूरे जोरों पर था। स्त्रियों और शूद्रों की दशा दयनीय थी। ब्राह्मणों और पुरोहितों के विशेषाधिकार स्थापित हो चुके थे। अधिकांश जनता जाति-पाँति, देवी-देवा, भूत-प्रेत, जप-तप, यज्ञ-हवन, पूजा-पाठ तथा ब्राह्मणौं को दान देने में, तीर्थयात्रा करने में, जंतर-मंतर और जादू-टोनों से अंधविश्वास में फँसी थी। संक्षेप में उस काल का भारत अनगिनत छोटी-छोटी अनियन्त्रित रियासतों, सैकड़ों मत-मतांतरों और अनगिनत कुरीतियों और अंधविश्वासों का केन्द्र बना हुआ था।

इसी समय भारत में इस्लाम ने प्रवेश किया। इस्लाम के जन्म से पूर्व ही दक्षिण भारत में अरबों की अनेक बस्तियाँ बस चुकी थीं। वे सब व्यापारी थे तथा भारतीयों से उनके अच्छे सम्बन्ध थे। इसलिए आक्रमण से पूर्व ही इस्लाम इन व्यापारियों के साथ भारत में सातवीं शताब्दी ही में आ चुका था तथा बहुत से भारतीय मुसलमान हो चुके थे। उस समय इस्लाम के विपरीत कोई घृणा का भाव न था। भारत के तत्कालीन असंख्य समप्रदायों में एक यह भी समझ लिया गया था। नवीं शताब्दी के आरम्भ ही में मलाबार के राजा ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था। इससे इस राज्य की वृद्धि हुई तथा इस राज्य  की सहायता से इस्लाम की भी भारत में प्रतिष्ठा हुई। इस बीच बहुत-से मुसलमान फकीर और विद्वान अरब तथा ईरान से आ-आकर भारत में बसते गए। उनका खूब आदर-सत्कार होता था और सैकड़ों हिन्दू उनके चेले बनते थे। इनमें कुछ फकीर बहुत प्रसिद्ध हो गए। अब इस्लाम के प्रभाव कोंकण, काठियावाड़ और मध्य भरत में भी फैल चुका था। उस समय के ये इस्लाम के प्रचारक अपनी सच्चरित्रता और त्याग के कारण लोगों में अपना प्रभाव जमा चुके थे। इसके अतिरिक्त इस्लाम के सिद्धांत, तत्कालीन जटिल हिन्दू समप्रदायों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली और आकर्षक थे। इसी से खासकर, छोटी जाति के बहुत-से लोग, जो हिन्दू वर्ण-व्यवस्थअ के शिकार थे, स्वेच्छा से मुसलमान होना पसन्द करते जाते थे।

तेरहवीं शताब्दी के अन्त से सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक, जब तक कि मुसलमान भारत में अपने साम्राज्य-स्थापन के प्रयत्न करते रहे, यही दशा रही। इस काल में अरब के इस नये मत का प्रभाव केवल उन लाखों भारतीयों पर ही नहीं पड़ा, जिन्होंने इस्लाम ग्रहण कर लिया था, अपितु भारतीयों के आम विचार, धर्म, साहित्य, कला और विज्ञान पर भी पड़ा था; कहना चाहिए कि समूची भारतीय सभ्यता ही भारत में मुग़ल-साम्राज्य की स्थापना से पहले ही इस्लाम के प्रभावित हो चुकी थी।

.........

चौदहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया। उस समय दिल्ली के तख्त पर मुहम्मद तुगलक था। तैमूर केवल पन्द्रह दिन भारत में रहा और लूट-खसोट और कत्ले-आम करके लौट गया। इसके कोई सवा सौ वर्ष बाद बाबर ने आक्रमण किया। इस समय तक मुकलों की प्रकृति में अन्तर पड़ चुका था। वे अपनी जन्मभूमि मंगोलिया से कहीं अधिक सभ्य देश ईरान में वर्षों रह चुके थे। इससे वे चंगेज़खां और तैमूर की अपेक्षा सभ्यता-प्रेमी बन चुके थे। पानीपत के मैदान में बाबर ने इब्राहीम लोधी को शिकस्त दी और मुग़ल-तखत की स्थापना की। उसने भारत को ही अपना घर बना लिया और हुमायूं के अतिरिक्त उसके शेष वंशज भारत ही में पैदा हुए। इधर सम्राट हर्षवर्धन के बाद अर्थात् ईसा की सातवीं शताब्दी के मध्य से लोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक लगभग नौ सौ वर्ष के समय में कोई सशक्त राजनीतिक शक्ति ऐसी न उत्पन्न हो पाई थे, जो समस्त भारत को एक सूत्र में बाँध सके। इन नौ सौ सालों में भारत छोटी-बड़ी, एक-दूसरे  से प्रतिस्पर्धा करने वाली रियासतों के युद्ध का अखाड़ा बना रहा। ड़ाजनीति निर्बलता, अनैक्य और अव्यवस्था इस काल के भारत की सच्ची तस्वीर थी। इस अवस्था में एक ऐसी केन्द्रीय शक्ति की भारत में बड़ी आवश्यकता थी, जो सारे देश के ऊपर एक समान शासन कायम कर सके और देश की बिखरी हुई शक्तियों को एक सूत्र में गांठ सके।

यह काम सोलहवीं शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक दिल्ली के मुग़ल-साम्राज्य ने किया। उसने राजनीति, सामाजिक व्यवस्था, उद्योग, कला-कौशल, समृद्धि, शिक्षा और सुशासन की दृष्टि से भारत में एक नये युग का सूत्रपात किया। मुग़लों से पहले अशोक और चन्द्रगुप्त के साम्राज्य भारत में थे, पर मुग़ल-साम्राज्य उस सबसे बड़ा था। इसके अतिरिक्त एक बात यह भी थी कि अशोक और चन्द्रगुप्त के सम्राज्य का अन्तःगठन ऐा न था जैसा मुग़ल-साम्राज्य का था। उस काल में विविध प्रान्तों की विविध भाषाएँ और अलग-अलग शासन-पद्धतियाँ थीं तथा अलग-अलग प्रान्तीय जीवन थे। परन्तु मुग़ल-साम्राज्य के सौ वर्षों में, अकबर के सिंहासारूढ़ होने के बद से मुहम्मद शाह की मृत्यु तक, समस्त उत्तरी भारत और अधिकांश दक्षिण भारत की एक सरकारी भाषा, एक शासन-पद्धति, एक समान सिक्का और हिन्दू पुरोहितों तथा ग्रामीणों को छोड़कर सब श्रेणी के नागरिकों की एक सार्वजनिक भाषा थी। जिन प्रान्तों पर सम्राट का सीधा शासन न था, वहाँ के हिन्दू राजा भी लगभग मुग़ल-प्रणाली को ही काम में लाते थे।

प्राचीनकाल में बौद्ध-युग में भारत का सांस्कृतिक सम्बन्ध भारत से बाहर के देशों से स्थापित हुआ था, जो मुग़ल अमलदारी में नये सिरे से फिर स्थापित हुआ। मुग़ल-साम्राज्य की समाप्ति तक अफ़गानिस्तान दिल्ली के बादशाह के अधिन था तथा अफ़गानिस्तान के जरिये बुखारा, समरकंद, बलख, खुरासान, खाजिम और ईरान से हजारों यात्री तथा व्यापारी भारत में आते रहते थे। बादशाह जहांगीर के राज्यकाल में तिजारती माल से लदे चौदह हजार ऊँट प्रतिवर्ष बोलान दर्रे से भारत आते थे। इसी प्रकार पश्चिम में भड़ोंच, सूरत, चाल, राजापुर, गोआ और करबार तथा पूर्व में मछलीपट्टनम तथा अन्य बन्दरगाहों से सहस्रों जहाज प्रतिवर्ष अरब, ईरान, टर्की, मिस्र, अफ्रीका, लंका, सुमात्रा, जावा, स्या और चीन आते-जाते थे।

अकबर ने धार्मिक उदारता की आधार शिला पर ही मुग़ल-साम्राज्य की स्थापना की थी। अकबर, जहांगीर और शाहजहां तक इस उदारता का व्यवहार रहा। मुग़ल सम्राटों के दरबार में हिन्दू और मुसलमान दोनों के मुख्य त्यौहार समान उत्साह और वैभव से मनाए जाते थे। इसी से मुग़ल-साम्राज्य का वैभव बढ़ा। शाहजहां का समय भारतीय इतिहास में सबसे अधिक समृद्ध था। उसे हम उस काल का स्वर्णयुग कह सकते हैं। औरंगजेब ने धार्मिक संकीर्णता को अपनी राजनीतिक आवश्यकता बताया और तभी से मुग़ल-प्रताप अस्त होना आरम्भ हुआ। राजपूत, मराठे, सिख और हिन्दू राजा उससे असन्तुष्ट हो गए। भारत की राजनीतिक सत्ता निर्बल हो गई और इसके साथ ही देश के उद्योग-धंधे, व्यापार, साहित्य और सुख-समृद्धि के नाश के बीज उगने लगे।

औरंगजेब के निर्बल उत्तराधिकारियों ने एक बार फिर समन्वय की नीति अपनाने की चेष्टा की। परन्तु अभी औरंगजेब की गलती के परिणाम ताजा ही थे कि एक ऐसी तीसरी शक्ति ने भारत के राजनीतिक मंच पर प्रवेश किया जिसका हित हर प्रका भारतवासियों के हित के विरुद्ध था। वह भारतीय हित का विरोधिनी शक्ति ब्रिटेन थी।

(आचार्य चतुरसेन के उपन्यास "सोना और खून" से लिया गया अंश)

Monday, September 27, 2010

चंचल नार के नैन छिपे नहीं... कवि गंग

तारो के तेज में चन्द्र छिपे नहीं
सूरज छिपे नहीं बादल छायो
चंचल नार के नैन छिपे नहीं
प्रीत छिपे नहीं पीठ दिखायो
रण पड़े राजपूत छिपे नहीं
दाता छिपे नहीं मंगन आयो
कवि गंग कहे सुनो शाह अकबर
कर्म छिपे नहीं भभूत लगायो।


कवि गंग (1538-1625 ई.), जिनका वास्तविक नाम गंगाधर था, बादशाह अकबर के दरबारी कवि थे। कवि गंग के के विषय में कहा गया हैः

उत्तम पद कवि गंग के कविता को बलवीर।
केशव अर्थ गँभीर को सूर तीन गुन धीर॥


बादशाह अकबर के साथ ही रहीम, बीरबल, मानसिंह तथा टोडरमल आदि अकबर के दरबारीगण कवि गंग के चाहने वाले थे। उनकी रचनाओं को शब्दों का सारल्य के साथ साथ वैचित्र्य, अलंकारों का प्रयोग और जीवन की व्याहारिकता अत्यन्त रसमय एवं अद्भुत बना देते हैं। उनकी रचनाओं में जीवन का यथार्थ स्पष्ट रूप से झलकता है। इस यथार्थ को कि "गाँठ में रुपया होने से सभी लोग चाहने लगते हैं" कवि गंग इस प्रकार से व्यक्त करते हैं:

माता कहे मेरो पूत सपूत
बहिन कहे मेरो सुन्दर भैया
बाप कहे मेरे कुल को है दीपक
लोक लाज मेरी के है रखैया
नारि कहे मेरे प्रानपती हैं
जाकी मैं लेऊँ दिनरात बलैया
कवि गंग कहे सुन शाह अकबर
गाँठ में जिनकी है ढेरों रुपैया


उनके द्वारा व्यक्त एक और जीवन दर्शन और देखें:

जिनके हिरदे श्री राम बसे फिर और को नाम लियो ना लियो
कवि गंग कहे सुन शाह अकबर इक मूरख मित्र कियो ना कियो


बुराई के विषय में वे कहते हैं:

एक बुरो प्रेम को पंथ , बुरो जंगल में बासो
बुरो नारी से नेह बुरो , बुरो मूरख में हँसो
बुरो सूम की सेव , बुरो भगिनी घर भाई
बुरी नारी कुलक्ष , सास घर बुरो जमाई
बुरो ठनठन पाल है बुरो सुरन में हँसनों
कवि गंग कहे सुन शाह अकबर सबते बुरो माँगनो

कहा जाता है कि प्रायः अकबर कवि गंग को एक पंक्ति अथवा वाक्यांश दे दिया करते थे जिस पर उन्हें काव्य रचना करनी होती थी। एक बार अकबर ने "आस अकबर की" पर काव्य रचने को कहा तो उन्होंने निम्न रचना कीः

मृगनैनी की पीठ पै बेनी लसै, सुख साज सनेह समोइ रही।
सुचि चीकनी चारु चुभी चित मैं, भरि भौन भरी खुसबोई रही॥
कवि 'गंग जू या उपमा जो कियो, लखि सूरति या स्रुति गोइ रही।
मनो कंचन के कदली दल पै, अति साँवरी साँपिन सोइ रही॥

करि कै जु सिंगार अटारी चढी, मनि लालन सों हियरा लहक्यो।
सब अंग सुबास सुगंध लगाइ कै, बास चँ दिसि को महक्यो॥
कर तें इक कंकन छूटि परयो, सिढियाँ सिढियाँ सिढियाँ बहक्यो।
कवि 'गंग भनै इक शब्द भयो, ठननं ठननं ठननं ठहक्यो॥

लहसुन गाँठ कपूर के नीर में, बार पचासक धोइ मँगाई।
केसर के पुट दै दै कै फेरि, सुचंदन बृच्छ की छाँह सुखाई॥
मोगरे माहिं लपेटि धरी 'गंग बास सुबास न आव न आई।
ऐसेहि नीच को ऊँच की संगति, कोटि करौ पै कुटेव न जाई॥
रती बिन राज, रती बिन पाट, रती बिन छत्र नहीं इक टीको।

रती बिन साधु, रती बिन संत, रती बिन जोग न होय जती को॥
रती बिन मात, रती बिन तात, रती बिन मानस लागत फीको।
'गंग कहै सुन शाह अकबर, एक रती बिन पाव रती को॥
एक को छोड बिजा को भजै, रसना जु कटौ उस लब्बर की।

अब तौ गुनियाँ दुनियाँ को भजै, सिर बाँधत पोट अटब्बर की॥
कवि 'गंग तो एक गोविंद भजै, कुछ संक न मानत जब्बर की।
जिनको हरि की परतीत नहीं, सो करौ मिल आस अकबर की॥

उपरोक्त रचना की अंतिम पंक्ति अकबर को अपमानजनक लगी इसलिए अकबर ने कवि गंग को उसका साफ अर्थ बताने के लिए कहा। कवि गंग इतने स्वाभिमानी थे कि उन्होंने अकबर को यह जवाब दियाः

एक हाथ घोडा एक हाथ खर
कहना था सा कह दिया करना है सो कर


कवि गंग अत्यन्त स्वाभिमानी थे। उनकी स्पष्टवादिता के कारण ही उन्हें हाथी से कुचलवा दिया गया था।

अपनी मृत्यु के पूर्व कवि गंग ने कहा थाः

कभी न रानडे रन चढ़े कभी न बाजी बंध
सकल सभा को आशीष है ,विदा होत कवि गंग

कवि गंग के विषय में भिखारीदास जी का कथन हैः "तुलसी गंग दुवौ भए, सुकविन में सरदार"

कवि गंग के मुख्य ग्रंथ हैं -'गंग पदावली, "गंग पचीसी" और "गंग रत्नावली"।

चलते-चलते

कवि गंग के विषय में हमारे पास भी अधिक जानकारी नहीं थी। दरअसल हमने पोस्ट "पत्नी बिना चैन कहाँ रे" में निम्न पंक्तियाँ उद्धरित की थीः

भभूत लगावत शंकर को, अहिलोचन मध्य परौ झरि कै।
अहि की फुँफकार लगी शशि को, तब अंमृत बूंद गिरौ चिरि कै।
तेहि ठौर रहे मृगराज तुचाधर, गर्जत भे वे चले उठि कै।
सुरभी-सुत वाहन भाग चले, तब गौरि हँसीं मुख आँचल दै॥
(अज्ञात)

अर्थात् (प्रातः स्नान के पश्चात्) पार्वती जी भगवान शंकर के मस्तक पर भभूत लगा रही थीं तब थोड़ा सा भभूत झड़ कर शिव जी के वक्ष पर लिपटे हुये साँप की आँखों में गिरा। (आँख में भभूत गिरने से साँप फुँफकारा और उसकी) फुँफकार शंकर जी के माथे पर स्थित चन्द्रमा को लगी (जिसके कारण चन्द्रमा काँप गया तथा उसके काँपने के कारण उसके भीतर से) अमृत की बूँद छलक कर गिरी। वहाँ पर (शंकर जी की आसनी) जो मृगछाला थी वह (अमृत बूंद के प्रताप से जीवित होकर) उठ कर गर्जना करते हुये चलने लगा। सिंह की गर्जना सुनकर गाय का पुत्र - बैल, जो शिव जी का वाहन है, भागने लगा तब गौरी जी मुँह में आँचल रख कर हँसने लगीं मानो शिव जी से प्रतिहास कर रही हों कि देखो मेरे वाहन (पार्वती का एक रूप दुर्गा का है तथा दुर्गा का वाहन सिंह है) से डर कर आपका वाहन कैसे भाग रहा है।

उपरोक्त पंक्तियाँ कई साल पहले, जब हम बस्तर के नारायणपुर में कार्यरत थे, हमें एक अध्यापक महोदय ने सुनाई थीं। यह रचना हमें इतनी अच्छी लगी कि हमें यह कण्ठस्थ हो गया किन्तु इनके रचयिता के विषय में हमें पता नहीं था और उनके विषय में जानने के लिए हमें बहुत अधिक उत्सुकता थी। नेट में भटकते-भटकते अचानक हमें यही रचना दो और रूपों में मिलीं

अंग भस्मी लगावत शंकर ने तब
अहि लोचन बीच परी झर के
अहि फुंकार लगी शशि के तब
अमृत बूँद परी झर के
सजीव भाई मृगराज त्वचा तब
सुरभि सूत भागे डर के
कवी "गंग" कहे सुन शाह अकबर
गौर हंसी मुख यूँ करके
(लिंक)

भस्म रमा रहीं शंकर के
तनि लोचन-मध्य गिरी अहि के
विष की फुसकार लगी शशि के
और अमृत-बूंद गिरी झर के
मृगराज-त्वचा हुंकार उठी
सुरुभी-सुत भागे हैं बाँआ... कर के
लखि पार्वती सकुचाई रहीं
महादेव निहार रहे हँस के
(लिंक)

उपरोक्त एक रूप को पढ़कर लगता है कि यह रचना कवि गंग की है क्योंकि कवि गंग अपनी रचना की किसी न किसी पंक्ति में अन्य कई कवियों की तरह अपने नाम का उल्लेख करते थे। किन्तु अन्य दो रूपों में कवि गंग का नाम नहीं आता इससे लगता है कि यह कवि गंग की रचना नहीं हो सकती, उस रूप में शब्दों का चयन भी कवि गंग के काल का सा प्रतीत नहीं होता। अस्तु, कवि गंग के विषय में जानने की हमारी उत्सुकता बढ़ गई जिसका परिणाम इस पोस्ट के रूप में आपके समक्ष है।

Sunday, September 26, 2010

पोस्ट चोरी का है ये मेरा...

मुझको ब्लोगर बना दीजिये
मेरी रचना पढ़ा दीजिये

अच्छा लिखूँ मैं या ना लिखूँ
टिप्पणी तो करा दीजिये

लोकली मैं छपूँ ना छपूँ
नेट पर तो छपा दीजिये

पोस्ट चोरी का है ये मेरा
मत किसी को बता दीजिये

मूल गज़ल

लज़्ज़त-ए-गम बढ़ा दीजिये
आप यूँ मुस्कुरा दीजिये

कीमत-ए-दिल बता दीजिये
खाक लेकर उड़ा दीजिये

चांद कब तक गहन में रहे
आप ज़ुल्फें हटा दीजिये

मेरा दामन अभी साफ है
कोई तोहमद लगा दीजिये

आप अंधेरे में कब तक रहें
फिर कोई घर जला दीजिये

एक समुन्दर ने आवाज दी
मुझको पानी पिला दीजिये

मूल गजल सुनें: