Saturday, January 30, 2010

ये पोस्ट निकालना क्या होता है ज्ञानदत्त जी? ... एक प्रश्न समीर जी से भी

मेरे पोस्ट "मैंने कब कहा कि जिस पोस्ट में मैंने टिप्पणी नहीं की वह "व्यर्थ लेखन" या "निरर्थक पोस्ट" है" में टिप्पणी की हैः

:-)
अच्छा हुआ, आपने एक पोस्ट निकाल ली!
अब मैं ठहरा मन्दबुद्धि प्राणी। इस टिप्पणी का अर्थ ही नहीं समझ पाया। मेरे हिसाब से तो मैंने कुछ हास्य जैसी कोई चीज नहीं लिखी थी फिर :-) (हँसने वाला इमोशन) का क्या मतलब हुआ? लगता है कि भूलवश मैंने कुछ भौंडी बात लिख दिया रहा होगा जिससे हँसी आ गई होगी। और यह पोस्ट निकालना? ये क्या बला है? मैं तो पोस्ट लिखता हूँ, कभी कभी पोस्ट बन जाती है पर पोस्ट निकालने जैसी किसी प्रक्रिया से बिल्कुल ही अन्जान हूँ।

मेरा दुर्भाग्य है कि मैं ज्ञानदत्त जी के पोस्ट को भी नहीं समझ पाता। हिन्दी माध्यम में शिक्षा पाने के बाद भी मैं हिन्दी में लिखे गये प्रचलित अंग्रेजी शब्दों को तो कुछ कुछ समझ लेता हूँ किन्तु भारी भरकम अंग्रेजी शब्दों को समझने की बुद्धि मुझ में नहीं है। "सोचने में बहुत कूछ फिल्थ होता है", "... पोस्टनीय नहीं है" जैसी भाषा को समझना मेरे लिये मुश्किल हो जाता है। अब देखिये ना अटक गया मैं "फिल्थ" शब्द पढ़कर। बहुत सोचा पर याद ही नहीं आया कि हिन्दी में कोई ऐसा शब्द होता है। फिर लगा कि हो न हो यह कोई अंग्रेजी शब्द ही होगा। तो इसका अर्थ जानने के लिये मैंने शब्दकोश.कॉम में जाकर खोजा तो पता चला कि इसके एक से अधिक अर्थ होते हैं जो हैं अश्लीलता, कूड़ा, गंदगी और मैला। तब जाकर कहीं मुझे पता चला कि सोचने में क्या क्या होते हैं।

तो मैं यही कहना चाह रहा था कि मुझे तो "फिल्थ" के बजाय "कलुष" और "पोस्टनीय" के बजाय "प्रविष्टि योग्य" शब्द ही जल्दी समझ में आते हैं। जाने दीजिये, अब अपने दुर्भाग्य का कहाँ तक रोना रोऊँ।

मेरा एक प्रश्न समीर जी से भी है। क्या उच्च स्थान प्राप्त कर लेने का अर्थ यही होता है कि दूसरों का मखौल उड़ाया जाये?

मेरे सन्दर्भित पोस्ट में उनकी टिप्पणी हैः

इसीलिए मैं भी कम ही टिप्पणी करता हूँ कि अनर्थ न हो जाये. :)
अब मखौल के अलावा क्या समझूँ मैं इसे? और यदि यह मखौल नहीं है तो शायद आपको भी कुछ भौंडी चीज नजर आई होगी मेरे पोस्ट में।

मैं अनूप जी का भी शुक्रिया अदा करना चाहूँगा कि उन्होंने भी मेरे पोस्ट को अपनी इस टिप्पणी से नवाजाः

देखा आपने ज्ञानजी कल भी मौज लिये आपसे और आज भी मौज ले रहे हैं कि आपने एक पोस्ट निकाल ली। वैसे जब कल आपने ज्ञानजी की टिप्पणी पर अपनी बात कल ही साफ़ कर दी थी तो क्या आज इस पोस्ट को लिखना आवश्यक था? मेरी समझ में गैरजरूरी पोस्ट! :)
अनूप जी, आपने जिस मौज का जिक्र किया है उसे मैंने देखा है और अच्छी तरह से देखा है। मुझे खुशी है कि कम से कम मेरा पोस्ट किसी को मौज तो दे रहा है! रही जरूरी और गैरजरूरी वाली बात, तो आप तो जानते ही हैं कि "मुण्डे मुण्डे मतिर्भिना"। मेरा ब्लॉग है तो मेरे लिये कुछ ना कुछ लिखना भी जरूरी होता है, भले ही वह गैरजरूरी हो। हो सकता है कि मेरे और भी गैरजरूरी पोस्ट आयें।

सठियाया हुआ बुड्ढा हूँ, खरी-खरी कहना और खरी-खरी सुनना पसंद करता हूँ। किसी के व्यक्तिगत नाम से लिखना पसन्द नहीं करता किन्तु यदि कोई छत्तीसगढ़ी कहावत "कुकुर के मुँह में लौड़ी हुड़सना" को चरितार्थ करे तो उसे भी मैं सहन नहीं कर पाता।

अन्त में खेद के साथ मुझे कहना पड़ रहा है कि अब विवश होकर मैंने टिप्पणी मॉडरेशन चालू कर दिया है ताकि जो टिप्पणी मुझे मखौल लगे उसे मैं प्रकाशित ही ना होने दूँ।

Friday, January 29, 2010

मैंने कब कहा कि जिस पोस्ट में मैंने टिप्पणी नहीं की वह "व्यर्थ लेखन" या "निरर्थक पोस्ट" है

मैंने एक पोस्ट लिखा था "मैं टिप्पणी क्यों करता हूँ"। पोस्ट में मैंने सीधे सरल शब्दों में सिर्फ यह बताया था कि टिप्पणी करने के मेरे अपने क्या कारण हैं। पर वहाँ की कुछ टिप्पणियों को पढ़ कर मुझे पता चला कि उस पोस्ट के सीधे अर्थ के अलावा भी और अर्थ हो सकते हैं। मानो मेरा पोस्ट न हुआ "हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता" हो गया जिसका कि विद्वान लोग अलग-अलग प्रकार से अर्थ निकालते हैं। उस पोस्ट के ऐसे भी अर्थ निकाले कि जिस पोस्ट में मैं टिप्पणी नहीं करता वह "व्यर्थ लेखन" या "निरर्थक पोस्ट" है।

मैंने तो सिर्फ यही लिखा थाः

मैं उन्हीं पोस्टों में टिप्पणी करता हूँ जिन्हें पढ़कर प्रतिक्रयास्वरूप मेरे मन में भी कुछ विचार उठते हैं। जिन पोस्टों को पढ़कर मेरे भीतर यदि कुछ भी प्रतिक्रिया न हो तो मैं उन पोस्टों में जबरन टिप्पणी करना व्यर्थ समझता हूँ।
मेरे इस प्रकार से लिखने का अर्थ, कम से कम मेरी अल्प सोच के अनुसार, यह तो नहीं होता कि जिस पोस्ट में मैं टिप्पणी नहीं करता वह "व्यर्थ लेखन" या "निरर्थक पोस्ट" है।

मेरी तुच्छ बुद्धि यदि किसी पोस्ट में निहित गूढ़ बातों को समझ पायेगी तभी ना मेरे मन में प्रतिक्रियास्वरूप विचार आयेंगे? और यदि मैं किसी बात को समझ ही ना पाऊँ तो भला क्या खाक टिप्पणी करूँगा?

खैर साहब, कोई किसी बात को पढ़कर उसका क्या अर्थ निकालता है यह तो पढ़ने वाले के ऊपर ही निर्भर करता है, मैं भला उसमें क्या कर सकता हूँ?

Thursday, January 28, 2010

ऐसे भी बीमे होते हैं ... ललित जी प्रेरणा लें सकते हैं मूछों की बीमा करवाने वाले से

एक ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट खिलाड़ी ने अपनी अनूठी मूंछों के लिए लाखों डॉलर की राशि की बीमा पॉलिसी ली थी। [ललित शर्मा जी इनसे प्रेरणा लें सकते हैं! :)]

1957 में खाद्य समीक्षक (food critic) इगोन रोने (Egon Ronay) ने अपने स्वाद के लिये 400,000 डॉलर का बीमा करवाया था।

कीथ रिचर्ड्स (Keith Richards), जिन्हें गिटारिस्ट फॉर रोलिंग स्टोन्स रोलिंग स्टोन्स (guitarist for the Rolling Stones) के नाम से भी जाना जाता है, ने अपनी उंगलियों का बीमा करवाया था।

फ्लेम्बोयान्ट लिबेरस Flamboyant Liberace ने अपने पियानो बजाने वाले हाथ का बीमा करवाया था।

1980 के दशक में Bruce Springstein ने अपनी आवाज का $6 million के लिये बीमा करवाया था।

गायक Tom Jones ने अपने छाती के बालों का $7 million के लिये बीमा करवाया था।

एक अफवाह यह उड़ी थी कि जेनिफ़र लोपेज़ (Jennifer Lopez) ने कई मिलियन या बिलियन डॉलर के लिये अपनी नितम्बों का बीमा करवाया था।

स्रोतः http://abcinsuranceleads.com/pages/strange-insurance-policies.php

Wednesday, January 27, 2010

मैं टिप्पणी क्यों करता हूँ

सभी पोस्टों को पढ़ना तो बहुत मुश्किल क्या असम्भव है क्योंकि मेरी कुछ रुचियाँ हैं और जिन पोस्टों के विषय मेरी रुचि के नहीं होते उन्हें प्रायः मैं नहीं ही पढ़ पाता। फिर भी रोज ही बहुत सारे पोस्टों को पढ़ता हूँ मैं किन्तु टिप्पणी कुछ ही पोस्टों में करता हूँ।

मैं उन्हीं पोस्टों में टिप्पणी करता हूँ जिन्हें पढ़कर प्रतिक्रयास्वरूप मेरे मन में भी कुछ विचार उठते हैं। जिन पोस्टों को पढ़कर मेरे भीतर यदि कुछ भी प्रतिक्रिया न हो तो मैं उन पोस्टों में जबरन टिप्पणी करना व्यर्थ समझता हूँ। यदि मेरे किसी पोस्ट को पढ़कर किसी पाठक के मन में कुछ विचार न उठे तो मैं उस पाठक से किसी भी प्रकार की टिप्पणी की अपेक्षा नहीं रखता।

कुछ ब्लोगर्स ऐसे भी हैं जिनकी लिखने की शैली मुझे शुरू से ही प्रभावित करती रही है। ऐसे ब्लोगर्स से मैं स्वयं को भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ महसूस करता हूँ और जहाँ तक हो सके उनके पोस्ट पर टिप्पणी के रूप में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का प्रयास करता हूँ।

विवाद उत्पन्न करने के उद्देश्य से लिखे गये पोस्टों पर टिप्पणी करने से मैं भरसक बचने की कोशिश करता हूँ।

मैं नये ब्लोगरों के पोस्टों पर प्रोत्साहन देने के लिये टिप्पणी महत्व को समझता हूँ किन्तु यह भी मानता हूँ कि यदि वे नेट में हिन्दी को अच्छी सामग्री दे पा रहे हैं तभी वे टिप्पणी पाने के योग्य हैं अन्यथा नहीं।

मेरे विचार से टिप्पणियाँ पोस्ट को पढ़ने के प्रतिक्रियास्वरूप मन में उठे विचार हैं न कि एक दूसरे की पीठ थपथपाने की कोई चीज। यदि किसी पोस्ट, चाहे वह पुराने ब्लोगर की हो या नये की, में अच्छी सामग्री मिलती है तो उस पोस्ट को टिप्पणी पाने से कोई भी नहीं रोक सकता।

मेरा मानना यह भी है कि जहाँ सटीक टिप्पणियाँ प्रोत्साहित करती है वहीं पोस्ट के विषय से हटकर तथा समझ में न आने वाली टिप्पणियाँ पढ़ कर दिमाग खराब हो जाता है।

Tuesday, January 26, 2010

तिरंगा फहरा दिया ... देशभक्ति वाले गाने बजा दिया ... क्या यही है गणतन्त्रदिवस मनाना?

जब से होश सम्भाला है तब से देखते आ रहा हूँ कि हर साल 26 जनवरी के दिन स्कूलों, शासकीय कार्यालयों, गली मुहल्लों में तिरंगा फहराया जाता है, जन-गण-मन गाया जाता है और देशभक्ति वाले फिल्मी गाने बजाये जाते हैं। क्या यही है गणतन्त्र दिवस मनाना? यदि कोई पूछ ले कि आखिर गणतन्त्र दिवस क्यों मनाया जाता है तो हममें से बहुत लोग शायद बगलें झाँकने लग जायेंगे।

यद्यपि हमारा देश 15 अगस्त को स्वतन्त्र हो गया था किन्तु उस समय हमारे पास अपना कोई संविधान नहीं था और हमारे कानून औपनिवेशिक भारत सरकार के संशोधित भारत अधिनियम 1935 पर ही आधारित थे। अर्थात उस समय भारत एक "स्वतंत्र-उपनिवेश" (Dominion) था तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी हमारे राष्ट्र के प्रमुख जॉर्ज षष्ठम् तथा गवर्नरल जनरल अर्ल माउंटबेटन थे। भारत को पूर्ण गणतन्त्र बनने के लिये हमारा अपना संविधान बनाना आवश्यक था अतः अपना संविधान बनाने के लिये 29 अगस्त 1947 को भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई। इस समिति ने भारतीय संविधान का निर्माण किया जिसे 26 जनवरी, १९५० को देश में लागू किया गया और हमारा देश गणतन्त्र में परिणित हो गया। भारत के संविधान के अभिग्रहण की सालगिरह पर प्रतिवर्ष हम राष्ट्रीय पर्व के रूप में गणतन्त्र दिवस मनाते हैं।

विदेशी, विशेषकर ब्रिटिश, संविधानों पर आधारित हमारा संविधान, जिसमें भारतीय मौलिकता नाम की कुछ भी चीज कहीं नजर ही नहीं आती, कितना कारगर है यह तो इसी से पता चलता है कि आज हमारा देश आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद, जेहाद आदि से लगातार जूझ रहा है और पाकिस्तान और चीन जैसे पड़ोसी देश भारतीय भूमि में घुसपैठ करने में कामयाबी प्राप्त कर रहे हैं, भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा में है और मँहगाई आसमान छू रही है।

Monday, January 25, 2010

क्या हिन्दी में छंदबद्ध कविताएँ लिखनी खत्म हो जायेंगी?

आज हिन्दी में बहुत सारी कविताएँ लिखी जा रही हैं। एक से बढ़कर एक कवि हैं आज हिन्दी के। हमारे हिन्दी ब्लोगजगत में भी कवि मित्रों की कमी नहीं है। सुन्दर सुन्दर भाव होते हैं उनकी कविताओं में इसीलिये वे पठनीय भी होती हैं। किन्तु अलंकारयुक्त छंदबद्ध रचनाएँ लुप्तप्राय होते जा रही हैं। बहुत ही क्षोभ होता है यह देखकर। गति, यति और लय तो कविता के प्राण हैं किन्तु आज की कविताओं में इन्हीं का अभाव दिखता है।

क्यों आज के कवि छंदबद्ध कविताएँ नहीं लिखते?

क्या हिन्दी में छंदबद्ध कविताएँ लिखनी खत्म हो जायेंगी?

Sunday, January 24, 2010

आज महानायक हैं तो क्या हुआ ... महानायक बनने के लिये संघर्ष तो उन्हें भी करना पड़ा था


अमिताभ जी के कद और आवाज के आज लाखों प्रशंसक हैं किन्तु उसी कद और आवाज के कारण शुरू शुरू में उन्हें अस्वीकृत कर दिया जाता था। पहली बार ख्वाज़ा अहमद अब्बास जी ने उन्हें अपनी फिल्म सात हिंदुस्तानी (1969) में अवसर दिया भी तो वह फिल्म ही बुरी तरह पिट गई और अमिताभ बच्चन की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया।

'मधुशाला' के रचयिता प्रसिद्ध कवि हरिवंशराय बच्चन के ज्येष्ठ पुत्र अमिताभ बच्चन ने अपने आरंभिक दिनों में अभिनय जगत में स्थापित होने के लिये बहुत संघर्ष किया है। फिल्मों में आने से पहले वे स्टेज आर्टिस्ट तथा रेडियो एनाउंसर भी रह चुके हैं। फिल्मों में काम करने के लिये उन्होंने कई बार आवेदन दिया पर हर बार उन्हें उनके ऊँचे कद के कारण अस्वीकार कर दिया जाता था।

उनकी आवाज से प्रभावित होकर उन्हें फिल्म भुवन सोम (1969) में 'नरेटर' (पार्श्व उद्घोषक) का कार्य दिया गया, भुवन सोम में उनकी आवाज अवश्य थी पर उन्हें परदे पर कहीं दिखाया नहीं गया था। ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म आनंद (1970) में अमिताभ बच्चन ने बहुत अच्छी भूमिका निभाई थी पर फिल्म की सफलता का सारा श्रेय राजेश खन्ना ले गये, ये तो सभी जानते हैं कि राजेश खन्ना उस समय के जाने माने तथा स्थापित नायक थे।

ऋषि दा ने अपनी फिल्म गुड्डी में भी अतिथि कलाकार बनाया पर इससे अमिताभ को कुछ विशेष फायदा नहीं मिला। फिर उन्हें रवि नगाइच के फिल्म प्यार की कहानी (1971) में मुख्य भूमिका मिली। नायिका तनूजा और सह कलाकार अनिल धवन के होने के बावजूद भी फिल्म चल नहीं पाई और अमिताभ के संघर्ष के दिन जारी ही रहे। उन दिनों अमिताभ बच्चन को जैसा भी रोल मिलता था स्वीकार कर लेते थे। इसीलिये फिल्म परवाना (1971) में उन्होंने एंटी हीरो का रोल किया। परवाना में नवीन निश्चल की मुख्य भूमिका थी और नवीन निश्चल भी उस समय के स्थापित नायक थे अतः अमिताभ की ओर लोगों का ध्यान कम ही गया। सन् 1971 में ही उन्होंने संजोग, रेशमा और शेरा तथा पिया का घर (अतिथि कलाकार) फिल्मों में काम किया पर कुछ विशेष सफलता नहीं मिली।

सन् 1972 में आज के महानायक की फिल्में थीं - बंशी बिरजू, बांबे टू गोवा, एक नजर, जबान, बावर्ची (पार्श्व उद्घोषक) और रास्ते का पत्थर। बी.आर. इशारा की फिल्म एक नजर में उनके साथ हीरोइन जया भादुड़ी थीं। फिल्म एक नजर के संगीत को बहुत सराहना मिली पर फिल्म फ्लॉप हो गई। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि फिल्म एक नजर के गाने आज भी संगीतप्रेमियों के जुबान पर आते रहते हैं खासकर 'प्यार को चाहिये क्या एक नजर.......', 'पत्ता पत्ता बूटा बूटा.......', 'पहले सौ बार इधर और उधर देखा है.......' आदि। इसी फिल्म से अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी एक दूसरे को चाहने लगे। ये जया भादुड़ी ही थीं जिन्होंने संघर्ष के दिनों में अमिताभ को संभाले रखा।

सन् 1973 में अमिताभ जी की फिल्में बंधे हाथ, गहरी चाल और सौदागर विशेष नहीं चलीं। पर प्रकाश मेहरा की फिल्म जंजीर की अपूर्व सफलता और उनके एंग्री यंगमैन के रोल ने उन्हें विकास के रास्ते पर ला खड़ा किया।