Saturday, June 5, 2010

कहीं धोखा तो नहीं खा रहे हैं आप?

इस चित्र को देखकर क्या लग रहा है आपको? देखिये, सच सच बताइयेगा। आप यही सोच रहे हैं ना कि ....

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पर आप जो सोच रहे हैं वह कहीं गलत तो नहीं है? कहीं धोखा तो नहीं खा रहे हैं आप?

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Friday, June 4, 2010

आइना वही रहता है चेहरे बदल जाते हैं

"क्या करना है साहब लड़के को ज्यादा पढ़ा लिखाकर? आखिर करना तो उसे किसानी ही है। चिट्ठी-पत्री बाँचने लायक पढ़ ले यही बहुत है।" यह बात हमसे गाँव के एक गरीब किसान ने कही थी जब हमने उसे अपने बच्चे को खूब पढ़ाने-लिखाने की सलाह दी थी।

दूसरी ओर शहर में एक गरीब भृत्य का कहना है कि "चाहे जो हो साहब, भले ही उधारी-बाड़ी ही क्यों ना करना पड़े, पर मैं अपने लड़के को कम से कम ग्रेजुएट तो कराउँगा ही।"

शिक्षा वही है किन्तु एक की निगाह में उसका मान (value) अलग है और दूसरे की निगाह में अलग।

जब मैं फील्ड आफीसर था तो एक बार किसी गाँव में एक किसान के घर में जूते पहने हुए घुस गया। वह गरीब किसान मुझसे कुछ कह तो नहीं सका किन्तु उसकी नजरों ने मुझे बता दिया कि मेरा जूते पहने हुए उसके घर के भीतर घुस जाना उसे बहुत ही नागवार गुजरा था। जूते पहन कर घर के भीतर चले आना उसके विचार से अभद्रता थी। तत्काल मैंने उससे माफी माँगी और बाहर आकर जूते उतारने के बाद उसके घर के भीतर घुसा। परिणाम यह हुआ कि जिस किसान के मन में अभी एक मिनट पहले ही मेरे प्रति तुच्छ भाव थे वही अब मुझे बहुत अधिक हार्दिक सम्मान दे रहा था। इस घटना से मुझे बहुत बड़ी सबक मिली और उसके बाद जब कभी भी मैं किसी गाँव में किसी किसान के घर जाता था तो पहले जूते उतार दिया करता था।

व्यक्ति, वस्तु, गुण आदि भी एक आइना के मानिंद होते हैं। जिस प्रकार से आइनें आदमी को अपना चेहरा दिखता है उसी प्रकार से व्यक्ति, वस्तु, गुण आदि में भी आदमी को अपने ही विचार दिखते हैं। ये आदमी के भीतर के विचार ही किसी व्यक्ति, वस्तु, गुण आदि का मान (value) तय करते हैं। जी.के. अवधिया वही होता है किन्तु कोई उसे "गुरुदेव" सम्बोधन करता है और कोई उसे "चश्मेबद्दूर" (चश्माधारी खूँसट बुड्ढा) कहता है। याने कि अलग-अलग लोगों के लिये जी.के. अवधिया का अलग-अलग मान है। अब कल के मेरे पोस्ट "खुशखबरी... खुशखबरी... खुशखबरी... ब्लोगिंग से कमाई शुरू" का मान (value) भी किसी के लिये कुछ है तो किसी के लिये कुछ। जहाँ श्री सुरेश चिपलूनकर जी टिप्पणी करते हैं:

चलिये रेट फ़िक्स करके आपने पहल तो की, अब हम जैसे फ़ॉलोअर भी अपने ब्लॉग के रेट्स तय करते हैं…, धन्यवाद आपका…
वहीं श्री जनक (ये कौन हैं कह नहीं सकता क्योंकि उनका प्रोफाइल नदारद है) का विचार हैः
अवधिया जी आप क्या हो मई समझ नहीं पाया !
पोस्ट का शीर्षक क्या लगा रखा है और लिखा है एकदम घटिया मजाक
क्या सोच है आपकी ,,,,हे भगवान् अब यही सब होगा कोई समझाओ
अब मैं यदि चिपलूनकर जी की टिप्पणी पढ़कर फूलकर कुप्पा हो जाऊँ और दूसरी टिप्पणी पढ़कर आग-बबूला हो जाऊँ तो क्या यह मेरी मूर्खता नहीं होगी?

जो भी व्यक्ति इस मान (value) को अच्छी प्रकार से समझ लेता है उसे भले बुरे की समझ भी अपने आप आ जाती है।

जीवन में घटने वाली छोटी छोटी बातों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं यदि सीखना चाहें तो।

हम सबको मिलकर अभी ब्लोगिंग का भी मान तय करना है क्योंकि मेरे जैसा ही आप सभी ने अनुभव किया होगा कि ब्लोगिंग का मान भी अलग-अलग ब्लोगर की नजर में अलग-अलग है, किसी के लिये यह मात्र मौज मजा का साधन है तो किसी के लिये भाषा, साहित्य, समाज आदि की सेवा, किसी के लिये यह अधिक से अधिक टिप्पणी पाना है तो किसी के लिये अधिक से अधिक पाठक पाना, किसी और के कुछ और है तो किसी और के लिये कुछ और ....

Thursday, June 3, 2010

खुशखबरी... खुशखबरी... खुशखबरी... ब्लोगिंग से कमाई शुरू

आप तो जानते ही हैं कि आजकल विज्ञापन का जमाना है और आप विज्ञापन के महत्व को भी अच्छी तरह से समझते हैं। ये विज्ञापन चीज ही ऐसी है कि किसी उत्पाद को बाजार में आने के पहले ही सुपरहिट बना देती है। अच्छे से अच्छा उत्पाद विज्ञापन के अभाव में पिट जाता है और सामान्य से भी कम गुणवत्ता वाला उत्पाद विज्ञापन के बदौलत हिट हो जाता है। तो फिर आखिर अपने ब्लोग का अन्य ब्लोग में विज्ञापन करने में बुराई ही क्या है?

इसीलिये हमने निश्चय किया है कि आप हमारे पोस्टों में टिप्पणी करते हुए अपने ब्लोग का विज्ञापन कर सकते हैं, और वह भी बहुत सस्ते दर पर। विज्ञापन के दर इस प्रकार हैं:

  • बिना किसी लिंक के प्रचार वाली टिप्पणी के लिये रु.100 मात्र
  • आपकी टिप्पणी में एक लिंक के लिये रु.200 मात्र
  • आपकी टिप्पणी में दो लिंक के लिये रु.300 मात्र
  • आपकी टिप्पणी में तीन से पाँच लिंक के लिये रु.500 मात्र
  • हमारे ब्लोग के साइडबार में आपके ब्लोग का विजेट लगाने के लिये रु.2000 प्रतिमाह मात्र
सीमित संख्या में ही विज्ञापन स्वीकार किये जायेंगे अतः शीघ्रता करें अन्यथा बाद में पछताना पड़ेगा।

कृपया विज्ञापन देने से पहले हमसे सम्पर्क कर लें ताकि हम आपको अग्रिम भुगतान के तरीके के विषय में बता दें।

टिप्पणी में लिंक देकर विज्ञापन के आरम्भ होने के कारण आज से टिप्पणी मॉडरेशन शुरू किया जा रहा है। विज्ञापन वाले उन्हीं टिप्पणियों को प्रकाशित किया जायेगा जिनके लिये भुगतान अग्रिम रूप से प्राप्त हो चुका रहेगा।

आप लोगों ने शायद गौर किया होगा कि आजकल यह रवैया बन गया है कि लोग पोस्ट को पढ़ें या ना पढ़ें किन्तु टिप्पणी अवश्य करते हैं। टिप्पणी कर के लिये लोग पापा, दादा, अनामी, बेनामी कुछ भी बन सकते हैं। याने कि टिप्पणी करके अपना प्रचार करना या फिर दिल की भड़ास निकालना एक शौक बन गया है। टिप्पणी करने वाले इस शौक को छोड़ कर सभी शौक को पूरा करने के लिये आखिर खर्च तो करना ही पड़ता है तो फिर टिप्पपणी वाली यह शौक ही क्यों फोकट में पूरी हो। कम से कम हमारे ब्लोग में तो यह शौक आज से फोकट में पूरा नहीं होगा। यही सोचकर हमने इस प्रकार के विज्ञापन की योजना बनाई है ताकि लोगों का शौक भी पूरा होता रहे और हमें भी कुछ आमदनी हो जाये। खैर आमदनी तो क्या होगी, क्योंकि लोगो खर्च करने का नाम सुनकर ही ऐसे गायब हो जायेंगे जैसे कि "गधे के सिर से सींग",  पर हाँ अवांछित टिप्पणियों से जरूर कुछ ना कुछ छुटकारा मिल जायेगा।

Wednesday, June 2, 2010

जरा जोड़ कर बताइये तो... नहीं जोड़ पाये ना?

जरा जोड़ कर बताइये तो -

III
VII
IX
I
+ L XI V
‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‌‌‌‌----------

नहीं जोड़ पाये ना? अच्छा अब जोड़िये -

03
07
09
01
66

अब तो आपने तत्काल जोड़कर बता दिया कि इनका का जोड़ 86 है। पर इन्हीं संख्याओं को पहले वाले रूप में जोड़ने के लिये कहा गया तो नहीं बता पाये थे कि जोड़ L XXX VI है। पहली बार जो सवाल आपको मुश्किल लग रहा था वही दूसरी बार आपको सरल इसलिये लगने लग गया क्योंकि संख्याओं को दशमलव पद्धति में लिखा गया था। किन्तु आपको यह जानकर बहुत आश्चर्य होगा कि दशमलव पद्धति के आरम्भ होने के पहले भी हिसाब-किताब हुआ करता था। याने कि हजारों-लाखों साल तक लोग बगैर शून्य और दशमलव पद्धति के जोड़-घटाना-गुणा-भाग आदि करते रहे हैं। बहुत ही जटिल और समय-खाऊ होता था वह गणित।

जोड़-घटाना-गुणा-भाग का आधार गिनती है। क्या कभी आपने सोचा भी है कि गिनती की शुरुआत कब, क्यों और कैसे हुई?

मानव आरंभ से ही सामाजिक प्राणी रहा है। प्रगैतिहासिक काल में जब मानव गुफाओं में रहा करता था तब भी उनके समूह हुआ करते थे। जब तक ये समूह छोटे रहे, किसी प्रकार की गिनती की आवश्यकता नहीं थी। दिन भर भोजन की टोह में इधर-उधर भटकने के बाद जब समूह के सदस्य वापस इकट्ठे होते थे तो समूह के सरदार को आभास हो जाया करता था कि पूरे सदस्य आ गये हैं या कोई सदस्य कम है।

किन्तु जब समूह के सदस्यों की संख्या में वृद्धि होने लगी तो मानवीय आभास से काम चलाना मुश्किल हो गया और उन्हें गिनती की आवश्यकता हुई। सर्वप्रथम मनुष्यों ने अपने हाथों की उंगलियों को गिनती का आधार बनाया। बाद में सदस्यों की संख्या में और वृद्धि होने पर पैरो की उंगलियों को भी गिनती में शामिल कर लिया। संख्या में निरंतर वृद्धि के कारण उन्हें अंकों तथा संख्याओं के लिये संकेत बनाने पड़े।

आज भी उस प्रकार के संकेतों का प्रयोग किया जाता है जैसे कि I, II...., V...., X...., L...., C...., आदि। अब यदि देखें तो इन संकेतों का आधार पाँच का अंक है जैसे V, X, L, C। मनुष्य के एक हाथ में पाँच उंगलियाँ होने के कारण ही पाँच को अंको और संख्याओं का आधार बनाया गया। शून्य की जानकारी न होने के कारण इन्हीं संकेतों के द्वारा हजारों-लाखों वर्षों तक गणितीय गणना की जाती रही है।

फिर शून्य का अविष्कार हुआ। हमारे लिये जहाँ यह गौरव की बात है कि शून्य भारत की ही देन है वहीं यह क्षोभ की बात है कि हम आज तक उस महान गणितज्ञ का नाम भी नहीं जानते जिन्होंने शून्य का अविष्कार किया। कहा जाता है कि शून्य का अविष्कार नवीं शताब्दी में हुआ था। उस काल में हिन्दु धर्म के मुख्य रूप से तीन सम्प्रदाय, वैष्णव, शैव और शाक्त, हुआ करते थे। इन तीनों सम्प्रदायों के अनुयायी स्वयं के सम्प्रदाय को महान तथा अन्य सम्प्रदायों को तुच्छ मानकर आपस में झगड़ा किया करते थे। उसी समय जैन सम्प्रदाय का जन्म हुआ। इस नये प्रतियोगी को नीचा दिखाने के लिये पहले के तीनों सम्प्रदाय एक हो गये। अनुमान किया जाता है कि शून्य का आविष्कार करने वाला गणितज्ञ जैन सम्प्रदाय का अनुयायी था और इसीलिये उनके नाम को कभी भी आगे आने नहीं दिया गया।

लोगों को शून्य का प्रयोग करके गणितीय गणना करना बहुत सरल लगा और शून्य का प्रयोग जोरों से किया जाने लगा। किन्तु शासक के जैन सम्प्रदाय विरोधी होने के कारण शून्य के प्रयोग को राजकीय रूप से मान्यता नहीं दी गई। व्यापारियों को अपने हिसाब-किताब पुरानी पद्धति में ही रखने के राजकीय आदेश दिये गये। अतः एक परपाटी यह चल गई कि कच्चे में शून्य का प्रयोग करके हिसाब किया जाये और पक्के में पुरानी पद्धति से लिखा जाये। चूँकि लिखने का काम भोज पत्र पर हुआ करता था अतः भोज पत्र की खपत कम करने के लिये कच्चे में हिसाब करने के लिये जमीन के एक टुकड़े को लिप पोत कर चिकना बना दिया जाता था और उस पर महीन राख की परत बिछा दी जाती थी। उंगलियों से लिखकर हिसाब किया जाता था। पक्के में पुरानी पद्धति में उतार लेने के बाद जमीन में बनाई गई राख की स्लेट को फिर से लिखने लायक बना लिया जाता था।

उस काल में व्यापार करने के लिये भारत में अरब देशों के व्यापारी आया करते थे। शून्य का प्रयोग करके गणना करने की सरलता ने उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया और वे हमारे अंको को अपने देश ले गये। चूँकि राख को अरबी भाषा में गुबार कहा जाता है, उन्होंने यहाँ से ले जाये गये अंको का नाम गुबार अंक रखा। गुबार अंक अरब देशों से मिश्र पहुँच गया। इस प्रकार आगे बढते-बढते हमारे ये अंक अलग-अलग नामों तथा संकेतों के साथ पूरे यूरोप में पहुँच गये। कालान्तर में जब अंग्रेजों ने भारत के शासन को हथिया लिया, तब हमारे यही अंक अंग्रेजी अंको के रूप में हमारे सामने आये।

बाद में गणितज्ञों के शोध कार्यों से सिद्ध हो गया कि अंग्रेजी अंक वास्तव में अंग्रेजी न होकर भारतीय है। इन अंकों को 'भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप' नाम दिया गया जिसे पूरे विश्व ने स्वीकार किया।

Tuesday, June 1, 2010

अब रोज-रोज तो कुछ सूझता नहीं इसलिये आज अगड़म-बगड़म लिख रहा हूँ ... जो पढ़ें उसका भी भला, जो ना पढ़ें उसका भी भला

अजब रोग है ये ब्लोगिंग भी। रोज ही एक पोस्ट लिखने का नशा लगा दिया है इसने हमें। पर आदमी अगर रोज-रोज लिखे भी तो क्या लिखे? कभी-कभी कुछ सूझता ही नहीं तो अगड़म-बगड़म कुछ भी लिख कर पोस्ट प्रकाशित कर देता है। तो आज हम भी ऐसे ही कुछ अगड़म-बगड़म लिख रहे हैं, जिसे पढ़ना हो पढ़े ना पढ़ना हो ना पढ़े। अपना क्या जाता है।

तो पेश है अगड़म-बगड़मः

विचित्र प्राणी है मनुष्य। संसार के समस्त प्राणियों से बिल्कुल अलग-थलग। यह एक ऐसा प्राणी जो जन्म के पूर्व से मृत्यु के पश्चात् तक खर्च करवाता है। ईश्वर ने इस पर विशेष अनुकम्पा कर के इसे बुद्धि प्रदान की है ताकि यह इस बुद्धि का सदुपयोग करे किन्तु यह प्रायः बुद्धि का सदुपयोग करने के स्थान पर दुरुपयोग ही करता है। सत्ता, महत्ता और प्रभुता प्राप्त करने के लिये यह कुछ भी कर सकता है।

मनुष्य यदि ऊपर उठना चाहे तो देवताओं से भी ऊपर जा सकता है और नीचे गिरना चाहे तो पशुओं से भी निकृष्ट बन सकता है इसीलिये मैथिलीशरण गुप्त जी ने पंचवटी में कहा हैः

मैं मनुष्यता को सुरत्व की जननी भी कह सकता हूँ
किन्तु मनुष्य को पशु कहना भी कभी नहीं सह सकता हूँ

Monday, May 31, 2010

ब्लोगिंग से कमाई तो होने से रही ... काश ज्ञानेश्वरी एक्प्रेस में ही रहे होते ...

एक आदमी वो होता है कि काल का ग्रास बन जाने जैसे हादसे का शिकार होकर भी रुपया कमा लेता है और एक हम हैं कि ब्लोगिंग कर के कुछ भी नहीं कमा सकते। दो-दो लाख रुपये मिल गये ज्ञानेश्वरी एक्प्रेस में मरने वालों के परिवार को किन्तु यदि ब्लोगिंग करते हुए यदि हम इहलोक त्याग दें तो हमारे परिवार को दो रुपये भी नसीब नहीं होगे।

हम पहले भी कई बार बता चुके हैं कि नेट की दुनिया में हम कमाई करने के उद्देश्य से ही आये थे और आज भी हमारा उद्देश्य नहीं बदला है। पर क्या करें? फँस गये हिन्दी ब्लोगिंग के चक्कर में। याने कि "आये थे हरि भजन को और ओटन लगे कपास"। इस हिन्दी ब्लोगिंग से एक रुपये की भी कमाई तो होने से रही उल्टे कभी-कभी हमारा लिखा किसी को पसन्द ना आये तो चार बातें भी सुनने को मिल जाती हैं। अब कड़ुवी बातें सुनने से किसी को खुशी तो होने से रही, कड़ुवाहट ही होती है।

हाँ ब्लोगिंग से टिप्पणियाँ अवश्य मिल जाती हैं! पर इन टिप्पणियों के मिलने से खुशी एक, और सिर्फ एक, आदमी को ही मिलती है और वो हैं हम! ये टिप्पणियाँ हमारे सिवा और किसी को भी खुशियाँ नहीं देतीं, यहाँ तक कि हमारी श्रीमती जी को भी नहीं। यदि हम श्रीमती जी को बताते हैं कि आज हमने अनुवाद करके दो हजार रुपये कमाये हैं तो वे अत्यन्त प्रसन्न हो जाती हैं किन्तु जब हम उन्हें लहक कर बताते हैं की आज हमारे पोस्ट को बहुत सारी टिप्पणियाँ मिली हैं और वह टॉप में चल रहा है तो वे मुँह फुला कर कहती हैं "तो ले आईये इन टिप्पणियों से राशन-पानी और साग-सब्जी"।

उनका मुँह फुलाना नाजायज भी नहीं है। क्योंकि ज्येष्ठ होने के नाते हमने हमेशा उनकी अपेक्षा अपने माँ-बाप और भाई-बहनों की ओर ही अधिक ध्यान दिया। कभी चार पैसे इकट्ठे हुए और सोचा कि श्रीमती जी के लिये एक नेकलेस ले दें तो पता चला कि माता जी की साँस वाली बीमारी ने फिर जोर पकड़ लिया है। उनके इलाज में वे सारे रुपये तो खत्म हो गये और ऊपर से चार-पाँच हजार की उधारी हो गई सो अलग। फिर कभी कुछ रुपये जमा हुए तो बेटे ने बाइक लेने की जिद पकड़ ली और श्रीमती जी के नेकलेस का सपना सपना ही रह गया। चाहे बहन की शादी हो या भाई-बहू का ऑपरेशन, आर्थिक जिम्मेदारी हमारे ही सिर पर आ जाती थी।कुछ कुढ़ने के बावजूद भी, भले ही बेमन से सही, वे हमारे इस कार्य में हमारा साथ देती रहीं।

आज माँ-बाप रहे नहीं और भाई-बहनों के अपने परिवार हो गये। सभी का साथ छूट गया, साथ रहा तो सिर्फ श्रीमती जी का। पर कभी भी तो उन्हें खुशी नहीं दे पाये हम। तो आज उनके मुँह फुलाने को नाजायज कैसे कहें? और आज भी हम इतने स्वार्थी हैं कि टिप्पणियाँ बटोर खुद खुश होने की सोचते हैं। पहले अपनी खुशी का खयाल आता है और बाद में उनकी खुशी का। इस हिन्दी ब्लोगिंग ने बेहद स्वार्थी बना दिया है।

इतना सब कुछ होने के बावजूद भी जब देखते हैं कि उन्हें पहले हमारी खुशी का ही ध्यान रहता है तो सोचने लगते हैं -

ब्लोगिंग से कमाई तो होने से रही ... काश ज्ञानेश्वरी एक्प्रेस में ही रहे होते ...

Sunday, May 30, 2010

अपने ब्लोग का प्रचार अवश्य कीजिये किन्तु इस तरह से नहीं ...

आप एक पोस्ट लिखते हैं और उसमें एक टिप्पणी भी आ जाती है कुछ इस तरह सेः

"मेरे फलाँ ब्लोग में आकर कृपया अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करें।"

याने कि आपने अपने पोस्ट में क्या लिखा है, क्यों लिखा है, सही लिखा है या गलत लिखा है इन बातों से टिप्पणी करने वाले को कुछ भी मतलब नहीं है, मतलब है तो सिर्फ अपने ब्लोग के प्रचार से।
आप अपना ईमेल खोलते हैं कई ईमेल आपको सिर्फ यह सूचना देते हुए मिलते हैं कि मेरे ब्लोग में नया पोस्ट आ चुका है।

ऐसी बातों की कैसी प्रतिक्रिया होती है आप पर? क्या ये अच्छा लगता है आपको? या दिमाग भन्ना जाता है?

हमारा मानना तो यह है कि यदि किसी ने प्रभावशाली एवं पठनीय पोस्ट लिखा है तो पढ़ने वाले तो आयेंगे ही! ऐसा कैसे हो सकता है कि गुड़ हो और मक्खियाँ ना आयें?

पर हम प्रचार को भी गलत नहीं समझते। आखिर बाजारवाद का जमाना है आजकल। विज्ञापन, सेल्समेनशिप आदि लोगों को लुभाने के समस्त तरीके बिल्कुल जायज हैं। आपका पोस्ट आपका उत्पाद है और अपने उत्पाद को बेचने के लिये एक अच्छा विक्रेता (सेल्समेन) बनना जरूरी है।

एक सफल विक्रेता (सेल्समेन) के पास विक्रयकला (सेल्समेनशिप) का होना निहायत जरूरी है। आज ही नहीं बल्कि सदियों से विक्रयकला का चलन चलता ही चला आ रहा है। लगभग सौ साल पहले लिखी गई पुस्तक "भूतनाथ" में 'खत्री' जी ने उस जमाने के विज्ञापन और विक्रयकला को कुछ इस प्रकार से पेश किया हैः

(विज्ञापन की बानगी)
इस जमींदार सूरत वाले आदमी की निगाह चौक की एक बहुत बड़ी दूकान पर पड़ी जिसके ऊपर लटकते हुए तख्ते पर बड़े हरफों में यह लिखा हुआ था -

"यहाँ पर ऐयारी का सभी सामान मिलता है, ऐयारी सिखाई जाती है, और ऐयारों को रोजगार भी दिलाया जाता है। आइये दूकान की सैर कीजिये - "
(विक्रयकला सेल्समेनशिप की बानगी)
कुछ देर देखने के बाद वह आदमी दूकान के अन्दर चला गया और वहाँ की चीजों को बड़े गौर से देखने लगा। एक आदमी जो शायद सौदा बेचने के लिये मुकर्रर था उसके सामने आया और बड़ी लनतरानी के साथ तारीफ करता हुआ तरह-तरह की चीजें दिखाने लगा जो कि शीशे की सुन्दर आलमारियों में करीने से सजाई हुई थीं, दूकानदार ने कहा, "देखिये, तरह-तरह की दाढ़ी और मूँछें तैयार हैं, बीस से लेकर सौ वर्ष का आदमी बनना चाहे तो बन सकता है। जो पूरी तौर पर ऐयारी नहीं जनते, बनावटी दाढ़ी-मूछें तैयार करने का जिन्हें इल्म नहीं  वे इन दाढ़ी-मूछों को बड़ी आसानी से लगा कर लोगों को धोखे में डाल सकते हैं, मगर जो काबिल ऐयार हैं और मनमानी सूरत बनाया करते हैं अथवा जो किसी की नकल उतारने में उस्ताद हैं उनके लिये तरह-तरह के खुले हु बाल अलग रक्खे हुए हैं। (लकड़ी के डिब्बों को खोलकर दिखाते हुए) इन सुफेद और स्याह बालों से वे अपनी मनमानी सूरतें बना सकते हैं, देखिये बारीक, मोटे, सादे और घुँघराले वगैरह सभी तरह के बाल मौजूद हैं, इसके अलावा यह देखिये (दूसरी आलमारी की तरफ इशारा करके) तरह-तरह की टोपियाँ जो कि पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्खिन के मुल्कों वाले पहिरा करते हैं तैयार है और इसी तरह हर एक मुल्क की पोशाकें इधर-उधर खूँटियों पर देखिये तैयार लटक रही हैं। साफे, पगड़ियों और मुड़ासों की भी कमी नहीं है, बस सर पर रख लेने की देर है। आइये इधर दूसरे कमरे में देखिये ये तरह-तरह के बटुए लटक रहे हैं जिनमें रखने के लिये हर एक तरह का सामान भी इस दूकान में मौजूद रहता है। (तीसरे कमरे में जाकर) इन छोटे-बड़े हल्के-भारी सभी तरह के कमन्द और हर्बों की सैर कीजिये जिनकी प्रायः सभी ऐयारों को जरूरत पड़ती है। ....."
तो बन्धु, आप भी अपने पोस्ट का प्रचार अवश्य कीजिये किन्तु इस तरह से नहीं कि आपके प्रचार का उलटा ही प्रभाव पड़े।