Saturday, November 13, 2010

क्या वास्तव में हम भारतीय हैं?

जरा हम अपने हृदय पर हाथ रख कर सोचें कि क्या हम बारह भारतीय महीनों के नाम भी जानते हैं? शायद ही हम में से कुछ ही लोग जानते होंगे और क्रमवार तो उनमें से भी बहुत ही कम लोग जानते होंगे। ईसवी सन् कौनसा है यह हम सभी जानते हैं किन्तु पूछ दिया जाये कि कौन सा संवत् चल रहा है तो हम बगलें झाँकने लगते हैं। यदि सोते से उठा कर भी हमें अंग्रेजी के छब्बीस अक्षर बताने के लिये कहा जाये तो हम उन्हें तुरन्त बोल देंगे, किन्तु बहुत सोचने के बाद भी हमें देवनागरी के अक्षर पूरे याद नहीं आते।

हम केवल दीवाली, होली जैसे प्रमुख त्योहारों को मना कर आत्मप्रवंचना कर लेते हैं कि हम भारतीय हैं। अपने पश्चिमी संस्कारों के ऊपर भारतीय संस्कार का एक मुलम्मा चढ़ा लेते हैं। हम अंग्रेजी माध्यम के कन्व्हेंट स्कूलों में पढ़े हुये लोग हैं। अपने त्योहारों को मनाते हुये हम गर्व का अनुभव करते हैं और सभ्य लोगों के बीच अपनी ही भाषा बोलने में हमें शर्म और संकोच होता है। किसी साक्षात्कार में यदि हमसे हिन्दी में भी प्रश्न किया जाये तो उसका उत्तर अंग्रेजी में दे कर हम स्वयं को बुद्धिमान सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। यदि उत्तर हिंदी में ही देते हैं तो भी उसमें अंग्रेजी के शब्दों को घुसेड़ कर यह तो अवश्य ही बता देते हैं कि हम हिंदी जानें या न जानें, अंग्रेजी अवश्य ही जानते हैं।

फिर जैसे हमारे माता-पिता ने किया था वैसे ही हम भी अपने बच्चों को बचपन से ही माँ-पिताजी, चाचा-चाची कहना सिखाने के बदले मम्मी-डैडी, अंकल-आंटी कहना सिखलाते हैं। उन्हें कन्व्हेंट स्कूलों में भेज कर उन्हें अंग्रेजी की शिक्षा दिलवाते हैं। हिन्दी हमारे बच्चों के लिये द्वितीय भाषा हो जाती है। हमारे बच्चों को हम याद नहीं आते बल्कि वे हमें 'मिस' करते हैं।
अब तो हमारी फिल्में और टी।व्ही। चैनल्स जैसी प्रभावशाली माध्यमों ने भी हममें एक खिचड़ी भाषा का संस्कार भरना शुरू कर दिया है। फिल्मों के नाम आधा हिन्दी और आधा अंग्रेजी में होते हैं। टी.व्ही. का कोई भी 'सीरियल', कोई भी विज्ञापन देख लें, भाषा खिचड़ी पायेंगे।

इन सभी बातों को ध्यान में रख कर सोचें कि क्या हम वास्तव में भारतीय हैं?

Friday, November 12, 2010

सेवा? व्यापार? या लूट?

"ग्रेट कन्वेंट स्कूल के यूनीफॉर्म वाली स्वेटर है क्या?"

"वो तो साहब आपको सिर्फ फलाँ दूकान में ही मिलेगी, उस दूकान के अलावा और कहीं भी नहीं मिल सकती।" होजियरी दूकानदार ने बताया। साथ ही उस दूकान का पता भी उसने बता दिया।

अब हम और हमारे परिचित गुप्ता जी उस दूकान में गए। गुप्ता जी का पुत्र उस स्कूल में पीपी-1 कक्षा में पढ़ता है। उस स्कूल का नियम है कि बच्चों को वहाँ के यूनीफॉर्म में ही आना पड़ेगा। वहाँ यूनीफॉर्म के वस्त्र भी आपको स्कूल से ही खरीदना पड़ेगा। अब चूँकि सर्दियाँ आ गई हैं इसलिए बच्चों के लिए स्वेटर भी जरूरी है। इसलिए स्कूल वालों ने एक विशिष्ट रंग तथा डिजाइन का स्वेटर भी जोड़ दिया यूनीफॉर्म में। मगर उनके यूनीफॉर्म वाला वह विशिष्ट स्वेटर आपको केवल एक विशिष्ट दूकान के अलावा पूरे रायपुर के अन्य दूकानों में कहीं नहीं मिल सकती।

खैर साहब हम उस विशिष्ट दूकान में गए और गुप्ता जी ने अपने बच्चे के लिए स्वेटर खरीद ली। अब उन्हें अपने पुत्र के लिए एक पुस्तक की जरूरत थी। अब हम उस पुस्तक की तलाश में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर कि पुस्तक दूकानों की खाक छानने लगे। पच्चीसों दूकानों में गए किन्तु पुस्तक कहीं उपलब्ध नहीं थी।

फिर एक भले दूकानदार ने कहा, "अरे साहब, यह तो ग्रेट कन्वेन्ट स्कूल में चलने वाली किताब है, इस पुस्तक को आपको उसी स्कूल से ही खरीदना पड़ेगा।"

"वहाँ से हमने खरीदा था पर बच्चे ने उस पुस्तक को कहीं गुमा दिया। अब यह पुस्तक स्कूल के स्टॉक में खत्म हो गई है।" गुप्ता जी बोले।

"तब तो साहब आप फलाँ पुस्तक दूकान में चले जाइए क्योंकि उस स्कूल को वही दूकान पुस्तकें सप्लाई करती है। पर वो दूकान तो आउटर एरिया में है, अब तक तो बंद हो चुकी होगी; आप कल वहाँ जाकर पता कर लेना।"

अब हम सोचने लगे कि ये स्कूल शिक्षा देने का काम कर रहा है या कपड़े, पुस्तकें आदि बेचने का? यह हाल सिर्फ उस स्कूल का ही नहीं बल्कि आज के अधिकतर विद्यालयों तथा महाविद्यालयों का है। ये सब कपड़े, पुस्तकें आदि बेचने के साथ ही बच्चों को घर से स्कूल तथा स्कूल से घर तक पहुँचाने के लिए ट्रांसपोर्टेशन का भी धंधा करते हैं।

याने नाम शिक्षा जैसी सेवा का और काम व्यापारी का। पर इसे व्यापार कहना भी गलत है क्योंकि ये जो भी चीजें बेचते हैं उनके दाम उन वस्तुओं की वास्तविक कीमतों से चौगुनी होती है। याने कि यह व्यापार नहीं लूट है।

अब हम एक जाने-माने डॉक्टर साहब के यहाँ गए क्योंकि हमें दो दिन से कुछ तकलीफ थी। अस्पताल के रिसेप्शन में बैठी सुन्दर सी महिला ने हमसे हमारा नाम, उम्र आदि पूछ कर एक पर्ची बना कर हमें देते हुए कहा, "डॉक्टर साहब की फीस, रु.150.00 जमा कर दीजिए।"

हमने फीस जमा कर दी। हमारा नंबर आने पर जब हम डॉक्टर साहब से मिले तो उन्होंने तकलीफ पूछी। तकलीफ बताने पर न तो उन्होंने नाड़ी देखी, न ही जीभ देखी और न ही छाती और पीठ पर स्टेथिस्कोप लगाकर धड़कन देखी, बस एक पर्ची देते हुए कहा, "यहाँ जाकर खून और पेशाब का जाँच करवा लीजिए। कल रिपोर्ट देखने के बाद इलाज शुरू करेंगे।"

अब आप ही बताइए कि डॉक्टर साहब की फीस किस बात की थी? क्या सिर्फ यह बताने की थी कि फलाँ लेबोरेटरी में जाकर खून और पेशाब की जाँच करवा लो?

यह भी तो हो सकता है कि कल को हम डॉक्टर साहब के पास फिर जाने के पहले ही "टें" बोल जाएँ।

इतना सारा बकवास करने का लब्बोलुआब सिर्फ यह है कि हमें तो लगता है कि शिक्षा, चिकित्सा आदि कार्य आज सेवाएँ न रहकर लूट का माध्यम बन कर रह गई हैं।

Thursday, November 11, 2010

कहाँ खो गई वो खुशी?

कितने खुश होते थे हम भाई-बहन जब हम सभी को एक साथ बैठा कर माँ खाना परसती थी! हम चार भाई और एक बहन में कोई एक भी अनुपस्थित होता तो हम सभी उसके आने की प्रतीक्षा करते और उसके आ जाने के बाद ही एक साथ खाना खाते थे। एक-दूसरे को देखे बिना हम भाई-बहन रह नहीं पाते थे और हमारे माता-पिता हमारे इस सौहार्द्र को देखकर खुशी से फूले नहीं समाते थे।

आज माता-पिता दोनों ही परलोक सिधार चुके हैं। हम सभी के अपने-अपने परिवार हो गए हैं। सब अलग-अलग घरों में रहते हैं। एक ही शहर में रहते हुए भी महीनों एक दूसरे से मुलाकात नहीं होती। अभी भाई दूज के दिन बहन ने हम सभी भाइयों को निमन्त्रित किया था किन्तु सभी अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार अलग-अलग समय में बहन के घर पहुँचे। किसी ने किसी की भी प्रतीक्षा नहीं की।

सोच-सोच कर हैरान हूँ कि कहाँ गया वो बचपन का सौहार्द्र? कहाँ गई वो खुशी?

Wednesday, November 10, 2010

मान सहित मरिबो भलो… अपमान सहकर जीने से सम्मान के साथ मर जाना अच्छा है

रहिमन मोहि न सुहाय, अमिय पियावत मान बिनु।
बरु विष देय बुलाय, मान सहित मरिबो भलो॥


रहीम कवि कहते हैं कि यदि कोई बिना सम्मान के अमृत भी पिलाता है तो मुझे अच्छा नहीं लगता। यदि प्रेम से बुलाकर विष भी दे तो अधिक अच्छा है क्योंकि उससे सम्मान के साथ मृत्यु प्राप्त होगी।

Tuesday, November 9, 2010

कोई पास न रहने पर भी जन-मन मौन नहीं रहता

कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,
मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-

क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
है स्वच्छन्द-सुमंद गंधवह, निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!

है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।

सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥

(राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के खण्डकाव्य "पंचवटी" से उद्रृत)

Monday, November 8, 2010

मिठाइयाँ इधर-उधर फेकी हुईं पड़ी हैं

आज घर में यह हालत है कि जिस कमरे में देखो मिठाइयों से भरे बर्तन तथा डिब्बे इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। रिश्तेदारों और परिचितों के घर से बैने के रूप में प्रसाद आते जा रहे हैं जिनमें अनेक प्रकार की मिठाइयाँ ही मिठाइयाँ हैं। जिन मिठाइयों को देखकर ही मुँह में पानी आ जाता था आज उन्हीं मिठाइयों को देखने की इच्छा तक नहीं हो रही है। जब किसी वस्तु की मात्रा बहुत अधिक हो जाती है तो उसका कोई मूल्य नहीं रह जाता; इसीलिए तो वृन्द कवि ने कहा हैः

अति परिचै ते होत है अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी चन्दन देति जराय॥


सही बात तो यह है कि कौन सी चीज कब अच्छी लगेगी और कब बुरी कहा नहीं जा सकता। दिवाली के समय अच्छी लगने वाली मिठाई भी बुरी लगने लगती है जबकि हमेशा बुरी लगने वाली गाली भी विवाहोत्सव के समय समधन के द्वारा देने पर अच्छी लगने लगती है। इस पर भी वृन्द कवि ने निम्न दोहा लिखा हैः

निरस बात सोई सरस जहाँ होय हिय हेत।
गारी भी प्यारी लगै ज्यों-ज्यों समधिन देत॥


उद्धरण के रूप में वृन्द के उपरोक्त दो दोहे आ जाने से हमें वृन्द के और भी दोहे याद आ रहे हैं जो कि अत्यन्त सरस होने के साथ ही साथ नीतिपूर्ण भी हैं, आइए आप भी उनका रस लें:

उत्तम विद्या लीजिए जदपि नीच पै होय।
पर्यौ अपावन ठौर में कंचन तजप न कोय॥

सरसुति के भंडार की बडी अपूरब बात।
ज्यौं खरचै त्यौं-त्यौं बढै बिन खरचे घटि जात॥

जो जाको गुन जानही सो तिहि आदर देत।
कोकिल अंबहि लेत है काग निबौरी लेत॥

उद्यम कबहुँ न छोडिए पर आसा के मोद।
गागरि कैसे फोरिये उनयो देखि पयोद॥

जो पावै अति उच्च पद ताको पतन निदान।
ज्यौं तपि-तपि मध्यान्ह लौं अस्तु होतु है भान॥

मोह महा तम रहत है जौ लौं ग्यान न होत।
कहा महा-तम रहि सकै उदित भए उद्योत॥

ऊँचे बैठे ना लहैं गुन बिन बडपन कोइ।
बैठो देवल सिखर पर बायस गरुड न होइ॥

कछु कहि नीच न छेडिए भले न वाको संग।
पाथर डारै कीच मैं उछरि बिगारै अंग॥

सबै सहायक सबल के कोउ न निबल सहाय।
पवन जगावत आग कौं दीपहिं देत बुझाय॥

अति हठ मत कर हठ बढे बात न करिहै कोय।
ज्यौं-ज्यौं भीजै कामरी त्यौं-त्यौं भारी होय॥

मनभावन के मिलन के सुख को नहिंन छोर।
बोलि उठै, नचि नचि उठै मोर सुनत घन घोर॥

भली करत लागति बिलम बिलम न बुरे विचार।
भवन बनावत दिन लगै ढाहत लगत न वार॥

जाही ते कछु पाइए करिए ताकी आस।
रीते सरवर पै गए कैसे बुझत पियास॥

अपनी पहुँच बिचार कै करतब करिए दौर।
तेते पाँव पसारिए जेती लांबी सौर॥

नीकी पै फीकी लगै बिन अवसर की बात।
जैसे बरनत युद्ध में रस श्रृंगार न सुहात॥

विद्याधन उद्यम बिना कहौ जु पावै कौन?
बिना डुलाये ना मिले ज्यों पंखा की पौन॥

कैसे निबहै निबल जन कर सबलन सों गैर।
जैसे बस सागर विषै करत मगर सों बैर॥

फेर न ह्वै हैं कपट सों जो कीजै व्यौपार।
जैसे हांडी काठ की चढ़ै न दूजी बार॥

बुरे लगत सिख के बचन हियै विचारौ आप।
करुवी भेषज बिन पियै मिटै न तन की ताप॥

करिए सुख की होत दुःख यह कहो कौन सयान।
वा सोने को जारिए जासों टूटे कान॥

भले बुरे सब एक सौं जौं लौं बोलत नाहि।
जानि परतु है काक पिक ऋतु वसंत के माहि॥

नयना देत बताय सब हियौ की हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी भली बुरी कहि देत॥

रोष मिटै कैसे कहत रिस उपजावन बात।
ईंधन डारै आग मों कैसे आग बुझात॥

अति परिचै ते होत है अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी चंदन देति जराय॥

कारज धीरे होत है काहे होत अधीर।
समय पाय तरुवर फरै केतक सींचौ नीर॥

जिहि प्रसंग दूषण लगे तजिए ताको साथ।
मदिरा मानत है जगत दूध कलाली हाथ॥

करै बुराई सुख चहै कैसे पावै कोइ।
रोपै बिरवा आक को आम कहाँ ते होइ॥

उत्तम जन सो मिलत ही अवगुन सौ गुन होय।
घन संग खारौ उदधि मिलि बरसै मीठो तोय॥

कुल सपूत जान्यौ परै लखि सुभ लच्छन गात।
होनहार बिरवान के होत चीकने पात॥

क्यों कीजै ऐसो जतन जाते काज न होय।
परवत पर खोदी कुआँ कैसे निकसे तोय॥

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान॥