Monday, September 27, 2010

चंचल नार के नैन छिपे नहीं... कवि गंग

तारो के तेज में चन्द्र छिपे नहीं
सूरज छिपे नहीं बादल छायो
चंचल नार के नैन छिपे नहीं
प्रीत छिपे नहीं पीठ दिखायो
रण पड़े राजपूत छिपे नहीं
दाता छिपे नहीं मंगन आयो
कवि गंग कहे सुनो शाह अकबर
कर्म छिपे नहीं भभूत लगायो।


कवि गंग (1538-1625 ई.), जिनका वास्तविक नाम गंगाधर था, बादशाह अकबर के दरबारी कवि थे। कवि गंग के के विषय में कहा गया हैः

उत्तम पद कवि गंग के कविता को बलवीर।
केशव अर्थ गँभीर को सूर तीन गुन धीर॥


बादशाह अकबर के साथ ही रहीम, बीरबल, मानसिंह तथा टोडरमल आदि अकबर के दरबारीगण कवि गंग के चाहने वाले थे। उनकी रचनाओं को शब्दों का सारल्य के साथ साथ वैचित्र्य, अलंकारों का प्रयोग और जीवन की व्याहारिकता अत्यन्त रसमय एवं अद्भुत बना देते हैं। उनकी रचनाओं में जीवन का यथार्थ स्पष्ट रूप से झलकता है। इस यथार्थ को कि "गाँठ में रुपया होने से सभी लोग चाहने लगते हैं" कवि गंग इस प्रकार से व्यक्त करते हैं:

माता कहे मेरो पूत सपूत
बहिन कहे मेरो सुन्दर भैया
बाप कहे मेरे कुल को है दीपक
लोक लाज मेरी के है रखैया
नारि कहे मेरे प्रानपती हैं
जाकी मैं लेऊँ दिनरात बलैया
कवि गंग कहे सुन शाह अकबर
गाँठ में जिनकी है ढेरों रुपैया


उनके द्वारा व्यक्त एक और जीवन दर्शन और देखें:

जिनके हिरदे श्री राम बसे फिर और को नाम लियो ना लियो
कवि गंग कहे सुन शाह अकबर इक मूरख मित्र कियो ना कियो


बुराई के विषय में वे कहते हैं:

एक बुरो प्रेम को पंथ , बुरो जंगल में बासो
बुरो नारी से नेह बुरो , बुरो मूरख में हँसो
बुरो सूम की सेव , बुरो भगिनी घर भाई
बुरी नारी कुलक्ष , सास घर बुरो जमाई
बुरो ठनठन पाल है बुरो सुरन में हँसनों
कवि गंग कहे सुन शाह अकबर सबते बुरो माँगनो

कहा जाता है कि प्रायः अकबर कवि गंग को एक पंक्ति अथवा वाक्यांश दे दिया करते थे जिस पर उन्हें काव्य रचना करनी होती थी। एक बार अकबर ने "आस अकबर की" पर काव्य रचने को कहा तो उन्होंने निम्न रचना कीः

मृगनैनी की पीठ पै बेनी लसै, सुख साज सनेह समोइ रही।
सुचि चीकनी चारु चुभी चित मैं, भरि भौन भरी खुसबोई रही॥
कवि 'गंग जू या उपमा जो कियो, लखि सूरति या स्रुति गोइ रही।
मनो कंचन के कदली दल पै, अति साँवरी साँपिन सोइ रही॥

करि कै जु सिंगार अटारी चढी, मनि लालन सों हियरा लहक्यो।
सब अंग सुबास सुगंध लगाइ कै, बास चँ दिसि को महक्यो॥
कर तें इक कंकन छूटि परयो, सिढियाँ सिढियाँ सिढियाँ बहक्यो।
कवि 'गंग भनै इक शब्द भयो, ठननं ठननं ठननं ठहक्यो॥

लहसुन गाँठ कपूर के नीर में, बार पचासक धोइ मँगाई।
केसर के पुट दै दै कै फेरि, सुचंदन बृच्छ की छाँह सुखाई॥
मोगरे माहिं लपेटि धरी 'गंग बास सुबास न आव न आई।
ऐसेहि नीच को ऊँच की संगति, कोटि करौ पै कुटेव न जाई॥
रती बिन राज, रती बिन पाट, रती बिन छत्र नहीं इक टीको।

रती बिन साधु, रती बिन संत, रती बिन जोग न होय जती को॥
रती बिन मात, रती बिन तात, रती बिन मानस लागत फीको।
'गंग कहै सुन शाह अकबर, एक रती बिन पाव रती को॥
एक को छोड बिजा को भजै, रसना जु कटौ उस लब्बर की।

अब तौ गुनियाँ दुनियाँ को भजै, सिर बाँधत पोट अटब्बर की॥
कवि 'गंग तो एक गोविंद भजै, कुछ संक न मानत जब्बर की।
जिनको हरि की परतीत नहीं, सो करौ मिल आस अकबर की॥

उपरोक्त रचना की अंतिम पंक्ति अकबर को अपमानजनक लगी इसलिए अकबर ने कवि गंग को उसका साफ अर्थ बताने के लिए कहा। कवि गंग इतने स्वाभिमानी थे कि उन्होंने अकबर को यह जवाब दियाः

एक हाथ घोडा एक हाथ खर
कहना था सा कह दिया करना है सो कर


कवि गंग अत्यन्त स्वाभिमानी थे। उनकी स्पष्टवादिता के कारण ही उन्हें हाथी से कुचलवा दिया गया था।

अपनी मृत्यु के पूर्व कवि गंग ने कहा थाः

कभी न रानडे रन चढ़े कभी न बाजी बंध
सकल सभा को आशीष है ,विदा होत कवि गंग

कवि गंग के विषय में भिखारीदास जी का कथन हैः "तुलसी गंग दुवौ भए, सुकविन में सरदार"

कवि गंग के मुख्य ग्रंथ हैं -'गंग पदावली, "गंग पचीसी" और "गंग रत्नावली"।

चलते-चलते

कवि गंग के विषय में हमारे पास भी अधिक जानकारी नहीं थी। दरअसल हमने पोस्ट "पत्नी बिना चैन कहाँ रे" में निम्न पंक्तियाँ उद्धरित की थीः

भभूत लगावत शंकर को, अहिलोचन मध्य परौ झरि कै।
अहि की फुँफकार लगी शशि को, तब अंमृत बूंद गिरौ चिरि कै।
तेहि ठौर रहे मृगराज तुचाधर, गर्जत भे वे चले उठि कै।
सुरभी-सुत वाहन भाग चले, तब गौरि हँसीं मुख आँचल दै॥
(अज्ञात)

अर्थात् (प्रातः स्नान के पश्चात्) पार्वती जी भगवान शंकर के मस्तक पर भभूत लगा रही थीं तब थोड़ा सा भभूत झड़ कर शिव जी के वक्ष पर लिपटे हुये साँप की आँखों में गिरा। (आँख में भभूत गिरने से साँप फुँफकारा और उसकी) फुँफकार शंकर जी के माथे पर स्थित चन्द्रमा को लगी (जिसके कारण चन्द्रमा काँप गया तथा उसके काँपने के कारण उसके भीतर से) अमृत की बूँद छलक कर गिरी। वहाँ पर (शंकर जी की आसनी) जो मृगछाला थी वह (अमृत बूंद के प्रताप से जीवित होकर) उठ कर गर्जना करते हुये चलने लगा। सिंह की गर्जना सुनकर गाय का पुत्र - बैल, जो शिव जी का वाहन है, भागने लगा तब गौरी जी मुँह में आँचल रख कर हँसने लगीं मानो शिव जी से प्रतिहास कर रही हों कि देखो मेरे वाहन (पार्वती का एक रूप दुर्गा का है तथा दुर्गा का वाहन सिंह है) से डर कर आपका वाहन कैसे भाग रहा है।

उपरोक्त पंक्तियाँ कई साल पहले, जब हम बस्तर के नारायणपुर में कार्यरत थे, हमें एक अध्यापक महोदय ने सुनाई थीं। यह रचना हमें इतनी अच्छी लगी कि हमें यह कण्ठस्थ हो गया किन्तु इनके रचयिता के विषय में हमें पता नहीं था और उनके विषय में जानने के लिए हमें बहुत अधिक उत्सुकता थी। नेट में भटकते-भटकते अचानक हमें यही रचना दो और रूपों में मिलीं

अंग भस्मी लगावत शंकर ने तब
अहि लोचन बीच परी झर के
अहि फुंकार लगी शशि के तब
अमृत बूँद परी झर के
सजीव भाई मृगराज त्वचा तब
सुरभि सूत भागे डर के
कवी "गंग" कहे सुन शाह अकबर
गौर हंसी मुख यूँ करके
(लिंक)

भस्म रमा रहीं शंकर के
तनि लोचन-मध्य गिरी अहि के
विष की फुसकार लगी शशि के
और अमृत-बूंद गिरी झर के
मृगराज-त्वचा हुंकार उठी
सुरुभी-सुत भागे हैं बाँआ... कर के
लखि पार्वती सकुचाई रहीं
महादेव निहार रहे हँस के
(लिंक)

उपरोक्त एक रूप को पढ़कर लगता है कि यह रचना कवि गंग की है क्योंकि कवि गंग अपनी रचना की किसी न किसी पंक्ति में अन्य कई कवियों की तरह अपने नाम का उल्लेख करते थे। किन्तु अन्य दो रूपों में कवि गंग का नाम नहीं आता इससे लगता है कि यह कवि गंग की रचना नहीं हो सकती, उस रूप में शब्दों का चयन भी कवि गंग के काल का सा प्रतीत नहीं होता। अस्तु, कवि गंग के विषय में जानने की हमारी उत्सुकता बढ़ गई जिसका परिणाम इस पोस्ट के रूप में आपके समक्ष है।

34 comments:

निर्मला कपिला said...

कवि कंग का परिचय और विस्त्रित विस्श्लेशण बहुत अच्छा लगा। इसे पडःावाने के लिये धन्यवाद।

Arvind Mishra said...

कवि गंग के बारे में एक संग्रहनीय अंक (पोस्ट ) ..मजा आ गया ,,वाह रे कवि गंग और और उनके चाहने वाले ,,
उनका नारी विषयक ज्ञान अद्भुत है ..
मुझे एक सवैया कुछ इस तरह याद है -
सूर्य छिपे अदरी बदरी औ चंद छिपे जो अमावस आये
भोर भये पर चोर छिपे अरु मोर छिपे ऋतु फागुन आये
कैतेहू घूंघट काढ रहे पर चंचल नैन न छुपे न छुपाये ..
और याद नहीं आ रहा फिर पूछ लीजिएगा याद करके ....

शरद कोकास said...

आप भी ढूँढ ढूँढ कर बढ़िया चीज़ें लाते हैं ।

रंजना said...

करीब बीस वर्ष पहले कवी गंग के विषय में पढ़ा था और वह भी इतने विस्तार में नहीं.....
बहुत सी नयी बातें पता चलीं...अतिशय आनंदानुभूति हुई....आपका कोटि कोटि आभार इस सुन्दर ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए..

Suresh said...

these lines have been by famous poet BANKI DAAS OF ASHIYA CLAN IN MARWAR RAJASTHAN FOR ORIGINAL LYRICS CONTACT

charan.suresh985@gmail.com

Kailash didwaniya said...

कवि गंग का कोई काव्य संग्रह हो तो बताज प्लीज

Unknown said...

इस सवैया को पूरा बताइए।

Unknown said...

Very Very Thankful for Kavi Gang Information And Aur Koi Information Hai To Kavi Gang Ki Batan & Once Again Thank You Very Much

Unknown said...

Amar kavi gang

Unknown said...

At I sundar

Unknown said...

जय राम जी की. हमारे देश के राजा और कवी गंग की तरह स्वाभिमानी होते को अकबर को कबर में कब के पहुंचा देती.

Unknown said...

जय राम जी की.

Unknown said...

घनबादल चँदछुपे सूरछिपेगृहणजब छाए बिनु ससत्ररजपूत छिपे दातारछिपे कछु हाथ न आए चंचल नारीकेनैनछुपे वृध अवसथा आए अधूराहै पूराकरलेना

Unknown said...


pani ki bund patang chhupe or min chhupe ichha jal paye

श्रवण वैष्णव जेठंतरी said...

गरज ही इन्द्र अर्जुन भयो गरज ही गोविंद धेनु चराई
गरज से द्रोपदी दासी हुई गरज से भीम रसोई पकाई
गरज बड़ी इण लोक मे बिन गरज आवे ना जाई
कवि गंग कहे सुण शाह अकबर गरज से घर गुलाम रह जाई

Unknown said...

सब देवन में दरबार जूडो तब पिंगल छंद बना के गायो
काहू से अर्थ कहो ना गयो तब नारद ने प्रसंग सुनायो
मृत लोक में है कवि गुनी ग्यानी कवि गंग को नाम सभा में गयो
चाह बही परमेश्वर की तब गंग को लेन गणेश पठायो

Unknown said...

सूर्य छिपे अदरी बदरी, चन्द्र छिपे अमावस आया।भोर भए अरु चोर छिपे,मोर छिपे ऋतु फागुन आया।।पानी की बूंद पतंग छिपे, मीन छिपे इच्छा जल पाया।ओट करो सत घूंघट की,चंचल नैंन छिपे न छुपाया।।

Majisa Sms said...

गंग कवि परिचय
कवि गंग या 'गंग कवि' (1538 -1625 ई.) हिन्दी के कवि थे। उनका वास्तविक नाम गंगाधर था। वे अकबर के दरबारी कवि थे। जन्म, निधनतिथि तथा जन्मस्थान विवादास्पद है। वैसे ये इकनौर (जिला इटावा) के भट राव कहे जाते हैं। शिवसिंह सेंगर के आधार पर मिश्रबंधु इनका जन्म सं. १५९५, तासी इनका रचनाकाल सं. १६१२ और आचार्य रामचंद्र शुक्ल १७वीं शताब्दी विक्रमी का अंत मानते हैं। इनका निधन संवत १६५२ और १६६५ के बीच हो सकता है।

गंग रीतिकालीन काव्य परंपरा के प्रथम महत्वपूर्ण कवि थे। ये उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के एकनार गाँव के निवासी थे। इनका मूल नाम गंगाधर था। ये जाति के राव भट थे तथा अकबर के दरबारी कवि थे। इसके अतिरिक्त ये रहीम, बीरबल, मानसिंह तथा टोडरमल के भी प्रिय थे। ये बड़े स्वाभिमानी थे। कहते हैं कि अपनी स्पष्टवादिता के कारण ये जहाँगीर के कोपभाजन हुए और उसने इन्हें हाथी से कुचलवा दिया। गुलाब कवि ने इस घटना को लक्ष्य करके कहा था- 'गंग ऐसे गुनी को गयंद से चिराइये। कवि के पुत्र ने भी 'गंग को लेन गनेस पठायो कहकर इसी ओर इंगित किया है।

अकबर तथा उनके दरबार के अन्य लोग, यथा-रहीम, बीरबल, मानसिंह, टोडरमल इनका बहुत आदर करते थे। प्रवाद है कि रहीम ने इनके एक छप्पय पर प्रसन्न होकर ३६ लाख रुपए भेंट किए थे।

कहा जाता है कि जहाँगीर इनकी किसी रचना से अत्यंत रुष्ट हुआ और उन्हें हाथी से कुचलवा कर मार डालने का दंड दिया। किंतु इस प्रकार उनकी मृत्यु हुई, इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है।

कवि गंग के के विषय में कहा गया हैः

उत्तम पद कवि गंग के कविता को बलवीर।
केशव अर्थ गँभीर को सूर तीन गुन धीर॥
अकबर के साथ ही रहीम, बीरबल, मानसिंह तथा टोडरमल आदि अकबर के दरबारीगण कवि गंग के चाहने वाले थे। इनके दो छन्दों पर रीझकर रहीम ने 36 लाख रुपये दे दिए थे। रहीम की दानशीलता और विनम्रता से प्रभावित होकर गंग कवि ने एक बार उनसे यह दोहा कहा -

सीखे कहाँ नवाब जू, ऐसी दैनी दैन।
ज्यों-ज्यों कर ऊँचौं कियौं, त्यों-त्यों नीचे नैन॥

खानखाना ने बड़ी सरलता से दोहे में ही उतर दिया -

देनहार कोउ और है, देत रहत दिन-रैन।
लोग भरम हम पै करें, तासों नीचे नैन॥
गंग कवि, अकबर के दरबार में रहकर वे समस्याओं की पूर्ति किया करते थे। इनकी गंग छापधारी स्फुट रचनाएँ उपलब्ध हैं जिनमें प्रशस्तियाँ और हास्य व्यंग्य की चुभती उक्तियाँ हैं। गंग पदावली, गंगपचीसी और गंग रत्नावली नाम से इनकी रचनाएँ संगृहीत पायी जाती हैं। शृंगार, वीर आदि रसों की इनकी उक्तियाँ वाग्वैदग्ध्यपूर्ण एवं प्रभावकारी हैं। इनकी आलोचनात्मक एवं व्यंग्यपरक उक्तियाँ मार्मिक, निर्भीक और स्पष्ट हैं। 'चंद छंद बरनन' की महिमा नामक खड़ी बोली का एक ग्रंथ भी इनका लिखा बताया जाता है पर इसमें अनेक विद्वानों को संदेह है।

गंग की कविता अलंकार और शब्द वैचित्र्य से भरपूर है। साथ ही उसमें सरसता और मार्मिकता भी है। मुख्य ग्रंथ हैं -'गंग पदावली, 'गंग पचीसीganh तथा 'गंग रत्नावली। भिखारीदासजी ने इनके विषय में कहा है- 'तुलसी गंग दुवौ भए, सुकविन में सरदार।'

उनकी रचनाओं को शब्दों का सारल्य के साथ साथ वैचित्र्य, अलंकारों का प्रयोग और जीवन की व्याहारिकता अत्यन्त रसमय एवं अद्भुत बना देते हैं। एक बानगी देखिएः

तारों के तेज में चंद्र छिपै नहिं, सूर्य छिपै नहिं बादल छाये
चंचल नारि के नैन छिपें नहिं, प्रीत छिपै नहिं पीठ दिखाये
जंग छिड़े रजपूत छिपै नहिं, दाता छिपै नहिं याचक आये
गंग' कहें सुन शाह अकब्बर कर्म छिपै न भभूत लगाये
कवि गंग द्वारा रचित एक और सवैया देखिये

माता कहे मेरो पूत सपूत बहिन कहे मेरो सुन्दर भैया
बाप कहे मेरे कुल को है दीपक लोक लाज मेरी के है रखैया
नारि कहे मेरे प्रानपती हैं उनकी मैं लेऊँ निसदिन ही बलैया
कवि गंग कहे सुन शाह अकबर गाँठ में जिनकी है सफेद रुपैया

Unknown said...

पहले कवि गंग के बारे मे नही पता था ा वीर गंग ाा

Unknown said...

Parmanand ki anubhuti hoti hai as adbhut kaviyo ki nidarta dekh kar

Unknown said...

eka spasht vadi AVN nirbhik Kavi the ko sat sat pranam jaane ki aur ichcha hai unke bare mein

Unknown said...

Nice gang

Athwalking94 said...

Aage ka btao pura likho bhai acha h ye

Khetpal singh Rao said...

बुरे कर्मों पर कवि गंग कहते हैं :-
दिन छुपे तथवार घटे ओर सूर्य छुपते घेर्ण को छायो
गजराज छुपत हे सिंह को देखत चन्द्र छुपत अमावस आयो
पाप छुपे हरी नाम को जापत कुल छुपे हे कपूत को जायो
कवी गंग कहे सुन शाह अकबर कर्म न छुपेगो छुपो छुपायो

Dev said...

भसमी रमावत शिंभु ही , अरि लोचन जाय परी झर के
ताक फुंकार शशी के लगी , अमृत जाय परी टर के |
जाग उठ्यो वनराज जब ही , भाग्यो नंदी सुत भय कर के
कवि गंग कहै अचरज भयो , गौर हंसी मुख यूं कर के||

Unknown said...

गर्ज ते अर्जुन क्लीव भये और गर्ज ते गोविंद धेनु चरावै

Unknown said...

धन्यवाद

TillaRam said...

मोह घटे मुख से कुछ मागत, नेह घटे नित के घर जायो।
तेज घटे पर नारि की संगत,बुद्धि घटे वो भोजन खायो।।
सोच घटे कुछ साधु की संगत,रोग घटे कुछ ओगद खायो।
कवि गंग कहे सा अकबर,पंथ कटे पैर हलायो।।

Unknown said...

मातु कहै मोरा पूत सपूत,बाप कहै जगजीवन छैय्या।
नारि कहै मोरा कंत कमासुत, बहिन कहै सुख सागर भैय्या।
भाभी कहै मोरा लायक देवर,भाई कहै दल के सजवैय्या।
अंतसमय कोउ काम न आवत,ए सब चाहत गांठि रुपय्या।।
अनाम कवि।।

Unknown said...

सूर्य छिपैं अदरी बदरी ,अरु चंद्र छिपा थिं अमावस आऐ।
पानी के बूंद पतंग छिपैं, तलवार छिपा थिं म्यान बनाये।
चोर छिपैं बड़े भोर भोर,अरु मोर श्रृतु पावस आये।
राखि के भीतर आग छिपैं,अरु चंचल नारि छिपैं न छिपाऐ।।
पावस ऋतु भारतीय शास्त्रों के अनुसार वर्षा ऋतु मानी जाती है , वर्षा होने पर मोर अपने पंखों को भींगने से बचाने के लिए छिपा रहतान अंन्यथा उसको चलने फिरने में मुस्किल होती है।
अनाम कवि की रचना।।

Unknown said...

सुन्दर प्रस्तुति

Unknown said...

थोड़ी देर में मेरा लंड अपनी औकात में आ गया.
मैंने आपा को घोड़ी की तरह बनने को कहा.

तो आपा बिना कुछ कहे घोड़ी बन गयी.
फिर मैंने अपने दांत आपा की पीठ पर चुभाने शुरू कर दिए.

आपा के मुंह से बस ‘आअह ह्हह उफ सलीम बहनचोद आआह मेरी जान चोद दे … अपनी आपा को मादरचोद आआह ह्हह मेरे सैयां उफ जानू!’ (ऐसी ही सेक्सी और कामुक के लिए हमारी असली Antarvasna Story ki website पर जाये ! लैंड खरा हो जायेगा सुच में ऐसी कहानिया है।) और पता नहीं वो क्या क्या बोले जा रही थी.
फिर मैंने मेरा लंड आपा की गांड के छेद पर रखा तो आपा ने कहा- कमीने कुछ तेल तो लगा ले वरना तुम्हारी आपा की गांड फट जाएगी.

तो मैंने उठकर कोल्ड ड्रीम ली और ढेर सारी क्रीम आपा की गांड के छेद में भर दी और अपने लंड पर भी लगा ली.
मैंने इतनी सारी क्रीम लगा दी कि अब मेरे लंड मेरे हाथ में रुक ही नहीं रहा था, वो बार बार फिसल रहा था.

थोड़ी देर बाद मैंने लंड गांड के छेद पर रखा और धक्का दिया तो मेरा लंड फिसल गया.
मैंने फिर कोशिश की.

इस बार मेरा टोपा आपा की गांड में घुस गया. टोपा घुसते ही आपा आगे को हो गयी और उनके मुंह से जोर की चीख निकली- आईई ईईईई ईईईईई बहनचोद फाड़ दी मेरी गांड … बहन के लोड़े आआह ह्हह निकाल इसे मेरी गांड से चूतिये … आआह ह्हह मर गयी अम्मी!

तो मैंने कहा- आपा मेरी जान, अभी तो सिर्फ टोपा ही गया है, लंड तो बाहर है.
वो बोली- मेरी जान के वास्ते निकाल लो इसे!

Unknown said...

बहुत सुंदर और दुर्लभ प्रस्तुति।
सादर अभिवादन।

Dharmendra Upadhyay said...

भानु छिपैं अदरी बदरी अरु चंद्र छिपै दिन अमावस आये
पानी के बूंद पताल छिपै अरू मीन छिपै गहरा जल पाये
भोर भये पर चोर छिपै अरु मोर छिपैं बन कै लट पाये
घूंघट के पट नारि छिपैं अरु चंचल नैन छिपैं न छिपाये