Thursday, December 31, 2009

आइये कामना करें कि नया साल ब्लोगिंग से कमाई का हो

सुबह को खोजते शाम और शाम को खोजते सुबह आती रही। समय बीतता रहा और इस प्रकार से एक और साल बीत चला। आखरी दिन है इस साल का आज। देखते ही देखते रात को बारह बज जायेंगे और चला जायेगा ये साल। आ जायेगा नया साल! तो आइये कामना करें कि नया साल ब्लोगिंग से कमाई का हो।

ऐसे भी हमारे ब्लोगर मित्र हैं जिन्हें ब्लोग से कमाई की कोई चाह नहीं है, तो उनसे हम पहले ही क्षमा माँग लेते हैं। पर हम तो पहले ही बता चुके हैं कि हम नेट से कमाई के उद्देश्य से ही भटकते फिरते थे और भटकती हुई आत्मा के जैसे भटकते-भटकते आ गये हिन्दी ब्लोगिंग में। इस हिन्दी ब्लोगिंग ने हमें ऐसा जकड़ा कि अंग्रेजी में लिखना बिल्कुल छूट गया और जो थोड़ी बहुत कमाई होती थी वो भी हाथ से गई। अब गूगल के 'है बातों में दम?' प्रतियोगिता देख कर लग रहा है कि गूगल भी हिन्दी को अधिक तेजी के साथ बढ़ावा देना चाहता है। इससे उम्मीद जग रही है कि नये साल में शायद ब्लोग से कुछ कमाई का जुगाड़ हो पायेगा।

अब यदि नये साल में ब्लोग से कमाई का जुगाड़ हो भी जाता है तो भी बहुत पापड़ बेलने पड़ेंगे और बहुत ही मुश्किल से कमाई हो पायेगी क्योंकि कमाई के लिये चाहिये हजारों लाखों ही नहीं बल्कि करोड़ों पाठक। आखिर कमाई तो उन्हीं से होनी है ना! लगभग पच्चीस पाठकों में से ही कोई एक पाठक आपके ब्लोग के विज्ञापन में रुचि लेकर उसे क्लिक करता है। यदि आपके ब्लॉग को प्रतिदिन सौ लोग पढ़ते हैं तो विज्ञापन पर मात्र चार ही क्लिक होंगे। पर यदि आपके ब्लोग को प्रतिदिन दस हजार लोग पढ़ते हैं तो विज्ञापन पर क्लिक करने वालों की संख्या चार सौ होगी। इसीलिये पाठकों की संख्या बढ़ाना जरूरी है। गूगल भी हिन्दी पाठकों की संख्या बढ़ाने के लिये तेजी के साथ भिड़ा हुआ है क्योंकि उनके बिजनेस को तो पाठकों से ही चलना है।

आँकड़े बताते हैं कि भारत में लगभग पैंतालीस मिलियन याने कि चार करोड़ पचास लाख लोग इंटरनेट का प्रयोग करते हैं (देखें: 45 Million Internet Users in India)। अवश्य ही इनमें से कई करोड़ लोग हिन्दीभाषी भी होंगे। किन्तु खेद की बात है भारत में करोड़ों इंटरनेट प्रयोक्ता होने के बावजूद भी हमारे ब्लॉगों के पाठकों की संख्या नगण्य है। इन लोगों को अपने पाठक वर्ग में शामिल करना निहायत जरूरी है।

तो नये साल में हम भी लग जायें अपने पाठकों की संख्या बढ़ाने में और कामना करें कि नया साल ब्लोगिंग से कमाई का हो!

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Wednesday, December 30, 2009

एक कहानी बता रहा हूँ ... यदि इससे भी न सीखे तो कुछ भी नहीं सीखे

यह उस व्यक्ति की कहानी हैः
  • 1832 में जिन्होंने अपनी नौकरी खो दी और वे राज्य विधानसभा (state legislature) में हार गये
  • 1833 में जिन्हें व्यवसाय में असफलता मिली
  • 1835 में जिनकी पत्नी का देहान्त हो गया
  • 1836 में जिन्हें नर्व्हस ब्रेकडाउन हुआ
  • 1838 में जो सदन के अध्यक्ष (Speaker of the House) का चुनाव हार गये
  • 1843 में जिन्हें कांग्रेस के लिए नामांकन नहीं मिल पाया
  • 1846 में जो कांग्रेस में चुने गये और 1848 में जिनका renomination खो गया
  • 1849 में जिन्हें land officer के लिए अस्वीकृत कर दिया गया
  • 1854 में जो अमेरिकी सीनेट के लिए हार गये
  • 1856 में जो उप राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन हार गये
  • 1858 में वे फिर से अमेरिकी सीनेट के लिए हार गये
  • और जो 1860 में संयुक्त राज्य अमेरिका के 16 वें राष्ट्रपति चुने गए
वे थे अब्राहम लिंकन!

मित्रों! अब्राहम लिंकन ने अपने जीवन की इतनी सारी असफलताओं से हार नहीं मानी, सारी बाधाओं और अवरोधों का डट कर मुकाबिला करते रहे जिसका परिणाम मिला उन्हें एक बहुत बड़ी सफलता के रूप में!

इसलिये मैं तो यही कहूँगा कि जीवन की असफलताओं से कभी हार ना मानें! यदि आप हार मान जायेंगे तो कभी भी आपको सफलता नहीं मिलेगी किन्तु यदि आप सतत् प्रयास करते रहेंगे तो आपको अपनी मंज़िल तक पहुँचने से कोई भी नहीं रोक सकता।

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Tuesday, December 29, 2009

अब दादी मरेगी तब मजा आयेगा

कल रात घर पहुँचा तो पता चला कि पड़ोस के सेवानिवृत वृद्ध डॉक्टर साहब की श्रीमती जी का देहान्त हो गया था। उस समय तक वे लोग अग्नि संस्कार करके भी आ चुके थे। शोक के इस अवसर पर सारा कुनबा इकट्ठा हो गया था याने कि दोनों बेटे और बहुएँ तथा तीनों बेटियाँ और दामाद अपने अपने बच्चों के साथ वहाँ पर थे।

अब आजकल इस प्रकार से पूरा का पूरा कुनबा एक साथ सिर्फ किसी के मौत होने पर ही तो इकट्ठा होता है। दोनों बेटों और तीनों बेटियों के बच्चों को आपस में मिलने का अवसर ही कहाँ मिल पाता है। अब सभी मिले थे तो खूब हँस-खेल रहे थे। लग रहा था कि त्यौहार जैसा माहौल बन गया है। उन बच्चों को अपनी दादी या नानी की मृत्यु का शोक हो भी तो कैसे? दादी या नानी के साथ रहना कभी हुआ ही नहीं। संयुक्त परिवार टूटने और छोटे परिवार बनने का परिणाम साफ दिखाई पड़ रहा था।

मुझे तो ऐसा लगा मानों वे बच्चे सोच रहे हों कि आज नानी मरी है तो कितना मजा आ रहा है! अब जब दादी मरेगी तो मजा आयेगा!!

Monday, December 28, 2009

जब छोटे अपने से बड़ों पर भड़क उठते हैं

हम लोगों में कम से कम इतनी मर्यादा तो कायम है कि आज भी छोटे अपनों से बड़ों का लिहाज करते हैं। यदि किसी को अपने से बड़े पर किसी कारणवश क्रोध आ भी जाये तो वह अपने उस क्रोध को दबाने का भरसक प्रयत्न करता है। किन्तु कई बार ऐसा भी हो जाता है कि छोटा अपने क्रोध को दबा नहीं पाता और अपने से बड़े पर भड़क उठता है।

यदि ऐसा हो जाये तो बड़े का कर्तव्य हो जाता है कि वह छोटे की भावनाओं का सम्मान करते हुए उसे क्षमा कर दे, कहा भी गया है "क्षमा बड़न को चाहिये ..."

छोटे के द्वारा अपने से बड़े पर भड़कना प्राचीनकाल से ही होता चला आया है यहाँ तक कि एक बार देवर्षि नारद, जो कि श्री विष्णु के सबसे बड़े भक्त हैं, भी भगवान विष्णु पर भड़क उठे थे। तुलसीदास जी ने रामायण में इस कथा को अत्यन्त रोचक रूप से प्रस्तुत किया हैः

जब देवर्षि नारद ने श्री विष्णु को शाप दिया

रामचरितमानस से एक कथा


हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी जिसके निकट ही गंगा जी प्रवाहित होती थीं। उस गुफा की पवित्रता देखकर नारद जी वहीं बैठ कर तपस्या में लीन हो गये। नारद मुनि की तपस्या से देवराज इन्द्र भयभीत हो उठे कि कहीं देवर्षि नारद अपने तप के बल से इन्द्रपुरी को अपने अधिकार में न ले लें। इन्द्र ने नारद की तपस्या भंग करने के लिये कामदेव को उनके पास भेज दिया। वहाँ पहुँच कर कामदेव ने अपनी माया से वसन्त ऋतु को उत्पन्न कर दिया। वृक्षों और लताओं में रंग-बिरंगे फूल खिल गये, कोयलें कूकने लगीं और भौंरे गुंजार करने लगे। कामाग्नि को भड़काने वाली शीतल-मन्द-सुगन्ध सुहावनी हवा चलने लगी। रम्भा आदि नवयुवती अप्सराएँ नृत्य व गान करने लगीं।

किन्तु कामदेव की किसी भी कला का नारद मुनि पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। तब कामदेव को भय सताने लगा कि कहीं देवर्षि मुझे शाप न दे दें। हारकर वे देवर्षि के चरणों में गिर कर क्षमा माँगने लगे। नारद मुनि को थोड़ा भी क्रोध नहीं आया और उन्होंने कामदेव को क्षमा कर दिया।

नारद मुनि के मन में अहंकार हो गया कि हमने कामदेव को जीत लिया। नारद जी क्षीरसागर में पहुँच गये और सारी कथा श्री विष्णु को सुनाई। भगवान विष्णु तत्काल समझ गये कि इनके मन को अहंकार ने घेर लिया है। उन्होंने अपने मन में सोचा कि मैं ऐसा उपाय करूँगा कि नारद का अहंकार भी दूर हो जाये।

श्री हरि ने अपनी माया से नारद जी के रास्ते में सौ योजन का एक अत्यन्त सुन्दर नगर रच दिया। उस नगर में शीलनिधि अत्यन्त वैभवशाली राजा रहता था। उस राजा की विश्वमोहिनी नाम की ऐसी रूपवती कन्या थी जिसके रूप को देख कर साक्षात् लक्ष्मी भी मोहित हो जायें। विश्वमोहिनी स्वयंवर करना चाहती थी इसलिये अनगिनत राजा उस नगर में आये हुए थे।

नारद जी उस नगर के राजा के यहाँ पहुँचे तो राजा ने उनका यथोचित सत्कार कर के उनसे अपनी कन्या की हस्तरेखा देख कर उसके गुण-दोष बताने के लिया कहा। उस कन्या के रूप को देख कर नारद मुनि वैराग्य भूल गये। उस कन्या की हस्तरेखा बता रही थी कि उसके साथ जो ब्याह करेगा वह अमर हो जायेगा, उसे संसार में कोई भी जीत नहीं सकेगा और संसार के समस्त चर-अचर जीव उसकी सेवा करेंगे। इन लक्षणों को नारद मुनि ने अपने तक ही सीमित रखा और राजा को उन्होंने अपनी ओर से बना कर कुछ अन्य अच्छे लक्षणों को कह दिया।

अब नारद जी ने सोचा कि कुछ ऐसा उपाय करना चाहिये कि यह कन्या मुझे ही वरे। उन्होंने श्री हरि को स्मरण किया और भगवान विष्णु उनके समक्ष प्रकट हो गये। नारद जी ने उन्हें सारा विवरण बता कर कहा, "हे नाथ आप मुझे अपना सुन्दर रूप दे दीजिये।"

भगवान हरि ने कहा, "हे नारद! हम वही करेंगे जिससे तुम्हारा परम हित होगा। तुम्हारा हित करने के लिये हम तुम्हें हरि (हरि शब्द का एक अर्थ बन्दर भी होता है) का रूप देते हैं।" यह कह कर प्रभु अन्तर्धान हो गये साथ ही उन्होंने नारद जी बन्दर जैसा मुँह और भयंकर शरीर दे दिया। माया के वशीभूत हुए नारद जी को इस बात का ज्ञान नहीं हुआ। वहाँ पर छिपे हुए शिव जी के दो गणों ने भी इस घटना को देख लिया।

ऋषिराज नारद तत्काल विश्वमोहिनी के स्वयंवर में पहुँच गये और साथ ही शिव जी के वे दोनों गण भी ब्राह्मण का वेश बना कर वहाँ पहुँच गये। वे दोनों गण नारद जी को सुना कर कहने लगे कि भगवान ने इन्हें इतना सुन्दर रूप दिया है कि राजकुमारी सिर्फ इन पर ही रीझेगी। उनकी बातों से नारद जी अत्यन्त प्रसन्न हुए। स्वयं भगवान विष्णु भी उस स्वयंवर में एक राजा का रूप धारण कर आ गये। विश्वमोहिनी ने कुरूप नारद की तरफ देखा भी नहीं और राजारूपी विष्णु के गले में वरमाला डाल दी।

मोह के कारण नारद मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी अतः राजकुमारी द्वारा अन्य राजा को वरते देख वे विकल हो उठे। उसी समय शिव जी के गणों ने व्यंग करते हुए नारद जी से कहा जरा दर्पन में अपना मुँह तो देखये! मुनि ने जल में झाँक कर अपना मुँह देखा और अपनी कुरूपता देख कर अत्यन्त क्रोधित हो उठे। क्रोध में आकर उन्होंने शिव जी के उन दोनों गणों को राक्षस हो जाने का शाप दे दिया। उन दोनों को शाप देने के बाद जब मुनि ने एक बार फिर से जल में अपना मुँह देखा तो उन्हें अपना असली रूप फिर से प्राप्त हो चुका था।

नारद जी को भगवान विष्णु पर उन्हें अत्यन्त क्रोध आ रहा था उनकी बहुत ही हँसी हुई थी। वे तुरन्त विष्णु जी से मिलने के लिये चल पड़े। रास्ते में ही उनकी मुलाकात विष्णु जी, जिनके साथ लक्ष्मी जी और विश्वमोहिनी भी थीं, से हो गई। उन्हें देखते ही नारद जी ने कहा, "हमारे साथ तुमने जो किया है उसका फल तुम अवश्य पाओगे। तुमने मनुष्य रूप धारण करके विश्वमोहिनी को प्राप्त किया है इसलिये मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम्हें मनुष्य जन्म लेना पड़ेगा, तुमने हमें स्त्री वियोग दिया इसलिये तुम्हें भी स्त्री वियोग सह कर दुःखी होना पड़ेगा और तुमने हमें बन्दर का रूप दिया इसलिये तुम्हें बन्दरों से ही सहायता लेना पड़ेगा।"

नारद के शाप को श्री विष्णु ने सहर्ष स्वीकार कर लिया और उन पर से अपनी माया को हटा लिया। माया के हट जाने से अपने द्वारा दिये शाप को याद कर के नारद जी को अत्यन्त दुःख हुआ किन्तु दिया गया शाप वापस नहीं हो सकता था। इसीलिये श्री विष्णु को श्री राम के रूप में मनुष्य बनना पड़ा और शिव जी के उन दोनों गणों को रावण और कुम्भकर्ण के रूप में राक्षस बनना पड़ा।

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Sunday, December 27, 2009

नारीपोल याने कि अद्भुत वृक्ष जिसमें नारी फलते हैं

नेट में विचरते हुए फनज़ुग.कॉम से जानकारी मिली कि थाईलैंड में बैंकाक से लगभग 500 कि.मी. दूर Petchaboon province क्षेत्र में "नारीपोल" (Nareepol) नामक वृक्ष पाये जाते हैं जिनमें नारी सदृश फल लगते हैं। देखें उसी साइट के सौजन्य प्राप्त चित्रः

क्या वास्तव में ईश्वर ने ऐसी विचित्र रचना की है या फिर यह कम्प्यूटर से जोड़ तोड़ कर बनाया गया चित्र है? चित्र में पेड़ के पत्तों को देखने से लगता है कि यह कदम्ब का पेड़ है।

विरोध प्रदर्शन के लिये शहर, प्रदेश या देश बंद करवाना कहाँ तक उचित है?

विरोध प्रदर्शन के लिये शहर, प्रदेश या देश बंद करवाना कहाँ तक उचित है?

भारत बन्द!

छत्तीसगढ़ बन्द!

रायपुर बन्द!

विरोध प्रदर्शित करने के लिये ये बन्द करवाना कहाँ तक उचित है? इस प्रकार से बन्द करवाने से क्या कुछ फायदा होता है? जी नहीं कुछ भी फायदा नहीं होता बल्कि नुकसान ही अधिक होते हैं। एक दिन का काम बंद होने से अहित ही होता है शहर, प्रदेश और देश का।

और फिर ऐसा कौन है जो अपनी इच्छा से अपना कारोबार बन्द कर देना चाहे? राजनीतिबाज स्वार्थी तत्वों के द्वारा जोर-जबरदस्ती करके बन्द करवाया जाता है। लोग डर कर बन्द करते हैं अपना कारोबार।

एक हवाला धंधा करने वाले की दिन दहाड़े हत्या हो जाने के विरोध में कल रायपुर बंद करवा दिया गया। पहले तो बंद करवाने के लिये लोग दस बजे के बाद निकला करते थे किन्तु कल सुबह सात बजे ही उन दुकानों को बंद करवा दिया गया जो खुली थीं। उन दुकानों का खुलना ही सिद्ध करता है कि अपनी दुकान बंद करने की उन दुकानदारों की इच्छा नहीं थी, उनके साथ जबरदस्ती की गई। चाय-नाश्ते की दुकान चलाने वाले ये वो लोग हैं जो रोज कमाते और रोज खाते हैं। एक दिन दुकान न खुलने से भले ही मुनाफाखोर तथाकथित बड़े व्यापारियों को कुछ भी फर्क न पड़ता हो किन्तु इन छोटे दुकानदारों को तो बहुत फर्क पड़ता है।

रायपुर में प्रतिदिन एक लाख से भी अधिक लोग बाहर से आते हैं। ऐसे ही अनेक लोग हैं जो चाय नाश्ता और भोजने के लिये जलपानगृह और भोजनालयों पर ही निर्भर रहते हैं। रायपुर बंद हो जाने से इन सभी लोगों को भूखे रह जाना पड़ता है।

पेट्रोल, डीजल आदि न मिल पाने के कारण कई आवश्यक कार्य नहीं हो पाते यहाँ तक कि अस्पताल तक नहीं पहुँच पाने के कारण मरीजों के जान जाने की सम्भावना हो सकती है।

वास्तव में ये बन्द विरोध प्रदर्शन कम बल्कि शक्ति प्रदर्शन अधिक होता है राजनीतिबाजों का।

आप ही सोचिये क्या औचित्य है ऐसे बंद का?

Saturday, December 26, 2009

विज्ञापन दिखाकर कमाई करवाने वाली साइट्स कितनी विश्वसनीय?

इंटरनेट के प्रसार बढ़ने के साथ ही साथ विज्ञापनदाता कम्पनियों का ध्यान इंटरनेट के द्वारा विज्ञापन करने पर अधिक जाते जा रहा है। अब सवाल यह उठता है कि किसके पास इतना समय है कि नेट में विज्ञापन देखते फिरे? इसके लिये विज्ञापन एजेंसियों ने तोड़ यह निकाला कि लोगों को विज्ञापन देखने के एवज में पैसे दिये जायें। इस प्रकार से कम से कम कुछ प्रतिशत लोग नेट पर इसी बहाने विज्ञापनों को देखेंगे। इसलिये आजकल “पेड-विज्ञापन” देखो वाली साईटें आ रही हैं।

अंग्रेजी में ऐसी साइटों की भरमार है और हम ऐसी अनेक साइट्स के सदस्य भी बने किन्तु विज्ञापन देखने का भुगतान हमें आज तक नहीं मिला और हारकर हमने उधर झाँकना बंद कर दिया।

अब इसी तरह की एक भारतीय साइट भी आई है जिसका नाम है व्हियूबेस्टएड्स। जब हमें इसके विषय में पता चला तो पहले तो हम पुरानी धोखाधड़ियों को याद करके इसके सदस्य बनने के लिये हिचकिचाये किन्तु यह सोच कर कि चलो यह पहली भारतीय साइट है, इसे भी आजमा लिया जाये, हम लगभग पच्चीस दिन पहले इसके मेम्बर बन गये। हमने देखा कि इस कंपनी को होंडा, गोदरेज, फिलिप्स, बीएसएनएल आदि जैसी भारत की कई रेपुटेड कंपनियों के विज्ञापन मिल रहे हैं। इससे हमें तसल्ली मिली कि यह साइट धोखा देने वाली नहीं है। इन लगभग पच्चीस दिनों में विज्ञापन देख कर हमने लगभग पाँच सौ से कुछ अधिक रुपयों की कमाई की है और इंतजार है बारह सौ रुपये होने की ताकि हमें हमारा पहला भुगतान मिल सके।

आप भी इस साइट के मेम्बर हैं तो बहुत ही अच्छा है पर यदि आप अभी तक इस साइट का मुफ्त सदस्य नहीं बने हैं तो हम तो कहेंगे कि तड़ फड़ इस साइट का मुफ्त सदस्य बन ही जाइये! एक बार आजमाने में आखिर हर्ज ही क्या है? बस इस पोस्ट के किसी भी लिंक को क्लिक करिये पहुँच जायेंगे आप सदस्यता वाले पेज पर!

क्या है इसका फण्डा?

फ़ण्डा सीधा-सादा है, कि आपको इस वेबसाईट का सदस्य रजिस्टर होना है (बिल्कुल मुफ्त), आपको एक कन्फ़र्मेशन मेल भेजा जायेगा तथा आपका खाता खुल जायेगा (बिलकुल मुफ़्त)। यदि आपके मेलबॉक्स में कन्फर्मेशन मेल न दिखे तो स्पाम को अवश्य चेक करें। फ़िर आपको प्रतिदिन सिर्फ़ 5-6 विज्ञापन तथा 2-3 समाचार देखना है (जो कि अधिक से अधिक 5-8 मिनट का काम है), जिसके बाद आपके खाते में कुछ अंक जमा कर दिये जायेंगे, कुछ निश्चित अंकों के होने पर एक निश्चित रकम बढ़ती जायेगी, और जैसे ही आपके खाते में 1200/- रुपये की रकम एकत्रित हो जायेगी, आपसे बैंक अकाउंट नम्बर तथा पहचान पत्र (ड्रायविंग लायसेंस, पेन कार्ड आदि) लेकर “आपके नाम से” चेक बनाया जायेगा।

इस वेबसाईट द्वारा एक व्यक्ति का (घर के पते और मेल आईडी अनुसार) एक ही रजिस्ट्रेशन किया जायेगा।

जब रजिस्ट्रेशन हो जायेगा और आपका प्रोफ़ाइल पूरा अपडेट हो जायेगा तब View Ads पर क्लिक करके आपको एक-एक विज्ञापन देखना है, क्लिक करने पर एक नई विण्डो खुलेगी, जिसमें कुछ सेकण्डों का समय चलता हुआ दिखेगा, उतने सेकण्ड पश्चात जब आपके खाते में अंकों के जमा होने की सूचना झलकेगी तब वह विण्डो बन्द करके नया विज्ञापन खोल लें। ऐसा दिन में एक खाते से एक बार ही किया जा सकेगा, तथा यह कुल मिलाकर सिर्फ़ 5-7 मिनट का काम है। जब आप सारे विज्ञापन और समाचार देख लें तब फ़िर अगले दिन ही आप लॉग-इन करें। सावधानी यह रखनी है कि जब तक वह विज्ञापन पूरा खत्म न हो जाये और अंक जमा होने की सूचना न आ जाये, तब तक विज्ञापन वाली विण्डो बन्द नहीं करना है, तथा एक बार में एक ही विज्ञापन की विण्डो खोलना है, एक साथ सारे विज्ञापनों की विण्डो खोलने पर आपका अकाउंट फ़्रीज़ होने की सम्भावना है। मेरे खयाल में हम लोग नेट पर जितना समय बिताते हैं उसमें से 5-7 मिनट तो आसानी से इस काम के लिये निकाले जा सकते हैं, और जब कोई शुल्क नहीं लग रहा है तब इस पर रजिस्ट्रेशन करने में क्या बुराई है। अर्थात नुकसान तो कुछ है नहीं, “यदि” हुआ तो फ़ायदा अवश्य हो सकता है।

तो एक बार फिर बता दें कि आपको करना क्या है -

1) यहाँ अर्थात् व्हियूबेस्टएड्स पर क्लिक करके साइट पर पहुँचें।

2) ई-मेल आईडी भरकर रजिस्टर करवायें।

3) आपके मेल बाक्स में एक मेल आयेगी, उस लिंक पर क्लिक करके कन्फ़रमेशन करें। यदि आपके मेलबॉक्स में कन्फर्मेशन मेल न दिखे तो स्पाम को अवश्य चेक करें।

4) अपना सही-सही प्रोफ़ाइल पूरा भरें, ताकि यदि पैसा (चेक) मिले तो आप तक ठीक पहुँचे।

5) बस, विज्ञापन देखिये और खाते में अंक और पैसा जुड़ते देखिये (दिन में सिर्फ एक बार)

6) आप चाहें तो अपने मित्रों को अपनी लिंक फ़ारवर्ड करके उन्हें अपनी डाउनलिंक में सदस्य बनने के लिये प्रोत्साहित कर सकते हैं ताकि कुछ अंक आपके खाते में भी जुड़ें (हालांकि ऐसा कोई बन्धन नहीं है)…

यदि आपके मेलबॉक्स में कन्फर्मेशन मेल न दिखे तो स्पाम को अवश्य चेक करें।

तो सदस्य बनने के लिये क्लिक करें - व्हियूबेस्टएड्स

चलते-चलते

जब हम घर पहुँचे तो हाँफ रहे थे। श्रीमती जी ने हमें हाँफते देख कर पूछा, "क्या बात है? आप हाँफ क्यों रहे हो?"

"पाँच रुपये बचाया मैंने! आटो के पीछे दौड़ते-दौड़ते आया हूँ।" हमने बताया।

श्रीमती जी ने हमें हमारी मूर्खता बताते हुए हिकारत भरे स्वर में कहा, "अरे! बचाना ही था तो पचास रुपये बचाये होते। टैक्सी के पीछे दौड़ कर आना था।"

Friday, December 25, 2009

अपने एक ब्लोग के पोस्ट को अपने किसी दूसरे ब्लोग में ऐसे ले जा सकते हैं

कई बार हम अपने एक ब्लोग के पोस्टों को अपने किसी दूसरे ब्लोग में ले जाना चाहते हैं। यह काम कोई अधिक मुश्किल नहीं है। सिर्फ आप जिस ब्लोग के पोस्ट को दूसरे ब्लोग में ले जाना है उसे अपने कम्प्यूटर में निर्यात (एक्पोर्ट) कर दीजिये और फिर उसे अपने दूसरे ब्लोग में आयात कर लीजिये। जिन आयतित पोस्टों को प्रकाशित करना है उन्हें प्रकाशित कर दीजिये और शेष को चाहें तो डीलिट कर सकते हैं।

मेरे दो ब्लोग हैं पहला "धान के देश में" और दूसरा "भारतीय सिनेमा"। अब मान लीजिये कि मैं "भारतीय सिनेमा" के पोस्ट को "धान के देश में" में ले जाना चाहता हूँ।

इसके लिये मुझे पहले "भारतीय सिनेमा" के सेटिंग्स|मूलभूत (सेटिंग्स|बेसिक) में जाना होगा और ब्लॉग निर्यात करें को क्लिक करना होगा।

क्लिक करने पर नीचे जैसा विन्डो खुलेगाः

अब ब्लॉग डाउनलोड करें को क्लिक कर दें और .xml को अपने कम्प्यूटर में सेव्ह कर लें।

अब मेरा "भारतीय सिनेमा" ब्लोग .xml के रूप में मेरे कम्प्यूटर में आ चुका है जिसे कि मेरे "धान के देश में" ब्लोग में ले जाना है।

इसके लिये मुझे अब अपने "धान के देश में" के सेटिंग्स|मूलभूत (सेटिंग्स|बेसिक) में जाना होगा और ब्लॉग आयात करें को क्लिक करना होगा।


अब नये खुलने वाले विन्डो में अपने कम्प्यूटर से ब्राउस करके .xml को लाना है और वर्ड व्हेरिफिकेशन करके ब्लॉग आयात करें को क्लिक कर देना है। ध्यान रखें कि "सभी प्रकाशित पोस्ट को स्वतः प्रकाशित करें" वाला बक्सा खाली रखना है।

बस अब क्या है? सारे पोस्ट आयात हो गये। इनमें से जिन पोस्टों को प्रकाशित करना है उन्हें चयन करके प्रकाशित कर दीजिये और उसके बाद शेष को डीलिट कर दीजिये। आप अपने पहले ब्लोग के संदेश सम्पादित करें में जाकर दूसरे ब्लोग में गये पोस्टों को डीलिट भी कर सकते हैं।

यदि कोई शंका हो तो मुझे gkawadhiya@gmail.com में ईमेल करके या 09753350202 नंबर पर कॉल करके पूछ सकते हैं।

Thursday, December 24, 2009

मर जाने के बाद आदमी की कद्र बढ़ जाती है

कितनी ही बार देखने को मिलता है कि जब तक आदमी जीवित रहता है, उसे कोई पूछने वाला नहीं होगा किन्तु उसके मर जाने के बाद अचानक उसकी कद्र बढ़ जाती है। हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार एवं उपन्यासकार प्रेमचन्द जी जीवन भर गरीबी झेलते रहे किन्तु उनकी मृत्यु के बाद उनकी रचनाओं ने उनकी सन्तान को धनकुबेर बना दिया क्योंकि प्रेमचन्द जी की रचनाओं के प्रकाशन का एकाधिकार केवल उनकी प्रकाशन संस्का "हंस प्रकाशन" के पास ही था। उल्लेखनीय है कि सन् 1930 में प्रेमचंद जी ने हंस प्रकाशन आरम्भ करके "हंस" पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया था जिसकी आर्थिक व्यवस्था के लिये उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ता था। किन्तु सन् में उनके स्वर्गवास हो जाने के बाद उसी हंस प्रकाशन ने जोरदार कमाई करना शुरू कर दिया।

अक्सर दिवंगत प्रतिभाएँ दूसरों की कमाई का साधन बन जाती हैं। दिवंगत फिल्म संगीतकारों, गीतकारों और कलाकारों के ट्रीटीज बना कर गुलशन कुमार के टी. सीरीज ने खूब कमाई की।

कमाल अमरोही की प्रसिद्ध फिल्म पाकीज़ा सन् 1972 में रिलीज़ हुई थी। पाकीज़ा में मीना कुमारी ने लाजवाब अभिनय किया था। फिल्म को टाकीजों में दिखाया गया पर लोगों ने उसे पसंद नहीं किया और हफ्ते भर में ही उतर गई। कुछ ही दिनों के बाद मीना कुमारी का स्वर्गवास हो गया। उनकी मृत्यु के पश्चात पाकीज़ा का प्रदर्शन फिर से एक बार टाकीजों मे किया गया। इस बार उसी फिल्म को लोगों ने खूब पसंद किया और उसे आशातीत सफलता मिली। मीना कुमारी की बात चली है तो याद आया कि गुलजार की फिल्म मेरे अपने, जिसमें मीना कुमारी की यादगार भूमिका थी, पूरी बन चुकी थी पर फिल्म की डबिंग के पहले ही मीना कुमारी का स्वर्गवास हो गया। फिल्म में मीना कुमारी की आवाज की डबिंग उसके डुप्लीकेट से कराई गई।

पाकीज़ा के जैसे ही प्रख्यात गीतकार शैलेन्द्र की फिल्म तीसरी कसम (1966) के साथ भी हुआ। तीसरी कसम फ्लॉप हो गई। इस बात का शैलेन्द्र को इतना सदमा लगा कि उनका स्वर्गवास ही हो गया। शैलेन्द्र के स्वर्गवास के बाद तीसरी कसम का पुनः प्रदर्शन हुआ और इस बार फिल्म को सफलता मिली। शैलेन्द्र अपनी सफलता स्वयं नहीं देख पाये।

कितना अच्छा हो यदि लोगों को उनके जीवन में ही उनकी प्रतिभा का प्रतिदान मिल पाये!

Wednesday, December 23, 2009

अंतरजाल (Internet) या इन्द्रजाल (Conjuration)?

टिम बर्नर ली ने अगस्त, 1991 में वर्ल्ड वाइड वेब अर्थात् इंटरनेट का आविष्कार करते समय स्वयं भी नहीं सोचा रहा होगा कि उनका यह आविष्कार आगामी कुछ ही वर्षों में समस्त विश्व में अपना जादू जगा देगा। यद्यपि इंटरनेट की खोज साठ के दशक में ही हो चुका था किन्तु उसका प्रयोग मात्र सैन्य सूचनाओं के आदान प्रदान के लिये ही किया जा रहा था। इंटरनेट का व्यावसायिक प्रयोग 1991 में वर्ल्ड वाइड वेब के आविष्कार हो जाने के बाद ही सम्भव हो पाया।

आपको किसी भी प्रकार की जानकारी की जरूरत हो, बस इंटरनेट को खंगालिये और आपको आपकी वांछित जानकारी अवश्य ही मिल जायेगी। यदि आपके पास इंटरनेट से जुड़ा एक कम्प्यूटर है तो समझ लीजिये कि सारा संसार आपके पहुँच में है। चाहे आपको कहीं संदेश भेजना हो (ईमेल), चाहे अपना कुछ खाली समय बिताने के लिये गपशप करना हो (चैटिंग), चाहे शापिंग करनी हो या अपना कुछ सामान बेचना हो, बात की बात में इंटरनेट आपकी चाहत को पूरा कर देगा। आज आप कोई भी काम अपने घर बैठे ही आनलाइन कर सकते हैं।

आज इंटरनेट ने पूरी दुनिया को अपने आप में समेट लिया है। रेल फ्लाइट्स और होटल्स की बुकिंग नेट से हो रहे हैं, शादियाँ नेट के द्वारा तय की जा रही हैं, मिनटों के भीतर शेयर्स का लेनदेन इंटरनेट के जरिये हो रहा है, शापिंग आनलाइन किया जा रहा है, कहने का तात्पर्य हर काम आनलाइन हो रहा है। हमारा देश भारत भी अब इस आनलाइन की दौड़ में शामिल हो चुका है और तेजी के साथ अन्य देशों को पीछे छोड़ता जा रहा है। आज देश के 75 लाख लोग अधिकांशतः आनलाइन रहते हैं। जहाँ अधिकतर लोग मात्र एक दो घंटे के लिये आनलाइन होते हैं वहीं प्रतिदिन चार पाँच घंटे तक आनलाइन रहने वाले लोगों की संख्या भी अच्छी खासी है, ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो कि दिन दिन भर आनलाइन बने रहते हैं।

व्यापार का तो यह इतना सशक्त माध्यम बन गया है कि आप सप्ताह के सातों दिन, चौबीसों घंटे कुछ भी वस्तु खरीदी बिक्री कर सकते हैं। भारत की बड़ी बड़ी कंपनियाँ अब इंटरनेट के द्वारा व्यापार करना शुरू कर चुकी हैं। बैंकों, बीमा कम्पनियों, ट्रैव्हल एजेंसियों, वैवाहिक साइट्स आदि के विज्ञापन अब इंटरनेट में धड़ल्ले के साथ दिखाई पड़ने लगे हैं क्योंकि इन विज्ञापनों से विज्ञापनदाताओं के व्यापार में आशातीत वृद्धि हो रही है। किन्तु इंटरनेट मार्केटिंग से धन कैसे बनाया जाये के मामले में भारत अभी भी बहुत पीछे है और इसी कारण से अब तक छोटी कंपनियाँ तथा व्यक्तिगत रूप से व्यापार करने वाले व्यापारीगण नेट मार्केटिंग में कम ही दिखाई देते हैं किन्तु लोग धीरे धीरे अब इस गुर को भी जानने लगे हैं। वह दिन अब दूर नहीं है जब कि छोटी कम्पनियाँ और व्यक्तिगत रूप से व्यापार करने वाले व्यापारी नेट से भरपूर मुनाफा कमाते नजर आयेंगे।

(यह लेख मेरे एक अन्य ब्लोग "इंटरनेट भारत" से)

Tuesday, December 22, 2009

धान के देश में का यह नया हेडर ललित शर्मा जी के ग्राफिक्स का कमाल है!

धान की बालियों के साथ छत्तीसगढ़ की संस्कृति और परम्पराओं की झलक दिखाता हुआ मेरे ब्लोग का यह नया हेडर ललित शर्मा जी का कमाल है। ललित जी का कोटिशः धन्यवाद कि मेरे एक बार अनुरोध करने पर उन्होंने मुझे इतना अच्छा और सुन्दर हेडर बनाकर दे दिया।

मैं सोचा करता था कि काश मेरे ब्लोग के लिये भी एक धाँसू हेडर होता! किन्तु ग्राफिक्स में जीरो होने के कारण मैं कोई हेडर बना नहीं सकता था इसलिये मन मसोस कर रह जाता था। किन्तु कुछ ही दिनों पहले ललित जी से मेरी निकटता हो गई तो मेरा यह सपना उनके सौजन्य से साकार हो गया।

रायपुर में रहने के बावजूद भी बहुत दिनों तक मेरा सम्पर्क छत्तीसगढ़ के ब्लोगर बन्धुओं से नहीं हुआ था क्योंकि मैं थोड़ा रिजर्व टाइप का आदमी हूँ। जानता तो छत्तीसगढ़ के सभी ब्लोगर्स को था और उनसे सम्पर्क करने की इच्छा भी थी पर अपने आलसीपन के कारण उन लोगों से न तो कभी मिल पाया और न ही कभी उनसे फोन या मोबाइल से ही सम्पर्क कर पाया। फिर एक रोज मैंने "अमीर धरती गरीब लोग" वाले 'अनिल पुसदकर' जी को अपना मोबाइल नंबर मेल कर दिया। उन्होंने मुझे रिंग किया तो मैं सुखद आश्चर्य से अभिभूत हो गया। यह पहला सम्पर्क था मेरा छत्तीसगढ़ के किसी ब्लोगर से। बाद में अनिल जी व्यक्तिगत रूप से मुझसे मिलने भी आये। अनिल जी मस्त मौला इंसान हैं, फिकिर नॉट वाले। किन्तु किसी के भी सुख-दुख में साथ देने के लिये वे सबसे आगे रहते हैं। दोस्तो की समस्या कैसी भी हो वे हल निकाल ही लेते हैं। अनिल जी के लेखन के विषय में तो आप सभी जानते ही हैं कि उनके पोस्ट कितने अधिक प्रभावशाली रहते हैं! बहुत ही अच्छा लगा मुझे उनसे मिल कर।

फिर एक दिन मेरे पास ललित जी का मेल आया जिसमें उन्होंने मुझे अपना मोबाइल नंबर दिया था। जी हाँ, मैं "ललितडाटकॉम" वाले ललित शर्मा जी की बात कर रहा हूँ। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि आप उन्हें जानते न हों, बहुत ही कम समय में उन्होंने हिन्दी ब्लोग जगत में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है। मैंने फौरन मोबाइल द्वारा उनसे सम्पर्क किया। हम दोनों को ही बड़ी खुशी हुई आपस में बातें करके। दो-तीन दिनों बाद ही उन्होंने अभनपुर से रायपुर आकर मुझसे मुलाकात की। मात्र बीस मिनट के उस मुलाकात में हम दोनों के बीच अन्तरंग सम्बन्ध बन गया। कुछ दिनों के बाद हमारी फिर मुलाकात हुई जो कि लगभग तीन घंटे से भी अधिक देर तक की रही। उस रोज मुझे ललित जी की बहुमुखी प्रतिभा के विषय में जानने का अवसर मिला। लेखन और पत्रकारिता के अलावा समाजसेवा से भी जुड़े हए हैं वे। ग्राफिक्स में तो कमाल हासिल है उन्हें। बस अपने लिये एक हेडर बनाने के लिये कह दिया जिसका परिणाम आप मेरे इस ब्लोग के हेडर के रूप में देख रहे हैं।

इस बीच एक रोज मैं फिर खुशी से झूम उठा जब मेरे मोबाइल में एक कॉल आई और मैंने सुना कि "अवधिया जी हैं क्या, मैं बी.एस. पाबला बोल रहा हूँ भिलाई से।" पाबला जी से अब तक बातें ही हुई हैं किन्तु जल्दी ही व्यक्तिगत मुलाकात भी हो जायेगी। और कल फिर मैं सुखद आश्चर्य से भर उठा जब कि "आरंभ" वाले 'संजीव तिवारी' जी एकाएक मेरे पास आ पहुँचे। लगभग दो घंटे तक बातें चलती रहीं हमारे बीच। बहुत ही सीधा और सरल व्यक्तित्व है तिवारी जी का।

अब तो मुझे विश्वास हो गया है कि निकट भविष्य में ही छत्तीसगढ़ कें सभी ब्लोगर बन्धुओं से व्यक्तिगत मुलाकात अवश्य ही होगी।

चलते-चलते

ग्राफिक्स में जीरो हैं तो क्या, किसी दूसरे का कोई अच्छा ग्राफिक्स दिखा तो सकते हैं आप लोगों कोः

Monday, December 21, 2009

हिन्दी ब्लोगर्स का दरवाजा खटखटाने वाली है लक्ष्मी जी

वो दिन अब दूर नहीं है जब लक्ष्मी माता हिन्दी ब्लोगर्स का दरवाजा खटखटाते नजर आयेंगी। गूगल का पहले 'हैबातों में दम?' प्रतियोगिता आयोजित करना और बाद में "हिन्दी बुलेटिन बोर्ड" बनाना इस बात का संकेत है कि गूगल अब हिन्दी को नेट में तेजी के साथ बढ़ाना चाहता है। यद्यपि हिन्दी को नेट में आगे लाने के पीछे गूगल की मंशा भारत में अपने व्यवसाय को फैलाना है किन्तु इस बात में भी दो मत नहीं हो सकता कि गूगल के इस कार्य से हिन्दी का बहुत भला होने वाला है।

वास्तव में देखा जाये तो नेट में आगे बढ़ने के लिये हिन्दी को बहुत अधिक संघर्ष करना पड़ रहा है। और इसके लिये एक नहीं अनेक कारण हैं जिनमें से कुछ मुख्य कारण ये हैं

सबसे बड़ा कारण है लिखने के मामले में हिन्दी का कुछ जटिल होना। एक ही शब्द को एक से अधिक प्रकार से लिखा जाता है जैसे कि कोई "विंध्याचल" लिखता है तो कोई उसी को "विन्ध्याचल" लिखता है।

हिन्दी शब्द सूची (वोकाबुलारी) का विशाल डेटाबेस न होना। हिन्दी शब्दों का डेटाबेस जितना अधिक बढ़ेगा उतने अधिक समानार्थी शब्दों का नेट में प्रयोग होने लगेगा। उदाहरण के लिये कोशिश, प्रयास, प्रयत्न, चेष्टा आदि समानार्थी शब्द हैं। इंटरनेट में भाषाओं के लिये जो सॉफ्टवेयर बनते हैं वे बहुत ही जटिल होते हैं। ये सॉफ्टवेयर न केवल हमारे लेखों को पढ़ते हैं बल्कि उसे समझने और दूसरी भाषाओं मे अनुवाद करने का भी कार्य करते हैं। सही डेटाबेस उपलब्ध नहीं होने के कारण ये सॉफ्टवेयर सही काम नहीं कर पाते। यही कारण है कि गूगल ट्रांसलेट के द्वारा किया गया अनुवाद गलत और यहाँ तक कि हास्यास्पद भी हो जाता है। यदि हम He is a kind man. वाक्य का गूगल ट्रांसलेट से अनुवाद करें तो वह "वह एक तरह का आदमी है." बताता है। इसका स्पष्ट कारण है कि उसके डेटाबेस में अंग्रेजी के kind शब्द के लिये हिन्दी में "तरह" के साथ ही साथ "प्रकार", "दयालु", "कृपालु" आदि शब्द नहीं हैं, यदि होता तो अवश्य ही अनुवाद सही याने कि "वह एक दयालु आदमी है." होता। गूगल अपने अनुवादक में “contribute better translation” कह कर हम से इसके लिये सहायता भी माँगता है (नीचे चित्र देखें) किन्तु हम ही उसे सहयोग नहीं दे पाते।

हिन्दी शब्दों के हिज्जों में गलतियों का बहुतायत से पाया जाना जैसे कि 'कोशिश' को 'कोशीश', 'पुरी' को 'पूरी' लिखना आदि। कोशिश को कोशीश लिखने पर भी पढ़ने वाला एक बार समझ लेता है कि हिज्जे की गलती हो सकती है क्योंकि हिन्दी में कोशीश शब्द नहीं होता किन्तु पुरी को पूरी लिखने से भ्रम की स्थिति बन जाती है क्योंकि हिन्दी में ये दोनों अलग अलग शब्द हैं।

खैर ये तो हिन्दी की कुछ कठिनाइयाँ हैं। अब आते हैं "लक्ष्मी जी" वाली बात पर! लक्ष्मी जी हमारे पास तभी आयेंगी जब हमारे पास पाठकों का एक विशाल समूह होगा और पाठकों का विशाल समूह तब होगा जबः

  • हम हिन्दी में अच्छे, जानकारीपूर्ण, पाठकों को पसंद आने वाले, जहाँ तक हो सके हिज्जों की गलतियों से रहितसामग्री लिखेंगे।
  • "हिन्दी बुलेटिन बोर्ड" में अपने विचारों को रखेंगे। इसमें आप अपने ब्लोग का लिंक देक अपने ब्लोग कोलोकप्रिय भी बना सकते हैं।
तो मित्रों, अब हमें ठान लेना है कि हिन्दी को नेट में आगे बढ़ाने के लिये हम गूगल का जी जान से सहयोग करेंगे ताकि लक्ष्मी जी की हमपर जल्दी से जल्दी कृपा हो।

Sunday, December 20, 2009

मैं पोस्ट लिखता नहीं पोस्ट बन जाती है

यदि आपका ब्लोग है तो उसे अपडेट करना भी जरूरी है और अपडेट करना है तो नई पोस्ट तो लिखनी ही है। तो प्रश्न यह उठता है कि आखिर रोज रोज लिखा क्या जाये?

पर इसके लिये चिन्ता में घुलने की कोई जरूरत नहीं है। माता सरस्वती बहुत ही दयालु देवी हैं। सुझा ही देती हैं कुछ ना कुछ लिखने के लिये। अब कल सुबह हमारा शहर धुंध से बुरी तरह से घिर गया। उस दृश्य को देखते ही सूझ गया हमें "जब हम हर्बल सिगरेट पीते थे ... कुछ यादें बचपन की ..." लिखने के लिये। ललित भाई की चौबे जी से मुलाकात हुई तो उन्हें चौबे जी और इरफ़ान भाई (कार्टूनिस्ट) में समानता नजर आई और बन गईं एक नहीं दो दो पोस्टें "इरफ़ान भाई (कार्टूनिस्ट) से एक मुलाकात रायपुर में!!..." और "कहीं ये दोनों मेले में बिछड़े हुए भाई तो नहीं है?" अनिल पुसदकर जी का मूड खराब होता है और बन जाती है पोस्ट "आज मूड़ बहुत खराब है!"

तो दोस्तों! बस अपने आस पास के दृश्य, वातावरण, घटनाएँ आदि पर निगाह बनाये रखिये और मिल ही जायेगा आपको लिखने के लिये कुछ ना कुछ मैटर और आप भी कहेंगे "मैं पोस्ट लिखता नहीं पोस्ट बन जाती है"

Saturday, December 19, 2009

जब हम हर्बल सिगरेट पीते थे ... कुछ यादें बचपन की ...

हर्बल सिगरेट! याने कि कद्दू की सूखी हुई बेल का टुकड़ा जिसे सिगरेट की तरह जला कर हम धूम्रपान का मजा लिया करते थे बचपन में। बहुत मजा आता था मुँह और नाक से धुआँ निकालने में। दस-बारह साल उमर थी तब हमारी याने कि ये बात लगभग 48-50 साल पुरानी है। सूखे हुए चरौटे के पौधों को उखाड़ कर उसका "भुर्री जलाना" याने कि अलाव जलाना और "भुर्री तापना" याने कि आग तापना! कद्दू की सूखी हुई लंबी बेल तोड़ कर लाना और हम सभी बच्चों के द्वारा "भुर्री तापते" हुए उस बेल के टुकड़ों वाला सिगरेट पीना।

ऐसा नहीं है कि कोई साइकियाट्रिस्ट ही किसी आदमी को उसके उम्र के पीछे ले जा सके। कभी-कभी आदमी खुद ही अपनी उम्र के पीछे चला जाता है तो कभी प्रकृति, वातावरण, विशेष दृश्य आदि उसे अपनी उम्र के पीछे ले जाते हैं। आज सुबह रायपुर में बहुत ज्यादा कुहासा था। कई साल बाद ऐसा कुहासा देखने को मिला रायपुर में। आठ दस फुट की दूरी की चीज नहीं दिखाई पड़ रही थी। साँस छोड़ते थे तो भाप निकलता था और मुँह खोलते थे तो भाप निकलता था। छत में पहुँचे तो लगा कि बादलों के बीच में आ गये हैं। ऐसा लग रहा था मानो हम मैदानी इलाके में न होकर किसी हिल स्टेशन में पहुँच गये हों।

बस इस दृश्य ने हमें अपनी उम्र के पीछे धकेलना शुरू कर दिया। याद आया कि कुछ समय पहले हम मसूरी गये थे तो ऐसे भी बादलों के बीच घिरे थे। फिर और दस बारह साल पहले चले गये हम जब बद्रीनाथ जाते समय जोशीमठ में कुहासे से घिर गये थे। जोशीमठ में तो लगता था कि हमारे ऊपर बादल हैं, हम बादलों के बीच में हैं और हमारे नीचे घाटी में भी बादल है।

फिर पीछे जाते-जाते अपने बचपन तक पहुँच गये हम। क्या ठंड पड़ती थी उन दिनों रायपुर में हर साल। अब तो हमारे यहाँ ठंड पड़ती ही नहीं। आदमियों और इमारतों का जंगल बन कर रह गया है अब रायपुर। तो ठंड कैसे पड़ेगी? बचपन में कहाँ थीं इतनी सारी इमारतें? घर से एकाध मील दूर निकलते ही खेतों का सिलसिला शुरू हो जाता था। खेतों में तिवरा और अलसी लहलहाते थे और मेढ़ों में अरहर लगे होते थे ठंड के दिनों में। तिवरा उखाड़ लाया करते थे खेतों से और उसे कभी कच्चा तो कभी जलते "भुर्री" में डाल कर "होर्रा" बना कर खाते थे।

मन को कितना मोहता है यह ठंड का मौसम! गरम कपड़ों से लिपटे, आग तापते हुए, आपस में गप शप करना, धूप सेंकना आदि कितना अच्छा लगता है। वसन्त ऋतु की अपनी अलग मादकता है तो शरद् और हेमन्त ऋतुओं का अपना अलग सुख है। श्री रामचन्द्र जी की भी प्रिय ऋतु रही है यह हेमन्त ऋतु! तभी तो आदिकवि श्री वाल्मीकि लिखते हैं:

सरिता के तट पर पहुँचने पर लक्ष्मण को ध्यान आया कि हेमन्त ऋतु रामचन्द्र जी की सबसे प्रिय ऋतु रही है। वे तट पर घड़े को रख कर बोले, "भैया! यह वही हेमन्त काल है जो आपको सर्वाधिक प्रिय रही है। आप इस ऋतु को वर्ष का आभूषण कहा करते थे। अब शीत अपने चरमावस्था में पहुँच चुकी है। सूर्य की किरणों का स्पर्श प्रिय लगने लगा है। पृथ्वी अन्नपूर्णा बन गई है। गोरस की नदियाँ बहने लगी हैं। राजा-महाराजा अपनी-अपनी चतुरंगिणी सेनाएँ लेकर शत्रुओं को पराजित करने के लिये निकल पड़े हैं। सूर्य के दक्षिणायन हो जाने के कारण उत्तर दिशा की शोभा समाप्त हो गई है। अग्नि की उष्मा प्रिय लगने लगा है। रात्रियाँ हिम जैसी शीतल हो गई हैं। जौ और गेहूँ से भरे खेतों में ओस के बिन्दु मोतियों की भाँति चमक रहे हैं। ओस के जल से भीगी हुई रेत पैरों को घायल कर रही है। ...

आप लोगो को भी जरूर ही अच्छा लगता होगा यह ठंड का मौसम!

Friday, December 18, 2009

कामदेव याने कि सेक्स के देवता ... भस्म हो जाने पर भी वे प्राणियों को क्यों प्रभावित करते हैं?

कामदेव याने कि सेक्स के देवता ...

उनके प्रभाव से भला कोई बचा है?

तुलसीदास जी लिखते हैं:

सम्पूर्ण जगत् में स्त्री-पुरुष संज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थे वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गये। वृक्षों की डालियाँ लताओं की और झुकने लगीं, नदियाँ उमड़-उमड़ कर समुद्र की ओर दौड़ने लगीं। आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरण करने वाले समस्त पशु-पक्षी सब कुछ भुला कर केवल काम के वश हो गये। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महायोगी भी काम के वश होकर योगरहित और स्त्री-विरही हो गये। मनुष्यों की तो बात ही क्या कहें, पुरुषों को संसार स्त्रीमय और स्त्रियों को पुरुषमय प्रतीत होने लगा।
यह कथा रामचरितमानस बालकाण्ड से

सती जी के देहत्याग के पश्चात् जब शिव जी तपस्या में लीन हो गये थे उसी समय तारक नाम का एक असुर हुआ। उसने अपने भुजबल, प्रताप और तेज से समस्त लोकों और लोकपालों पर विजय प्राप्त कर लिया जिसके परिणामस्वरूप सभी देवता सुख और सम्पत्ति से वंचित हो गये। सभी प्रकार से निराश देवतागण ब्रह्मा जी के पास सहायता के लिये पहुँचे। ब्रह्मा जी ने उन सभी को बताया, "इस दैत्य की मृत्यु केवल शिव जी के वीर्य से उत्पन्न पुत्र के हाथों ही हो सकती है। किन्तु सती जी के देह त्याग के बाद शिव जी विरक्त हो कर तपस्या में लीन हो गये हैं। सती जी ने हिमाचल के घर पार्वती जी के रूप में पुनः जन्म ले लिया है। अतः शिव जी के पार्वती से विवाह के लिये उनकी तपस्या को भंग करना आवश्यक है। तुम लोग कामदेव को शिव जी के पास भेज कर उनकी तपस्या भंग करवाओ फिर उसके बाद हम उन्हें पार्वती जी से विवाह के लिये राजी कर लेंगे।"

ब्रह्मा जी के कहे अनुसार देवताओं ने कामदेव से शिव जी की तपस्या भंग करने का अनुरोध किया। इस पर कामदेव ने कहा, "यद्यपि शिव जी से विरोध कर के मेरा कुशल नहीं होगा तथापि मैं आप लोगों का कार्य सिद्ध करूँगा।"

इतना कहकर कामदेव पुष्प के धनुष से सुसज्जित होकर वसन्तादि अपने सहायकों के साथ वहाँ पहुँच गये जहाँ पर शिव जी तपस्या कर रहे थे। वहाँ पर पहुँच कर उन्होंने अपना ऐसा प्रभाव दिखाया कि वेदों की सारी मर्यादा मिट गई। कामदेव की सेना से भयभीत होकर ब्रह्मचर्य, नियम, संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य आदि, जो विवेक की सेना कहलाते हैं, भाग कर कन्दराओं में जा छिपे। सम्पूर्ण जगत् में स्त्री-पुरुष संज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थे वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गये। वृक्षों की डालियाँ लताओं की और झुकने लगीं, नदियाँ उमड़-उमड़ कर समुद्र की ओर दौड़ने लगीं। आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरण करने वाले समस्त पशु-पक्षी सब कुछ भुला कर केवल काम के वश हो गये। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महायोगी भी काम के वश होकर योगरहित और स्त्री विरही हो गये। मनुष्यों की तो बात ही क्या कहें, पुरुषों को संसार स्त्रीमय और स्त्रियों को पुरुषमय प्रतीत होने लगा।

जी हाँ, गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं:

जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥

सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाई। संगम करहिं तलाव तलाई॥
जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
पसु पच्छी नभ जल थलचारी। भए कामबस समय बिसारी॥
मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥
देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥
इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥

भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥

धरी न काहूँ धीर सबके मन मनसिज हरे।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥

किन्तु कामदेव के इस कौतुक का शिव जी पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। इससे कामदेव भी भयभीत हो गये किन्तु अपने कार्य को पूर्ण किये बिना वापस लौटने में उन्हें संकोच हो रहा था इसलिये उन्होंने तत्काल अपने सहायक ऋतुराज वसन्त को प्रकट कर किया। वृक्ष पुष्पों से सुशोभित हो गये, वन-उपवन, बावली-तालाब आदि परम सुहावने हो गये, शीतल-मंद-सुगन्धित पवन चलने लगा, सरोवर कमल पुष्पों से परिपूरित हो गये, पुष्पों पर भ्रमर गुंजार करने लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे, अप्सराएँ नृत्य एवं गान करने लगीं।

इस पर भी जब तपस्यारत शिव जी का कुछ भी प्रभाव न पड़ा तो क्रोधित कामदेव ने आम्रवृक्ष की डाली पर चढ़कर अपने पाँचों तीक्ष्ण पुष्प-बाणों को छोड़ दिया जो कि शिव जी के हृदय में जाकर लगे। उनकी समाधि टूट गई जिससे उन्हें अत्यन्त क्षोभ हुआ। आम्रवृक्ष की डाली पर कामदेव को देख कर क्रोधित हो उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोल दिया और देखते ही देखते कामदेव भस्म हो गये।

कामदेव की स्त्री रति अपने पति की यह दशा सुनते ही रुदन करते हुए शिव जी पास आई। उसके विलाप से द्रवित हो कर शिव जी ने कहा, "हे रति! विलाप मत कर। जब पृथ्वी के भार को उतारने के लिये यदुवंश में श्री कृष्ण अवतार होगा तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न होगा और तुझे पुनः प्राप्त होगा। तब तक वह बिना शरीर के ही इस संसार में व्याप्त होता रहेगा। अंगहीन हो जाने के कारण लोग अब कामदेव को अनंग के नाम से भी जानेंगे।"

इसके बाद ब्रह्मा जी सहित समस्त देवताओं ने शिव जी के पास आकर उनसे पार्वती जी से विवाह कर लेने के लिये प्रार्थना की जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।

Thursday, December 17, 2009

मुझे टिप्पणी मिले ना मिले, मेरे पोस्ट की चर्चा हो ना हो, पर मुझे तो पाठक चाहिये

टिप्पणियों और चर्चाओं की उतनी चाह नहीं है मुझे जितनी चाह पाठक मिलने की है। टिप्पणियाँ मिल जाये तो बहुत अच्छी बात है, न भी मिले तो भी कोई बात नहीं। मेरे पोस्ट की चर्चा हो जाये तो खुशी होती है मुझे पर न हो तो कोई गम नहीं होता।

पर मैं लिखूँ और पढ़ने वाला न मिले तो बहुत दुःख होता है। बस पाठकों की चाहत रखता हूँ मैं। आखिर वह लिखना भी किस काम का जिसे कोई पढ़ने ना आये?

अपने ब्लोगर बन्धुओं को मैं पाठक नहीं बल्कि अपना स्वजन और हितचिन्तक समझता हूँ इसलिए मैं उन्हें अपने पाठकों की श्रेणी में नहीं रखता। वे लोग तो आयेंगे ही मुझे पढ़ने के लिये। और एग्रीगेटर्स से आये ट्रैफिक को भी मैं ट्रैफिक नहीं समझता क्योंकि एग्रीगेटर्स का इस्तेमाल अधिकतर हम ब्लोगर्स ही करते हैं, इन्टरनेट में आने वाले आम लोग नहीं।

अपने ब्लोग लेखन को मैं तभी सफल मानूँगा जब पाठक खोज कर मेरे ब्लोग में आयेंगे। और मुझे पूरा विश्वास है कि बहुत जल्दी ही वह दिन आयेगा।

मेरे पास अपने इस विश्वास का कारण भी है। कुछ अस्थाई कारणों से मैं अपने संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण को पिछले कई रोज से अपडेट नहीं कर पा रहा हूँ किन्तु स्टेट काउंटर बता रहा है कि उसमें पाठकगण रोज आ रहे हैं और उसे खोज कर ही आ रहे हैं।



गूगल के "है बातों में दम" प्रतियोगिता में मेरे लेखों को इस सप्ताह 430 लोगों ने पढ़ा। इससे पता चलता है कि हिन्दी में पाठकों की कमी नहीं है, जरूरत है तो सिर्फ उन्हें उनकी पसंद की जानकारी देने की।

Wednesday, December 16, 2009

रोज खाते हो खाना ... पर कैसे सीखा मनुष्य ने खाना पकाना?


स्वादिष्ट खाना भला किसे अच्छा नहीं लगता? किन्तु क्या कभी आपने सोचा है कि स्वादिष्ट खाना पकाने के लिये भूनने, उबालने, तलने आदि विधियों का विकास मनुष्य ने कैसे किया होगा। यह सोचकर मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि आखिर गेहूँ को पीस कर आटा बनाना, गूँथना, तवे में सेंकना और फिर सीधी आँच में उसे फुला कर रोटी बनाना आखिर मनुष्य ने सीखा कैसे होगा? यही जानने के लिये जब मैंने नेट को खँगाला तो मुझे निम्न जानकारी मिलीः

खाना पकाने का आरम्भ कब और कैसे हुआ यह आज तक अस्पष्ट है। ऐसा समझा जाता है कि प्रगैतिहासिक काल में किसी जंगल में आग लग गई होगी जिसके कारण से आदिम मानव को पहली बार जानवर के भुने हुए मांस खाने का अवसर मिल गया होगा। उसे वह भुना हुआ मांस स्वादिष्ट होने के साथ ही साथ चबाने में आसान भी लगा होगा। अपने इस अनुभव से ही मानव को पका कर खाने का ज्ञान हुआ होगा।

माना जाता है कि ईसा पूर्व 9000 में मैक्सिको और मध्य अमेरिका के अर्धचन्द्राकार क्षेत्र, जिसे मेसोमेरिकन (Mesoamerican) से जाना जाता है, की उपजाऊ जमीन में पौधों की रोपाई करके खेती करने का कार्य शुरू हुआ। इस प्रकार से अन्न के साथ ही साथ लौकी, कद्दू, तुरई, मिर्च आदि की खेती का आरम्भ हुआ।

ईसा पूर्व 4,000 मिश्रवासियों ने खमीर उठाना भी सीख लिया। प्याज, मूली और लहसुन भी इन विशाल पिरामिड बनाने वाले मिश्रवासियों के मुख्य आहार में शामिल थे। उनका खाना तीखा और खुशबूदार किन्तु कम वसायुक्त हुआ करता था।

ईसा पूर्व 3,000 में मेसापोटोमिया (Mesapotomia) के किसानों ने शलजम, प्याज, सेम, मटर, मसूर, मूली और शायद लहसुन के भी फसल उगाने शुरू कर दिया था। शायद इस समय तक उन्होंने बतख पालन भी शुरू कर दिया था।

इसी काल में चीनी सम्राट; सुंग लूंग स्ज़े (Sung Loong Sze) ने वनस्पतियों के औषधीय गुणों की भी खोज कर ली थी।

ईसा पूर्व 1,000 का समय रोमन साम्राज्य में खाने के विकास के लिए एक सक्रिय काल था। इस अवधि के दौरान तीव्रता के साथ कृषि क्रांति हुई और भोजन में अनाज का प्रयोग अधिक होने लगा। लोग खेती-बारी के प्रति अधिक निष्ठावान होत गये। यह राष्ट्रवाद की ओर पहला कदम था।

ऐसा विश्वास किया जाता है कि ईसा पूर्व 2,000 में फारस में अनार की उत्पत्ति होने लगी। अनार की खाल का प्रयोग ऊन डाई करने के लिये किया जाने लगा। अनार में कई बीज होने के कारण इसे कई प्राचीन संस्कृतियों में उर्वरता का प्रतीक माना जाने लगा।

ईसा पूर्व 500 में भारत में गन्ने और केले की खेती शुरू हो गई। दक्षिणी मैक्सिको और मध्य अमेरिका में मायान भारतीयों (Mayan Indians) ने रुचिरा (Avocados) पैदा करना शुरू कर दिया। उस अत्यंत विकसित सभ्यता में इस उष्णकटिबंधीय फल के कई गुणों की अत्यन्त सराहना की जाती थी।

ईसा पूर्व 50 में सबसे पहले चीन में खूबानी के पेड़ों का लगाना आरम्भ हुआ। चीन से ही यह खूबानी भारत आया। 13वीं शताब्दी के पूर्व ही ये खूबानी इटली होते हुए इंग्लैंड तक पहुँच चुके थे।

ईसा पश्चात् 400 में शायद जर्मनी के किसी जनजाति ने इटली को पास्ता, आटा के लिए इतालवी शब्द, से परिचित करवाया। पास्ता के लिये जर्मनी में नूडल शब्द का प्रयोग किया जाता था जिसे कि अंग्रेजी ने भी अपना लिया।

सन् 1493 में कोलम्बस (Columbus) ने गुआदेलूप (Guadeloupe) के वेस्ट इंडीज (West Indies) के टापू में अनानास को खोज लिया जिसे कि वहाँ के लोग अनानास नाना (pineapple nana) कहा करते थे जिसका अर्थ है खुशबू या सुगन्ध (fragrance)। हवाई के लोगों ने इस स्वादिष्ट फल को सदियों बाद ही जाना।

पहले आम धारणा थी कि टमाटर जहरीला होता है। अतः 26 सितम्बर 1830 के दिन Col. Robert Gibbon Johnson ने सलेम, न्यू जर्सी, न्यायालय में सार्वजनिक रूप से टमाटर खाकर इस धारणा को गलत सिद्ध किया।

ये सब तो हुईं नेट से प्राप्त जानकारी। किन्तु कई हजार साल प्राचीन हमारे पौराणिक ग्रंथों में पक्वान्न, पायस, भक्ष्य, पेय, लेह्य आदि स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों का वर्णन मिलता है। इससे सिद्ध होता है कि हमारे देश में अत्यन्त प्राचीन काल से ही खाना पकाने की विधि विकसित थी।

चलते-चलते

"चल आज तुझे चिकन बनाने का जोरदार तरीका बताता हूँ, तू भी क्या याद करेगा! कढ़ाई में तेल डालो और लहसुन, प्याज, अदरक पेस्ट को तलो। तल जाने पर एक कप व्हिस्की डालो। उसे चला कर उसमे चिकन को डाल दो। अब एक कप रम डालो। जब एक उबाल आ जाये तो उसमें एक कप जिन डालो। ज्योंही चिकन कढ़ाई से चिपकना शुरू करे, दो कप वाइन डाल दो। थोड़ी थोड़ी देर में बड़ा चम्मच वोदका डाल कर चलाते रहो। जब चिकन पूरा पक जाये तो एक कप व्हिस्की डाल कर अच्छे से चलाओ। बस तैयार हो गया चिकन!"

"क्यों? क्या चिकन को ऐसे बनाने से अधिक स्वादिष्ट बनता है?"

"अरे चिकन तो जो बनता है सो बनता है पर तरी में मजा जाता है गुरू!!!"

Tuesday, December 15, 2009

ये शराबी की मैयत है इसको जो पिये वही कांधा लगाये

आपको शराबी की मैयत में ले जाने के पहले बता देना चाहता हूँ किः

ये ब्लोगिंग नहीं आसां ...

हाँ भाई, ब्लोगिंग कोई आसान काम नहीं है, बहुत कुछ करना पड़ता है इसके लिये। कभी अंदर की शराब वही रख कर बोतल बदलनी पड़ती है तो कभी समोसा वही रख कर अन्दर का आलू बदलना पड़ता है। दूसरों के लिखे को तो छोड़ो, कई बार अपने ही पोस्ट में काटछाँट करना पड़ता है, हेडिंग बदलना पड़ता है ताकि नया लगने लगे। अब देखिये ना, गूगल बाबा ने "है बातों में दम" लेख प्रतियोगिता शुरू कर दिया। तो हम कैसे चुप बैठे रहते? बस, निश्चय कर लिया इसमें भाग लेने के लिये। अपने एक पोस्ट को इस प्रतियोगिता में डालने के लिये सोच लिया। पर प्रतियोगिता के नियम में साफ लिखा है लेख पूर्व प्रकाशित नहीं होना चाहिये और १०० से १००० शब्दों वाला होना चाहिये। अब एक तो हमारा पोस्ट पहले से प्रकाशित है और १००० शब्दों से अधिक वाला है। पर हमने भी सोच लिया कि डालेंगे तो इसी लेख को ही। बस सबसे पहले तो शीर्षक बदल कर नया शीर्षक दिया "ये शराबी की मैयत है इसको जो पिये वही कांधा लगाये"। फिर उस लेख को लेख की भाषा में परिवर्तन कर करते हुए १००० शब्दों से कम का बना दिया और डाल दिया प्रतियोगिता में शामिल होने के लिये। हमारी मेहनत रंग लाई और वह लेख स्वीकृत भी हो गया (यहाँ पर)। तो आप भी देखिये उस लेख के नये रूप कोः
सामने मेरी लाश पड़ी थी और मैं आश्चर्य से उसे देखे जा रहा था। रात में सोने के बाद मेरे प्राण निकल गये थे।

मेरे लड़के ने मेरे मृत शरीर को देखा और घर के लोगों को जगाना शुरू कर दिया।

सबको जगा कर उसने कहा, "पापा तो रेंग लिये।"

"क्या? रात को तो अच्छे भले थे।" मेरी बहू ने कहा।

"सही कह रहा हूँ। देख लो जाकर।"

इतना कह कर लड़का रिश्तेदारों को फोन से सूचना देने लग गया।

बहू ने कहा, "अगर पता होता कि मर जायेंगे तो क्यों इस नये बिस्तरे पर सोने देती इन्हें! अब तो इसे दान में देना पड़ेगा। अफसोस!"

मेरे भाई की पत्नी ने कहा, "कोई जरूरत नहीं है दान-वान में देने की। इसे जल्दी से भीतर रख दो और कोई फटा-पुराना बिस्तर लाकर यहाँ रख दो।"

एक रिश्तेदार ने कहा, "सुना है कि कुछ लिखते विखते भी थे।"

मेरे एक लेखक मित्र ने कहा, "लिखता क्या था, अपने आपको लेखक दिखाता था। उसके लिखे को कोई पूछता नहीं था इसलिये इंटरनेट में डाल दिया करता था।"

एक सज्जन बोले, "मरने के बाद तो उनकी बुराई मत करो।"

मित्र ने कहा, "कौन स्साला बुराई कर रहा है? किसीके मर जाने पर सच्चाई बदल जाती है क्या? इतनी अधिक उम्र हो जाने पर भी बड़प्पन नाम की चीज तो छू भी नहीं गई थी इसे। खैर आप कह रहे हैं तो अब आगे मैं और कुछ नहीं कहूँगा।"

मेरा लड़का बोला, "पापा साठ साल से भी अधिक जीवन बिताकर गए हैं। आजकल तो लोग पैंतालीस-सैंतालीस में ही सटक लेते हैं। हम लोगों को गम मना कर उनकी आत्मा को दुःखी नहीं करना है। लम्बी उमर सफलतापूर्वक जीने के बाद उनके स्वर्ग जाने की खुशी मनाना है।"

मेरे भतीजे ने कहा, "अब हमें चाचा जी का क्रिया-कर्म बड़े धूम-धाम से करना है। दीर्घजीवी लोगों की शव-यात्रा बैंड बाजे के साथ होती है। जल्दी से बैंड बाजे का प्रबंध किया जाये।"

"आजकल तो बैंड का चलन ही खत्म हो गया है।" एक रिश्तेदार बोला।

"तो फिर डीजे ही ले आते हैं।"

"डीजे का प्रयोग तो लोग नाच-कूद कर खुशी मनाने के लिये करते हैं।"

"बात तो खुशी की ही है, हम लोग भी शव-यात्रा में नाचते-कूदते ही चलेंगे।"

"नाचने के लिये तो पहले मदमत्त होना जरूरी है। बिना दारू पिये कोई मदमस्त तो हो ही नहीं सकता। अब मैयत में लोगों को दारू तो पिलाई नहीं जा सकती?"

"क्यों नहीं पिलाई जा सकती? मरने वाला भी तो दारू पीता था। लोगों को दारू पिलाने से तो उनकी आत्मा को और भी शान्ति मिलेगी।"

"ये दारू भी पीते थे क्या?" किसी ने पूछा।

"पीते थे और रोज पीते थे। पूरे ड्रम थे वो। दारू के असर करने पर उनके ज्ञान-चक्षु खुल जाते थे। धर्म-कर्म की बातें करते थे। रहीम और कबीर के दोहे कहा करते थे। हम लोग बोर होते थे। पीने के बाद भला ऐसी बातें करनी चाहिये? करना ही है तो किसी की ऐसी-तैसी करो, किसी की टांग पकड़ कर खींचो, किसी को परेशान करने वाली बातें करो।"

"तो तुम उठ कर चल क्यों नहीं देते थे?"

"उनके पैसे से दारू पीते थे तो उन्हें झेलना भी तो पड़ता था। फिर घर जाकर घरवाली की जली-कटी सुनने से तो इन्हें झेल लेना ही ज्यादा अच्छा था।"

बहू ने मेरे लड़के को एक तरफ ले जाकर जाकर कहा, "ये क्या दारू की बात हो रही है? और तुम भी इन सब की हाँ में हाँ मिलाये जा रहे हो। इसमें तो पन्द्रह-बीस हजार खर्च हो जायेंगे।"

"तो तुम्हें कौन कह रहा है खर्च करने के लिये?"

"पर जानूँ भी तो आखिर खर्च करेगा कौन?"

"मैं करूँगा, मैं।" लड़के ने छाती फुलाते हुए कहा।

"बेटे की मोटर-सायकल मरमम्त के लिये पाँच हजार तो हाथ से छूटते नहीं हैं और जो मर गया उसके लिये इतने रुपये निकाले जा रहे हैं। इसी को कहते हैं 'जीयत ब्रह्म को कोई ना पूछे और मुर्दा की मेहमानी'। खबरदार जो एक रुपया भी खर्च किया, नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।"

"अगर मेरे पास रुपये होते तो मैं भला अपने बेटे को क्यों नहीं देता? पर बाप का अन्तिम संस्कार तो करना ही पड़ेगा ना!"

"बेटे के लिये नहीं थे तो बाप के लिये अब कहाँ से आ गये रुपये?"

"बुढ़उ ने खुद दिये थे मुझे पचास हजार रुपये परसों, अपने बैंक खाते में जमा करने के लिये। कुछ कारण से उस दिन मैं बैंक नहीं जा पाया और दूसरे दिन बैंक की छुट्टी थी। अब उन रुपयों में से उन्हीं के लिये अगर पन्द्रह-बीस हजार खर्च कर भी दूँ तो भी तो तुम्हारे और तुम्हारी औलाद के लिये अच्छी-खासी रकम बचेगी। अब चुपचाप मुझे अपने बाप का क्रिया-कर्म करने दो।"

लड़के ने वापस मण्डली में आकर कहा, "भाइयों, आप लोगों ने जैसा सुझाया है सब कुछ वैसा ही होगा। डीजे भी आयेगा और दारू भी।"

इतने में ही एक आदमी ने आकर कहा, "हमें खबर लगी है कि जी.के. अवधिया जी की मृत्यु हो गई है, कहाँ है उनकी लाश?"

हकबका कर मेरे लड़के ने पूछा, "आपको क्या लेना-देना है उनसे?"

"मैं सरकारी अस्पताल से आया हूँ उनकी लाश ले जाने के लिये, पीछे पीछे मुर्दागाड़ी आ रही है। उन्होंने तो अपना शरीर दान कर रखा था।"

वे लोग मेरे शरीर को ले गये और मेरी शव-यात्रा के लिये आये हुये लोगों को बिना पिये और नाचे ही मायूसी के साथ वापस लौट जाना पड़ा।

उनके जाते ही यमदूत मेरे सामने आ खड़ा हुआ और बोला, "चलो, तुम्हें ले जाने के लिये आया हूँ। जो कुछ भी तुमने अपने जीवन में पाप किया है उस की सजा तो नर्क पहुँच कर तुम्हें मिलेगी ही पर हिन्दी में ऊल-जलूल लिखकर उसका स्टैण्डर्ड गिराने की सजा तो तुम्हें अभी ही यहीं पर मिलेगी।"

इतना कह कर उसने अपना मोटा-सा कोड़ा हवा में लहराया ही था कि मेरी चीख निकल गई और चीख के साथ ही मेरी नींद भी खुल गई।

तो इसे कहते हैं "रिठेल"!

चलते-चलते

इलाके का मशहूर गुंडा हलवाई की दूकान में पहुँचा और नशे में लड़खड़ाती आवाज में बोला, "पाँच रुपये की रबड़ी देना।"

हलवाई ने कहा, "रबड़ी खत्म हो गई है।"

"तो ये क्या है?" नशे में लड़खड़ाती आवाज।

"ये मोतीचूर के लड्डू हैं।"

"क्या भाव?" फिर नशे में लड़खड़ाती आवाज।

"सौ रुपये किलो।"

"दस किलो तौलो।"

डरे हुए हलवाई ने तौल दिया।

"और ये क्या है?" फिर नशे में लड़खड़ाती आवाज।

"कलाकंद।"

"क्या भाव?"

"एक सौ साठ रुपये किलो।"

"सोलह किलो तौलो।"

हलवाई ने फिर तौल दिया।

"ये क्या है?" फिर नशे में लड़खड़ाती आवाज।

"काजू बरफी।"

"क्या भाव?"

"दो सौ चालीस रुपये किलो।"

"चौबीस किलो तौलो।"

हलवाई ने तौला।

"ये क्या है?" फिर नशे में लड़खड़ाती आवाज।

"दूध।"

"क्या भाव?"

"अट्ठाइस रुपये लिटर।"

"अट्ठाइस लिटर दो।"

परेशान हलवाई ने एक गंजी में दूध निकाल कर रख दिया।

"अब तौली हुई सभी मिठाइयों को इसमें डालो और घोटो।" दूध की गंजी की तरफ इशारा करते हुए गुंडे ने कहा।

जैसा कहा गया था वैसा करते हुए हलवाई भुनभुनाया, "पता नहीं कहाँ से आ गया, सारी मिठाइयों का सत्यानाश करके रबड़ी बनवा दिया।"

"रबड़ी बन गई! तो पाँच रुपये की देना" पाँच का नोट हलवाई को देते हुए गुंडे ने कहा।

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एडसेंस का चेक मिला तो खुश होकर हमने एक अच्छा स्नो खरीदा। घर आकर श्रीमती स्नो देते हुए कहा, "देखो तुम्हारे क्या लाया हूँ!"

"क्या लाये हो?"

हमने स्नो उसकी हथेली पर रख दिया। उसे देख कर श्रीमती जी ने कहा, "हाय राम! अब इस उमर में मैं स्नो पाउडर लगाउँगी?"

"जूता जब पुराना हो जाता है तभी तो पॉलिश की जरूरत पड़ती है।"

Monday, December 14, 2009

आय एम ओके यू आर ओके ... याने मैं भी खुश तू भी खुश

व्यवहार विज्ञान से सम्बन्धित एक ऐसा लेख जो आपके जीवन को खुशियों से भर सकता है ....
हिन्दी ब्लोग जगत में कुछ समय पहले एक ऐसी स्थिति आ गई थी कि कुछ ब्लोगर्स अन्य ब्लोगर्स से नाखुश थे और अन्य ब्लोगर्स उन कुछ ब्लोगर्स से। मतलब यह कि आय एम नॉट ओके यू आर नॉट ओके याने कि मैं भी नाखुश आप भी नाखुश। कितना अच्छा लगता है जब सभी लोग खुश रहें, आय एम ओके यू आर ओके ... याने मैं भी खुश आप भी खुश।

जीवन है तो रिश्ते हैं और रिश्ते हैं तो खुशी और नाखुशी भी हैं। जब दो लोग होते हैं तो दोनों के बीच कोई ना कोई सम्बन्ध भी होता है। यह सम्बन्ध कुछ भी हो सकता है, बाप-बेटे का, पति-पत्नी का, प्रेमी-प्रेमिका का, भाई-भाई का, भाई-बहन का, मित्र-मित्र का, अफसर-कर्मचारी का, मालिक-नौकर का, दुकानदार-ग्राहक का याने कि कुछ भी सम्बन्ध! और इन सम्बन्धों के कारण हमारे जीवन में निम्न चार प्रकार की स्थितियों में से कोई न कोई एक बनती हैः

मैं खुश तू खुश (I'm OK, You're OK)
मैं
खुश तू नाखुश (I'm OK, You're not OK)
मैं
नाखुश तू खुश (I'm not OK, You're OK)
मैं
नाखुश तू नाखुश (I'm not OK, You're not OK)

तो यदि आपका किसी से कुछ सम्बन्ध है तो आप दोनों के बीच उपरोक्त चार स्थितियों में से एक न एक स्थिति अवश्य ही होगी। और हर किसी के जीवन में एक नहीं अनेक सम्बन्ध होते ही हैं।

उपरोक्त स्थितियों में पहली स्थिति सबसे अच्छी स्थिति है और चौथी सबसे खराब।

पहली स्थिति इतनी अधिक अच्छी स्थिति है कि इसे आदर्श की संज्ञा दी जा सकती है। जिस प्रकार से मनुष्य के जीवन में आदर्श स्थिति कभी कभार ही आ पाती है उसी प्रकार से सबसे खराब स्थिति भी कभी-कभी ही आती है। किन्तु दूसरी तथा तीसरी स्थिति जीवनपर्यन्त बनी रहती है।

क्यों बनती हैं ये स्थितियाँ?

ये स्थितियाँ बनती हैं हमारे अपने व्यवहार के कारण से। हमारे व्यवहार में जहाँ लचीलापन होता है वहीं कठोरता भी होती है। किस समय हमें किस प्रकार का व्यवहार करना है यदि हम जान लें तो हम इन स्थितियों पर नियन्त्रण भी कर सकते हैं।

हमारा व्यवहार बनता है हमारी सोच से। हम किस प्रकार से सोचकर कैसा व्यवहार करते हैं यह बताती है श्री थॉमस एन्थॉनी हैरिस (Thomas A हर्रिस) द्वारा लिखित अंग्रेजी पुस्तक I'm OK, You're OK जो कि बहुत ही लोकप्रिय है। यह पुस्तक व्यवहार विश्लेषण (Transactional Analysis) पर आधारित है। श्री हैरिस की पुस्तक इसी बात की व्याख्या करती है कि उपरोक्त व्यवहारिक स्थितियाँ क्यों बनती हैं। उनका सिद्धांत बताता है कि मनुष्य निम्न तीन प्रकार से सोच-विचार किया करता है:

बचकाने ढंग से (Child): इस प्रकार के सोच-विचार पर मनुष्य की आन्तरिक भावनाएँ तथा कल्पनाएँ हावी रहती है (dominated by feelings)। आकाश में उड़ने की सोचना इसका एक उदाहरण है।

पालक के ढंग से (Parent): यह वो सोच-विचार होता है जिसे कि मनुष्य ने बचपने में अपने पालकों से सीखा होता है (unfiltered; taken as truths)। 'सम्भल के स्कूल जाना', 'दायें बायें देखकर सड़क पार करना' आदि वाक्य बच्चों को कहना इस प्रकार के सोच के उदाहरण है।

वयस्क ढंग से (Adult): बुद्धिमत्तापूर्ण तथा तर्कसंगत सोच वयस्क ढंग का सोच होता है (reasoning, logical)। सोच-विचार करने का यही सबसे सही तरीका है।

हमारे सोच-विचार करने के ढंग के कारण ही हमारे व्यवहार बनते है। जब दो व्यक्ति वयस्क ढंग से सोच-विचार करके व्यवहार करते है तो ही दोनों की संतुष्टि प्रदान करने वाला व्यवहार होता है जो कि "मैं खुश तू भी खुश (I'm OK, You're OK)" वाली स्थिति होती है। जब दो व्यक्तियों में से एक वयस्क ढंग से सोच-विचार करके तथा दूसरा बचकाने अथवा पालक ढंग से सोच-विचार करके व्यवहार करते है तो "मैं खुश तू नाखुश (I'm OK, You're not OK)" या "मैं नाखुश तू खुश (I'm not OK, You're OK)" वाली स्थिति बनती है। किन्तु जब दो व्यक्ति बचकाने या पालक ढंग से सोच-विचार करके व्यवहार करते है तो "मैं नाखुश तू नाखुश (I'm not OK, You're not OK)" वाली स्थिति बनती है।

तो मित्रों! यदि अच्छी प्रकार से सोच-विचार करके दूसरों के साथ व्यवहार करें तो हमारे जीवन की खुशियों में अवश्य ही इजाफा हो सकता है।

वैसे यदि व्यवहार के मामले को छोड़ दें तो बचकानी और पालक सोच का अपना महत्व है और इनके बिना काम चलना मुश्किल हो। विज्ञान के अधिकतर आविष्कारों और खोजों का श्रेय बचकानी सोच को ही जाता है।

Sunday, December 13, 2009

आखिर गूगल ने ब्लोगिंग के लिये मुफ्त प्लेटफॉर्म क्यों दिया है?

कभी आपने सोचा भी है कि आखिर गूगल ने ब्लोगिंग के लिये मुफ्त प्लेटफॉर्म क्यों दिया है?

गूगल कोई धर्मार्थ सेवा करने वाली संस्था नहीं बल्कि एक व्यवसायी कम्पनी है। किसी भी व्यवसायी कम्पनी का हर कार्य फायदा को ध्यान में रख कर किया जाता है।

हमें हिन्दी ब्लोगिंग के लिये मुफ्त प्लेटफॉर्म देने के साथ ही साथ हिन्दी को नेट में बढ़ावा देने में भी गूगल का बहुत बड़ा योगदान है।

तो क्या फायदा है उसे इस प्रकार से ब्लोगिंग के मुफ्त प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराने से?

आनलाइन विज्ञापन मुख्य धंधा है गूगल का। अपने विज्ञापनों को हमारे ब्लोगों में दिखा कर धन कमाना उसका उद्देश्य है। धन कमाने के लिये हमारे ब्लोगों में पाठकों की भीड़ होना आवश्यक है क्योंकि उस भीड़ से ही बिजनेस को चलना है। यदि पाठक नहीं आयेंगे तो विज्ञापनों को देखेगा कौन? दरअसल हिन्दी को बढ़ावा देना और मुफ्त प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराना गूगल के व्यवसाय का एक इन्व्हेस्टमेंट है फायदा कमाने के लिये।

हममें से कुछ लोगों का यह विचार भी हो सकता है कि हमें और आपको पाठकों के भीड़ की आवश्यकता नहीं है। किन्तु गूगल, जो हमें मुफ्त सुविधा दे रही है, को इस भीड़ की सख्त आवश्यकता है। फिलहाल हिन्दी ब्लोगों में पाठकों की अधिक संख्या नहीं आ पा रही है किन्तु गूगल को विश्वास है कि जल्दी ही पाठकों की भीड़ इकट्ठी होनी शुरू हो जायेगी। इसके लिये वह हर सम्भव प्रयास कर रहा है और हम ब्लोगरों से भी उम्मीद रखता है कि हम उच्च गुणवत्ता वाले पोस्ट लिख कर पाठकों की भीड़ लायें। मेरे स्वयं के विचार से भी पाठकों की भीड़ की बहुत आवश्यकता है। भला कौन नहीं चाहेगा कि उसके लिखे को अधिक से अधिक लोग पढ़ें। और मैं यह भी समझता हूँ कि जहाँ इस भीड़ से गूगल को आर्थिक लाभ होगा वहीं हमें भी इससे आमदनी मिलने लगेगी। किसी और को हो या न हो किन्तु मुझे तो अपने ब्लोग से कमाई करने की बहुत अपेक्षा है।

अब मान लीजिये कि पूरे प्रयास के बावजूद भी पाठकों की भीड़ नहीं आती है तो क्या होगा? क्या गूगल अपना धन खर्च करके हमें अपनी मुफ्त सुविधाएँ देता रहेगा? बिल्कुल नहीं, इस बात की पूरी सम्भावना है कि वह बन्द कर देगा मुफ्त सुविधाएँ देना। अब तक उसने जो कुछ भी खर्च किया है उसे अपना घाटा मान लेगा और आगे खर्च करना बंद कर देगा। हमारी सुविधाओं को बंद करके वह अंग्रेजी सहित उन भाषाओं को अधिक सुविधा देना शुरू कर देगा जिनसे उसे बिजनेस मिल रहा है और फायदा हो रहा है। इसका परिणाम यह होगा कि हम कम से कम ब्लोगर प्लेटफॉर्म से तो वंचित हो ही जायेंगे। हिन्दी में एडसेंस की उम्मीद बिल्कुल खत्म हो जायेगी सो अलग।

Saturday, December 12, 2009

क्यों नहीं हैं इन्टरनेट पर हिन्दी में अच्छे कंटेंट?

मैं नहीं कह रहा कि हिन्दी में अच्छा कन्टेन्ट नहीं है बल्कि "गूगल को शिकायत: हिन्दी में अच्छा कन्टेन्ट नहीं है" बता रही है इस बात को।

जब दिन ब दिन हिन्दी ब्लोग की संख्या बढ़ते जा रही है तो क्यों नहीं आ पा रहे हैं इन्टरनेट पर हिन्दी में अच्छे कंटेंट?

इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिये हमें सबसे पहले तो यह जानना होगा कि अच्छा कंटेंट क्या होता है?

अच्छा कंटेंट वह होता है जिसे कि पाठक पढ़ना चाहता है।

तो क्या पढ़ना चाहता है पाठक?

पाठक ऐसे पोस्ट पढ़ना चाहता है जिससे कि उसे कुछ नई जानकारी मिले, उसका ज्ञान बढ़े। कुछ नयापन मिले उसे। घिसी पिटी बातें नहीं चाहिये उसे। वह ऐसे पोस्ट पढ़ना चाहता है जिसे पढ़कर उसे लगे कि उसके पढ़ने से उसके समय का सदुपयोग हुआ है, कुछ काम की चीज मिली है उसे। जिस बात को वह पहले से ही टी.व्ही. या प्रिंट मीडिया से पहले ही जान चुका है उसी बात को किसी पोस्ट में पढ़ने के लिये भला क्यों अपना समय खराब करेगा वह? विवादित पोस्ट भी नहीं चाहिये उसे, किसी भी प्रकार के विवाद से भला क्या लेना देना है उसे? पोस्ट पढ़कर जानकारी चाहता है वह।

गूगल जैसी कंपनियाँ भी चाहती हैं कि इंटरनेट में हिन्दी में अच्छे कंटेंट आयें। अब गूगल बाबा भी भिड़ गये हैं इंटरनेट पर अच्छे हिन्दी कंटेंट लाने के लिये। यही कारण है कि अब Google और LiveHindustan।com ने मिलकर आयोजित किया है 'है बातों में दम?' प्रतियोगिता! और अच्छे लेखों के लिये अनेक पुरस्कार भी रखे गये हैं। इस प्रतियोगिता में वे ही लेख शामिल हो पायेंगे जो जानकारीयुक्त होंगे, जिसे पढ़ने के लिये पाठकों की भीड़ इकट्ठी होगी।

गूगल और अन्य कंपनियाँ क्यों चाहती हैं इंटरनेट पर हिन्दी में अच्छ कंटेंट?

क्योंकि ये कंपनियाँ संसार के अन्य देशों की तरह भारत में भी अपने व्यवसाय का विस्तार करना चाहती हैं। उनके व्यापार चलते हैं पाठकों की भीड़ से और पाठकों की भीड़ इकट्ठा करते हैं अच्छे कंटेंट।

हमें यह स्मरण रखना होगा कि गूगल और अन्य कंपनियों के इस प्रयास से यदि हिन्दी व्यावसायिक हो जाती है तो इन कंपनियों के व्यवसाय बढ़ने के साथ ही साथ हम ब्लोगरों की आमदनी के अवसर भी अवश्य ही बढ़ेंगे।

चलते-चलते

एक सिंधी व्यापारी सुबह दुकान जाता था तो रात को ही वापस घर लौटता था। एक बार किसी अति आवश्यक कार्य से बीच में ही उसे घर आना पड़ा तो उसने अपनी पत्नी को पड़ोसी के साथ संदिग्धावस्था में देख लिया। क्रोध में आकर उसने रिवाल्व्हर निकाल लिया किन्तु इसी बीच पड़ोसी भाग कर अपने घर पहुँच गया। व्यापारी भी उसके पीछे पीछे उसके घर में घुस गया।

कुछ देर बाद व्यापारी वापस अपने घर आया तो डरी हुई उसकी पत्नी ने पूछा, "मार डाला क्या उसे?"

"नहीं, अपना रिवाल्व्हर बेच आया उसके पास भारी मुनाफा लेकर!"

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यदि यह बता दोगे कि मेरी थैली में क्या है तो मैं पुरस्कार के रूप में थैले के अंडों में से दो अंडे दूँगा और यदि बता दोगे कि थैली में कितने अंडे हैं तो मैं थैली के दसों अंडे पुरस्कार के रूप में दे दूँगा।

Friday, December 11, 2009

बड़े शौक से खाते हो करी या तरी ... जानते हो क्या है इसकी हिस्टरी?

करी शब्द तमिल के कैकारी, जिसका अर्थ होता है विभिन्न मसालों के साथ पकाई गई सब्जी, शब्द से बना है। ब्रिटिश शासनकाल में कैकारी अंग्रेजों को इतना पसंद आया कि उन्होंने उसे काट-छाँट कर छोटा कर दिया और करी बना दिया। आज तो यूरोपियन देशों में करी इंडियन डिशेस का पर्याय बन गया है।

भारतीय ग्रेव्ही, जिसे कि अक्सर करी और तरी भी कहा जाता है, का अपना अलग ही इतिहास है। जी हाँ, आपको जानकर आश्‍चर्य होगा कि भारतीय करी का इतिहास 5000 वर्ष पुराना है। प्राचीन काल में, जब भारत आने के लिये केवल खैबर-दर्रा ही एकमात्र मार्ग था क्योंकि उन दिनों समुद्री मार्ग की खोज भी नहीं हुई थी। उन दिनों में भी यहाँ आने वाले विदेशी व्यापारियों को भारतीय भोजन इतना अधिक पसंद था कि वे इसे पकाने की विधि सीख कर जाया करते थे और विश्वप्रसिद्ध भारत के मोतियों, ढाका के मलमल आदि के साथ ही साथ विश्‍वप्रसिद्ध गरम मसाला खरीद कर अपने साथ ले जाना कभी भी नहीं भूलते थे।

मोतियों, मलमल, मसाले आदि के व्यापार ने भारत को एक ऐसा गड्ढा बना कर रख दिया था जिसमें संसार भर का धन कर जमा होते जाता था पर उसके उस गड्ढे से निकल जाने का कोई रास्ता नहीं था। पर बाद में मुगल आक्रान्ताओं ने इस देश को ऐसा लूटा और अंग्रेज रूपी जोक ने इस देश का खून ऐसा चूसा कि धन सम्पत्ति का वह गड्ढा पूरी तरह से खाली हो गया।

अस्तु, करी की बात चली है तो थोड़ी सी बात भारतीय भोजन की भी कर लें!

भारतीय खाना....

याने कि स्वाद और सुगंध का मधुर संगम!

पूरन पूरी हो या दाल बाटी, तंदूरी रोटी हो या शाही पुलाव, पंजाबी खाना हो या मारवाड़ी खाना, जिक्र चाहे जिस किसी का भी हो रहा हो, केवल नाम सुनने से ही भूख जाग उठती है।

भारतीय भोजन की अपनी एक विशिष्टता है और इसी कारण से आज संसार के सभी बड़े देशों में भारतीय भोजनालय पाये जाते हैं जो कि अत्यंत लोकप्रिय हैं। विदेशों में प्रायः सप्ताहांत के अवकाशों में भोजन के लिये भारतीय भोजनालयों में ही जाना अधिक पसंद करते हैं।


स्वादिष्ट खाना बनाना कोई हँसी खेल नहीं है। इसीलिये भारतीय संस्कृति में इसे पाक कला कहा गया है अर्थात् खाना बनाना एक कला है। और फिर भारतीय भोजन तो विभिन्न प्रकार की पाक कलाओं का संगम ही है! इसमें पंजाबी खाना, मारवाड़ी खाना, दक्षिण भारतीय खाना, शाकाहारी खाना, मांसाहारी खाना आदि सभी सम्मिलित हैं।

भारतीय भोजन की सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि यदि पुलाव, बिरयानी, मटर पुलाव, वेजीटेरियन पुलाव, दाल, दाल फ्राई, दाल मखणी, चपाती, रोटी, तंदूरी रोटी, पराठा, पूरी, हलुआ, सब्जी, हरी सब्जी, साग, सरसों का साग, तंदूरी चिकन न भी मिले तो भी आपको आम का अचार या नीबू का अचार या फिर टमाटर की चटनी से भी भरपूर स्वाद प्राप्त होता है।




चलते-चलते

यजमान प्रेमपूर्वक खिला रहा था पण्डित जी को और पण्डित जी सन्तुष्टिपूर्वक खा रहे थे। देसी घी से बने मोतीचूर के लड्डुओं ने पण्डित जी के मन को इतना मोहा कि वे लड्डू ही लड्डू खाने लगे। इतना अधिक खा लिया कि अब उनसे उठते भी नहीं बन रहा था।

उनकी इस हालत से चिन्तित यजमान ने कहा, "कोई चूरन वगैरह लाऊँ क्या पण्डित जी?"

पण्डित जी बोले, "यजमान, यदि पेट में चूरन खाने के लिये जगह बची होती तो एक लड्डू और न खा लिया होता!"