Saturday, March 26, 2011

धर्म निरपेक्ष!...अर्थात् जिसे धर्म की अपेक्षा ही न हो

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

मानते हैं कि-
हम धर्म निरपेक्ष देश में रहते हैं
और हर तरह की ज्यादती-
हम लोग ही तो सहते हैं।

धर्म निरपेक्ष!
अर्थात् जिसे धर्म की अपेक्षा ही न हो
याने कि पूरा पूरा अधर्मी
जिन्हें रौंद डालें विधर्मी।

क्या संसद ने ऐसा कोई कानून बनाया है-
कि हम वेद, शास्त्र, उपनिषद्, रामायण-
पढ़ ही नहीं सकते-
फिर हम ऐसा क्यों नहीं करते
कौन हमें रोकता है?
कौन हमारी धार्मिकता को
गहन अन्धकार में झोंकता है?
कोई हृदय पर हाथ रख कर कहे-
कि हम अपने धर्म ग्रंथों को नियमित पढ़ते हैं!
बारम्बार उनका पुनश्चरण करते हैं।
यदि हाँ, तो भारत आज भी-
धर्म निरपेक्ष नहीं धर्म प्राण राष्ट्र है-
और यदि नहीं, तो
निश्चित है कि यह संस्कृति-संस्कार विहीन राष्ट्र है।
हम मर चुके हैं और हमारा जीना,
केवल भीषण त्रास और उपहास है।

कौन रोकता है हमें-
नित्य स्वाध्याय करने से-
और सद् ग्रंथों को छोड़ स्वयं के साथ
घोर अन्याय करने से।
पर हमारा मन ही मर गया है-
पश्चिमी चकाचौंध से भर गया है।
हम एक नई संस्कृति उभार रहे हैं-
ब्राह्म-मुहूर्त में कुत्ते के साथ भ्रमण कर-
श्वान संस्कृति में जीवन को ढाल रहे हैं।
और चार्वाक को भी धिक्कार रहे हैं!
हमारी आत्मा गहरी नींद ले रही है-
हमारी मूर्खता यही सन्देश दे रही है-
कि हमें कोई नहीं रोकता-
हम पतन की आग में भस्म हो रहे हैं,
हमारे सिवाय-
उस आग में हमें और कोई नहीं झोंकता।

हम सब कुछ हैं पर भारतीय नहीं-
हममें संस्कार ही नहीं इसलिये-
वह हमें नहीं टोकता-
पर हमें संभलना चाहिये-
अपने धर्म ग्रंथों को नियमित पढ़ना ही चाहिये,
क्योंकि ऐसा करने से हमें,
कोई नहीं रोकता।

(रचना तिथिः शनिवार 09-04-1981)

Friday, March 25, 2011

तू ऐसा कुछ लिख ही नहीं सकता जो लाखों-करोड़ों को नहीं तो कम से कम हजार लोगों को आकर्षित कर सके

गूगल ने ब्लोगर के डैशबोर्ड पर "आँकड़े" के रूप में एक अच्छी सुविधा हमें प्रदान की है। यह जानने के लिए कि मेरे ब्लोग में कितने लोग आते हैं, मैं प्रायः इस सुविधा का उपयोग करता हूँ किन्तु अपने ब्लोग के ट्रैफिक जानकर मुझे हमेशा असन्तोष ही होता है क्योंकि मेरे ब्लोग में आने वालों की संख्या पिछले अनेक माह से एक सौ से भी कम ही नजर आती है।

ट्रैफिक माह के अनुसारः



ट्रैफिक हर समय के अनुसारः

सोचने लगता हूँ कि आखिर मेरे ब्लोग को पाठक क्यों नहीं मिलते? और इस प्रश्न के उत्तर में मेरे भीतर से आवाज आती है "तू ऐसा कुछ लिख ही नहीं सकता जो लाखों-करोड़ों को नहीं तो कम से कम हजार लोगों को आकर्षित कर सके।"

Thursday, March 24, 2011

पिछले कई सालों से रेजगारी का चलन बंद

देश के अन्य स्थानों के विषय में तो मैं नहीं कह सकता किन्तु छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पिछले कई सालों से 1, 2, 5, 10, 25 और 50 पैसे वाले सिक्कों का चलन बंद हो चुका है। आठ-दस साल की उम्र वाले रायपुर के बच्चे जानते तक नहीं कि चवन्नी, अठन्नी किस चिड़िया का नाम है, 1, 2, 5 और 10 पैसे की तो बात ही छोड़ दीजिए।


यदि आप किसी दुकानदार से अमूल का दूध पैकेट, जिसका MRP रु.13.50 है, खरीदने जाएँगे तो वह दुकानदार आपको दूध पैकेट रु.13.50 में न देकर रु.14.00 देगा याने कि वह आपसे रु.0.50 जबरन वसूल कर लेगा। यदि आप उससे इस विषय में कुछ भी कहेंगे तो वह या तो आपको साफ-साफ कहेगा कि दूध रु.14.00 में ही मिलेगा, लेना है तो लो नहीं तो मत लो, या फिर आपको टॉफी, माचिस जैसी कोई रु.0.50 मूल्य की वस्तु, जिसकी आपको बिल्कुल ही आवश्यकता नहीं है, थमा देगा। जरा सोचिए कि यदि वह दुकानदार दिन भर में 1000 पैकेट दूध रु.13.50 के बदले रु.14.00 में बेचता है तो उसे रु.500.00 मुफ्त में मिल जाते हैं, दूसरे शब्दों में वह लोगों की गाढ़ी मेहनत की कमाई से रु.500.00 लूट लेता है। यह तो सिर्फ दूध पैकेट का उदाहरण है, रोजमर्रा की बहुत सारी वस्तुएँ हैं जिनकी कीमत रुपयों के साथ पैसों में भी है और उन वस्तुओं के लिए उपभोक्ताओं को हमेशा अधिक कीमत चुकानी पड़ती है। बहस झंझट से हर आदमी बचना चाहता है इसलिये अधिकतर लोग खुदरा पैसों की चिन्ता नहीं करते और दुकानदार को वो खुदरा पैसे मुफ्त में मिल जाते हैं। बहस झंझट से हर आदमी बचना चाहता है इसलिये अधिकतर लोग खुदरा पैसों की चिन्ता नहीं करते और दुकानदार को वो खुदरा पैसे मुफ्त में मिल जाते हैं।

सन् 2004 में मैं परिवार के साथ पचमढ़ी भ्रमण के लिये गया था तो उस समय महाराष्ट्र में मुझे खरीदी के समय वापसी में चवन्नी, अठन्नी आदि खुदरा सिक्के मिले थे। आज भी वे सिक्के मेरे पास बेकार पड़े हैं क्योंकि वे छत्तीसगढ़ में नहीं चलते। अब उसे यदि चलाना है तो मुझे छत्तीसगढ़ से बाहर जाना होगा।

आश्चर्य की बात तो यह है कि यह लूट आज तक न तो शासन प्रशासन को दिखाई पड़ी और न ही कभी मीडिया ने इस पर आवाज उठाई।

और अब तो एक रुपये तथा दो रुपयों के सिक्के भी बाजार से गायब होते जा रहे हैं और उनके बदले में टॉफी जैसी कोई अवांछित वस्तु उपभोक्ताओं के हाथ में जबरन थमा दी जाती हैं।

Wednesday, March 23, 2011

अमर शहीद भगत सिंह

आज ही के दिन अर्थात् 23 मार्च 1931 को अमर शहीद भगत सिंह को फाँसी दी गई थी।

ऐसा कौन भारतीय होगा जिसने अमर शहीद भगत सिंह (Shaheed Bhagat Singh) का नाम न सुना होगा। वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अत्यन्त प्रतापी एवं प्रभावशाली क्रान्तिकारी थे। भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर सन् 1907 को पंजाब के लायलपुर जिले में जाट परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह संधू तथा माता का नाम विद्यावती था। बचपन से ही भगत सिंह को क्रान्ति से कितना लगाव था इस बात का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि किशोरावस्था में ही उन्होंने यूरोपियन क्रान्तिकारी आन्दोलन (European revolutionary movements) का गहन अध्ययन कर लिया था। वे अनेक क्रान्तिकारी संगठनों से जुड़े रहे थे।

भगत सिंह के पितामह अर्जुन सिंह स्वामी दयानन्द सरस्वती के हिन्दू सुधारवादी संस्था आर्य समाज के अनुयायी थे। उनके चाचा अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह के साथ ही साथ उनके पिता भी, करतार सिंह गरेवाल तथा हर दयाल जैसे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों की पार्टी, गदर पार्टी के सदस्य थे। अजीत सिंह 1925 की काकोरी ट्रेन डकैती के लंबित मामले में फँसे होने के कारण फारस भागने के लिए विवश हुए जबकि स्वर्ण सिंह को 19 दिसम्बर 1927 को फांसी दी गई।

भगत सिंह के उम्र के अन्य बच्चों की तरह से, भगत सिंह का दाखिला लाहौर के खालसा स्कूल में नहीं नहीं करवाया गया क्योंकि उनके दादा को उस स्कूल के पदाधिकारियों की अग्रेज भक्ति स्वीकार नहीं थी, बल्कि उनकी शिक्षा-दीक्षा दयानन्द एंग्लो वैदिक हाई स्कूल में सम्पन्न हुई। 13 वर्ष की उम्र में भगत सिंह गांधी जी के अनुयायी बनकर उनके असहयोग आन्दोलन में शामिल हो गए तथा अपनी स्कूल की किताबों तथा ब्रिटिश आयतित वस्त्रों को खुले आम जलाकर अपना असहयोग प्रदर्शित किया। किन्तु चौरी चौरा के ग्रामीणों के द्वारा पोलिसवालों की हत्या की वजह से गांधी जी के द्वारा आन्दोलन वापस ले लेने के कारण भगत सिंह गांधी जी की अहिंसा वाली नीति से असहमत तथा असंतुष्ट हो गए तथा सशस्त्र क्रान्ति में लिप्त हो गए।

भगत सिंह अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि तथा अध्ययनशील विद्यार्थी थे। सन् 1923 में पंजाब हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा आयोजित निबन्ध प्रतियोगिता जीत कर ख्याति प्राप्त की तथा सम्मेलन के सचिव प्रोफेसर भीम सेन विद्यालंकार को प्रभावित किया। हिन्दी तथा पंजाबी काव्यों में उनकी अत्यतधिक रुचि रही थी। तरुणावस्था में उन्होंने लाहौर के नेशनल कालेज में दाखिला लिया किन्तु, घर के लोगों द्वारा अल्प वय में उनके विवाह की योजना के कारण, वे घर छोड़ कर भाग गए तथा नौजवान भारत सभा ("Youth Society of India") के सदस्य बन गए। बाद में उन्होंने प्रोफेसर विद्यालंकार की प्रेरणा से हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोशिएसन, जिसके रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आजाद और अशफ़ाक उल्ला जैसे क्रान्तिकारी नेता थे, की सदस्यता ग्रहण कर ली। सन् 1926 के अक्टूबर माह में दशहरा के दिन लाहौर में बम विस्फोट हुआ और उसके आरोप में भगत सिंह गिरफ्तार कर लिए गए किन्तु गिरफ्तारी पाँच हफ्ते बाद रु.60,000 की जमानत पर जेल से छूट गए।

भगत सिंह ने शिवराम राजगुरु, जय गोपाल और सुखदेव थापर आदि क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर लाला लाजपत राय के हत्यारे पुलिस अफसर स्कॉट की हत्या की योजना बनाई किन्तु गलतफहमी की वजह से स्कॉट के बदले सॉन्डर्स नामक अन्य पुलिस अधिकारी मारा गया। भारतीयों को जागृत करने के उद्देश्य से भगत सिंह ने दत्त के साथ मिलकर 8 अप्रैल 1929 को असेम्बली में "इंकलाब जिन्दाबाद" का नारा लगाते हुए बम फेंका। चूँकि बम फेंकने का उद्देश्य केवल भारतीयों को जागृत करना था, उस बम से किसी प्रकार की जानोमाल की हानि नहीं हुई किन्तु अपने उद्देश्य में सफलता पाने के लिए भगत सिंह ने स्वयं को गिरफ्तार करवा दिया।

23 मार्च 1931 को अंग्रेज सरकार द्वारा अन्यायपूर्वक भगत सिंह को फाँसी के तख्ते पर लटका दिया गया। कानून उन्हें 24 मार्च 1931 को फाँसी की सजा दी जानी थी किन्तु वह सजा एक दिन पहले ही दे दी गई क्योंकि लोगों का ऐसा मानना है कि अगले दिन तक उनकी फाँसी की सजा रद्द हो जाने वाली थी। यह भी कहा जाता है कि गांधी जी के प्रयास से भगत सिंह को फाँसी की सजा से बचाया जा सकता था जिसके लिए गांधी जी पर चौतरफा दबाव भी था। इस सन्दर्भ में गांधी जी का कहना था कि उन्होंने भगत सिंह को बचाने के लिए बहुत प्रयास किया किन्तु वे अपने प्रयास में सफल नहीं हो पाए जबकि तत्कालीन बहुत सारे लोगों का मानना था कि गांधी जी भगत सिंह की क्रान्तिकारी गतिविधियों से अत्यधिक क्षुब्ध थे इसलिए उन्होंने उन्हें बचाने के लिए पूरी तरह से प्रयास नहीं किया। सच क्या है यह आज भी अंधेरे के गर्त में ही है।

Tuesday, March 22, 2011

भक्तिरस के दोहे

लंका में गरजे रावना, अवधपुरी भगवान।
सात समुंदर बीच में, गरज रहे हनुमान॥

लंका में शंका भयो, राम टिकोना दीन।
खबरदार रे रावना, हनुमत बीड़ा लीन॥

राम नाम अइसन हवै, जस कदली के रंग।
धोये से वो ना धुलै, जाय जीव के संग॥

राम कटारी कृष्ण बाण, गुर गोविंद तलवार
ये तीनों हिरदय बसे, कबहुँ ना होवे हार

चंदा तजे ना चांदनी, सूरज तजे ना धाम।
बादल तजे ना श्यामता, भक्त तजे ना राम॥

योगी में शंकर बड़े और भोगी में भगवान।
दानी में हरिश्चंद्र बड़े, बलि में बड़े हनुमान॥

मोर मुकुट कटि काछनी, पीताम्बर उरमाल।
वो मानिक मो मन बसो, सदा बिहारी लाल॥

राधे जू के बदन में, बसत चालीसा चोर।
दस हंसा दस हंसिनी, दस चातक दस मोर॥

वृंदावन के वृक्ष को, मर्म ना जाने कोय।
डाल पात फल फूल में, श्री राधे राधे होय॥

राधे जी के बदन में, बेंदी अति छवि देत।
मानो फूलि केतकी, भंवर वासना लेत॥

आवो प्यारे मोहना, पलक चाप धरि लेहु।
मैं ना देखू किसी और को, तोहि ना देखन देहु॥

राधे प्यारी लाडिली, मेरी ओर तू देख।
मैं तोहि राखूँ नैन में, जिमि काजल की रेख॥

भजन करो भोजन करो, गावो ताल तरंग।
ये मन मेरो लागे रहे, पारवती शिव संग॥