Thursday, November 22, 2007

हाय राम अब क्या होगा!

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

जनता बड़ी अनाड़ी,
पहन रखी है साड़ी,
हाय राम अब क्या होगा!

जनता शासक चुनती है,
चुन कर मूरख बनती है,
हाय राम अब क्या होगा!

जनता मंहगाई सहती है,
नव-वधू-सी चुप रहती है,
हाय राम अब क्या होगा!

जनता जनता को छलती है,
छोटी मछली को बड़ी निगलती है,
हाय राम अब क्या होगा!

नेता कुर्सी पकड़ते हैं,
अफसर खूब अकड़ते हैं,
हाय राम अब क्या होगा!

मूरख आगे बढ़ते हैं,
सज्जन पीछे हटते हैं,
हाय राम अब क्या होगा!

चमचे आँख दिखाते हैं,
अपनी धौंस जमाते हैं,
हाय राम अब क्या होगा!

सत्य छिपा जाता है,
झूठ उमड़ता आता है,
फिर भी हम कहते हैँ,
सत्यमेव जयते!

हाय राम अब क्या होगा!

Wednesday, November 21, 2007

अगर कहीं मैं तोता होता

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

अगर कहीं मैं तोता होता
बेशरमी पर कभी न रोता।
कविता कानन के पुष्पों को
कुतर चोंच को पैनी करता,
काव्य-पींजड़े से उड़ जाता
छन्द अलंकारों को चरता;
झटपट अटपट गटपट कविता रचता होता।
अगर कहीं मैं तोता होता।

आँखें फेर लिया करता मैं,
रामायण के वातायन से
टें टें टें टें रटन लगाता
काम न रखता कुछ गायन से,
सीताराम न रटता, राधेश्याम न कहता, नास्तिक होता।
अगर कहीं मैं तोता होता।

टुनक काटता मैं संस्कृति को
भाषा की खिचड़ी खाता,
दर्पण में प्रतिबिम्ब देख कर
गिटपिट गिटपिट शोर मचाता।
हिन्दी की चिन्दी कर देता अंग्रेजी में जगता सोता।

अगर कहीं मैं तोता होता।
चोंच चलाता सबके ऊपर
भर घमण्ड में पंख फुलाता,
आँखें फेर लिया करता मैं
निन्दा सुनता और सुनाता।
आडम्बर में डूबा रहता, बीज कलह कि निशिदिन बोता।
अगर कहीं मैं तोता होता।