Saturday, September 29, 2007

धान के देश में - 21

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 21 -

परसादी का साथ होने से भोला के मन में एक नई लालसा जागृत हुई। वह भी टाटानगर जाने के लिये लालायित हो उठा। एक दिन घर मे जब श्यामवती अकेली थीं तब भोला ने उससे कहा, "श्यामा, चलो हम दोनों कालीमाटी (टाटानगर) चलें।"
सुनकर श्यामवती चौंक गई! उसे ऐसा लगा मानो उसके हृदय मे स्थित महेन्द्र का ध्यान कांप गया है! धीरज रख कर धीरे से पूछा, "क्या यहाँ अच्छा नहीं है जो कालीमाटी ‌आवोगे।"
"है क्यों नहीं! लेकिन कमाई वहां अधिक होगी। तुमने परसादी की स्त्री को देखा है न? कैसे सिर से पैर तक गहनों मे लदी रहती है। वहां चल तो सही, तुझे भी गहनों से लाद दूँगा।"
श्यामवती पर गहनों के प्रलोभन का कोई असर नही पड़ा। उसने कहा, "मुझे गहने नहीं चाहिये।" "मेरे गहने तो तुम हो।" ऐसा कहते ही उसके हृदय में तीखी कसक उठी उसे साफ साफ लगा कि वह अपने आपको छल रही है। क्या महेन्द्र के लिये उसके हृदय मे सिंहासन नहीं है जिसमें उसको सौम्य मूर्ति सदैव विराजमान नहीं रहती!
भोला को श्यामा की बात जँची नहीं। उसने कुछ आवेश से कहा, "देख श्यामा मैं तो कालीमाटी जरुर जाऊंगा। मैं चाहता हूँ कि हम दोनों साथ चलें तो अच्छा हो पर तुम नहीं जाना चाहती तो तुम जानो।"
श्यामवती को भोला का स्वभाव अच्छी तरह मालूम था। उसे एक बार जो धुन सवार हो जाती तो वह उसे पूरी करके ही छोड़ता था। भोला की बात सा उसका हृदय काँप उठा। उसके लिये एक और कुँआ था तो दूसरी ओर खाई। यदि वह भोला के साथ नहीं जाती तो वह अवश्य ही उसे हमेशा के लिये छोड़ कर चला जावेगा और यदि जाती है तो उसके आत्मीय और जन्म भूमि छूट जाती है। और महेन्द्र! वह भी तो! कुछ देर तक गम्भीरता से सोचने के बाद वह बोली, "मैं साथ चलूंगी क्यों नही। तुम जहाँ कहोगे वहाँ जाऊंगी। कब तक चलोगे?"
"कब तक क्या? अच्छे काम मे देर क्यों! मैं तो आज ही भिनसारे रवाना होने के लिये सोच रहा हूँ" भोला के उत्तर में पहाड़ की दृढ़ता थी।
"तो अपने पिताजी को भी बता दो। उनका आशीर्वाद ले लें। फिर आज ही चलने में मुझे कोई इजर नहीं" कहने को तो श्यामवती कह गई पर उसके हृदय में तूफान मचा हुआ था आज ही प्रस्थान करने से तो वह अपनी माता और भाई से मिल ही नही सकेगी क्या एक बार ही महेन्द्र का दर्शन हो सकेगा उसे!
"पिताजी से कुछ नही कहना है" भोला ने रुखा सा जवाब दिया। सुनकर श्यामवती को दुख हुआ। वह उदासीनता से बोली, "जैसा चाहो वैसा करो। मुझे क्या?" भोला इतना तो अवश्य जानता था कि अपने पिता दुर्गाप्रसाद को अपना इरादा बतलावेगा तो वह उसे रोकने के लिये भरसक प्रयत्न करेगा। इसीलिये उसने चुपचाप भाग जाने का निश्चय किया और उसी रात श्यामवती के साथ टाटानगर के लिये रवाना हो गया।
दूसरे दिन दुर्गाप्रसाद ने अब बेटे और बहू को लापता पाया तब बहुत व्याकुल हुआ। पहले उसने किसी को उनके गुम हो जाने की सूचना नही दी। आप ही आप उन्हें गांव मे ढ़ूढ़ता रहा पर उनके न मिलने पर घर आकर चौखट पर बैठ दिर पकड़ कर बड़ी देर तक रोता रहा। अन्त में उसने निश्चय किया कि खुड़मुड़ी जाकर पता लगा आवे। कहीं वहीं तो दोनों न चले गये हों। ऐसा सोच वह अपने कमरे में गया। अचानक उसकी नजर एक मुड़े हुए कागज पर पड़ी जो उसकी पगड़ी के एक छोर में ऐसा बाँधा गया था कि पगड़ी उठाने के पहले उस पर नजर पड़े बिना रह ही नही सकती थी। उसने गाँठ खोलकर मुड़े हुए कागज की तह खोली। उसमें कुछ लिखा अवश्य था पर उसके लिये काले अक्षर भैंस बराबर थे। वह पढ़ ही कैसे सकता था। अचानक उसे पण्डित शिवसहाय की याद आई कि उनसे इस पूर्जे को क्यों न पढ़वा ले। वह बेतहाशा दौड़ता हुआ पण्डित शिवसहाय के घर गया पर वहां पता लगा कि वे एक किसान के घर सत्यनारायण की कथा पढ़ने गये हैं। उससे रुका नहीं गया। वह सिर के बल दौड़ता हुआ उस किसान के घर गया तो पाया कि सत्यनारायण की कथा चल रही है। वह वहाँ बैठ गया। शिवसहाय कथा सुनाने मे व्यस्त थे पर दुर्गाप्रसाद के कानों में उनके शब्द वैसे ही टकरा कर सुनाई दे रहे थे जैसे बादलों की गड़गड़ाहट सुन पड़ती है! चित्त अशान्त होने के कारण उसके लिये कथा सुनना न सुनना बराबर था! मन मे आंधी उठ रही थी जिसके झकोरे मे उसके मानसिक कान यही सुन रहे थे कि "मेरा भोला कहाँ होगा? बहू की क्या दशा होगी?"
कथा तो अधिक से अधिक आधे घण्टे मे समाप्त हो गई पर दुर्गाप्रसाद को ऐसा लगा मानो शताब्दी बीत गई हो! पूजा करा कर उठते ही उसने शिवसहाय को वह कागज दिया और पढ़कर सुनाने का अनुरोध किया। उसे पढ़ लेने के बाद शिवसहाय बोले "अरे! दुर्गा, यह तो तेरी बहू की चिट्ठी है। हम लोग कालीमाटी जा रहे हैं। आप फिकर मत करना। उन्होने मुझे आपको बताने से रोक दिया था। मैंने उनसे छिपाकर यह चिट्ठी लिखी है श्यामवती।
पण्डित जी ने पत्र जोर से पढ़ा था। सभी को मालूम हो गया कि भोला अब गांव मे नहीं है। जिन लोगों को उसने बहुत सताया था उन लोगो ने मन ही मन कहा, "चलो अच्छा हुआ। गांव से साढ़े साती दूर हुआ।" ऐसे लोग भी थे जिन्होंने दुर्गाप्रसाद के प्रति हर प्रकार से सहानुभूति भी दिखाई। वज्रपात के समान इस सूचना को वज्र का हृदय बनाकर दुर्गाप्रसाद ने सुन लिया पर आकर दुख से कातर हो पछाड़ खाकर गिर पड़ा और घण्टों रोता रहा।
दुर्गाप्रसाद ने अपना प्रबोध कर लिया। उसने सोचा जब उसका भाग्य ही खोटा है तो वह कर ही क्या सकता है! उदास रहकर खेती किसानों के कामों मे लग गया पर अब उसे जीवन मे केवल दूर तक फैला हुआ मरुस्थल ही दिखाई देता था।
(क्रमशः)

Friday, September 28, 2007

धान के देश में - 20

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)
- 20 -
नागपुर के महाराज बाग में काले पत्थर के बने हुये हाथी से कुछ दूर हट कर हरी दूब के मैदान पर बैठे दो व्यक्ति बात-चीत में अपने आपको भूले हुये थे। कालेज की कुछ लड़कियाँ बेंचों पर बैठ कर रंग-बिरंगी साड़ियों में सिमटी हुईं, जूड़ों में फूलों के हार लगाये बातों मे व्यस्त हैं। कालेज के विद्यार्थियों और दूसरे दर्शकों की भीड़ से महाराज बाग में बड़ी चहल-पहल रहती ही है।
बातें करने वाले दोनों व्यक्ति उठे और धीरे धीरे चलने लगे। उनमें से एक के मुख पर उदासी की रेखा खिंची हुई थी। दोनों महराज बाग की सीमा से लगे हुये, कृषि महविद्यालय में चले गये। वे दोनों और कोई नहीं, महेन्द्र और सदाराम थे। दोनों दीनदयाल की इच्छा से यहाँ कृषि-शास्त्र का अध्ययन कर रहे थे। उन दिनों रायपुर में कोई कॉलेज नहीं था। इसी लिये उन दोनों को नागपुर में पढ़ना पड़ा।
महेन्द्र और सदाराम यहाँ अपने समय का अधिक से अधिक सदुपयोग करते थे। नागपुर वे लोग पहले-पहल ही आये थे। अतः कुछ दिनों तक छुट्टी के दिन घूम कर नापुर के दर्शनीय स्थलों को देखना और नगर तथा नगर के जन-जीवन से परिचित होना उनके लिये अनिवार्य था।
उस दिन रविवार की छुट्टी थी। महेन्द्र और सदाराम घूमते हुये इतवारी बाजार की ओर चले गये। वहाँ की सँकरी गलियों में करोड़ों का व्यापर होते देख वे भौंचक्के से रह गये। एक बात जो विशेष रूप से उनके ध्यान में आई वह यह थी कि बाजार में अढ़िक संख्या में कुली, मजदूर और हमाल छत्तीसगढ़ के गाँवों से आये हुये थे। बोझ ढोने का काम भी छत्तीसगढ़ी की स्त्रियाँ कर रहीं थीं जो आपस में हँसती और भद्दे मजाक करती हुईं गिरोह बनाकर बैठी थीं। यह देखकर महेन्द्र और सदाराम के हृदय को ठेस लगी। उन लोगों ने छत्तीसगढ़ से आये हुये उन मजदूरों से मेल जोल बढ़ाने का निश्चय किया।
"कोन गाँव ले आये हस जी? (कौन से गाँव से आये हो जी?) महेन्द्र ने उनमें से एक से छत्तीसगढ़ी में पूछा।
अंग्रेजी वेश-भूषा से सुसज्जित कॉलेज के विद्यार्थी के मुँह से अपने देश की बोली सुनकर उस आदमी को इतना अचम्भा हुआ मानो वह स्वप्न देख रहा हो। पहले तो वह झिझक गया पर दुबारा पूछने पर बोला, "कुरुद से"। फिर तो थोड़ी देर की बातचीत में ही वह व्यक्ति उन दोनों से इतना घुल-मिल गया जैसे दूध और पानी मिल जाते हैं। लगभग पन्द्रह मिनट तक बात करने के बाद महेन्द्र ने कहा, "अरे! मैं तो तुम्हारा ना पूछना ही भूल गया।"
"मेरा नाम अधारी है।" वह व्यक्ति बोला।
"अधारी, तुम अपना गाँव छोड़कर यहाँ हमाली करने क्यों आ गये?" सदाराम ने प्रश्न किया।
"क्या कोई अपना गाँव यों ही छोड़ देता है। ऐसा कारण हो गया जो मुझे यहाँ आकर इस तरह से पेट पालना पड़ रहा है। कुरुद में मेरी थोड़ी-सी खेती थी। मैं उसीसे बड़ी कठिनाई से गुजर-बसर करता था। घर में लड़की ब्याह के योग्य हो गई थी। उसके ब्याह के लिये मैंने मालगुजार से जमीन गिरवी रख कर रुपये उधार लिये। तीन साल तक बराबर ब्याज देता रहा। मैं जानता हूँ कि मैं मूल से अधिक ब्याज दे चुका था पर आखिर में मालगुजार ने मुझ पर नालिश कर दी और डिगरी करा मेरा घर-द्वार, जमीन-जायदाद सब हड़प लिया और मुझे यहाँ आकर हमाली करने के लिये विवश होना पड़ा।" कहते कहते अधारी की आँखों से टप-टप आँसू टपकने लगे। मन ही मन उसे अपने गाँव के मालगुजार पर बड़ा क्रोध आया पर उसके इस विचार ने उस क्रोध का गला घोंट दिया कि मेरा तो भाग्य ही ऐसा है। महेन्द्र यह सब सुनकर गम्भीर हो गया। उसने अपने दादा दीनदयाल के हाथ से इस प्रकार का भयानक अत्याचार होते कभी नहीं देखा था। इस अवसर पर अपने दादा का बरबस स्मरण हो आने से महेन्द्र का हृदय आनन्द और गर्व से भर गया।
इसके बाद महेन्द्र और सदाराम अधारी के घर जाने लगे। उसका घर इतवारी बाजार से कुछ आगे रेलवे लाइन के किनारे था। वहाँ छत्तीसगढ़ से आये हुये मजदूरों और हमालों की छोटी सी बस्ती ही थी। वहाँ लगभग पचास-साठ छोटे-छोटे घर थे जहाँ बोली, रहन-सहन, रीति-रिवाज विशुद्ध रूप से छत्तीसगढ़ी देखकर दोनों को इतनी खुशी हुई मानो वे नागपुर में न होकर अपने क्षेत्र के ही किसी गँव में हों। कॉलेज के वातावरण में देखते थे कि विद्यार्थियों की कई टोलियाँ थीं। प्रत्येक टोली के विद्यार्थी अपनी ही धुन में मस्त रहते थे। ऐसा मालूम होता था कि एक कॉलेज न होकर विभिन्न क्षेत्रों की टुकड़ियाँ इकट्ठी हो गई हों। उनके इस रुख से महेन्द्र और सदाराम को वेदना होती थी पर इतवारी के एक कोने में बसी हुई अपने ही लोगों की इस छोटी सी बस्ती में उन्हें शान्ति मिलती थी।
उन दोनों ने देखा कि उस बस्ती के अनपढ़ लोगों को विशेषतः ईसाई मिशनरी के लोग गुमराह करते हैं। वे छोटे-छोटे बच्चों के मन में उनके धर्म के विरुद्ध जड़ें जमा रहे हैं। एक दिन महेन्द्र ने सदाराम से कहा कि उस बस्ती में इस अनुचित परिस्थिति को रोका जाय।
"पर किया क्या जा सकता है?" सदाराम ने गहरी श्वाँस छोड़ते हुये कहा।
"स्वधर्मे निर्धनं श्रेयः - यही हमारा लक्ष्य होगा।" महेन्द्र ने शान्ति से उत्तर दिया।
ठीक इसी समय तार-डाकिये ने आकर तार दिया जिसे पढ़कर दोनों घबरा गये और कॉलेज से छुट्टी लेकर रात को नौ बजे की गाड़ी से रायपुर के लिये रवाना हो गये।
(क्रमशः)

Thursday, September 27, 2007

धान के देश में - 19

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 19 -
भोला ने अपने नये जीवन में प्रवेश किया। श्यामवती का हृदय यद्यपि दुःखी था तो भी वह हमेशा भोला को प्रसन्न रखने की कोशिश करती थी। वह अपने ससुर दुर्गाप्रसाद का भी विशेष ध्यान रखती थी। भोला की उद्दण्डता प्रायः मिट-सी गई थी। अब न तो वह तालाब के किनारे 'ददरिया' गा कर औरतों से छेड़छाड़ करता था और न जुआ खेलने वाले साथियों से ही मिलता था। प्रायः घर में ही रहता और श्यामवती के साथ अपने जीवन को सुखी मानता।
भोला की आदतें सुधरती देख दुर्गाप्रसाद को सन्तोष होता था। राजवती के लिये उसके हृदय में बड़ी कृतज्ञता थी क्योंकि उसने अपने वचन का पालन कर उसके घर को सुखी बनाया था।
मनुष्य के स्वभाव की गति बड़ी ही न्यारी होती है। आदतों पर विजय पा कर उन पर राज्य करने से ही मनुष्य देवता बन जाता है पर आदतें भी इतनी प्रबल होती हैं कि उन पर विजय पाना हँसी-खेल नहीं है। भोला को नया जीवन कुछ महीने तो बड़ा ही अच्छा लगा पर उसके बाद उसकी पुरानी आदतें उभरने के लिये छटपटाने लगीं। उसे ऐसा लगता था कि स्वच्छन्द रहने वाला जंगली पक्षी पिंजड़े में बन्द कर दिया गया है। अब वर्तमान जीवन नीरस और काँटे-सा लगने लगा। जो श्यामवती उसके लिये आकर्षण का केन्द्र थी और विवाह के बाद के प्रारम्भिक दिनों में जिसके बिना वह क्षण भर भी नहीं रह सकता था वही अब कठोर बन्धन मालूम होने लगी। जब उसके जुआड़ी दोस्त उसे बुलाने आते थे तब वह कहला देता था कि वह घर में नहीं है और उनके चले जाने के बाद श्यामवती के साथ रंगरेलियों में खो जाता था। जब उन जुआड़ियों ने आना बन्द कर दिया तब भोला का हृदय उन लोगों से मिलने के लिये तड़पने लगा।
उस दिन वह गाँव से लगे हुये बगीचे के पास से जा रहा था। उसने देखा उसके पुराने जुआड़ी दोस्त जमे हुये हैं और दाँव पर दाँव लगाये जा रहे हैं। उसकी भी प्रबल इच्छा हुई कि वह उन लोगों के साथ बैठ कर केवल एक दाँव लगा ले पर उस समूह तक जाने का उसका साहस नहीं हो पा रहा था। उसने उन्हीं दोस्तों को फटकार दिया था। अब कैसे उन्हें मुँह दिखाये। पर लगी लत बहुत बुरी होती है। उसमें आत्म-सम्मान की रक्षा करना कठिन होता है। भोला दो-चार कदम अपने उन दोस्तों की ओर विवश और मंत्र-मुग्ध-सा हो कर बढ़ा पर ठिठक गया। उस गिरोह में सभी खेल में व्यस्त थे। किसी को किसी का ध्यान नहीं था। अचानक एक की नजर भोला पर पड़ गई और उसने पुकारा, "अरे भोला, आवो भाई आवो। आज कैसे भूल पड़े इधर। आवो, एक दाँव हो जाये।" भोला में अभी भी साहस नहीं था कि वह उन लोगों में सम्मिलित हो जाता। उसकी प्रबल इच्छा हुई कि वह वहाँ से बेतहाशा भाग जाये पर दूसरी प्रबल लालसा भी अँगड़ाई लेकर जाग उठी कि थोड़ी देर तक खेल ही क्यों न ले। इसमें हर्ज ही क्या है। वह इन्हीं दोनों इच्छाओं के बीच अचल खड़ा रहा।
"अरे आवो भी यार! क्या खड़े खड़े शरमा रहे हो। क्या तुमने कभी खेला नहीं है?" कह कर दूसरा दोस्त उठकर भोला के पास गया और प्रेम से उसका हाथ पकड़ कर उस समूह में ले आया। अब भोला की हिचक पूरी तरह से जाती रही। वह उस फड़ में बैठ गया और दाँव लगाने लगा। उसने उस गिरोह में एक नये आदमी को देखा जिसे पहले कभी नहीं देखा था। दोस्तों ने उसका परिचय दिया। उसका नाम परसादी था। परसादी साफ-सुथरे कपड़े पहने हुये था। कान में सोने की 'लुरकी' कहलाने वाली बालियाँ, गले में सोने का चेन और उँगलियों में सोने की अँगूठियाँ उसके सम्पन्नता को प्रदर्शित कर रहीं थीं। वह सभी लोगों से अलग-सा था। गाँव का होते हुये भी गाँव वालों से भिन्न था। उसका ध्यान जुये में अधिक नहीं था। ऐसा मालूम होता था कि वह केवल दूसरे साथियों का मन रखने के लिये ही अनमने मन से खेल रहा था। भोला को परसादी अच्छा आदमी लगा और बातों ही बातों में वह उससे घुल-मिल गया - दोनों दोस्त हो गये।
भोला परसादी के घर आने जाने लगा और परसादी भी उसके घर आता था। परसादी की स्त्री सिर से पाव तक गहनों से लदी थी। परसादी 'काली माटी' में काम करता था और कुछ दिनों की छुट्टी लेकर गाँव आया था। छत्तीसगढ़ में टाटानगर को 'काली माटी' कहते हैं। टाटा के लोहे के कारखाने में छत्तीसगढ़ के बहुत से लोग जा कर काम करते हैं। उन मजदूरों की वहाँ अलग बस्ती ही है। परसादी के कुटुम्ब में उसकी पत्नी और उसके सिवाय तीसरा कोई नहीं था। पति-पत्नी दोनों काम करते थे। आवश्यकता से अधिक आमदनी थी। खर्च कम था। परसादी को ऐसा कोई दुर्व्यसन नहीं लगा था जिससे उसके पैसे व्यर्थ ही खर्च होते। बचत को उन दोनों ने गहनों के रूप में शरीर पर लाद रखा था।
छुट्टी खत्म होने के पहले ही परसादी अपनी पत्नी के साथ टाटानगर वापस चला गया।
(क्रमशः)

Wednesday, September 26, 2007

धान के देश में - 18

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 18 -
बैसाख का महीना आया और श्यामवती के ब्याह की तैयारियाँ होने लगीं। सभी गाँव में थे। महेन्द्र बहुत ही दुःखी था। श्यामवती भी कछ कम विकल नहीं थी। दोनों मछली की भाँति तड़प रहे थे।
एक दिन महेन्द्र राजवती के घर गया। श्यामवती अकेली थी। वह बहत ही उदास थी। महेन्द्र खाट पर बैठ गया और बोला, "श्यामा, यह सब क्या हो गया। जीवन अब कैसे बीतेगा?" कहते कहते वह बच्चे जैसा रोने लगा। श्यामवती के आँसू भी बहने लगे। वह समझ ही नहीं पाती थी कि क्या करे, क्या न करे। उसे लग रहा था कि अंधकार की सेना चारों ओर से उस पर बड़े वेग और शक्ति से आक्रमण कर रही है। आँखें पोंछती हुई वह बोली, "महेन्द्र, मैं कर ही क्या सकती हूँ?"
श्यामवती की बात सुन कर महेन्द्र को लगा कि वह उसकी उपेक्षा कर रही है। उत्तेजित होकर कहने लगा, "क्या कर सकती हो! तुम चाहो तो सब कुछ किया जा सकता है।"
"क्या किया जा सकता है?" श्यामवती ने कौतूहल से पूछा।
"मैं दादा से और तुम्हारी माँ से साफ साफ कह दूँगा कि वे तुम्हें भोला के गले न बाँधे।" महेन्द्र उत्तेजना में बहते हुये बोला।
"कर सकते हो ऐसा?" श्यामवती ने शान्ति से पूछा।
"क्यों नहीं।"
श्यामवती सूखी हँसी हँस कर बोली, "कह तो दोगे पर इसका परिणाम भी सोचा है तुमने?" परिणाम की बात सुन कर महेन्द्र ठण्डा पड़ गया पर दूसरे ही क्षण बोला, "परिणाम यही होगा कि मैं दादा और माता जी को तुम्हारी शादी मेरे साथ कर देने के लिये राजी कर लूँगा।"
दुःख की गहराई में भी महेन्द्र की बात सुन कर श्यामवती को हँसी-सी आ रही थी पर हँसती देख कर महेन्द्र के हृदय पर गहरा आघात होगा ऐसा सोच कर वह गम्भीर ही रही और बोली, "कहना जितना सरल होता है करना उससे कई गुना कठिन और कभी-कभी असम्भव भी हो जाता है। माना कि माता जी और दादा जी राजी हो भी जावें तो हम दोनों के समाज के बारे में भी सोचा है तुमने?"
"उसकी चिन्ता मुझे नहीं है श्यामा।"
"यह भी ठीक है पर मेरी समझ से तो अभी वह समय नहीं आया है जिसकी तुम कल्पना कर रहे हो। समाज को छोड़ दो तो भी दादा को अपनी बातों में ले आना उन पर अत्याचार करना होगा। मानती हूँ वे उदार हैं। अकेले होने के कारण तुम पर उनका स्नेह भी सीमा रहित है। तो भी तुम्हारा विचार सुन कर ही उनको प्राण छूटने का सा दुःख होगा। अभी उनकी उदारता में इतनी शक्ति नहीं है कि वे दुनिया का सामना कर सकें। उनकी अपनी भी तो लालसायें होंगी। क्या तुम उनकी कामनाओं में आग लगा देना चाहते हो। फिर मुझे भी तो अपनी माता और उनके वचन की ओर देखना है। महेन्द्र, अभी हमारे समाज का बन्धन फाँसी बन कर राक्षसी हँसी हँसता है। मैं हृदय से तुम्हारी ही तो हूँ। क्या हम दोनों की आत्मायें दूर हैं - अलग हैं। हमारे सच्चे प्रेम को बलिदान की आवश्यकता है।" कहती हुई श्यामवती का धीरज टूट गया और वह सिसक सिसक कर रोने लगी।
श्यामवती ने अपने विद्यार्थी जीवन में अनेकों पुस्तकें अपने अवकाश के समय पढ़ ली थीं। इसी का परिणाम था कि उसका विवेक जाग उठा था। नहीं तो गाँव की लड़की में ये सब बातें कहाँ? श्यामवती की तर्कयुक्त बातों के सामने महेन्द्र के निरुत्तर हो जाना पड़ा। उसने श्यामा को चुप कराने की असफल कोशिश की पर श्यामवती बड़ी देर तक महेन्द्र के वक्ष पर सिर टिकाये रोती ही रही।
इसके बाद दूसरे दिन ही महेन्द्र रायपुर चला आया। उसमें शक्ति ही नहीं थी कि वह अपनी श्यामा को दूसरे की होती हुई देख कर सहन कर सके। महेन्द्र के इस व्यवहार से सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। पर सबने यही समझा कि कोई आवश्यक काम होगा इसीलिये वह श्यामवती के विवाह के समय भी चला गया। वास्तविक बात किसी को मालूम नहीं हुई। यहाँ तक कि सदा साथ रहने वाला सदाराम भी कुछ नहीं जान सका। केवल श्यामवती ही सब कुछ समझ रही थी। उसका हृदय तड़प रहा था।
निश्चित समय पर श्यामवती और भौला का ब्याह हो गया। वह भोला के साथ सिकोला भेज दी गई पर महेन्द्र के दर्शन उसे नहीं हुये। वह मन मसोस कर रह गई।
(क्रमशः)

Tuesday, September 25, 2007

धान के देश में - 17

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 17 -
कार्तिक पूर्णिमा के पहले चौदस की रात को छकड़ों में बैठ कर दीन दयाल को छोड़ सभी ने रायपुर के लिये प्रस्थान किया। आगे की गाड़ी में एक नौकर के साथ सुमित्रा और महेन्द्र थे। पीछे की गाड़ी में राजवती, श्यामवती और सदाराम थे। सदाराम गाड़ी हाँक रहा था। चाँदनी रात थी। दूर तक फैले हुये मैदान पर मानो चाँदी की चादर बिछा दी गई थी। इधर-उधर के इक्के-दुक्के पेड़ों के पत्तों पर चन्द्र-किरणें बिछल रही थीं। पीछे छूटने वाले और आगे आने वाले गाँवों के छोटे-छोटे घर दूर से ऐसे लगते थे मानो चाँदनी में पत्थर के टीले रखें हों। अपने-अपने छकड़े में बैठे हुये श्यामवती और महेन्द्र एक दूसरे के विषय में सोच रहे थे।
गाड़ियाँ सबेरे खारुन नदी के किनारे महादेव घाट पहुँचीं। चारों ओर तम्बू तने थे। दूकानें लगी थीं। चारों ओर चहल-पहल थी। घाट में स्नान करने वालों की अपार भीड़ थी। कमर तक जल में प्रवेश कर असंख्य व्यक्ति "हर हर महादेव" कह कर स्नान करे रहे थे। नदी-तट पर मेला लगा था। गाड़ी पर से महेन्द्र ने देखा कि मेले में इतने लोग एकत्र हैं जैसे किसी पीपल के वृक्ष में असंख्य पत्ते लगे हों।
नदी पार कर मेले में एक किनारे गाड़ियाँ खड़ी कर दी गईं। सब लोग स्नान करने चले गये। स्नान के बाद नदी किनारे स्थित अत्यन्त ही प्राचीन शिव मन्दिर में दर्शन करने गये। उन लोगों ने मन्दिर के भीतरी कक्ष में जाकर शिव-लिंग को जल चढ़ा कर पूजा की। यद्यपि दर्शकों की भीड़ अभी कम थी तो भी भक्तिभाव से भगवान शंकर को अर्पित किये गये नारियलों की मन्दिर के एक कोने में बड़ा सा ढेर बन गया था। मन्दिर से निकल कर वे सब मेले में घूमने चले गये। कार्तिक पूर्णिमा के दिन रायपुर से चार मील दूर खारुन नदी के किनारे महादेव घाट का यह मेला भगवान शंकर के द्वारा त्रिपुरासुर के वध किये जाने के उपलक्ष में भरता है। लगभग दो लाख लोग इस मेले में एकत्र हो जाते हैं।
मिठाई खरीद कर श्यामवती, महेन्द्र और सदाराम घाट पर पहुँचे। यह घाट वास्तव में श्मशान-भूमि है। घाट का दृश्य बड़ा रमणीक है। सामने कल कल करती हुई नदी बहती है। घाट में पत्थर की कई सीढ़ियाँ बनी हैं जिनके दोनों छोरों पर दो गोलाकार बुर्ज हैं। बायीं ओर सफेद चट्टानें हैं। चट्टानों के पीछे एक के ऊपर एक रख कर पत्थरों का बाँध बनाया गया है जिसके बीचोंबीच खुली जगह है और वहाँ से नदी का प्रवाह बड़ा ही तेज और कोलाहलमय हो जाता है। सीढ़ियों और बुर्जों पर बैठ कर कुछ आदमी खा पी रहे थे। श्यमवती, महेन्द्र और सदाराम भी वहीं बैठ कर मिठाई खाने लगे। कुछ देर बाद महेन्द्र ने चुटकी ली और कहा, "आज की मिठाई में सरोना की मिठाई जैसा स्वाद नहीं है।"
सुन कर श्यामवती का मुख लज्जा से लाल हो गया। मेले में सब अपने आप में मस्त थे। कोलाहल क्षण प्रति क्षण बढ़ता जा रहा था। नदी किनारे के चारों ओर की पगडण्डियों और रास्तों में आने वालों की अविरल कतारें दिखाई दे रही थीं।
(क्रमशः)

Monday, September 24, 2007

धान के देश में - 16

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

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दीनदयाल के कमरे में महेन्द्र और सदाराम बैठे थे। दीनदयाल ने खास तौर से उन्हें अपने पास बुलाया था। उन्हें देख कर बूढ़े दीनदयाल ने नेत्र और हृदय शान्त, शीतल और हर्षित हो रहे थे। उन दोनों के मन में भी अनेकों भाव उठ रहे थे। उनके मन में जिज्ञासा थी कि दादा ने उन्हें किसलिये बुलवाया है। दीनदयाल उन दोनों को अपलक देखते हुये भावों में खो गये। महेन्द्र को देख कर उन्हें श्यामलाल की याद आ गई। महेन्द्र ने श्यामलाल के ही नेत्र, नाक और माथा पाया था। बाल भी पिता के बालों की तरह मुलायम और घुँघराले थे। गौर से महेन्द्र को देखने से दीनदयाल को श्यामलाल की सुधि आ गई। चेहरे पर उदासी और हर्ष के भाव एक साथ झलक उठे। उदासी इसलिये कि आज उनका श्यामलाल संसार में नहीं था और हर्ष इसलिये कि उन्होंने महेन्द्र के रूप में श्यामलाल को पुनः पा लिया था। वे भर्राये गले से बोले, "बेटा महेन्द्र, मैं अभागा तो हूँ ही जिसका जवान बेटा आँखों के सामने ही चल बसा था पर मेरा भाग्य किसी से कम भी नहीं है जो तुम जैसे योग्य पोते के साथ साथ सदाराम जैसे तुम्हारे सच्चे मित्र को भी नाती के रूप में पाया है।" दीनदयाल के मुँह से अपनी प्रशंसा सुन कर महेन्द्र और सदाराम को आनन्द और गौरव का अनुभव हुआ। अब वे दोनों यह जानने के लिये उत्सुक थे कि दादा कौन- सी खास बात कहेंगे।
दीनदयाल कहने लगे, "महेन्द्र, मैंने तुमसे कुछ कहने के लिये बुलाया है। मैं तो मौत के घाट लग ही चुका हूँ। मेरे बाद तुमको ही तो यह गाँव और सब कुछ संभालना पड़ेगा। सोचा, तुम्हें सब बातों से सूचित और परिचित कर दूँ।"
उनकी बात सुन कर महेन्द्र को पहली बार जीवन में विषम वेदना का अनुभव हुआ। सभी प्रकार से सुखों में उसका पालन-पोषण किया गया था। दीनदयाल की छत्रच्छाया में वह सभी ओर से निश्चिन्त था। वह शायद सोचता था कि दीनदयाल की ममता ढाल बनकर सदा उसकी रक्षा करती रहेगी।
दीनदयाल भी सभी की तरह जन्म लेकर ध्रुव निश्चित मृत्यु का ग्रास बन जाने वाला है - यह बात सपने में भी उसके ध्यान में नहीं आई थी। उसने दुःखी मन से कहा, "दादा, ऐसा मत कहिये। आपके न रहने से मैं निराधार हो जाउँगा।"
"बेटा, किसके माँ-बाप, दादा-दादी सदा साथ रहे हैं। मेरी बूढ़ी हड्डियाँ काम करते करते पूरी तरह थक चुकी हैं। जीते रहने की साध किसे नहीं रहती। मुझे भी है लेकिन तभी तक जब तक तुम स्वयं सब कुछ संभाल न लो।"
"दादा, आप निश्चिन्त रहिये। आपकी आँखों के सामने ही यह सब हो जावेगा।" महेन्द्र ने उत्तर दिया।
"पर कैसे! बेटा, मैं समझता हूँ कि तुम्हें अंग्रेजी पढ़ा कर मैंने तो कोई गलती नहीं की। हाँ, अंग्रेजी की शिक्षा ही ऐसी है जो गाँव वालों को सदा के लिये शहर ले जाती है। मुझे डर है कि कहीं तुम भी शहर के आकर्षण चक्र में न पड़ जावो और यह गाँव निराधार होकर अपनी सभी प्रकार की अवनति देखता हुआ सिर धनुता रहे।"
"ऐसा कभी नहीं होगा दादा।" महेन्द्र ने दीनदयाल को आश्वासन दिया।
"अच्छा, अभी तो तुम मैट्रिक में हो। उसके बाद क्या करोगे?" दीनदयाल ने गम्भीरता से पूछा।
"मैं इंजीनियरिंग कॉलेज जाने की सोच रहा हूँ" महेन्द्र ने शीघ्र ही उल्लासपूर्वक उत्तर दिया।
"यही तो मैं सोच रहा था कि मेरे बाद इस गाँव, खेती-बाड़ी और अन्न देने वाली भूमि का क्या होगा। तुम तो इंजीनियर बन कर सरकारी नौकरी करते हुये आलीशान बंगले में रह कर नहरों और इमारतों का निर्माण करोगे, मोटर में दौरे के बहाने सैर-सपाटे करोगे और इस गाँव का क्या होगा? और यदि अपने कहने के अनुसार तुम शहर के चक्कर में नहीं पड़ोगे तो तुम्हारी इंजीनियरिंग की शिक्षा का कुछ भी अर्थ नहीं होगा।" कहते-कहते दीनदयाल कुछ निराश और अधिक गम्भीर हो गये। सुन कर महेन्द्र को लगा कि अभी उसका लड़कपन ही उसके जीवन में लहरा रहा है। उसने अपनी ओर से तो गम्भीरतापूर्वक ही गाँव से सदैव सम्बन्ध बनाये रखने की बात कही थी पर आगे के अध्ययन सम्बन्धी उसका विचार कितना विवेकहीन था। उसने पूछा, "तो क्या करना चाहिये दादा?"
"मेरी मानो तो मैट्रिक के बाद कृषि महाविद्यालय में दाखिल हो जावो। तभी तुम गाँव से नाता बनाये रख सकोगे।" दीनदयाल ने अपने विचार महेन्द्र के सामने रखा।
"दादा, मैं आपकी आज्ञा के अनुसार ही काम करूँगा।" महेन्द्र बोला।
महेन्द्र की बात सुन कर दीनदयाल को परम संतोष मिला। उन्हें अपना संसार, जो कुछ देर पहले मिटता हुआ-सा लग रहा था, अब अनन्त जान पड़ने लगा। अब उन्होंने सदाराम की और रुख करके कहना प्रारम्भ किया, "और सदाराम, तुम्हें भी महेन्द्र के साथ कृषि-विद्या पढ़ने के लिये जाना होगा।"
सदाराम चुपचाप दीनदयाल और महेन्द्र की बातें सुन रहा था। अपने बारे में दीनदयाल का निर्णय सुन कर वह हाथ जोड़ कर बोला, "दादा, मैंने तो सोचा था कि मैं मेट्रिक के बाद कहीं क्लर्क हो जाउँगा। आपने हम लोगों के साथ जो उपकार किये हैं वे क्या कम हैं।"
दीनदयाल ने कहा, "इसमें उपकार की क्या बात है बेटा। मैंने तो वही किया जो मेरा कर्तव्य था। राजो बिटिया के साथ ममता न होती तो बात दूसरी थी। देखो, तुम्हें महेन्द्र के साथ एग्रीकल्चर कॉलेज जाना ही होगा।"
सदाराम अब क्या कहता। कृतज्ञता से उसने अपनी मौन स्वीकृति दे दी।
"हाँ, तो मैं चाहता हूँ कि तुम दोनों की मित्रता भी सदा बनी रहे। यदि किसी भी कारण से तुम दोनों की दोस्ती टूट गई तो मरने के बाद भी मेरी आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी।" दीनदयाल ने अपनी इच्छा व्यक्त की।
"दादा, महेन्द्र मुझे लात मार कर भी दूर करेंगे तो मैं उनसे दूर नहीं होउँगा।" सदाराम ने अपना दृढ़ निश्य व्यक्त किया।
"वाह! मैं भला तुम्हें लात क्यों मारने लगा?" कह कर महेन्द्र मुस्कुराने लगा। सदाराम के ओंठों पर भी हँसी खेल गई।
"हाँ, हाँ, मुझे विश्वास है कि तुम दोनों सदा एक साथ रहोगे।" दीनदयाल ने भी हँसते हुये कहा।
इतने में किसी के आने की आहट मिली और राजवती ने प्रवेश किया। उसके आते ही दीनदयाल ने महेन्द्र और सदाराम से कहा, "अच्छा, अब तुम लोग जावो।" दोनों के चले जाने पर एक ओर भूमि पर बैठती हुई राजवती बोली, "क्या बातें हो रही थीं काका इन लोगो के साथ बड़ी देर तक?"
"कुछ नहीं, इधर-उधर की गप्पें हाँक रहे थे हम लोग।" दीनदयाल ने राजो को इतना ही बताया। वे जानते थे कि राजवती पढ़ाई के विषय में कुछ समझेगी नहीं। इसीलिये उन्होंने बात टाल दी।
"काका, तुम इन छोकरों के साथ गप्पें लड़ा रहे हो और मैं चिन्ता से घुली जा रही हूँ।" कहकर राजवती ने प्रसंग छेड़ने के लिये भूमिका बाँधी।
"किस बात की चिन्ता?" दीनदयाल ने शान्त चित्त से पूछा।
"यही तुम्हारी नातिन श्यामवती की। अब वह ब्याह के लायक हो गई है पर आप चुपचाप बैठे हैं। आखिर मैं पराई हूँ न।" राजवती ने अपनापन जताते हुये कहा।
"पराई क्यों राजो। मुझे सबकी चिन्ता है, लेकिन मेरी इच्छा कुछ दूसरी ही है।" दीनदयाल की बातों में स्नेह था।
"क्या इच्छा है आपकी?" राजो ने पूछा।
"मैं चाहता हूँ कि वह भी मैट्रिक पास कर ले। उसके बाद ही उसका ब्याह हो" कह कर दीनदयाल ने राजवती की इच्छा जानने की आशा से उसकी ओर देखा।
"लेकिन काका, पहले तो मेरी समझ से सामबती की पढ़ाई पहले ही बहुत हो चुकी है। दूसरे यह कि लड़का वाला ठहरे तब न।" राजो की बात सुन कर दीनदयाल चौंक उठे। समझ गये कि वह पहले से ही कुछ तय कर चुकी है और सलाह लेना शिष्टाचार के लिये है। पूछा, "लड़का वाला कौन है?"
"वही सिकोला का दुर्गाप्रसाद। उसका भोला सामबती के लिये कैसा रहेगा?"
"जब तुमने निश्चय कर ही लिया है तब मुझसे क्या पूछती हो।" दीनदयाल के स्वर में रूखापन तो नहीं पर उदासीनता अवश्य ही थी जिसे राजो ने भाँप लिया। वह बोली, "नहीं ऐसी बात तो नहीं है। जो कुछ होगा वह आप ही के किये होगा। मैं आपके बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ूँगी।"
मामला कहाँ तक बढ़ चुका है यह जानने के लिये दीनदयाल लने पूछा, "दुर्गा की ओर से भी बातचीत हुई है या तुम्हीं कह रही हो?"
राजवती दीनदयाल से कुछ भी नहीं छुपा सकती थी। बोली, "काका, यों तो पहले ही मैंने दुर्गा को वचन दे दिया था और फिर कुँआर में वह इसी सिलसिले में मेरे पास आया भी था।"
"तुमने क्या उत्तर दिया।" अधीर होकर दीनदयाल ने पूछा।
"मैंने कह दिया कि मैं अपने वचन पर अटल हूँ।" राजो ने सहमे-से स्वर में कहा।
दीनदयाल को जिस बात का डर था वही हो चुकी थी। उन्होंने धीरे से कहा, "ठीक है पर भोला के बारे में मैंने जो सुना है उससे तो उसके साथ बँध जाने पर श्यामा सुखी नहीं रह सकेगी।"
दीनदयाल की बात से राजो का हृदय काँप उठा। उसे लगा मानो उससे बड़ी भूल हो गई है। उसने भर्राये हुये स्वर से कहा, "भोला के बारे में सुना तो मैंने भी बहुत कुछ है काका, मैं आज ही सिकोला जा कर दुर्गाप्रसाद से कह दूँगी कि यह ब्याह नहीं हो सकेगा। आपको दुःखा कर और आपकी इच्छा के विरुद्ध मैं कुछ भी नहीं करूँगी।"
राजवती की बात सुन कर दीनदयाल बहुत गम्भीर हो गये। एक ओर उनकी इच्छा थी तो दूसरी ओर दु्र्गाप्रसाद को दिया हुआ राजो का वचन, जिसके टूट जाने से उसकी जाति में उसकी प्रतिष्ठा मिट सकती थी। और भविष्य! वास्तव में उसे जानता ही कौन है। कुछ देर तक सोचने के बाद बोले, "राजो, मेरी खुशी इसी बात में है कि तुम्हारा वचन न टूटे।"
राजवती कुछ देर तक सिर नीचा किये बैठी रही। उसकी आत्मा कह रही थी 'यह सब अच्छा नहीं हुआ'। दीनदयाल के माथे पर भी चिन्ता की रेखायें उभर आईं। थोड़ी देर बाद दीनदयाल खेत जाने के लिये उठ खड़े हुये और राजवती भी अपने घर चली गई।
(क्रमशः)

Sunday, September 23, 2007

धान के देश में - 15

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

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लक्ष्मी पूजा के दूसरे दिन दीनदयाल ने गोबर से गोवर्धन की मूर्ति और गोवर्धन पर्वत बनाकर आँगन में गोवर्धन पूजा की। अनेक प्रकार के व्यंजन बनाये गये। आज का दिन वही दिन है जब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी उँगली पर गोवर्धन पर्वत को उठा कर ब्रज की रक्षा की थी।
गोवर्धन पूजा के दूसरे दिन यम द्वितीया का पर्व था। इसे 'भाई दूज' कहते हैं। आज के दिन लोग अपनी बहिन के घर भोजन करने जाते हैं। महेन्द्र के सामने समस्या उठ खड़ी हुई कि वह कहाँ भोजन करे। सुमित्रा ने कहा, "महेन्द्र, जावो श्यामवती के घर से कुछ खाकर आ जावो, फिर घर में भोजन कर लेना।" महेन्द्र क्या कहता। पहले तो चुप रहा। फिर बात बना कर बोला, "नहीं, मैं नहीं जाउँगा। मुझे यह सब ढकोसला लगता है।" सच तो यह था कि वह मन से त्यौहार के महत्व को मान रहा था पर श्यामवती के घर न जाने कि लिये उसने ढकोसला कह कर बहाना बनाया।
"तुम पढ़-लिख कर यही तो कहोगे। तुम्हारी इच्छा नहीं है तो मत जाओ पर ऐसा कभी मत कहना।" कह कर सुमित्रा चुप हो गई। उस दिन धर्म के विधान के अनुसार दीनदयाल और महेन्द्र ने, बहिन न होने के कारण, गाय के कोठे में भोजन किया।
यम द्वितीया के दिन छत्तीसगढ़ के रावतों का बहुत बड़ा त्यौहार होता है जिसे 'मातर जागना' (मातृ जागरण) कहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन्द्र के कोप और प्रलय-वर्षा से ब्रज के बच जाने पर मातृभूमि के प्रति अटूट स्नेह का प्रदर्शन करने और देवताओं को प्रसन्न करने के लिये यह उत्सव मनाया जाता हो। गाँव के सब रावतों ने सदाराम को घेर लिया और उसे साथ लेकर गाँव के मैदान में इकट्ठे हुये। वहाँ सिन्दूर से रंगे हुये दो-तीन पत्थर के देवता था। उनमें से एक का नाम 'सहाड़ा देव' था। उनके आसपास 'मड़ई' और 'बैरग' गड़ाये गये थे। लम्बे बाँस में दोनों ओर गोल पतले बांस के 'रिंग' बांध कर दोनों को रस्सियों से जोड़ देते हैं और उन रस्सियों में नीचे से ऊपर तक कुन्द पुष्प की पँखुड़ियाँ बाँध दी जाती हैं। इन्हें 'मड़ई' कहते हैं। बैरग में नीचे से ऊपर तक लाल-काले सफेद रंग के कपड़े की ध्वजायें बाँधी जाती हैं जो हवा में फहराती रहती हैं।
पास ही बड़े-बड़े चूल्हे में आग जल रही थी। उन पर बड़े-बड़े बर्तनों में दूध उबल रहा था जो गाँव भर से इकट्ठा किया गया था। श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठा कर ब्रज की जो रक्षा की थी उसी के उपलक्ष में आज भी यहाँ उत्साह मनाया जाता है जिसे 'मातर जागना' कहते हैं। सदाराम से पूजा करने की प्रार्थना की गई। उसने पूजा की और नारियल फोड़ा। फिर सबको दूध बाँटा गया। सभी रावत हर्ष में डूब कर मड़ई और बैरग के चारों ओर स्थानीय बाजे (जिसे कि गुदुम बाजा के नाम से भी जाना जाता है) के ताल पर नाचने लगे। सभी के हाथ में लाठियाँ थीं जिनको नाचते समय वे ऊपर उठाये हुये थे। मुँह पर प्रायः बहुतों ने पीला रंग मल लिया था। सभी के सिर पर रंग-बिरंगी पगड़ियाँ थीं और वे रंगीन मिर्जई, सफेद धोती या रंगीन पायजामा पहने हुये थे। कमर और पैर में घुँघरू बँधे थे। नाचते-नाचते उनमें से कोई 'हो हो रे भाई' कह उठता और बाजा रुक जाता। बाजा रुकने पर वह गा उठता -
"चलो सखी वहाँ जाइये, जहाँ बसत ब्रजराज।
गोरस बेचत हरि मिलै, एक पंथ दो काज॥"
दोहा समाप्त होते ही फिर बाजा बजने लग जाता और वे नाचने में व्यस्त हो जाते। दोहे और नाच का क्रम बहुत देर तक चलता रहा। सदाराम को भी सबका साथ देना पड़ा।
(क्रमशः)