Saturday, September 18, 2010

भारत में शिक्षा व्यवस्था

अत्यन्त प्राचीनकाल से ही भारतवर्ष में ज्ञान और विद्या के क्षेत्र में संसार का अग्रणी रहा है। हमारे देश में नालन्दा, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय रहे हैं जहाँ पर समस्त संसार से आने वाले लोग शिक्षा ग्रहण किया करते थे। कालान्तर में वारानसी शिक्षा का बहुत बड़ा केन्द्र बन गया।

देखा जाए तो भारत में शिक्षा का इतिहास वैदिक काल से भी पूर्व तक चला जाता है। पतञ्जलि तथा कात्यायन की कृतियों में स्पष्ट उल्लेख है कि वैदिक युग में शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं का समानाधिकार था। यहाँ पर पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान को सहेजा जाता रहा है। कठोपनिषद का निम्न सूत्र बताता है कि भारत में ज्ञान तथा शिक्षा का क्या महत्व थाः

"जिस प्रकार से एक उत्साही सारथी युद्धाश्वों को नियन्त्रित रखता है उसी प्रकार से मन को एकाग्र कर के परम ज्ञान को प्राप्त करने वाला अपने इन्द्रियों को नियन्त्रित रखता है।"

रामायण काल हो चाहे महाभारत काल, प्रत्येक काल में हमारे देश में गुरु-शिष्य परम्परा रही है। जहाँ रामायण काल में वशिष्ठ, विश्वामित्र जैसे गुरु रहे हैं जिन्होंने राम, गुह आदि को विद्यादान दिया वहीं महाभारत काल में संदीपनी, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे गुरु थे जिन्होंने कृष्ण, सुदामा, पाण्डवों, कौरवों आदि को शिक्षा प्रदान किया था। प्राचीनकाल से लेकर मध्यकाल तक शिष्यों को विद्यार्जन के लिए गुरु के आश्रम में जाकर रहने की परम्परा थी जहाँ पर गुरु उन्हें ज्ञान प्रदान किया करते थे। विद्या का मोल नहीं होता था इसीलिए विद्याग्रहण करने के पश्चात् गुरु-दक्षिणा की प्रथा थी।

सहस्त्राब्दी तक उत्तर भारत आर्य हिन्दू साहित्य और संस्कृति का केन्द्र बना रहा किन्तु गज़नवी, तुगलक और तैमूर ने एक के बाद एक आक्रमण करके वहाँ के धर्म, संस्कृति और साहित्य की प्रगति को छिन्न-भिन्न कर दिया। परिणामस्वरूप हिन्दू विद्या, साहित्य, धर्म और संस्कृति को सुदूर-पूर्व की ओर भाग कर बंगाल की शरण लेनी पड़ी। बनारस और मिथिला के अनेक विद्वान गुरुओं ने बंगाल में आकर न्यायशास्त्र के विद्धापीठ स्थापित किए क्योंकि बनारस, पाटलिपुत्र आदि विद्या-केन्द्र आतताइयों के पैरों तले रौंदे जा चुके थे। चौदहवीं शताब्दी में कल्लण भट्ट ने अपनी मानव-धर्मशास्त्र की टीका रची। बाद में पन्द्रहवीं शताब्दी में चैतन्य महाप्रभु ने वैष्णव-पन्थ चलाकर देश की धर्म-ग्लानि को दूर किया। विद्वान ब्राह्मण अपने यजमानों का कल्याण करने के साथ ही साथ उनके सन्तानों को शिक्षा देने का कार्य किया करते थे और दक्षिणा के रूप में सम्पन्न यजमानों से उन्हें अनेक गाँव तक प्रदान किए जाते थे।

सत्रहवी शताब्दी तक भारत शिक्षा के प्रचार में यूरोप के सभी देशों से आगे था और हमारे देश में पढ़े-लिखे लोगों का प्रतिशत अन्य देशों की अपेक्षा बहुत अधिक था।
सहस्त्रों की संख्या में ब्राह्मण अध्यापक अपने-अपने घरों में लाखों शिष्यों को मुफ्त शिक्षा प्रदान किया करते थे। समस्त भारत में जहाँ संस्कृत-साहित्य की शिक्षा के लिए विद्यापीठ थे वहीं साथ ही साथ उर्दू-फारसी की शिक्षा के लिए विद्यापीठ तथा मक़तब और मदरसे कायम थे। छोटे-छोटे गाँवों में भी ग्राम-पंचायतों के नियन्त्रण में पाठशालाएँ चला करती थीं।

परन्तु बाद में वे दिन नहीं रहे। अंग्रेज एक नया युग लेकर आए। लोभ और अर्थ-संग्रह ही उनके यहाँ आने के उद्देश्य थे। तलवार और बन्दूक की लड़ाई करके उन्होंने हमारे देश पर हुकूमत कायम कर लिया था किन्तु उस हुकूमत को चलाते रहने के लिए हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था एक बहुत बड़ी बाधा थी। इसलिए उन्होंने कलम की लड़ाई आरम्भ कर दिया। इस देश की सन्तानों को उन्होंने अपनी भाषा और साहित्य पढ़ाना शुरू कर दिया और वे अंग्रेज वीरों की वीरता के गुणगाण करने लगे। अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों की एक अलग जमात बन गई जिन्हें अपने देशवासियों से सहानुभूति ही नहीं रही या रही भी तो बहुत कम। देश के प्राचीन गौरव, परम्परा, इतिहास आदि से उन्हें कुछ मतलब ही नहीं रहा। ऐसा करने के लिए लॉर्ड मैकॉले ने एक ऐसी शिक्षा-प्रणाली बना दिया, जो कि भारतीयों को अपनी संस्कृति और सभ्यता से दूर ले जाए और उनमें राष्ट्रीय भावना पैदा ही ना होने दे। और आज तक हमारे देश की शिक्षा-नीति कमोबेश वही बनी हुई है जिसे कि लॉर्ड मैकॉले ने बनाया था परिणामस्वरूप आज हम तथा हमारे बच्चे अपनी संस्कृति और सभ्यता को हेय दृष्टि से देखते हैं।

टीपः उपरोक्त लेख में मेरे अपने विचारों के साथ ही साथ अनेक स्थान पर आचार्य चतुरसेन के उपन्यास "सोना और खून" से विचार लिए गए हैं।

Friday, September 17, 2010

ललित शर्मा के ललितकला पोर्टल का छत्तीसगढ़ के मुख्य मन्त्री रमणसिंह के द्वारा लोकार्पण


आज विश्वकर्मा पूजा का अत्यन्त शुभ दिन है और हर्ष की बात है कि आज ललित शर्मा के ललितकला पोर्टल का छत्तीसगढ़ के मुख्य मन्त्री रमणसिंह के द्वारा लोकार्पण किया गया।


उल्लेखनीय है कि ललित शर्मा जी यथानाम तथा गुण हैं अर्थात् ललित जी की ललितकलाओं में गहरी रुचि है और वे देश भर के कलाकारों तथा शिल्पियों की कलाकृतियों को इंटरनेट के माध्यम से जनसाधारण के समक्ष लाने के लिए प्रयासरत हैं। ललितकला पोर्टल का निर्माण उनके इस प्रयास का ही परिणाम है। हमारी परमपिता परमात्मा से प्रार्थना है कि वे उन्हें अपने इस प्रयास में सफलता प्रदान करें!

Thursday, September 16, 2010

अंग्रेजी कहावतें - हिन्दी भावार्थ-1 (English Proverbs with Hindi meaning-1)

आम बोलचाल की भाषा में कहावतों की बहुत महत्‍वपूर्ण भूमिका रहती है। आम लोगों के लिये अति उपयोगी तथ्यों को प्रकट करने वाले संक्षिप्त किन्तु महत्वपूर्ण कथनों को कहावतें कहा जाता है। कहावतें प्रायः सांकेतिक रूप में होती हैं। थोड़े शब्दों में कहा जाये तो "जीवन के दीर्घकाल के अनुभवों को छोटे वाक्य में कहना ही कहावतें होती हैं।" जिस प्रकार से अलंकार काव्य के सौन्दर्य को बढ़ा देता है उसी प्रकार कहावतों का प्रयोग भाषा के सौन्दर्य सौन्दर्य को बढ़ा देता है। बोलचाल की भाषा में कहावतों के प्रयोग से वक्ता के कथन के प्रभाव में वृद्धि होती है और साहित्यिक भाषा में कहावतों के प्रयोग से साहित्य की श्रीवृद्धि होती है। जिस भाषा में जितनी अधिक कहावतें होती हैं उस भाषा का मान उतना ही अधिक होता है। प्रायः एक भाषा के कहावतों को अन्य भाषाओं के द्वारा मूल या बदले हुये रूप में अपना भी लिया जाता है। कहावतों के मामले में अंग्रेजी भाषा भी अत्यन्त सम्पन्न है तथा उनके हिन्दी भावार्थ भी रस प्रदान करते हैं।

हमने ऐसे ही अंग्रेजी कहावतों का संकलन किया है और उनका हिन्दी भावार्थ करने का प्रयास किया है जिन्हें आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं।

  • A journey of a thousand miles begins with one step.
    हजारों मील की यात्रा भी एक कदम से शुरू होती है।

  • A bad penny always turns up.
    खोटा सिक्का खोटा ही होता है।

  • A bean in liberty is better than a comfit in prison.
    सम्पन्नतायुक्त गुलामी से विपन्नतायुक्त स्वतंत्रता बेहतर है।

  • A bellyful is one of meat, drink, or sorrow.
    एक पेट मांस-मदिरा से भरा होता है तो एक दुःखों से।

  • A big tree attracts the woodsman's axe.
    एक बड़ा पेड़ सदा लकड़हारे की कुल्हाड़ी को आकर्षित करता है।

  • An apple a day keeps the doctor away.
    प्रतिदिन एक सेब खाना डॉक्टर से दूरी बनाये रहता है।

  • A bad workman always blames his tools.
    खराब कारीगर हमेशा हथियारों के दोष निकालता है।

  • A banker is someone who lends you an umbrella when the sun is shining, and who asks for it back when it starts to rain.
    बैंकर वो होता है जो कि साधारण धूप रहने के वक्त आपको छाता उधार दे और पानी बरसते वक्त वापस माँग ले।

  • A bird in the hand is worth two in the bush.
    झाड़ पर के दो पक्षियों से हाथ आया एक पक्षी कीमती होता है।

  • A chain is no stronger than its weakest link.
    कोई भी जंजीर अपने कमजोर कड़ी से अधिक मजबूत नहीं होती।

  • A constant guest never welcomes.
    हमेशा आने वाला मेहमान अपना सम्मान खो देता है।

  • A coward dies a thousand times before his death.
    कायर आदमी अपनी मौत से पहले हजारों बार मरता है।

  • A friend in need is a friend indeed.
    समय पर काम आने वाला ही सच्चा मित्र होता है।

  • A friend to all is a friend to none.
    जो सभी का मित्र होता है वह किसी का मित्र नहीं होता।

  • A good beginning makes a good ending.
    एक अच्छी शुरुवात आधी सफलता होती है।

  • A good man in an evil society seems the greatest villain of all.
    खराब समाज में अच्छा आदमी सबसे बड़ा खलनायक होता है।

  • A guilty conscience needs no accuser.
    भले आदमी को किसी पर दोष मढ़ने की आवश्यकता नहीं होती।

  • A half truth is a whole lie.
    आधा सच पूरे झूठ के बराबर होता है।

  • A jack of all trades is master of none.
    सभी धंधों का गुलाम किसी धंधे का मालिक नहीं होता।

  • A lie can be halfway around the world before the truth gets its boots on.
    सत्य से पराजित होने के पूर्व झूठ आधी दुनिया की यात्रा कर लेता है।

  • A little knowledge is a dangerous thing.
    अधूरा ज्ञान खतरनाक होता है। (नीम-हकीम खतरा-ए-जान।)

  • A loaded wagon makes no noise.
    अधजल गगरी छलकत जाये।

  • A miss by an inch is a miss by a mile.
    एक इंच की भूल अंततः एक मील की गलती साबित होती है।

  • A paragraph should be like a lady's skirt: long enough to cover the essentials but short enough to keep it interesting.
    एक पैराग्राफ किसी महिला के स्कर्ट के जैसे होता है, इतना लंबा कि सभी आवश्यक बातें निहित हो जायें और इतना छोटा कि रोचक लगे।

  • A picture is worth a thousand words.
    एक चित्र हजार शब्दों के मूल्य के बराबर होता है।

  • A pot of milk is ruined by a drop of poison.
    एक बूंद विष बर्तन भर दूध को को नष्ट कर देती है।

Wednesday, September 15, 2010

कुछ पोस्ट ऐसे भी होते हैं जिन्हें बार बार पढ़कर भी मन नहीं भरता

कुछ ब्लोग पोस्ट भी ऐसे होते हैं जिन्हें हम केवल एक बार पढ़कर भूल जाते हैं और कुछ पोस्ट ऐसे भी होते हैं जिन्हें बार बार पढ़कर भी मन नहीं भरता। उदाहरणस्वरूप मैं कहूँगा कि आप खुशदीप सहगल जी की "शोले पुराण" वाली पोस्ट कभी भी पढ़ेंगे तो आपको मजा ही आएगा। मजे की बात तो यह है कि पोस्ट तो मजा देता ही है, उस पोस्ट की टिप्पणियाँ और भी ज्यादा मजा देती हैं।

यही बात कथा-कहानियों, उपन्यासों आदि के बारे में भी लागू होती हैं। "चन्द्रकान्ता सन्तति" (देवकीनन्दन खत्री), "गोदान" (प्रेमचंद), "चित्रलेखा" (भगवतीचरण वर्मा) जैसी अनेक पुस्तकें हैं जिन्हें मैंने कई-कई बार पढ़ा है और हर बार नया मजा मिला है। ऐसे लेखन में इतनी अधिक रोचकता होती है कि पाठक उसे एक ही बैठक में पढ़ लेना चाहता है।

अब आप ही बताइये कि निम्न कथा रोचक है या नहीं:

बड़े नवाब मिर्जा अलीबेग अस्सी की उम्र में जब मरे तो उनके साहबज़ादे मिर्जा अख़्तरबेग की उम्र बीस बरस की थी। बड़ी मानता-मनौती मानने पर बड़े नवाब को बुढ़ौती में बेटे का मुँह देखना नसीब हुआ था। इसीलिए उनकी परवरिश भी लाड़-प्यार में हुई थी। उन दिनों जहांगीराबाद की रियासत में ऐशो-इशरत की कमी न थी। सिर्फ इतना ही नहीं कि छोटे नवाब ऐशो-इशरत की गोद में पलकर किसी कदर आवार हो गए, उनकी तालीम भी बहुत मामूली हुई। इन सब कारणों से ज्यों ही बड़े नवाब मरे और इन्हें हाथ की छूट हुई तो बेहद फिज़ूलखर्चियाँ करने लगे। बदइन्तजामी इतनी बढ़ी कि आमदनी आधी भी न रही।

इनकी ऐयाशी और फिज़ूलखर्ची बड़े नवाब के जमाने में आरम्भ हो गई थीं। उन्होंने यह सोचकर कि शादी कर देने से वह खानादारी में फँसकर ठीक हो जाएगा, उनकी शादी चौदह साल की उम्र में ही कर दी थी। शुरू-शुरू में तो नए मियाँ-बीबी खूब घुल-मिल कर रहे। बीबी का मिज़ाज़ जरा तेज था। वह भी एक नवाब की बेटी थी। पर मियाँ की वह बहुत लल्लो-चप्पो करती रहती थी।......... परंतु धीरे-धीरे यह प्रेम का पौधा सूखने लगा और छोटे नवाब इधर-उधर फिर दिल का सौदा करने लगे। इससे बेग तिनक गईं। और फिर आए दिन मान-मनौवल, फसाद-झगड़े उठने लगे। इसी बीच बड़े नवाब का इन्तकाल हो गया और छोटे नवाब की पगड़ी बँधी। इसके एक साल बाद ही नवाब के लड़का पैदा हुआ। लड़का सुन्दर और स्वस्थ था। पहला बच्चा था, इसलिये हवेली में बाजे बजने लगे। बधाइयाँ गाई जाने लगीं। तवायफ़ों की महफ़िल हुई। लेकिन जब दाई ने छठवीं के दिन लड़के को लाकर नवाब की गोद में डाला और उम्मीद की कि कोई भारी इनाम मिलेगा, तो नवाब ने बिगड़कर कहा, "इस लड़के की सूरत हमसे नहीं मिलती, चुनाँचे यह हमारा लड़का ही नहीं।"

नवाब साहब की इस बात से तहलका मच गया। हकीकत यह थी कि उनके आवारा दोस्तों ने कुछ ऐसी इशारेबाजियाँ पहले ही से कर रखी थीं, जिनसे नवाब का दिल वहम से भर गया था। वह अनपढ़ और बेवकूफ़ तो था ही, लड़के को देखते ही ऐसी बेहूदा बात कह बैठा।

बेगम ने सुना तो अपना सिर पीट लिया। रो-धोकर उसने सारा घर सिर पर उठा लिया। ..... इसी दौरान बेगम को पता लगा कि नवाब ने एक तवायफ़ से आशनाई कर ली है। ...... बेगम से एक दिन उसकी मुँह-दर-मुँह नोक-झोंक हो गई।

नवाब ने कहा, "बेगम, तुमने यह हक-नाहक का कैसा हंगामा खड़ा कर दिया है? बखुदा इससे बाज आओ, वरना हमसे बुरा कोई न होगा।"

"क्या कर लोगे तुम?"

"कसम कलामे-पाक की, मैं तुम्हारी खाल खिंचवाकर भूसा भरवा दूँगा।"

"तो तुफ़ है तुम पर जो करनी में कसर करो।"

"नाहक एक खूने-नाहक का अजाब मेरे सिर होगा।"

"तुम्हें क्या डर है! करनी कर गुजरो, ज्यादा से ज्यादा फाँसी हो जाएगी।"

"फाँसी क्यों हो जाएगी?"

"यह कम्पनी बहादुर की अमलदारी है। तुम्हारी खाला का राज नहीं।"

"बखुदा, बड़ी मुँहफट हो।"

"मगर अस्मतदार हूँ।"

"चे खुश। अस्मतदार हो तो कहो यह लौंडा कहाँ से पेट में डाल लाईं?"

"शरम नहीं आती यह बेहूदा कलाम जुबान पर लाते?"

"हम तो लाखों में कहेंगे। कुछ डर है!"

"नकटा जिए बुरे हवाल, डर काहे का! डर तो उसे हो जिसे अपनी इज्जत का कुछ खयाल हो।"

"हम खानदानी रईस हैं। हमारी इज्जत का तुम क्या जानो।"

"बड़े आए इज्जतवाले। तभी तो मुई उस वेसवा का थूक चाटते हो।"

"तो इससे तुम्हें क्या! यह हमने कोई नई बात नहीं की। हमारे हमकौम रईस-नवाब सभी कोई रखैल, रंडी रखते हैं। हमने रख ली तो तुम्हारा क्या नुकसान किया?"

"अच्छा, हमारा कोई नुकसान ही नहीं किया?"

"हमारा फर्ज ब्याहता के साथ रहने का है, हर्गिज फरामोश न करेंगे। और अगर ज्यादा बावेला न मचाकर घर में खामोश बैठोगी तो हम तुम्हारी खातिरदारी मिस्ल साबिक बल्कि उससे भी ज्यादा करेंगे। हालाँकि तुम इस सलूक के काबिल नहीं।"

"क्या कहने हैं! मियाँ होश की दवा करो। मेरा जो हक है मुँह पर झाड़ू मारकर लूँगी। होई हँसी-ठठ्ठा है!"

"तुमने बेहयाई पर कमर कस ली है तो लाचारी है।"

"मैं बेहया लोगों के कहने का बुरा नहीं मानती। अब्बाजान को मैंने सब हकीकत लिख दी है। वे आया ही चाहते हैं। उनसे निबटना। देखूँगी, कैसे तीसमारखां हो!"

"देखूँगा उन्हें, कितनी तोपें लेकर आते हैं!"

यह कहते और गुस्से से काँपते हुए नवाब बाहर चले गए।

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बेटी का खत पाकर नवाब इकरामुल्ला आगबबूला हो गए। वे फौरन हाथी पर बैठकर जहांगीराबाद पहुँचे। दामाद को बहुत लानत-मलामत दी। बेटी से सलाह की और बेटी से एक लाख रुपयों के मेहर का दावा अदालत दीवानी में ठुकवा दिया। अदालत से बेगम को डिग्री मिल गई, इसपर नवाब ने कलकत्ता के सुप्रीम कोर्ट में अपील की, पर नीचे का हुक्म वहाँ भी बहाल रहा परन्तु इस खींचतान में तीन बरस लग गए। इस बीच नवाब और बेग में खूब फुलझड़ियाँ छूटीं। बेगम को तंग करने के नवाब और उनके बेफिकरे दोस्तों ने नये-नये नुस्खे ईजाद किए। अब बेग अलहदा मकान में जहांगीराबाद में ही रहती थीं। नवाब ने उनके पीछे गुण्डे लगा दिए, जो उनकी हवेली के नीचे खड़े होकर अश्लील गज़लें गाते और दूसरे प्रकार की बेजा हरकतें करते। कभी नंगी और फाँस तस्वीरे उनके दरवाजों पर चिपका देते। कभी डाक से बैरंग लिफाफे में गालियाँ, गंदी तस्वीरें भेजते। बेगम उन्हें जरूरी अदालती कागज़ात समझकर महसूल देकर ले लेती, और खोलने पर ये सब चीजें पाती। रात को उसके मकान पर ईंट-पत्थर बरसते। आखिर तंग आकर बेगम ने थानेदार की शरण ली। तब तक कांस्टेबल पुलिस का इन्तजाम नहीं हुआ था, बरकन्दाजी पुलिस थी। सिपाही को पाँच रुपये और थानेदार को बीस रुपये तनख्वाह मिलती थी। थानेदार ने बेगम से सब हाल सुनकर उनकी हिफाजत का जिम्मा लिया और एक बरकन्दाज उसकी हवेली पर पहरे के लिए बिठा दिया। यह सिलसिला कई महीने तक चलता रहा। पर कोई चोर नहीं पकड़ा गया। ढेलेबाजी और छेड़खानी उसी तरह चलती रही। असल बात यह थी कि बरकन्दाज अढीमची था। वह शाम को ही अफीम का गोला गटककर पीनक में अंटागफील हो जाता था। फिर भला उसे दीनो-जहान की क्या खबर रह सकती थी!

आखिर थानेदार पर बेगम का तकाजा हुआ कि हम खर्च भी करते हैं, मगर हमारा काम कुछ नहीं होता। थानेदार ने बरकन्दाज को हुक्म दिया कि यदि आज ही मुलजिम न पकड़ा गया तो उसकी खैर नहीं है। अब आप ही कहिए कि जब तीन महीने तक मुलजिम नहीं पकड़ा जा सका तो भला एक दिन में कैसे पकड़ा जा सकता है। मगर थानेदार साहब का हुक्म भी बजा लाना जरूरू जथा। फिर बेगम ने भी गुनहगार के पकड़े जाने पर इनाम देने का वादा किया था, बस किसी आसामी की खोज में उसने चक्कर लगाना शुरू किया। इतने ही में उसने एक आदमी को शराब के नशे में धुत कलवार की दुकान से आते हुए देखा और झट से उसे ले जाकर थानेदार के हवाले कर दिया, और एक गहरा सलाम झुकाया। थानेदार ने बेगम को इत्तला दी कि एक आदमी ढेला फेंकता हुआ पकड़ा गया है, उसे छोड़ देने के लिए नवाब मुझे पचार रुपये घूँस दे रहे थे, परन्तु मैं इस मर्दूद मूँजी को हर्गिज बिना सजा दिलाए नहीं छोड़ूँगा, जिसने बेगम साहिबा को तंग करने की हिमाकत की है।

बेगम ने पचास रुपये बांदी के हाथों थानेदार के पास भिजवा दिए और कहा - ठसे पूरी सजा दिलवाओगे तो और इनाम दूँगी। जंट साहब की कचहरी में उस पर इस आशय का मुकदमा चला दिया कि दो अंग्रेज लड़के एक खुली बग्घी में सवार चले जाते थे, यह शराबी नशे की धुत गली से खौफ़नाक तरीके से चीखता-चिल्लाता निकल पड़ा, जिससे बग्घी से टट्टू ऐसे भड़के कि बड़ी मुश्किल से बरकन्दाज ने रोके जो मौके पर हाजिर था। अगर वह बरकन्दाज अपनी जान पर खेलकर उन्हें न रोक लेता तो बेशक दोनों लड़कों की जान जाने में जरा भी शक न था। लिहाजा फिदवी उम्मीदवार है कि इस शराबी को सख्त सजा हुज़ूरेवाला से फर्माई जाए। अभियुक्त ने जंट साहब के सामने शराब पीने का इकबाल किया और कहा कि उस वक्त मुझे तन-बदन की खबर न थी। इसपर पच्चीस रुपया जुर्माना कर दिया।

इस खुशखबरी को थानेदार ने बेगम के पास स्वयं हाजिर होकर इस तरह पहुँचाया कि हाकिम उस कम्बख्त गुनहगार को जेला या कालेपानी भेजना चाहता था, मगर आपके हमसायों ने आपकी ओर से गवाही देने से इन्कार कर दिया। उधर दुश्मनों ने जोर बाँधा, लाट साहब तक सिफारिश पहुँचाई। अब मैं क्या कर सकता था! हकीकत यह है कि पुलिस के अलावा हर शख्स आपका दुश्मन है। सिर्फ पुलिस आपकी दोस्त है। बेगम ने खुश होकर थानेदार को और पचास रुपये नज़राने के दिए और दस रुपये बरकन्दाज को इनाम।
(आचार्य चतुरसेन के उपन्यास "सोना और खून का एक अंश)

Tuesday, September 14, 2010

हिन्दी दिवस मनाने के आडम्बर का क्या अर्थ है?

साल भर चाहे हिन्दी की चिन्दी होती रहे पर साल में कम से कम एक दिन के लिए तो उसकी पूछ हो ही जाती है याने कि प्रतिवर्ष 14 सितम्बर के दिन हिन्दी को, दिखावे के लिए ही सही, रानी बना दिया जाता है। हिन्दी दिवस मनाया जाता है, शासकीय कार्यालयों में हिन्दी से सम्बन्धित अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं जिनमें बड़े-बड़े शासकीय अधिकारी अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी में भाषण दिया करते हैं। भारत सरकार ने आखिर हिन्दी को "राजभाषा" का दर्जा जो दिया है!

न राज रहे न राजा, रह गई है तो सिर्फ राजभाषा। भारत एक राष्ट्र है न कि एक राज। जब राज ही नहीं है तो यह बात समझ से परे है कि भारत की संविधान सभा ने 14 सितम्बर,  1949 को हिन्दी को राजभाषा बनाने का फैसला किस आधार पर किया? इस प्रकार से तो राष्ट्रपिता के स्थान पर राजपिता होना चाहिए था। भारत के पास अपना राष्ट्रीय ध्वज है, राष्ट्रीय गान है, राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न है .... नहीं है तो सिर्फ राष्ट्रभाषा नहीं है।

आखिर क्यों हो एक राष्ट्रभाषा? भारत में अनेक भाषाएँ और बोलियाँ है भाई! संविधान के अनुच्छेद 344 (1) और 351 के अनुसार उनमें से निम्न भाषाएँ मुख्य तौर पर बोली जाती हैं

अंग्रेजी, आसामी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू।

अब भारत शासन यदि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दे देती तो शेष भाषाओं को क्या दोयम दर्जा देना नहीं होगा? तो निश्चय किया गया कि भारत में राष्ट्रभाषा न होकर राजभाषा होनी चाहिए! इस प्रकार से सभी सन्तुष्ट रहेंगे। भारत में तो तुष्टिकरण का शुरू से ही रवैया रहा है।

भारत में अधिकृत रूप से कोई भी भाषा राष्ट्रभाषा नहीं है किन्तु देखा जाए तो आज भी परोक्ष रूप से अंग्रेजी ही इस राष्ट्र की राष्ट्रभाषा है। शासकीय नियम के अनुसार हिन्दीभाषी क्षेत्र के कार्यालयों के नामपटल द्विभाषीय अर्थात् हिन्दी और अंग्रेजी में तथा अन्य क्षेत्रों में त्रिभाषीय अर्थात् क्षेत्रीय भाषा, हिन्दी और अंग्रेजी में होने चाहिए। याने कि क्षेत्र चाहे हिन्दीभाषी हो या अन्य, अंग्रेजी का वहाँ होना आवश्यक है। तो है कि नहीं परोक्ष रूप से भारत की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी!

भारत का राष्ट्रीय शासन अपने संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार संकल्प लेती है कि संघ की राजभाषा हिंदी रहेगी और उसके अनुच्छेद  351  के अनुसार हिंदी  भाषा का प्रसार,  वृद्धि करना और उसका विकास करना ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति  के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम हो सके, संघ का कर्तव्य है।
हिंदी के प्रसार एंव विकास की गति बढ़ाने के हेतु तथा संघ के विभिन्न राजकीय प्रयोजनों के लिए उत्तरोत्तर इसके प्रयोग हेतु भारत सरकार द्वारा एक अधिक गहन एवं व्यापक कार्यक्रम तैयार किया जाएगा और उसे कार्यान्वित किया जाएगा। (लिंक)

इस संकल्प को पूरा करने का कितना प्रयास किया गया और जा रहा है यह तो इसी बात से पता चल जाता है कि हमारे बच्चे आज हमसे पूछते हैं कि "चौंसठ" का मतलब "सिक्स्टी फोर" ही होता है ना? उन्हें "सिक्स्टी फोर" की समझ है, "चौंसठ" की नहीं। बच्चों की बात छोड़िए आज हममें से ही अधिकतर लोगों को यह भी नहीं पता है कि अनुस्वार, चन्द्रबिंदु और विसर्ग क्या होते हैं। हिन्दी के पूर्णविराम के स्थान पर अंग्रेजी के फुलस्टॉप का अधिकांशतः प्रयोग होने लगा है। अल्पविराम का प्रयोग तो यदा-कदा देखने को मिल जाता है किन्तु अर्धविराम का प्रयोग तो लुप्तप्राय हो गया है।

विडम्बना तो यह है कि परतन्त्रता में तो हिन्दी का विकास होता रहा किन्तु जब से देश स्वतन्त्र हुआ, हिन्दी का विकास ही रुक गया उल्टे उसकी दुर्गति होनी शुरू हो गई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद शासन की नीति तुष्टिकरण होने के कारण हिन्दी को राष्ट्रभाषा के स्थान पर "राजभाषा" बना दिया गया। विदेश से प्रभावित शिक्षानीति ने हिन्दी को गौण बना कर अग्रेजी के महत्व को ही बढ़ाया। हिन्दी की शिक्षा धीरे-धीरे मात्र औपचारिकता बनते चली गई। दिनों-दिन अंग्रेजी माध्यम वाले कान्वेंट स्कूलों के प्रति मोह बढ़ते चला गया और आज हालत यह है कि अधिकांशतः लोग हिन्दी की शिक्षा से ही वंचित हैं।

भाषा के प्रचार के लिए सिनेमा एक सशक्त माध्यम है किन्तु भारतीय सिनमा में हिन्दी फिल्मों की भाषा हिन्दी न होकर हिन्दुस्तानी, जो कि हिन्दी और उर्दू की खिचड़ी है, रही। और इसका प्रभाव यह हुआ कि लोग हिन्दुस्तानी को ही हिन्दी समझने लगे। दूसरा प्रभावशाली माध्यम है मीडिया किन्तु टीव्ही के निजी चैनलों ने हिन्दी में अंग्रेजी का घालमेल करके हिन्दी को गर्त में और भी नीचे ढकेलना शुरू कर दिया और वहाँ प्रदर्शित होने वाले विज्ञापनों ने तो हिन्दी की चिन्दी करने में "सोने में सुहागे" का काम किया। इसी प्रकार से रोज पढ़े जाने वाले हिन्दी समाचार पत्रों, जिनका प्रभाव लोगों पर सबसे अधिक पड़ता है, ने भी वर्तनी तथा व्याकरण की गलतियों पर ध्यान देना बंद कर दिया और पाठकों का हिन्दी ज्ञान अधिक से अधिक दूषित होते चला गया।

अब अन्तरजाल में ब्लोग्स का साम्राज्य है। हिन्दी ब्लोग्स की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है किन्तु प्रायः हिन्दी ब्लोग्स में "हम मुर्ख हैं", "बातें कि जाये" आदि पढ़ने के लिए मिलता है। यह सोचकर कि वर्तमान में हिन्दी भाषा के लिए उन्नत तकनीक उपलब्ध नहीं हैं और अनेक अहिन्दीभाषी लोग भी हिन्दी ब्लोग लिख रहे हैं तथा उनसे ऐसा होना स्वाभाविक है, एक बार इसे अनदेखा किया भी जा सकता है मगर दुःख तो इस बात का होता है कि कई बार उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे हिन्दीभाषी क्षेत्र के ब्लोगरों के ब्लोग्स में भी हिज्जे और व्याकरण की गलतियाँ मिलती हैं। इसका मुख्य कारण सिर्फ यही लगता है कि हम हिन्दीभाषी ब्लोगर्स अपनी प्रविष्टियाँ आनन फानन में बिना जाँचे ही प्रकाशित कर देते हैं। यदि हम अपनी प्रविष्टियाँ प्रकाशित करने के पहले एक बार उसे पढ़ लें तो इस प्रकार की गलतियाँ हो ही नहीं सकती।

हिन्दी ब्लोग्स में अंग्रेजी-हिन्दी की खिचड़ी वाले ऐसे-ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है जिनका अर्थ न तो नलंदा विशाल शब्दसागर जैसे हिन्दी से हिन्दी शब्दकोश में खोजने पर भी नहीं मिलता और न ही आक्फोर्ड, भार्गव आदि अंग्रेजी से हिन्दी शब्दकोशों में।

इन्सान गलतियों का पुतला है, मुझसे भी अपने पोस्ट में अनेक बार हिज्जों तथा व्याकरण की गलतियाँ होती हैं, हो सकता है कि इस पोस्ट में भी हुई हों। मेरा प्रयास तो यही रहता है कि ऐसी गलतियाँ न हों किन्तु कई बार प्रयास के बावजूद भी रह जाती हैं, पता चलने पर उन्हें सुधारता भी हूँ। अनजाने में हुई गलती क्षम्य है किन्तु जानबूझ कर की जाने वाली गलतियों के विषय में क्या कहा जा सकता है?

यदि हम अपनी रचनाओं के माध्यम से हिन्दी को सँवारने-निखारने का कार्य नहीं कर सकते तो क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं बनता कि कम से कम उसके रूप को विकृत करने का प्रयास तो न करें।

चलते-चलते

राष्ट्रभाषा के उद्‍गार

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

मैं राष्ट्रभाषा हूँ -
इसी देश की राष्ट्रभाषा, भारत की राष्ट्रभाषा

संविधान-जनित, सीमित संविधान में,
अड़तिस वर्षों से रौंदी एक निराशा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।
तुलसी, सूर, कबीर, जायसी,
मीरा के भजनों की भाषा,
भारत की संस्कृति का स्पन्दन,
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

स्वाधीन देश की मैं परिभाषा-
पर पूछ रही हूँ जन जन से-
वर्तमान में किस हिन्दुस्तानी
की हूँ मैं अभिलाषा?
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

चले गये गौरांग देश से,
पर गौरांगी छोड़ गये
अंग्रेजी गौरांगी के चक्कर में,
भारत का मन मोड़ गये
मैं अंग्रेजी के शिविर की बन्दिनी
अपने ही घर में एक दुराशा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

मान लिया अंग्रेजी के शब्द अनेकों,
राष्ट्रव्यापी बन रुके हुये हैं,
पर क्या शब्दों से भाषा निर्मित होती है?
तब क्यों अंग्रेजी के प्रति हम झुके हये हैं?
ले लो अंग्रेजी के शब्दों को-
और मिला दो मुझमें,
पर वाक्य-विन्यास रखो हिन्दी का,
तो, वो राष्ट्र! आयेगा गौरव तुझमें।

'वी हायस्ट नेशनल फ्लैग एण्ड सिंग
नेशनल सांग के बदले
अगर बोलो और लिखो कि
हम नेशनल फ्लैग फहराते-
और नेशनल एन्थीम गाते हैं-
तो भी मै ही होउँगी-
नये रूप में भारत की राष्ट्रभाषा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

मैं हूँ राष्ट्रभाषा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

(रचना तिथिः गुरुवार 15-08-1985)

Monday, September 13, 2010

देवपूजा ठानी मैं, नमाज हूँ भुलानी, हूँ तो मुगलानी, हिंदुआनी बन रहूँगी मैं... मुस्लिम कवियों की हिन्दी रचनाएँ

यहाँ पर हम चर्चा कर रहे हैं मुस्लिम कवियों की हिन्दी रचनाओं की। अनेक मुस्लिम कवियों का हिन्दी के सा था अटूट प्रेम रहा है जिसने बहुत सी रसमय काव्यों को जन्म दिया।

पहले हम जिक्र करेंगे मुस्लिम कवियों की भक्ति रचनाओं की और उसके बाद उनकी अन्य हिन्दी रचनाओं की। भक्ति एक विशुद्ध भावना है जिसने अनेक मुस्लिम कवियों को प्रभावित किया है। बाबा फरीद कहते हैं

कागा सब तन खाइयो, मेरा चुन-चुन मांस।
दो नैना मत खाइयो, मोहि पिया मिलन की आस॥


उपरोक्त दोहे में पिया मिलन का अर्थ है भगवान से मिलन!

बादशाह औरंगजेब की भतीजी ताज़ बेगम, जो कि ताज़बीबी के नाम से रचनाएँ लिखती थी, ने श्री कृष्ण जी का बड़ा ही मनमोहक वर्णन इस प्रकार से किया हैः

छैल जो छबीला, सब रंग में रंगीला
बड़ा चित्त का अड़ीला, कहूँ देवतों से न्यारा है।
माल गले सोहै, नाक-मोती सेत जो है कान,
कुण्डल मन मोहै, लाल मुकुट सिर धारा है।
दुष्टजन मारे, सब संत जो उबारे ताज,
चित्त में निहारे प्रन, प्रीति करन वारा है।
नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा,
वह वृन्दावन वारा, कृष्ण साहेब हमारा है॥
सुनो दिल जानी, मेरे दिल की कहानी तुम,
दस्त ही बिकानी, बदनामी भी सहूँगी मैं।
देवपूजा ठानी मैं, नमाज हूँ भुलानी,
तजे कलमा-कुरान साड़े गुननि गहूँगी मैं॥
नन्द के कुमार, कुरबान तेरी सुरत पै,
हूँ तो मुगलानी, हिंदुआनी बन रहूँगी मैं॥


कबीर साहब तो भक्त कवि थे ही पर उनके पुत्र कमाल साहब ने भी भक्ति रचनाएँ लिखी हैं, वे कहते हैं

राम नाम भज निस दिन बंदे और मरम पाखण्डा,
बाहिर के पट दे मेरे प्यारे, पिंड देख बह्माण्डा ।
अजर-अमर अविनाशी साहिब, नर देही क्यों आया।
इतनी समझ-बूझ नहीं मूरख, आय-जाय सो माया।


रसखान तो अपने अगले जन्म में भी श्रीचरणों के प्रति अनुरक्ति की कामना करते हैं

मानुस हों तो वही रसखान, बसौं बृज गोकुल गांव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहां बस मेरौ, चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरौ करों, नित कालिंदी कूल कदंब की डारन॥


और कारे बेग तो श्री कृष्ण पर इस प्रकार से दावा जताते हैं

एहौं रनधीर बलभद्र जी के वीर अब,
हरौ मेरी पीर क्या, हमारी बेर-बार की

हिंदुन के नाथ हो तो हमारा कुछ दावा नहीं,
जगत के नाथ हो तो मेरी सुध लिजिए


अब बात करते हैं मुस्लिम कवियों की अन्य हिन्दी रचनाओं की। मीर तकी मीर को भला कौन नहीं जानता होगा, उनकी निम्न रचना तो सुविख्यात हैः

पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है …


मीर का निम्न दोहा अतिशयोक्ति अलंकार का एक अनुपम उदाहरण हैः

बिरह आग तन में लगी जरन लगे सब गात।
नारी छूअत बैद के परे फफोला हाथ॥


अब जरा अमीर खुसरो के इन दोहों का आनन्द लीजिएः

खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार।
जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार॥

खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पियो को, दोउ भए एक रंग॥


अबुल हसन यमीनुद्दीन ख़ुसरो देहलवी ने तो अपनी निम्न रचना में एक पंक्ति फारसी और दूसरी पंक्ति हिन्दी की लिखकर एक अनूठा प्रयोग ही कर डालाः

ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल
दुराये नैना बनाये बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ न दारम ऐ जाँ
न लेहु काहे लगाये छतियाँ
चूँ शम्म-ए-सोज़ाँ, चूँ ज़र्रा हैराँ
हमेशा गिरियाँ, ब-इश्क़ आँ माह
न नींद नैना, न अंग चैना
न आप ही आवें, न भेजें पतियाँ
यकायक अज़ दिल ब-सद फ़रेबम
बवुर्द-ए-चशमश क़रार-ओ-तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनाये
प्यारे पी को हमारी बतियाँ
शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़
वरोज़-ए-वसलश चूँ उम्र कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूँ
तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ

Sunday, September 12, 2010

सुनहरा धोखा

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

रक्तिम उषा,
स्वर्णिम अरुणोदय,
रवि की चमक-दमक,
चन्द्र-रजत की ललक,
उष्ण-शीत दिवस,
झर झर झरता पावस,
इन सबमें पलता मानव,
कभी दिव्य, कभी दानव।

अहं त्वं अन्य का जाल,
क्षणिक काल अनन्त काल,
शून्य नभ में सुनहरा धोखा है,
उद्भव-स्थिति-संहार का-
न लेखा है न जोखा है।

पर धोखे की धुरी सत्य,
सतत अमिट अमर्त्य,
लहराता बन कर्तव्य जड़ में चेतन,
चेतन में स्वयं सकाम-निष्काम,
पर, अनादि अनन्त अभिराम

(रचना तिथिः शनिवार 24-12-1983)