(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
या देवी सर्व भूतेषु
'कैब्रे' रूपेण संस्थिता।
हे देवी, तुम 'कैब्रे' बन कर,
दिल दिल से मिल नाच रही हो;
जन-गण-मन की दुर्बलता को,
थिरक-थिरक कर माप रही हो।
महाकालिका ने ऐसे ही,
असुरों का संहार किया था;
पर देवी, तुम तो देवों को भी,
चुम्बक-सी ललकार रही हो।
नमस्तस्यै कैसे कहें?
और तुम्हारी ललकार को-
भावुक कविगण कैस सहें!
या देवी सर्व भूतेषु
'बेल बॉटम' रूपेण संस्थिता।
बेल बॉटम में सिमट सुन्दरी,
महापुरुष-सी लगती हो;
पुरषों से दूरी दूर किये,
नये ज्ञान में जगती हो।
बालक भी एकाकार हुये,
बेल बॉटम का ले आश्रय;
डरा न करते वे तुमसे अब,
रहा न तुमको भी उनका भय।
तुम कहो नमस्तस्मै,
वे कहें नमस्त्यै;
सब करतल ध्वनि कर चीखें
जय बेल बॉटम जय जय जय।
या देवी सर्व भूतेषु
'गाउन' रूपेण संस्थिता।
स्लीपिंग गाउन, वाकिंग गाउन,
देख देख हो जाते डाउन;
वीरों को खूब पछाड़ा है,
भारत में बहुत दहाड़ा है।
तरुणी युवती वृद्धा प्रौढा,
सभी पुजारिन गाउन के;
साड़ी फाड़ बनायें गाउन,
सदा सुलभ शुभ दर्शन उनके।
देसी घोड़ी परदेसी लगाम,
क्यों न करें हम उन्हें प्रणाम!
गति-यति-लय से चीखेंगे-
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।
या देवी सर्व भूतेषु
'ब्लाउज' रूपेण संस्थिता।
आस्तीन हीन इठलाती हो,
चौड़ी गर्दन-मुसकाती हो;
फिर भी देवी कहलाती हो,
टुनटुन-सी वज्र गिराती हो।
पूरब-पश्चिम के भेद सभी,
चबा चबा कर खाती हो;
ऊँची एँड़ी के सैण्डिल में,
खटखट खटखट आती हो।
चारों ओर शोर मचता है,
हर स्वर हर दम यह रटता है;
या देवी सर्व भूतेषु
चण्डी रूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।
(रचना तिथिः 28-11-1980)
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