हमारी अल्पज्ञता स्पष्ट रूप से झलकती है अनुजा जी के इस कथन से कि "देह से आगे भी स्त्री होती है या होगी इस सोच-समझ को विकसित होने में अभी कितनी और सदियां और लगेंगी कुछ कहा नहीं जा सकता।"
हमें कम से कम इस बात का ज्ञान तो होना ही चाहिये कि भारत में सदियों से स्त्री को देह से कहीं बहुत आगे माना जाता रहा है। यह सही है कि भारतीय समाज में महिलाओं का दर्जा अलग-अलग समय में अलग-अलग तरह का रहा है किन्तु यह भी सत्य है कि अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतवर्ष में महिलाओं का उच्च स्थान रहा है। वे लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, काली आदि देवियों के रूप में पूजी जाती रही हैं। पतञ्जलि तथा कात्यायन की कृतियों में स्पष्ट उल्लेख है कि वैदिक युग में शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं का समानाधिकार था। ऋग् वेद की ऋचाएँ बताती हैं कि महिलाओं को अपना वर चयन करने का पूर्ण अधिकार था और उनका विवाह पूर्ण वयस्क अवस्था में हुआ करता था। नारी पुरुष से अधिक शक्तिशाली थी, है और रहेगी। शिव में सामर्थ्य नहीं था महिषासुर के वध का, सिर्फ काली ही उसे मार सकती थी। महिषासुर वध कथा में महिषासुर बुराई का प्रतीक है। ये कथा संदेश देती है कि बुराई को दूर करने में पुरुष की अपेक्षा नारी अधिक सक्षम है।
सदियों से नारी, कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्ष रूप में, पुरुष की प्रेरणा रही है। इतिहास साक्षी है कि पुरुष के द्वारा किये गये प्रत्येक महान कार्य के पीछे उसकी प्रेरणा नारी ही रही है। यदि रत्नावली ने "लाज न आवत आपको..." न कहा होता तो हम आज "रामचरितमानस" जैसे पावन महाकाव्य से वंचित रह जाते। नारी के द्वारा किसी व्यक्ति, समाज और यहाँ तक कि राष्ट्र के विचारों में आमूल परिवर्तन कर देने का प्रत्यक्ष उदाहरण शिवाजी की माता जिजाजी हैं।
भारतीय संस्कृति में सदैव नारी को श्रेष्ठ माना गया है। ' से आगे भी स्त्री होती है या होगी इस सोच-समझ को विकसित होने में अभी कितनी और सदियां और लगेंगी कुछ कहा नहीं जा सकता' जैसे सोच के लिये न तो मैं अनुजा जी की आलोचना कर रहा हूँ और न ही उन्हें गलत निरूपित कर रहा हूँ। मैं तो सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि इस प्रकार की गलत धारणा के लिये हमारी अशिक्षा और अल्प-शिक्षा ही दोषी है। हम अपनी संस्कृति को भूल चुके हैं। हमारी शिक्षा नीति हमें अपने संस्कृति के अध्ययन से वंचित रखती है। हमारी संस्कृति में अन्य संस्कृतियों की मिलावट हो गई है और इसका परिणाम है गलत धारणाओं का बनना। मध्य युग में हमारी संस्कृति में मुगल संस्कृति के मिलावट के परिणामस्वरूप बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा-विवाह का निषेध आदि कुप्रथाओं का प्रचलन हुआ और आज हमारी संस्कृति में पश्चिमी संस्कृति के मिलावट के कारण अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो रहे हैं। आज स्त्री को हेय, तुच्छ या देह समझना सिर्फ शिक्षा के सही प्रकार से विकास न होने कारण ही है।
7 comments:
aapne bilkul sahi likha hai.
मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ. नारी को मात्र एक देह के रूप में देखने वालों की संख्या बहुत कम है. इस बहुत कम संख्या वालों को इतनी मान्यता देना ग़लत है. जो नारी को देह से आगे भी बहुत कुछ मानते हैं उन का क्या कोई महत्त्व नहीं है? कुछ नारियों का यह नकारात्मक सोच बदलना चाहिए.
नारी एक देह भी है, जब तक इसे स्वीकार नही करेंगे, उसकी भी इच्छाएँ व आवश्यकताएँ है जिन्हेँ पूरी करने की आवश्यकता भी है, नर हो या नारी दोनोँ ही पहले देह है, इसके बाद ही आत्मा के विकास की बात आती है, हाँ देह से भी आगे विकास करना है किंतु पहले देह को स्वीकार करना ही होगा, समस्या यही है, बाजार केवल देह को देखता है, बुध्दिजीवी वर्ग आदर्श के चक्कर मे देह को अस्वीकार करता है और उसे देवी बनाकर उसकी शारीरिक व मनोवैग्यानिक जरुरतोँ को ही नजरान्दाज कर देता है. हमे स्वीकार करना होगा, नर हो या नारी पहले देह है और उनका विकास करके आत्मिक शक्ति को पाना है.
पढ़ लिया.
main aapko is tathyaparak chintan ke liye dhanyavad deta hun / mugal yug aur britaniya shashan ne hamare chintan aur jeevan padhhati per apni chhap chhodi hai/
main aapko is tathyaparak chintan ke liye dhanyavad deta hun / mugal yug aur britaniya shashan ne hamare chintan aur jeevan padhhati per apni chhap chhodi hai/
सहमत
Post a Comment