ज्ञानदत्त जी के पोस्ट "वर्तमान पीढ़ी और ऊब" के प्रतिक्रियास्वरूप लिखे गये कुछ पोस्ट मैने पढ़े (ज्ञानदत्त जी से प्रेरित, नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी, ये फासला क्यों?, मानसिक हलचल की हलचले)। इन्हें पढ़ कर लग रहा है कि हमारे बीच कुछ गलफहमियाँ सी उत्पन्न हो गई है। इससे पहले कि गलफहमी और बढ़े उसे खत्म कर देने में ही भलाई है।
मैं समझता हूँ कि ज्ञानदत्त जी का विरोध ऊब से था, न कि नई पीढ़ी से। हाँ उन्होंने ऊब को वर्तमान पीढ़ी के साथ सीधा जोड़ दिया यह मेरी समझ में ठीक नहीं हुआ (ज्ञानदत्त जी कृपया अन्यथा न लें)। ऊब तो पुरानी पीढ़ी में भी थी। मैं स्वयं जब दसवीं कक्षा में था तो कोर्स में शामिल चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी की विख्यात कहानी "उसने कहा था" को पहली बार पढ़ कर ऊब गया था क्योंकि उसे पहली बार पढ़कर मैं समझ नहीं सका था। उस ऊब के कारण उस कहानी को फिर से पढ़ने की इच्छा ही नहीं हो रही थी। पर हर साल परीक्षा में उस कहानी से कम से कम एक प्रश्न अवश्य ही आता था, मुझे उस कहानी को समझने के लिये बार बार पढ़ना ही पड़ा। आज "उसने कहा था" मेरी प्रिय कहानियों में से एक है। हाँ तो मैं कह रहा था कि ऊब सिर्फ वर्तमान पीढ़ी में ही नहीं है, पुरानी पीढ़ी में भी थी। किन्तु आज हर काम के लिये शार्टकट अपनाने, जैसे कि पाठ्यपुस्तक के पाठ न पढ़ कर परीक्षा गाइड पर निर्भर रहने, का चलन बढ़ गया है। यह ऊब के बढ़ जाने के परिणामस्वरूप ही है।
यह भी सही है कि ऊब जाना एक स्वाभाविक क्रिया है जिससे कोई भी नहीं बच सकता चाहे वह वर्तमान पीढ़ी का हो या पुरानी पीढ़ी का। किन्तु ऊब के कारण हम शार्टकट रास्ते न अपना कर यदि उब को सहने और ऊब से लड़ने का प्रयास करें तो क्या यह अधिक अच्छा नहीं होगा?
और फिर पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच कुछ न कुछ दूरी याने कि जनरेशन गैप तो सदा से ही चलती आई है। जब हमारी पीढ़ी युवा थी अर्थात् उन दिनों की नई पीढ़ी थी तो हमें भी अपनी पुरानी पीढ़ी दकियानूस लगा करती थी। ईश्वर ने मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा बनाया है कि यह दूरी कभी भी मिट नहीं पायेगी। पुरानी पीढ़ी सदा ही अतीत में जीती है और अतीत को वर्तमान से अच्छा समझती है और यह भी स्वाभाविक है कि वर्तमान पीढ़ी वर्तमान को अतीत से अच्छा समझती है। दोनों पीढ़ियों में "कुत्ते बिल्ली का बैर" था, है और हमेशा रहेगा।
तो हम यदि हम पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी की बात को भूलकर ज्ञानदत्त जी के पोस्ट को पढ़ें तो सारी गलफहमियाँ अपने आप दूर हो जायेंगी।
4 comments:
मेरी समझ से ज्ञानदत्त जी का संदेश था : अगर काम को करते करते बोरियत होने लगे तो भी काम को मत छोडो , उसे पूरा करो .
भाई अवधिया जी, ऊब और नासमझी में उतना ही अंतर है जितना दूब और घास में:) चंद्रधर [चंद्रप्रकाश नहीं] शर्मा गुलेरी की कहानी से आप ऊबे नहीं थे परंतु उसके कथ्य से उबर नहीं पाये थे- आशा है आप अंतर समझ गए होंगे। अंततः ये भि ध्यान में रखे कि लेख और हास्य-व्यंग्य में अंतर होता है - उतना ही जितना ऊब और दूब में :)
भूल सुधार के लिये सी.एम. प्रसाद जी को धन्यवाद! चन्द्रप्रकाश शर्मा गुलेरी को सुधार कर चन्द्रधर शर्मा गुलेरी भूलवश हो गया था।
वर्तमान में भारत में कम से कम तीन पीढ़ियां हैं। और ऊब का मसला तीनों पर लागू होता है। यह एक पीढ़ी बनाम दूसरी पीढ़ी की बात नहीं है।
आज जो भी उत्कृष्टता है उसमें तकनीकी विकास का बड़ा योगदान है। आदमी की (तकनीकी विकास से) क्षमता पहले से दस-सौ गुणा ज्यादा है। पर उसके अनुपात में आउटपुट है? आदमी जल्दी उचट जा रहा है काम में सतत लगने से।
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