कभी-कभी अकारण ही मन उदास हो जाता है। ऐसा मेरे साथ ही नहीं, सभी के साथ होता है। आपने भी अवश्य ही कभी ऐसा महसूस किया होगा। इसके विपरीत कभी-कभी बिना किसी कारण के मन प्रफुल्लित भी होता है। जब मनुष्य प्रफुल्लित होता है तो वह प्रायः आगत के विषय में सोचता है और जब उदास होता है बरबस ही विगत उसकी आँखों के सामने चलचित्र की तरह चलने लगता है। फिर मेरे जैसे उम्रदराज आदमी के लिये तो अतीत का स्मरण बहुत ही आनन्ददायक होता है। वृद्ध लोगों को अतीत की याद करना और वर्तमान में नुक्स निकालना बहुत प्रिय होता है। खैर, मैं वर्तमान में तो चाह कर भी नुक्स नहीं निकालूँगा क्योंकि यह वर्तमान ही है जिसकी वजह से मेरा ये पोस्ट आप लोगों के समक्ष है, अपने अतीत में तो मैं इस प्रकार से आप जैसे प्रेमी लोगों से सम्पर्क कर ही नहीं सकता था। हाँ, मेरी उम्र के अन्य लोगों की तरह मुझे भी अतीत प्यारा लगता है।
तो आज मन कुछ ठीक न होने से मुझे भी अतीत की बहुत सी यादों ने घेर लिया है। बचपन में मुझे मेरी दादी बहुत चाहती थीं। सत्रह वर्ष की उम्र में विधवा हो गई थीं। उस जमाने के चलन के अनुसार भक्ति भाव में डूबे रहना ही उनका जीवन था। मुझे रोज ब्राह्म-बेला में जगा दिया करती थीं। नित्य दूधाधारी मन्दिर में सुबह की आरती, जो कि साढ़े छः-सात बजे हुआ करती थी, में उपस्थित होना उनका नियम था। अपने साथ वे सालों तक मुझे दूधाधारी मन्दिर ले जाती रहीं। मात्र तीसरी कक्षा तक पढ़ी थीं वे, किन्तु रामायण, भागवत का पाठ रोज ही किया करती थीं। 'नरोत्तमदास' रचित "सुदामा चरित" उन्हें अत्यन्त प्रिय था और पूरी तरह से कण्ठस्थ था। मुझे रोज ही पौराणिक कथाएँ सुनाया करती थीं। आज जो संस्कार मुझमें है वह उन्होंने ही मुझे दिया है। मुझमें भी हिन्दू संस्कार कूट कूट कर भरा हुआ है। और इसी कारण से मुझे सुरेश चिपलूनकर जी के लेख बहुत अच्छे लगते हैं (यह अलग बात है कि आक्रामक स्वभाव न होने के कारण मैं वैसे लेख नहीं लिख सकता)।
प्रायमरी स्कूल में गणित मेरा प्रिय विषय था। कक्षा में सबसे पहले सवाल मैं ही हल किया करता था। आज सोचता हूँ कि उस जमाने में सीखे हुये रुपया-आना-पैसा, तोला-माशा-रत्ती, मन-सेर-छँटाक, ताव-दस्ता-रीम आदि के सवाल आज किसी काम के नहीं रहे हैं। प्रायमरी स्कूल में गणित में मुझे चालीस में चालीस अंक मिला करते थे। इसी प्रकार इमला (श्रुतलेख) में भी मुझे सोलह में सोलह अंक मिला करते थे।
प्रायमरी स्कूल के बाद अर्थात् मिडिल स्कूल से लेकर कॉलेज तक मैं हमेशा सेकेण्ड क्लास विद्यार्थी ही रहा। मैं मूलतः विज्ञान का छात्र था, गणित, भौतिकशास्त्र और रसायनशास्त्र मेरे विषय थे। एक साल तक इंजीनियरिंग कॉलेज, रायपुर में भी पढ़ा किन्तु घर की आर्थिक परिस्थिति अच्छी न होने के कारण उसे छोड़ना पड़ा।
हिन्दी कभी भी मेरा मुख्य विषय नहीं रहा किन्तु हिन्दी से मुझे शुरू से ही प्रेम रहा है। शायद इसका कारण यही हो कि मेरे पिताजी ने हिन्दी में एम.ए. किया था और वे हिन्दी के ही शिक्षक थे। हिन्दी का ज्ञान मुझे वंशानुगत ही मिला है। हिन्दी के ब्लोग्स की बढ़ती संख्या देखकर मुझे बहुत खुशी होती है। कभी कभी हिन्दी ब्लोग्स में हिज्जों और व्याकरण की गलतियाँ देख कर अखरता भी है किन्तु यह भी लगता है कि यह तो स्वाभाविक ही है क्योंकि बहुत से ऐसे ब्लोगर भी हैं जिनकी भाषा हिन्दी न होकर कुछ अन्य है। फिर भी, जैसा कि अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं के ब्लोग्स में होता है, हम भी लिखते समय हिज्जों और व्याकरण की गलतियों का ध्यान रखें तो ज्यादा अच्छा होगा।
चलिये, इतना लिखकर मन का गुबार निकल गया और उदासी जाती रही।
2 comments:
होता है ऐसा कभी कभी। मैं जब अस्वस्थ होता हूँ तो मेरे सामने मेरी दादी ही रहती है 9प्यार भरी) डाँट लगाते हुए और मैं सोचता ही रह जाता हूँ कि यह डाँट चलती रहे तो कितना अच्छा।
आपके लेख के अंतिम पैराग्राफ से पूर्णत: सहमत्। ऐसे ही आग्रहों (जिद पढ़ा जा सकता है) के चलते कई बार कड़ी आलोचना भी झेलनी पड़ी है इस ब्लॉग जगत में।
Kabhee kabhee aisa ho jaata hai. Jab aisa ho blog jagat ki sair kar liya karen, man halka ho jaayega.
Think Scientific Act Scientific
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