वसन्त ऋतु है अभी! किन्तु मुझे तो मादकता का किंचितमात्र भी अनुभव नहीं हो रहा है। टेसू और सेमल के रक्तवर्ण पुष्प, जो कि वसन्त के श्रृंगार माने जाते हैं, तो कहीं दृष्टिगत हो ही नहीं रहे हैं। कहाँ हैं आम के बौर? कहाँ गई कोयल की कूक? यह वसन्त का लोप बड़े नगरों की देन है। छोटे गाँवों और वनों में शायद हो वसन्त पर मेरे रायपुर में तो नहीं है।
रीतिकालीन कवि 'सेनापति' ने लिखा थाः
बरन बरन तरु फूले उपवन वन,
सोई चतुरंग संग दल लहियतु है।
बंदी जिमि बोलत विरद वीर कोकिल है,
गुंजत मधुप गान गुन गहियतु है॥
आवे आस-पास पुहुपन की सुवास सोई
सोने के सुगंध माझ सने रहियतु है।
सोभा को समाज सेनापति सुख साज आजु,
आवत बसंत रितुराज कहियतु है॥
यदि आज वे होत तो क्या ऐसी रचना कर पाते?
6 comments:
आयेगा, आयेगा अवधिया साहब, मादक वसंत भी आयेगा ! उम्मीद पर दुनिया कायम है !
सही बात है इन्सान ने अपनी तृ्ष्णाओं की पूर्ति के लिये प्रकृति के साथ घिनौना मजाक किया है। सुन्दर रचना धन्यवाद्
बहुत बहुत धन्यवाद गुरुदेव सेनापती को याद दिलाने के लिये.
मौसम आयेंगे जायेंगे पर सेनापती के मौसमी कालजयी गीतो को हम सब नही भूल पायेंगे.. तब भी जब ये धरती मे ग्लोबल वार्मिंग से मौसम की परिभाषाये बदल जायेगी.
मादकता का उम्र से भी संबंध है। अब आप को मादकता न दिखे तो इस में वसंत का कसूर नहीं। कहीं नजदीक आम के वृक्ष को जा कर देखें, कैसा बौराया है?
द्विवेदी जी, वसन्त की मादकता का सम्बन्ध तो उम्र से किंचित मात्र भी नहीं होता। वह तो बाल, युवा, वृद्ध सभी के हृदय को हर्षित करता है। अब आदमी के इस जंगल में बौराया हुआ आम का वृक्ष कहाँ खोजें? हम तो कल्पना में ही टेसू, सेमल, बौराया हुआ आम का वृक्ष सभी कुछ देख लेते हैं और मुँह से अनायास ही फाग गीत भी निकल पड़ता हैः
बाजत झांझ मृदंग ढोल डफ मंजीरा शहनाई ना,
उड़त गुलाल लाल भये बादर केसर कीच मचाई ना।
आज श्याम संग सब सखियन मिलि ब्रज में होली खेलैं ना ...
अवधिया जी,
मादक वसंत से सराबोर होना है...यू ट्यूब पर जाकर मलिका पुखराज और उनकी बेटी ताहिरा की आवाज़ में गीत सुनिए...लो फिर बसंत आई...तबीयत न खुश हो जाए तो मेरा नाम खुशदीप नहीं...
जय हिंद...
Post a Comment