Friday, October 8, 2010

सत्तर की उम्र और नटनी से आशनाई

लेखक – आचार्य चतुरसेन

गुलाबजान के एक और चाहनेवाले थे, नवाब मुज़फ्फरबेग, जो नवाब बल्लभगढ़ के नाम से मशहूर थे। बल्लभगढ़ मुक्तेसर की पूर्वी दिशा में अब एक छोटा-सा वीरान गाँव है। उस जमाने में यहाँ बड़ी रौनक थी, जिसका सबूत नवाब की विशाल गढ़ी, हवेली और बारहदरी तथा कचहरी के खण्डहर हैं, जिन पर अडूसे और धतूरे के पेड़ उग आए हैं। उन दिनों यहाँ बहुत धूम-धड़ाका रहता था। नवाब मुज़फ्फरबेग ठस्से के रईस थे। रुपया नकद इनके पास बहुत था। इलाका भी छोटा न था। असल बात यह थी, उन दिनों आज के जैसे न तो बम्बई, कलकत्ता और दिल्ली जैसे विशाल नगर थे, जहाँ देश-भर के पढ़े-लिखे लोग पेट के धन्धे के फेर में फँसकर खटमल और मच्छरों की भाँति छोटे-छोटे दरबों में रहते हैं। जिन्हें सुबह नौ से दस बजे तक और शाम को पाँच से छः बजे तक टिड्डीदल की भाँति दफ्तर से आते-जाते आप देख सकते हैं। और न बड़े-बड़े मिल-कारखाने खुले थे, जहाँ लाखों मजदूर एक साथ मजदूरी करके पेट पालते और मुर्गे-मुर्गियों की भाँति गन्दे दरबों में रहते हैं। पापी पेट के लिए लाखों-करोड़ों स्त्री-पुरुष, गाँव-देहात छोड़ अब इन शहरों में आ बसे हैं। उन दिनों ये सब देश में समान भाव से फैले हुए देहातों में रहते थे। खेती करते या घर पर अपने-अपने हजारों धन्धे करते थे। शहर और कस्बे की बात तो दूर, छोटा-मोटा गाँव भी उ दिनों अपनी हर जरूरत के लिए आत्मनिर्भर था। और हर एक आदमी बहुत कम खर्च में सीधे-सादे ढंग से मजे में रहता था। अपना मालिक आप! तब न इतनी पुलिस थी, न इन्तजाम। जमींदारों की स्वेच्छाचारिता थी। कम्पनी बहादुर के अहलकारों की आपाधापी थी। चोरों, ठगों, सांखियों, कंजरों, डाकुओं का भय था। अराजकता थी। पर फिर भी लोग खुश थे। अपने में सम्पूर्ण, आत्मनिर्मभर। परिश्रम, सादा जीवन और आत्मनिर्भरता उनके स्वभाव का अंग बन गए थे क्योंकि उनके बिना एक क्षण भी चलता न था। वह जमाना ही ऐसा था।

लोग खुश थे, मस्त थे और उसका नतीजा था कि आमतौर पर रियाया में ऐयाशी एक हद तक फैली थी। आप इसे चरित्रहीनता कह सकते हैं। बाल-बच्चेदार रईस, नवाब रंडियाँ, नटनियाँ रखते, खुल्लमखुल्ला घरों पर नाच-मुज़रे होते, छोटे-बड़े सभी उनमें भाग लेते, नशा-पानी होता। होली-दीवाली का हुर्दंग होता। नटनियाँ, वेश्याएँ, जो ताबे होतीं, रईसों के घरों पर आती-जातीं। घर के बच्चे उनसे वही रिश्ता रखते जो घर की स्त्रियों से होता है। कोई शर्म-झिझक न थी। चाची, मामी का रिश्ता और वही सुलूक। बड़े घर की अमीरज़ादियाँ खातिरख्वाह इन कसबियों को भीतर जनाने में बुलातीं, खातिर करतीं, इनाम देतीं, पास बिठातीं। इस प्रकार ये नटनियाँ, कंजरियाँ, पतुरियाँ, डेरेवालियाँ, डोमनियाँ भी सभ्य समाज का एक अंग थीं। उनके बिना समाज सूना था, उदास था।

नवाब साहब की उम्र सत्तर के करीब थी। मुँह में एक दाँत न था। कमर झुककर दुहरी हो गई थी। सिर के और दाढ़ी के बाल रुई के गोले के समान सफेद। मगर रहते थे नौरतन बने-ठने। कैंचुली का अंगरखा, गुलबदन का पायजामा, जिसमें लाल रेशम का जालीदार नेफा। मसालेदार टोपी, बालों में कीमती चमेली का तेल, कपड़े इत्र-हिना से तर अब कहिए इस उम्र में भी रंडी से आशनाई।

मुँहलगे यार-दोस्त पूछते, “हुजूर, अब इस उम्र में तो खुदा की बंदगी और तस्बीह की सोहबत मुनासिब है।” तो तड़ाक से कहते, “बेहूदा बकते हो। खुदा की बन्दगी और तस्बीह की क्या कोई खास उम्र होती है? हम तो पैदाइशी बन्दे-खुदा हैं। हर वक्त वज्द में रहते हैं। तुम दो दिन के लौंडे क्या जानों। मगर हमारी सरकार में जहाँ शान-शौकत के और सब सामान व फज़ले-खुदा मुहैया है, वहाँ हमारी जानोमाल की सलामती बनाने के लिए जलूसियों में एक रंडी भी चाहिए।”

सौ रुपये मुशाहरा गुलाबजान को इस सरकार से मिलता था। इसपर नवाब जबरदस्तखां को भी ऐतराज न था। बूढ़े की सनक पर वे भी हँसते थे, बल्कि अपनी महफिल में ब-ज़िद बुलाकर बिठा लेते और उनके चुटकुलों का और जिन्दादिली का मज़ा लेते थे। गाने और सितारबाजी में उस्ताद थे। दमखम और आवाज अब नहीं रही थी, मगर जब आलाप लेते तो तबलची-सारंगियों के दाँतों पसीना आ जाता था। ध्रुपद-धमाल के धनी थे। बड़े-बड़े उस्तादों की आँखें देखे हुए थे। बड़ी-बड़ी नामी-गिरामी रंडियाँ और गवैये उनके सामने जूतियाँ सीधी करते और उन्हें औलिया कहते थे। आवाज में वह सोज-लचक थी कि दिल तड़प जाता था।

ताज़ियादारी इनकी ठाठ की होती थी। दूर-दूर की रंडियाँ मर्सिये गाने आतीं। लखनऊ, दिल्ली और बनारस के कलावन्त अपना करतब दिखाते। अशरा मुहर्रम में दस दिन रोज मज़लिस होती थी। चेहलम तक हर जुमेरात को खास धूम-धाम रहती थी। सैकड़ों मुँहताज मोमिनीन लंगर खाते थे।

वही मामला होली पर होता था। पूरे हफ्ते-भर होली का हुर्दंग रहता। वे भूल जाते कि मुसलमान हैं। रंग, अबीर, गुलाल में सराबोर। शराब,भंग की माजूम, बर्फियाँ और बादा; केसर मलाई डाली हुई दूधिया छनती – शहर-भर की पहुनाई होती। नवाब घर-घर जाते, रंग डालते, अबीर लगवाते, लोगों से गले मिलते थे, इस मौके पर बनारस और लखनऊ से मशहूर भांड बुलाए जाते थे। क्या बहार थी, बस बल्लभगढ़ उन दिनों इन्द्र का अखाड़ा बन जाता था। जिन्दगी उमड़ी पड़ती थी।

नवाब की बेगम कायम थीं। उम्र उनकी भी नवाब से कम न थी। दोनों में मुहब्बत ऐसी कि जवान भी लज्जित हों। नवाब साहब का बँधा दस्तूर था कि रात के नौ बजे और जनानखाने में दाखिल। लाख काम हो, बाहर नहीं आते थे। असल बात यह है कि नवाब बूढ़े जरूर थे पर थे प्यार करने के काबिल।

हापुड़ में नवाब साहब की पुख्ता हवेली थी। जब आते वहीं मुकाम करते थे। जितने दिन मुकाम रहता, रंग, बहार, मजलिस, महफिल, दावत, शिकार, अगलम-बगलम, हँसी-मजाक और सब कुछ। मगर निहायत सलीके से। शेर भी कह लेते थे। सुनने के पक्के शौकीन, बस, मुशायरों की भी एक-दो वारदातें हो जातीं। लुफ्त रहता।

दीवाली बीत चुकी थी। गुलाबी सर्दी पड़ने लगी थी। लोग लिहाफ-रजाइयों से मुँह निकालकर सोने लगे थे – मौसम पुरलुफ्त था। आसमान में चाँदनी चटखती तो रात जैसे खुलकर हँसती थी। मुक्तेसर में गंगा-स्नान में मेले की चढ़ाई थी। लख्खा आदमियों का हुजूम मुक्तेसर पर उमड़ा पड़ता था। आस-पास के देहातों से अमीर-गरीब, अपनी हैसियत के अनुसार बहलों, गाड़ियों, रथों, मंझोलियों में, घोड़ों पर, पालकियों में आ रहे थे। सवारियों का तांता बँधा था। हापुड़ में भी आदमियों का भारी हुजूम था। एक मेला लगा था। दूर-दूर के बिसाती, दूकानदार दूकानें सजाए तरह-तरह की जिन्सें बेच रहे थे। हलवाइयों और मोदियों की चाँदी थी।

नवाब का आम दस्तूर था कि इन दिनों वे हापुड़ में आ मुकीम होते थे। गंगा-स्नान के हफ्ते-भर बाद तक डटे रहते। यात्रियों के लिए पौसाला लगाते थे। शर्बत पिलाते थे। मगर असल बात यह थी – जाटनियों के गीत सुनने का उन्हें शौक था, जो आस-पास के देहातों से सिमटकर झण्ड के झुण्ड पैदल या बैलगाड़ियों में राह चलते गला मिलाकर गाती थीं। बस वह गाना बेमिसाल था। क्या गातीं खाक-धूल समझ नहीं पड़ता, परन्तु उनकी मिली-जुली हो-हो पर नवाब लट्टू थे। हवेली उनकी आम रास्ते पर थी। कोठी में आरामकुर्सी पर बैठे अम्बरी तमाखू खुशबू की मस्त महक का मजा लेते हुए चटख चाँदनी रात में सामने सड़क पर गुजरती हुई बैलगाड़ियों में हिचकोले खाती हुई जाटनियों के अजीब लहरी गानों का लुत्फ लेते रहते थे।

…………

मेले की भीड़-भाड़ जब घट गई तो गुलाबजान ने एक ठाठ के जल्से की नवाब साहब को दावत दी। कोठे पर महफिल सजाई। कीमती शीशे-आलात की रोशनी, साफ दूध-सी सफेद चाँदनी का फर्श, ईरानी कीमती कालीन, उसपर जरबफ्त की मसनदें और गुलगुले गावतकिए, रंग-बिरंगे मरदेगें, हांडिया रोशन, इत्र-फुलेल, गुलाब, केवड़ा, हिना, चम्पा, जूही, मालती की गहगही खुशगवार खुशबू के साथ मिली-जुली लखनऊ के कीमती मुश्की अम्बरी खसीरी तमाखू की महक। तमाम कस्बे में महफिल की धूम मच गई। मगर क्या मजाल कि पंछी पर मार जाए। सिर्फ चुनिंदा सोहबत। कस्बे की सब मशहूर नौचियाँ, कंचनी, डोमनी, डेरेदार, नटनियाँ एक से एक खूबसूरत, सब गहनों गोदनी की तरह लदी हुईँ, इठलाती, बन-ठनी, तोलवाँ जोड़े पहने। गोरी, साँवली, ठिगनी, मझोली, लम्बी – सभी किस्म की बला। कोई मखमली धानी दुपट्टे से फूटी पड़ती है। किसी का ऊदी गिरंट का पायजामा संभाले नहीं संभलता। किसी की फँसी-फँसी कुर्ती गज़ब ढा रही है। किसी के हाथ-गले में हलका जेवर, किसी की नाक में हीरे की कील, कानों में सोने की आँतियों की बहार, किसी के हाथौं में भारी-भारी सोने के कड़े, गले में मोतियों का कण्ठा, कोई चंचल, कोई तुनकमिज़ाज, कोई गोरी-चिट्टी, किसी का खुलता साँवला रंग, किताबी चेहरा, सतुवाँ नाक, बड़ी-बड़ी आँखें, स्याह पुतली, उसपर काजल की लकीर, किसी का काही दुपट्टा करेब का, बनात टँकी हुई, जर्द गिरंट का पायजामा। कोई गहनों से लदी-फदी, कोई फूलों के गजरों से आरास्ता, जैसे चौथी की दुलहिन। बात-बात में शोखी-शरारत। कोई आँखें लड़ा रही है, कोई मुँह बना रही है, गर्ज हुस्न का बाजार लगा था। चाँदी की तश्तरी में गुलाब-केवड़े में बसी पानी की गिलौरियाँ, बसे हुए हुक्के। जल्से का वह रंग कि जिसका नाम।

नवाब मुज़फ्फरबेग कारचोबी काम की मसनद पर उठँगे हुए, गिलौरियाँ कचर रहे हैं। तनज़ेब का अंगरखा, ऊदी सदरी, नुक्केदार टोपी, चुस्त घुटन्ना, बगल में नवाब जबरदस्तखां, कीमती भारी अरकाट दुशाला, कोई दो हजार की कीमत का, कमर में लपेटे, दूसरा सर से बाँधे, हाथ में हुक्के की नली, छत की ओर ताकते मुश्की धुएँ का अम्बार बना रहे हैं।

दीवान परसादीलाल, सत्तर से भी ढले हुए। दुबले-पतले कोई साढ़े चार माशे के आदमी, ऐनक आँखों पर चढ़ाए। माथे पर बल, कान में कलम, मखमल का अंगा और ढीले पायचों का पायजामा। चाँदनी का कोना दबाए सिकुड़े बैठे कभी-कभी परी-पैकरों को देखते, कभी अपने मालिक नवाब जबरदस्तखां के तेवरों को।

एक वकील, सादा घुटा सिर, सदली मंडील सिर पर, तराशी हुई मूछें। पूरे खुर्राट। हरएक को घूरते और मुस्कुराते हुए।

दो चोबदार अदब से दीवारों में चिपके हुए। दरवाजे के पास एक मशालची खड़ा था। एक मुख्तार साहब और दो शरीफज़ादे कालीन पर बैठे थे।

बी गुलाबजान के ठस्से का क्या कहना, चाँदी की गुड़गुड़ी मुँ से लगी है, सामने पानदान खुला हुआ है, एक-एक को पान लगाकर देती जाती हैं। नौचियाँ लपक-लपककर पानों की तश्तरी रईसों को पेश करती हैं, रईस हैं कि कलाबत्तू हुए जा रहे हैं। पान की गिलौरियाँ कचरते हैं, गंगा-जमुनी काम के पेचवन में कश लेते हैं। दीदारबाजी और फिकरेबाजी चल रही है। कहकहे उड़ रहे हैं। चुहलें हो रही हैं। उधर वह उठी, इधर आवाज आई – जरा संभल के। ये चली हैं छमाछम, तो किसी की परवाह नहीं। यहाँ रईस हैं कि आँखें बिछा रहे हैं, नज़रों के तीर-तमंचे चल रहे हैं, बिना माँगे लोग कलेजा निकालकर दे रहे हैं। कोई दिल हथेली पर रखे हुए है। मगर वे हैं कि कोई बात नज़र में ही नहीं समाती। गरूर का यह हाल कि बादशाह भी इनकी ठोकर पर हैं। नाज़ और अन्दाज़ पर मरनेवाले मर रहे हैं, जो जिन्दा हैं, ठण्डी साँसे भर रहे हैं। एक है कि रूठी बैठी है, लोग मना रहे हैं।

खिदमतगार सुनहरी काम का हुक्का तैयार करके हाजिर हुआ। बी गुलाबजान ने इशारा किया, बड़े नवाब के सामने लगा दो। नवाब साहब ने गुड़गुड़ी नवाब जबरदस्तखां के आगे सरकाकर कहा, “शौक कीजिए।” नवाब जबरदस्तखां ने तपाक से, जरा-सा मसनद से उकसकर तसलीम बजाई और कहा, “किब्ला पहले आप।”

बूढ़े नवाब ने मुनाल मुँह लगाई। मजे ले-लेकर हुक्का पीने लगे। बी गुलाबजान ने पानदान सरकाया। पान पर कत्था-चूना लगा, डलियों का चूरा चुटकी भर डाला, इलायची के दाने पानदान के ढकने पर कुचलकर गिलौरी बनाई और खुद उठकर बड़े नवाब को पेश की।

नवाब ने कहा, “दाँत कहाँ से लाऊँ जो पान खाऊँ?”

“हुजूर, खाइए तो, आप ही के लायक मैंने बनाया है।”

नवाब जबरदस्तखां ने मुस्कराकर कहा, “वल्लाह, बनाने में तो तुम एक ही हो।”

गुलाबजान ने तड़ाक से जवाब दिया, “लेकिन हुजूर बनाती ही हूँ, बिगाड़ती किसी की नहीं।”

बूढ़े नवाब ने धुएँ के बादल बनाते हुए एक ठण्डी साँस भरी और कहा, “शुक्र है खुदा का।”

इस पर एक गहरा कहकहा पड़ा।

दीवान परसादीलाल ने दस्तबस्ता अर्ज़ की, “हुजूर, यह क्या बात है; जिस पर सरकार की नज़र पड़ती है; उसस पर लाखों नज़रें पड़ती हैं; रश्क के मारे लोग जले जाते हैं।”

नवाब ने संजीदगी से कहा, “ये जान-बूझकर जलाती हैं।”

जबरदस्तखां ने हँसकर कहा, “साहब, पहले तो वही खुद मरती हैं।”

गुलाबजान ने झट दूसरा बीड़ा नवाब जबरदस्तखां के मुँह में ठूँसते हुए कहा, “अय हुजूर, यह नया कल्मा कहा। मरें हमारे दुश्मन।”

“मरें इनके दुश्मन, ठीक तो है। न जाने कितने मर चुके। उनके घर में रोना-पीटना मचा है, ये बैठी यारों के साथ कहकहे लगा रही हैं। जरा उगालदान दीजिए।”

एक नौची ने आगे बढ़कर उगालदान नवाब के आगे किया। नौची नवेली, कमसिन, अल्हड़, पर रंग ऐसा कि उलटा तवा। चेचक के दाग, छोटी-छोटी आँखें, भद्दी-सी नाक, नीचे को बैठी हुई, बड़े-बड़े नथुने। कद ठिगना, मोट-मोटे होंठ। गले में सोने की चम्पाकली, नाक में पीतल का बुलाक। देहाती धज। नबाब भाँप गए, मजाक का मसाला मिला। आहिस्ता से बोले -

“क्या नाम है तुम्हारा बीबीजान?”

“हुजूर, मुझे धनिया कहते हैं।”

“वाह, क्या मुफ़ीद नाम है।” दीवान सहब की तरफ मुखातिब होकर, “दीवान साहब, धनिये की क्या तासीर है?”

दीवान साहब पूरे घाघ! खट से हाथ बाँधे बोले, “सरकार, दिल को ठण्डक पहुँचाता है।”

कहकहा फर्माइशी पड़ा। धनिया झेंप गई। उठकर जाने लगी तो बड़े नवाब ने कहा, “ठहरो तो बीबी, यह बुलाक तुमने कहाँ बनवाया?”

नौची ने झेंपते हुए कह, “नखलऊ से मोल लिया था सरकार।”

“नखलऊ भी बड़ा गुलज़ार शहर है।” दीवान साहब की ओर मुखातिब होकर बोले, “क्या खयाल है दीवान साहब?”

दीवान साहब छाती पर हाथ धरकर बोले, “क्या कहने हैं हुजूर नखलऊ शहर के, एक से एक बढ़कर एक कारीगर बाकमाल आदमी बसते हैं वहाँ। मगर कुछ लोग उस शहर को लखनऊ कहते हैं।”

“कहते होंगे, हमें तो नखलऊ ही प्यारा लगता है।” नवाब ने एक बार नौची की ओर देखा। फिर कहा, “जरा देख सकता हूँ मैं तुम्हारा यह जेवर?”

अब नौची गरीब क्या करे। दबी नज़र इधर-उधर देखा। मुआ पीतल का बुलाक, दो पैसे का। खूब फँसी। नीचा मुँह किया, नाक से निकाला, रूमाल से साफ किया और बड़े नवाब की हथेली पर रख दिया।

नवाब साहब बड़े गौर से देखते रहे। फिर गुड़गुड़ी में, एक कश खींचकर बोले, “निहायत नफ़ीस चीज़ है, इसे तुम बीबी, हमें दे सकती हो? कीमत जो चाहो ले लो।”

गुलाब मजाक को समझ न रही थे, नौची शर्म से ज़मी में धँसी जा रही थी, मगर पुराने खूँसट दीवान मजा ले रहे थे। आहिस्ता से बोले, “इस अदद को खरीदकर क्या करेंगे हुजूर?”

नवाब ने निहायत संजीदा होकर कहा, “क्या कहूँ दीवानजी, हमारी एक कुतिया है, कुत्ते हरामज़ादे उसे बहुत दिक करते हैं, सोचता हूँ यह बुलाक…..”

बात पूरी न हो पाई कि नौची भागी पत्तातोड़। सारी रंडियाँ मुँह पर दुपट्टा डालकर हँसने लगीं। वह कहकहा पड़ा कि खुदा की पनाह।

लेकिन नवाब हैं कि संजीदा बने बैठे हैं, हैरान हैं कि आखिर यह कहकहे किसलिए? “मालूम होता है, आप लोग बहुत खुश हैं!”

नवाब जबरदस्तखां ने कहा, “जी हाँ, ये लोग हुजूर को मुबारकबाद देना चाहते हैं।”

“आखिर किस सिलसिले में?”

“हुजूर की कद्रदानी और गैहरशिनासी के सिले में। वाह, क्या दाना बीना है। बस बी धनिया की तो तकदीर खुल गई।”

“तो बी धनिया पर ही क्या मौसूफ है। हमारी तो तबियत ही ऐसी है, सुना गुलाबजान, जरा ध्यान रखना। कोई हसीन नया चेहरा नज़र आए, और मैं जिन्दा होऊँ तो उम्मीदवारों में मेरा नाम लिख लेना, और जो मर जाऊँ तो कहना मेरे नाम पर फातिहा पढ़ ले।”

दीवान साहब खुशामदी लहजे में बोले उठे, “खुदा न करे।”

मगर गुलाबजाने ने तड़ाक से कहा, “और अगर कोई हसीन मर्द नज़र आए?”

“तब तो तुम उसकी उम्मीदवार बनोगी ही, मेरा नाम उसकी बहन के उम्मीदवारों में लिख लेना।”

इस हाजिरजवाबी पर फिर एक फर्माइशी कहकहा मचा। आखिर दीवान साहब ने कहा, “हुजूर, ये खुशगप्पियाँ तो होती ही रहेंगी, अब जरा तानारीरी का भी लुत्फ़ उठाया जाए। उधर देखिए चौथ का चाँद बदली में क्या अठखेलियाँ कर रहा है! हवा कैसी मीठी बह रही है! तिलस्मात का आलम है, बस केदारे की एक चीज़ हो जाए हुजूड़।”

बड़े नवाब मसनद पर लुढ़क गए। हुक्के की नाल मुँह से लगाते हुए बोले, “क्या मुजायका है, बशर्तें गुलाबजान को कोई ऐतराज न हो।”

गुलाबजान ने कहा, “तो हुजूर हुक्म हो तो पहल धनिया करे।”

नवाब न जानते थे कि धनिया फने-मौसिकी में माहिर है। गला कयामत का कुदरत से पाया था, मालूमात बहुत अच्छी थी। रियाज़ कमाल का था। नवाब के होठों पर मुस्कान फैल गई।

धनिया ने आकर नवाब साहब को सलाम किया। करीने से बैठी, उस्ताद सारंगिए ने सफ बाँधी। एक नौची ने तानपूरा संभाला।

धनिया ने नवाब से पूछा, “हुजूर, क्या गाऊँ?”

“गाना गाओ बीबी!”

“कौन राग?”

“राग? खैर, केदारा ही सही।”

“क्या? अस्थाई, ध्रुपद, तराना?”

नवाब मसनद पर से उठकर सीधे बैठे। नौची की आँख में आँख डालकर कहा, “ध्रुपद गाओ।”

धनिया ने स्वर बाँधा, धीरे-धीरे आलाप लेना शुरू किया। पर जब मूर्छना उसके गले से निकलने लगी तो तबलची बेहाल हो गया। नवाब ने झपटकर तबला अपनी रानों में दबाया। फिर तो उनकी पुरानी उँगलियाँ कमाल का जौहर दिखाने लगीं। घड़ी-भर ही में बेखुदी का आलमतारी हो गया। न किसी के मुँह से वाह निकलती है न आह। सब बुत बने बैठे हैं। और सुर हैं जो हवा में तैरते हुए धरती-आसमान को जर्रा-जर्रा कर रहे हैं। दून की बाढ़ आई और फिर तीन ग्राम मे उँगलियाँ थर्राने लगीं। इसी बेखुदी के आलम में गुलाबजान नाचने उठ खड़ी हुई, फिर तो वह समां बँधा कि वाह! चार घड़ी सुर तड़पते रहे। राग, मूर्छना, स्वर, ताल, लय, आलाप, उच्चार, सब कुछ ऐसा जो बड़े-बड़े कलावन्तों का भी न सुना था।

गाना बन्द कर धनिया ने नवाब को आदाब झुकाया। नवाब ने हाथों की अँगूठियाँ, जेब की घड़ी, गले का लॉकेट, जेब के रुपए-पैसे, अशरफी जो कुछ था धनिया के ऊपर बखेर दिया। कद्रदान आदमी थे, आँखों में आँसू भर लाए। उसके दोनों हाथों को आँखों से लगाकर बोले, “जीती रहो, शर्मिन्दा हूँ बीबी, मैंने तुम्हारे साथ मजाक किया। अब से तुम जहाँ रहो, वहीं पचास रुपया माहवार मुशाहरा तुम्हें जब तक मैं जिन्दा हूँ, मिलता रहेगा। और तुम पर कोई पाबन्दी नहीं है।”

धनिया बार-बार सलामें झुकाती हट गई। गुलाबजान ने कहा, “अब?”

देर तक सन्नाटा रहा। आखिर नवाब हुक्के की नली छोड़ उठ खड़े हुए। उन्होंने आहिस्ता से कहा, “जल्सा बर्खास्त।”

(आचार्य चतुरसेन के उपन्यास “सोना और खून” का अंश)

(इससे पूर्व की कहानी यहाँ पढ़ें - जमींदार नटनी गुलाबजान)

6 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

यह उपन्यास पढ़ा हाही ..इसके अंश यहाँ पढ़ना अच्छा लगा

Saleem Khan said...

superhit !!!

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर रचना, आप सब को नवरात्रो की शुभकामनायें,

प्रवीण पाण्डेय said...

सुन्दर रचना। डालने का आभार।

संजय @ मो सम कौन... said...

कदरदान लोग थे जी।
जीने का सलीका भी जानते थे।
अपने को उस दौर के किस्से बहुत अच्छे लगते हैं।
कल आपकी यह पोस्ट देख ली थी, लेकिन जल्दी में नहीं पढ़ पाया था।
डालते रहिये सर, ऐसे उपन्यास अंश।

Unknown said...

वाह वाह ...
आनन्द आ रहा है जी..........