आज घर में यह हालत है कि जिस कमरे में देखो मिठाइयों से भरे बर्तन तथा डिब्बे इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। रिश्तेदारों और परिचितों के घर से बैने के रूप में प्रसाद आते जा रहे हैं जिनमें अनेक प्रकार की मिठाइयाँ ही मिठाइयाँ हैं। जिन मिठाइयों को देखकर ही मुँह में पानी आ जाता था आज उन्हीं मिठाइयों को देखने की इच्छा तक नहीं हो रही है। जब किसी वस्तु की मात्रा बहुत अधिक हो जाती है तो उसका कोई मूल्य नहीं रह जाता; इसीलिए तो वृन्द कवि ने कहा हैः
अति परिचै ते होत है अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी चन्दन देति जराय॥
सही बात तो यह है कि कौन सी चीज कब अच्छी लगेगी और कब बुरी कहा नहीं जा सकता। दिवाली के समय अच्छी लगने वाली मिठाई भी बुरी लगने लगती है जबकि हमेशा बुरी लगने वाली गाली भी विवाहोत्सव के समय समधन के द्वारा देने पर अच्छी लगने लगती है। इस पर भी वृन्द कवि ने निम्न दोहा लिखा हैः
निरस बात सोई सरस जहाँ होय हिय हेत।
गारी भी प्यारी लगै ज्यों-ज्यों समधिन देत॥
उद्धरण के रूप में वृन्द के उपरोक्त दो दोहे आ जाने से हमें वृन्द के और भी दोहे याद आ रहे हैं जो कि अत्यन्त सरस होने के साथ ही साथ नीतिपूर्ण भी हैं, आइए आप भी उनका रस लें:
उत्तम विद्या लीजिए जदपि नीच पै होय।
पर्यौ अपावन ठौर में कंचन तजप न कोय॥
सरसुति के भंडार की बडी अपूरब बात।
ज्यौं खरचै त्यौं-त्यौं बढै बिन खरचे घटि जात॥
जो जाको गुन जानही सो तिहि आदर देत।
कोकिल अंबहि लेत है काग निबौरी लेत॥
उद्यम कबहुँ न छोडिए पर आसा के मोद।
गागरि कैसे फोरिये उनयो देखि पयोद॥
जो पावै अति उच्च पद ताको पतन निदान।
ज्यौं तपि-तपि मध्यान्ह लौं अस्तु होतु है भान॥
मोह महा तम रहत है जौ लौं ग्यान न होत।
कहा महा-तम रहि सकै उदित भए उद्योत॥
ऊँचे बैठे ना लहैं गुन बिन बडपन कोइ।
बैठो देवल सिखर पर बायस गरुड न होइ॥
कछु कहि नीच न छेडिए भले न वाको संग।
पाथर डारै कीच मैं उछरि बिगारै अंग॥
सबै सहायक सबल के कोउ न निबल सहाय।
पवन जगावत आग कौं दीपहिं देत बुझाय॥
अति हठ मत कर हठ बढे बात न करिहै कोय।
ज्यौं-ज्यौं भीजै कामरी त्यौं-त्यौं भारी होय॥
मनभावन के मिलन के सुख को नहिंन छोर।
बोलि उठै, नचि नचि उठै मोर सुनत घन घोर॥
भली करत लागति बिलम बिलम न बुरे विचार।
भवन बनावत दिन लगै ढाहत लगत न वार॥
जाही ते कछु पाइए करिए ताकी आस।
रीते सरवर पै गए कैसे बुझत पियास॥
अपनी पहुँच बिचार कै करतब करिए दौर।
तेते पाँव पसारिए जेती लांबी सौर॥
नीकी पै फीकी लगै बिन अवसर की बात।
जैसे बरनत युद्ध में रस श्रृंगार न सुहात॥
विद्याधन उद्यम बिना कहौ जु पावै कौन?
बिना डुलाये ना मिले ज्यों पंखा की पौन॥
कैसे निबहै निबल जन कर सबलन सों गैर।
जैसे बस सागर विषै करत मगर सों बैर॥
फेर न ह्वै हैं कपट सों जो कीजै व्यौपार।
जैसे हांडी काठ की चढ़ै न दूजी बार॥
बुरे लगत सिख के बचन हियै विचारौ आप।
करुवी भेषज बिन पियै मिटै न तन की ताप॥
करिए सुख की होत दुःख यह कहो कौन सयान।
वा सोने को जारिए जासों टूटे कान॥
भले बुरे सब एक सौं जौं लौं बोलत नाहि।
जानि परतु है काक पिक ऋतु वसंत के माहि॥
नयना देत बताय सब हियौ की हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी भली बुरी कहि देत॥
रोष मिटै कैसे कहत रिस उपजावन बात।
ईंधन डारै आग मों कैसे आग बुझात॥
अति परिचै ते होत है अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी चंदन देति जराय॥
कारज धीरे होत है काहे होत अधीर।
समय पाय तरुवर फरै केतक सींचौ नीर॥
जिहि प्रसंग दूषण लगे तजिए ताको साथ।
मदिरा मानत है जगत दूध कलाली हाथ॥
करै बुराई सुख चहै कैसे पावै कोइ।
रोपै बिरवा आक को आम कहाँ ते होइ॥
उत्तम जन सो मिलत ही अवगुन सौ गुन होय।
घन संग खारौ उदधि मिलि बरसै मीठो तोय॥
कुल सपूत जान्यौ परै लखि सुभ लच्छन गात।
होनहार बिरवान के होत चीकने पात॥
क्यों कीजै ऐसो जतन जाते काज न होय।
परवत पर खोदी कुआँ कैसे निकसे तोय॥
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान॥
7 comments:
कवि के बारे में भी बताया होता तो और अच्छा लगता..
वाह क्या कहने हैं, अवधिया जी. लगा आज सचमुच दीवाली हो गई. इतनी सारी मिठाइयां, यहीं सहेजी रहें, हम आ आ कर रसास्वादन करते रहेंगे.
मेरे एक मित्र जो गैर सरकारी संगठनो में कार्यरत हैं के कहने पर एक नया ब्लॉग सुरु किया है जिसमें सामाजिक समस्याओं जैसे वेश्यावृत्ति , मानव तस्करी, बाल मजदूरी जैसे मुद्दों को उठाया जायेगा | आप लोगों का सहयोग और सुझाव अपेक्षित है |
http://samajik2010.blogspot.com/2010/11/blog-post.html
अतिरेक से वितृष्णा स्वाभाविक है !
बहुत अच्छी पोस्ट ...कभी कभी अच्छी लगने वाली चीज़ की अधिकता से भी परेशानी होती है ...
आपके दिए हुए दोहे बहुत अच्छे हैं ...वैसे भी यह दोहे सारे के सारे शिक्षाप्रद हैं ...आभार
सच है, अधिकता में वस्तु का मूल्य नहीं रह जाता है। प्रेरणाप्रद दोहे।
संकलन योग्य पोस्ट के लिए आभार !
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