कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,
मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-
क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
है स्वच्छन्द-सुमंद गंधवह, निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!
है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।
सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥
(राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के खण्डकाव्य "पंचवटी" से उद्रृत)
6 comments:
bahut sundar rachna !
क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
है स्वच्छन्द-सुमंद गंधवह, निरानंद है कौन दिशा?
धन्यवाद इस सुन्दर रचना को पढवाने के लिये।
एक सुंदर रचना पढवाने का आभार !!
काश कि हम अपने मन की आवाज सुन सकें. कई दफा मन हमें सही दिशा में गाइड करता है, लेकिन अपने स्वार्थों हेतु हम इसे सुनते नहीं..
प्रकृति के माध्यम से जीवन अभिव्यक्त करती पंक्तियाँ।
rastrakavi maithili sharan gupt ki rachna padhavaane ke liye aabhaar.
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