"ग्रेट कन्वेंट स्कूल के यूनीफॉर्म वाली स्वेटर है क्या?"
"वो तो साहब आपको सिर्फ फलाँ दूकान में ही मिलेगी, उस दूकान के अलावा और कहीं भी नहीं मिल सकती।" होजियरी दूकानदार ने बताया। साथ ही उस दूकान का पता भी उसने बता दिया।
अब हम और हमारे परिचित गुप्ता जी उस दूकान में गए। गुप्ता जी का पुत्र उस स्कूल में पीपी-1 कक्षा में पढ़ता है। उस स्कूल का नियम है कि बच्चों को वहाँ के यूनीफॉर्म में ही आना पड़ेगा। वहाँ यूनीफॉर्म के वस्त्र भी आपको स्कूल से ही खरीदना पड़ेगा। अब चूँकि सर्दियाँ आ गई हैं इसलिए बच्चों के लिए स्वेटर भी जरूरी है। इसलिए स्कूल वालों ने एक विशिष्ट रंग तथा डिजाइन का स्वेटर भी जोड़ दिया यूनीफॉर्म में। मगर उनके यूनीफॉर्म वाला वह विशिष्ट स्वेटर आपको केवल एक विशिष्ट दूकान के अलावा पूरे रायपुर के अन्य दूकानों में कहीं नहीं मिल सकती।
खैर साहब हम उस विशिष्ट दूकान में गए और गुप्ता जी ने अपने बच्चे के लिए स्वेटर खरीद ली। अब उन्हें अपने पुत्र के लिए एक पुस्तक की जरूरत थी। अब हम उस पुस्तक की तलाश में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर कि पुस्तक दूकानों की खाक छानने लगे। पच्चीसों दूकानों में गए किन्तु पुस्तक कहीं उपलब्ध नहीं थी।
फिर एक भले दूकानदार ने कहा, "अरे साहब, यह तो ग्रेट कन्वेन्ट स्कूल में चलने वाली किताब है, इस पुस्तक को आपको उसी स्कूल से ही खरीदना पड़ेगा।"
"वहाँ से हमने खरीदा था पर बच्चे ने उस पुस्तक को कहीं गुमा दिया। अब यह पुस्तक स्कूल के स्टॉक में खत्म हो गई है।" गुप्ता जी बोले।
"तब तो साहब आप फलाँ पुस्तक दूकान में चले जाइए क्योंकि उस स्कूल को वही दूकान पुस्तकें सप्लाई करती है। पर वो दूकान तो आउटर एरिया में है, अब तक तो बंद हो चुकी होगी; आप कल वहाँ जाकर पता कर लेना।"
अब हम सोचने लगे कि ये स्कूल शिक्षा देने का काम कर रहा है या कपड़े, पुस्तकें आदि बेचने का? यह हाल सिर्फ उस स्कूल का ही नहीं बल्कि आज के अधिकतर विद्यालयों तथा महाविद्यालयों का है। ये सब कपड़े, पुस्तकें आदि बेचने के साथ ही बच्चों को घर से स्कूल तथा स्कूल से घर तक पहुँचाने के लिए ट्रांसपोर्टेशन का भी धंधा करते हैं।
याने नाम शिक्षा जैसी सेवा का और काम व्यापारी का। पर इसे व्यापार कहना भी गलत है क्योंकि ये जो भी चीजें बेचते हैं उनके दाम उन वस्तुओं की वास्तविक कीमतों से चौगुनी होती है। याने कि यह व्यापार नहीं लूट है।
अब हम एक जाने-माने डॉक्टर साहब के यहाँ गए क्योंकि हमें दो दिन से कुछ तकलीफ थी। अस्पताल के रिसेप्शन में बैठी सुन्दर सी महिला ने हमसे हमारा नाम, उम्र आदि पूछ कर एक पर्ची बना कर हमें देते हुए कहा, "डॉक्टर साहब की फीस, रु.150.00 जमा कर दीजिए।"
हमने फीस जमा कर दी। हमारा नंबर आने पर जब हम डॉक्टर साहब से मिले तो उन्होंने तकलीफ पूछी। तकलीफ बताने पर न तो उन्होंने नाड़ी देखी, न ही जीभ देखी और न ही छाती और पीठ पर स्टेथिस्कोप लगाकर धड़कन देखी, बस एक पर्ची देते हुए कहा, "यहाँ जाकर खून और पेशाब का जाँच करवा लीजिए। कल रिपोर्ट देखने के बाद इलाज शुरू करेंगे।"
अब आप ही बताइए कि डॉक्टर साहब की फीस किस बात की थी? क्या सिर्फ यह बताने की थी कि फलाँ लेबोरेटरी में जाकर खून और पेशाब की जाँच करवा लो?
यह भी तो हो सकता है कि कल को हम डॉक्टर साहब के पास फिर जाने के पहले ही "टें" बोल जाएँ।
इतना सारा बकवास करने का लब्बोलुआब सिर्फ यह है कि हमें तो लगता है कि शिक्षा, चिकित्सा आदि कार्य आज सेवाएँ न रहकर लूट का माध्यम बन कर रह गई हैं।
8 comments:
अजी फीस तो डॉक्टर साहब उस लैब वाले से भी लेंगें।
और आजकल तो जुराबें,मौजें तक स्कूल से खरीदने पडते हैं, 10 रुपये के मौजें 50 रुपये में।
प्रणाम
ये सभी संस्थाएं व्यापार ही तो कर रही हैं, आप अभी तक किस मुगालते में थे? बड़े-बड़े डोनेशन भी देने पड़ते हैं स्कूलों में।
@ ajit gupta
मैं मुगालते में नहीं हूँ अजित जी, सब जानता हूँ। और मेरी ही तरह अन्य सभी लोग जानते हैं। जब हम सभी जानते हैं कि हमें लूटा जा रहा है तो फिर इनकी दूकानें तो बंद हो जानी चाहिए ना? किन्तु बन्द नहीं होतीं ये दूकानें बल्कि दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की ही करती जाती हैं। कारण सिर्फ यह है कि हम सब स्वयं को लुटाना चाहते हैं।
यदि सभी मिलकर इनका बहिष्कार करने की ठान लें तो इनकी लूट अपने आप ही बंद हो जाएगी।
अवधिया जी,
हमने कभी भी ऐसे व्यापारिक स्कूलों में बच्चों को नहीं पढाया। जिस दिन एक स्कूल ने ऐसा ही व्यापार शुरू किया हमने बच्चों को निकाल लिया। यह सच है कि जनता ही उन्हें लूट का अवसर देती है।
सब व्यापार है
कोई सेवा नहीं
धर्मार्थ चिकित्सालय में हम गये और अंत में 50 रूपये देकर ही बाहर आये
ये सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त निजी क्षेत्र का भ्रष्टाचार है...
सही बात है ...आज शिक्षा और चिकित्सा दोनों ही लूट रहे हैं ...और हम लुट भी रहे हैं ....बहिष्कार तो समवेत स्वर में होना चाहिए ...अपनी ढपली अपना राग ले कर कौन लड़ पाया है ...
पूरा व्यवसाय बन गया है शिक्षातन्त्र। पता नहीं अर्थग्रस्तता से कब निकलेंगे हम।
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