ऐसा शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिसने अपने जीवन में कभी भी किसी प्रकार की चोरी न की हो। भले ही वह चोरी अपने घर में ही की गई हो। बचपन में एक बार हमने भी अपने घर में चोरी की थी वह भी मिठाई की। यद्यपि हम उस समय चौथी या पाँचवीं कक्षा में पढ़ते थे किन्तु वह घटना आज भी हमें अच्छी प्रकार से याद है।
दिवाली के दिनों की बात है। बाबूजी के परिचित लोग दिवाली में उनसे भेंट करने आते थे। बाबूजी भी उन्हें दिवाली के प्रसादस्वरूप मिठाई का पैकेट उपहार में दिया करते थे। दिवाली के बाद लगभग दस दिन बीत चुके थे पर मिठाई का एक पैकेट अल्मारी में रखा ही हुआ था।
लक्ष्मी पूजा के दिन से भाईदूज तथा उसके भी एक-दो दिन बाद तक इतनी मिठाइयाँ खाने को मिली थीं कि उनसे जी भर गया था और मिठाई देखने की भी इच्छा नहीं होती थी। सो मिठाई के लालची होने के बावजूद भी हमने उस पैकेट की ओर झाँका तक नहीं। किन्तु पाँच-छः दिन और बीत जाने के बाद वह पैकेट हमें ललचाने लगा। पर हमें पता था कि जिन सज्जन के लिए वह उपहार रखा हुआ है वे बाबूजी के बहुत ही प्रिय व्यक्तियों में से हैं। हमें यह भी मालूम था कि किसी कारण से वे अब तक नहीं आ पाए हैं किन्तु देर-सबेर आएँगे जरूर। इसलिए माँ से जिद कर के भी माँगने पर वे हमें उस पैकेट से मिठाई नहीं देने वाली हैं।
माँ हमें मिठाई देने वाली नहीं थीं और पहले कभी चोरी की नहीं थी इसलिए चुराकर खाने की हिम्मत भी नहीं होती थी। पर हमारा बाल मन था कि पैकेट को देख-देख कर ललचाए जाता था। पूजा वाला कमरा ही घर का भण्डारगृह था और वहाँ से कुछ भी सामान लाना हो तो माँ हमें ही वहाँ से सामान लाने के लिए आदेश कर दिया करती थीं। हम जब भी पूजागृह में जाते सामने मिठाई का पैकेट नजर आता और मुँह में पानी भर आता था।
ईश्वर ने हमें रसना अर्थात् जीभ के रूप में बड़ी विचित्र चीज प्रदान किया है। नजर किसी स्वादिष्ट वस्तु को देखती है और जीभ लार टपकाने लगती है। सोचा जाए तो किसी स्वादिष्ट पदार्थ का स्वाद हमें केवल कुछ क्षणों के लिए ही मिलता है। ज्योंहीं वह जीभ के नीचे गले में उतरी कि स्वाद गायब। किन्तु केवल कुछ क्षणों का यह स्वाद बड़े-बड़ों को बेईमान बना देती है। इसीलिए तो कहा गया हैः
रूखी सूखी खाय के ठण्डा पानी पी।
देख पराई चूपड़ी मत ललचाए जी॥
जीभ मामले में एक बात और है कि यदि यह मीठा बोल दे तो शत्रु भी मित्र बन जाए और कड़वा तथा तीखा बोल दे तो भाई भी भाई का दुश्मन हो जाए। द्रौपदी ने यदि अपने जबान से सिर्फ "अन्धे के अन्धे ही होते हैं" न कहा होता तो महाभारत के युद्ध में अठारह अक्षौहिणी सेना न कट मरी होती।
अस्तु, इस रसना ने हमें भी इतना ललचाया कि हम अपने आप को वश में नहीं रख पाए। होश संभालने के बाद से ही मिली हमारी "चोरी करना पाप है" जैसी शिक्षा न जाने कहाँ पानी भरने चली गई और हम चोर बनने के लिए विवश हो गए। चुपके से झाँक कर देखा बाबूजी बैठक में पुस्तक पढ़ने में तल्लीन हैं, माँ रसोई में खाना बनाने में व्यस्त है, दादी माँ हमारी सात वर्षीय बहन को तथा पाँच वर्षीय भाई को लेकर कहीं पड़ोस में गई हैं। बच गए हमारे तीन वर्षीय तथा एक वर्षीय दो और भाई सो उनसे किसी प्रकार का भय था ही नहीं। दबे पाँव पूजागृह में गए और लगे हाथ मारने मिठाई पर। जी भरकर खा लेने पर भी मिठाई का डिब्बा एक चौथाई भी खाली नहीं हुआ सो डिब्बे का ढक्कन बंद कर जैसे का तैसा रख दिया।
मिठाई खाते समय तो बड़ा मजा आया। पर वह आनन्द पूजागृह से निकलते ही काफूर हो गया। यद्यपि किसी ने हमें चोरी करते देखा नहीं था पर हम थे कि एक कम प्रयोग होने वाले कमरे में जाकर छुपकर बैठे हुए थे। मिठाई खाने के मजे का स्थान अब ग्लानि ने ले लिया था। बार-बार लगता था कि आज मैंने बहुत बड़ी गलती की है, चोरी करके बहुत बड़ा पाप किया है। जब आदमी अकेला होता है तो उसका अन्तर्मन उससे बात करने लगता है। अब मेरे ही भीतर से किसी ने मुझे भयभीत करना आरम्भ कर दिया। बाबूजी ने तो कभी हम पर हाथ नहीं उठाया था किन्तु माँ की मार आज भी याद है। पता चलने पर माँ कितना मारेगी यही सोच-सोच कर कँपकँपी छूटने लगी। यह सोचकर कि हमारी चोरी का किसी को पता नहीं चलने वाला है स्वयं को जितना तसल्ली देने की कोशिश करते मन उतना ही भयभीत होता। पता नहीं क्यों दादी माँ की सुनाई गई कृष्ण-सुदामा वाली कहानी याद आने लगी जिसमें सुदामा ने चोरी से कृष्ण के हिस्से के चने भी खा लिए थे। बार-बार लगता कि चोरी के परिणामस्वरू सुदामा ने जिस प्रकार से जीवन भर दरिद्रता भोगी उसी प्रकार से मैं भी जीवन भर कंगाल बना रहूँगा।
ग्लानि और भय ने इतना सताया कि आँख से आँसू बहने लगे। पता नहीं किस शक्ति ने मुझे बाबूजी के सामने जाने के लिए मजबूर कर दिया और मैंने रोते हुए उन्हें अपनी चोरी के बारे में सब कुछ बता दिया। सुनकर बाबूजी कुछ क्षण तो अवाक् से रह गए क्योंकि उन्होंने सपने में भी कभी नहीं सोचा रहा होगा कि मैं चोरी भी कर सकता हूँ। फिर उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए सिर्फ इतना कहा, "अच्छा किया जो तुमने यह सब मुझे बता दिया, अब जाओ खेलो। पर भविष्य में फिर कभी चोरी मत करना।"
पता नहीं क्यों, बचपन की यह घटना मुझे आज भी भुलाए नहीं भूलती।
8 comments:
यह है बालमन पर संस्कार फिर भी हावी रहे.
बहुत सुन्दर संस्मरण ..
यह तो हम सबने किया ही है और बिना इसके बचपन कहां...और अब वो यादें हैं जो हमारे बच्चे दोहरा रहे हैं
http://veenakesur.blogspot.com/
गलती स्वीकार करना ही अपने आप में सबसे बड़ी उपलब्धि है.. और अगर कोई बच्चा अपनी गलती स्वीकार करे तो बहुत बड़ी बात हो जाती है...
बहुत अच्छा संस्मरण..
आभार
अरे
मैं तो आपको शरीफ आदमी समझता था
आप भी चोरटे निकले...हा हा हा हा
पहली बात तो मिठाई की चोरी चोरी होती ही नहीं, यह तो हक है :)
मार नहीं पड़ी इसलिए आज तक याद है... :)
खाने पीने की वस्तुओं को उड़ा ले जाना हमने कभी चोरी मानी ही नहीं।
आपका संस्मरण पढ़ कर गाँधी जी का संस्मरण याद आगया जब उन्होंने चोरी की थी ....
सीख देता हुआ संस्मरण ...
लोंग क्या क्या चुराया हज़म करके मजे से सो जाते हैं और आप मिठाई चुराकर वो भी अपने घर से इतने दुखी हुए ...:)
अच्छा संस्मरण !
Post a Comment