Friday, March 11, 2011

फाग में फूहड़ता या फाग भक्ति रस से सराबोर?

वसन्त ऋतु अपनी युवावस्था को प्राप्त कर चुका है। चहुँ ओर शीतल-मन्द-सुगन्धित बयार बह रही है। आम्रवृक्ष बौर से लद चुके हैं और आम के बौर की सुगन्ध मन में मादकता उत्पन्न कर रही है। टेसू और सेमल के वृक्षों ने पत्र-पल्लव का परिधान त्याग कर रक्त-वर्ण पुष्पों से अपना श्रृंगार कर लिया है। वातावरण कोयल की कूक से गुंजायमान हो रही है। अनंग (बिना अंग के) होने बाद भी कामदेव जन-जन के मन-मस्तिष्क में वास करने लग गए हैं।



ऐसी ही मादकता ने "सेनापति" की लेखनी को लिखने पर विवश कर दिया था किः

बरन बरन तरु फूले उपवन वन,
सोई चतुरंग संग दल लहियतु है।
बंदी जिमि बोलत विरद वीर कोकिल है,
गुंजत मधुप गान गुन गहियतु है॥
आवे आस-पास पुहुपन की सुवास सोई
सोने के सुगंध माझ सने रहियतु है।
सोभा को समाज सेनापति सुख साज आजु,
आवत बसंत रितुराज कहियतु है॥


ज्यों-ज्यों दिन बीत रहे हैं, होली का त्यौहार निकट आते जा रहा है। होलिका दहन का माहौल बनते जा रहा है। होली का माहौल हो और मन-मस्तिष्क में फाग ना गूँजे तो वह होली का माहौल कैसा? आज की आपाधापी में तो फाग सिर्फ होली के समय एक दो दिन ही गाये जाते हैं किन्तु हमारे बचपन के दिनों में वसन्त पंचमी के दिन से ही फाग गाने की शुरुवात हो जाती थी जो कि रंग पंचमी तक चलती थी। हम झांझ, मंजीरों, नगाड़ों आदि के ताल धमाल में डूब जाया करते थे। जहाँ फाग फूहड़ भी होते थे वहीं फाग भक्ति रस से सराबोर भी हुआ करते थे। होली त्यौहार से लगभग आठ दिन पूर्व से फूहड़ फागों को गाने का दौर शुरू हो जाता था किन्तु उसके पहले और होलिकोत्सव के पश्चात भक्ति रस से सराबोर फाग ही गाए जाते थे।

प्रस्तुत है कृष्णभक्ति के भाव से सराबोर दो फाग गीतः

(१)

आज श्याम संग सब सखियन मिलि ब्रज में होली खेलै ना
हाँ प्यारे ललना ब्रज में होली खेलै ना

इत ते निकसी नवल राधिका उत ते कृष्ण कन्हाई ना
हाँ प्यारे ललना उत ते कृष्ण कन्हाई ना
हिल मिल फाग परस्पर खेलैं शोभा बरनि ना जाई ना
आज श्याम संग सब सखियन मिलि ब्रज में होली खेलै ना

बाजत झांझ मृदंग ढोल डफ मंजीरा शहनाई ना
हाँ प्यारे ललना मंजीरा शहनाई ना
उड़त गुलाल लाल भये बादर केसर कीच मचाई ना
आज श्याम संग सब सखियन मिलि ब्रज में होली खेलै ना

(२)

जाने दे जमुना पानी मोहन जाने दे जमुना पानी
मोऽहन जाने दे जमुना पानी

रोज के रोज भरौं जमुना जल
नित उठ साँझ-बिहानी
मोऽहन जाने दे जमुना पानी

चुनि-चुनि कंकर सैल चलावत
गगरी करत निसानी
मोऽहन जाने दे जमुना पानी

केहि कारन तुम रोकत टोकत
सोई मरम हम जानी
मोऽहन जाने दे जमुना पानी

हम तो मोहन तुम्हरी मोहनिया
नाहक झगरा ठानी
मोऽहन जाने दे जमुना पानी

ले चल मोहन कुंज गलिन में
हम राजा तुम रानी
मोऽहन जाने दे जमुना पानी

चन्द्रसखी भजु बालकृष्ण छवि
हरि के चलन चित लानी
मोऽहन जाने दे जमुना पानी

5 comments:

रवीन्द्र प्रभात said...

सार्थक प्रस्तुति, बधाईयाँ !

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

फूहड़ता पर रोक जरुरी है.
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पैरों तले जमीन खिसक जाए!
क्या इससे मर्दानगी कम हो जाती है ?

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

मैने नहीं सुने. हो सकता है कि बचपन में इतनी चेतना नहीं होगी.

प्रवीण पाण्डेय said...

पढ़ने में बहुत अच्छा लगा फाग का रंग।