मूसलाधार वर्षा की टिपर-टिपिर...
तेज गति से चलती हुई पुरवाई की साँय-साँय...
बादलों की गड़गड़ाहट...
दादुरों की टर्राहट...
इन समस्त ध्वनियों का आपस में गड्डमड्ड हो जाने की प्रक्रिया एक विचित्र किन्तु मनभावन हारमोनी उत्पन्न कर देती हैं जिसके संगीत में डूबकर मन विभोर हो जाता है।
रात के सन्नाटे में मूसलाधार वर्षा के मध्य दामिनी की दमक और मेघों की कड़क एक ऐसी विचित्र अनुभूति का अनुभव होने लगता है जिसे कि शब्दों में बयान करना बहुत ही मुश्किल कार्य लगने लगता है। ऐसे में यदि दूर किसी रेडियों से "मनमोर हुआ मतवाऽऽला ये किसने जादू डाला रे..." जैसे फिल्मी गीत के बोल सुनाई दे जाय तो कहना ही क्या है!
भगवान भास्कर द्वारा श्यामल-उज्ज्वल मेघों के लिहाफ को नख से शिख तक ओढ़ लेना, भरी दुपहरी का घटाटोप अंधेरे के आभास के कारण तिमिरमय रात्रि जैसा प्रतीत होना, इस तिमिर के बीच चपला की चमक से सम्पूर्ण धरा का चौंधिया जाना और उसके बाद मेघों के गगनभेदी गर्जन से उसका काँप जाना ही तो पावस का अपूर्व सौन्दर्य है!
पावस में कभी मूसलाधार तो कभी हल्की फुहार से नदी-नाले अपनी उफान पर आ जाते हैं। ऐसा प्रतीत होने लगता है कि उफनती हुई सरिताएँ सम्पूर्ण धरा को अपने भीतर समेट लेना चाह रही हैं। उनकी वेगवती प्रचण्ड धाराएँ चट्टानों से टकरा कर उन्हें चूर-चूर कर डालने के लिए आतुर हैं। वेगवती धाराओं का विशाल शिलाओं पर प्रहार से उत्पन्न धवल फेन की शुभ्रता नयनाभिराम प्रतीत होने लगती हैं।
पावस की ऋतु वह ऋतु है जो -
बाल हृदय को उल्लासित कर देता है...
युवा प्रेमी-युगलों के हृदय में मधुर मिलन के लिये तड़प उत्पन्न कर देता है...
विरहातुरों को संतप्त कर देता है...
वृद्ध हृदय को अतीत का स्मरण कराता है।
पावस में कवि-हृदय नव सृजन के लिए बरबस व्याकुल हो उठता है। जहाँ गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर बरबस ही गुनगुना उठते हैं "वृष्टि पड़े टापुर-टुपुर ..." वहीं रामेश्ववर शुक्ल 'अंचल' कह "पावस गान" में कह उठते हैं 'सावन का पावन प्रणय-मास!' हम मनुष्यों की तो बिसात ही क्या, देवाधिदेव श्री राम के मुख से बरबस निकल पड़ता है -
घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥
पोस्ट के अन्त यह भी बता देना चाहता हूँ कि लिखने को तो इतना सब कुछ लिख गया हूँ पर इन सारी अनुभूतियों पर भारी पड़ रहा है यह विचार कि -
सामने हैं सावन के सारे त्यौहार
जिस पर है भयंकर मँहगाई की मार
कहीं से लेना पड़ेगा उधार
नहीं तो काम चलाना हो जाएगा दुश्वार
लटक रही है ऐसी तलवार
जिसने कर दिया है "सौन्दर्य अनुभूति" को तड़ीपार
अब ऐसे में भला क्या पोस्ट लिखें यार?
4 comments:
सावन पर आपका यह आलेख संजीदा रहा परन्तु पुचाल्ला वास्तव में हावी है.
सावन का सुन्दर चित्रण।
सावन में सब कुछ हरा नहीं होता.
बरसात पर बिजली भारी है तो त्यौहार पर महंगाई !
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