महानायक अमिताभ बच्चन के लिए आज भला कौन सा काम ऐसा होगा जो मुश्किल होगा? हो सकता है कि उनके लिए भी कुछ काम मुश्किल वाले हों किन्तु आम लोग तो यही सोचते हैं कि शोहरत और दौलत वाले लोगों के लिए कोई भी काम मुश्किल नहीं होता। अस्तु, आज अमिताभ जी के लिए भले ही कोई काम मुश्किल न हो पर एक समय ऐसा भी था जबकि उनके सामने मुश्किलें ही मुश्किलें थीं। हम सभी जानते हैं कि मुश्किलों को आसान करना सबसे बड़ा मुश्किल काम है पर अमिताभ बच्चन ने दृढ़ संकल्प और पुरुषार्थ का साथ कभी नहीं छोड़ा और मुश्किलें आसान होती चली गईं।
मेरे हिन्दी वेबसाइट के कुछ पाठक कभी-कभी अपनी पसंद की पोस्ट लिखने की फरमाइश भी कर देते हैं। कल ही मेरे एक स्नेही पाठक ने मुझसे चैट में आकर अमिताभ बच्चन पर पोस्ट लिखने के लिए कहा तो मैनें जवाब दिया था कि उनके विषय में तो पहले ही इतना लिखा जा चुका है कि अब मैं क्या लिखूँ? फिर भी कोशिश करूँगा। और उस चैट के परिणाम के रूप में यह पोस्ट आपके सामने है।
सन् 1969 में जब अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म ‘सात हिन्दुस्तानी’ प्रदर्शित हुई थी तो उस समय मेरी उम्र 19 साल की थी और उस जमाने के अन्य तरुणों के समान ही मुझमें भी सिनेमा के प्रति रुझान उन्माद की सीमा तक थी। दोस्तों के साथ हर प्रदर्शित होने वाली फिल्म को देखना उन दिनों एक शान सा लगता था इसलिए यह सुन लेने के बाद भी कि ‘सात हिन्दुस्तानी’ एक फ्लॉप फिल्म है, मैने दोस्तों के साथ रायपुर के श्याम टॉकीज में वह फिल्म देखी। यद्यपि फिल्म मुझे बहुत पसंद आई थी, दोस्तों ने उस फिल्म को नापसंद ही किया क्योंकि, उन दिनों सिनेमा का जादू अपनी चरम पर होने के बावजूद भी, अधिकतर रोमांस और मारधाड़ वाली फिल्में ही पसंद की जाती थीं। ‘सात हिन्दुस्तानी’ ख्वाज़ा अहमद अब्बास की फिल्म थी जिन्होंने कमर्शियल सिनेमा कभी बनाया ही नहीं। सो पत्र-पत्रिकाओं आदि में तो फिल्म की बहुत तारीफ हुई और अमिताभ के अभिनय को भी खूब सराहा गया पर फिल्म को जैसी चलनी थी, चली नहीं या सही माने में कहा जाए तो फिल्म बुरी तरह से पिट गई। अमिताभ बच्चन की आवाज से प्रभावित होकर मृणाल सेन ने उन्हें 1969 में ही प्रदर्शित अपनी फिल्म ‘भुवन सोम’ में‘नरेटर’ (पार्श्व उद्घोषक) का कार्य दिया याने किफिल्म में उनकी आवाज अवश्य थी पर उन्हें परदे पर कहीं दिखाया नहीं गया था। मुझे आज भी याद है कि ‘सात हिन्दुस्तानी’ फिल्म तो थोड़ी बहुत चली भी थी पर ‘भुवन सोम’ बिल्कुल ही नहीं चली थी।
इस प्रकार फिल्म पाने के लिए अमिताभ बच्चन का संघर्ष जारी हो गया। फिल्मी पत्र-पत्रिकाओं में कभी-कभी अमिताभ बच्चन के बारे में भी जानकारी छपती रहती थी। अपनी भी हालत उन दिनों ऐसी थी कि पत्र-पत्रिकाएँ खरीदने के लिए तो दूर, कोर्स की पुस्तकें तक खरीदने के लिए पैसे नहीं होते थे अपने पास, इसलिए पठन के अपने शौक को पूरा करने के लिए प्रत्येक दिन का तीन से चार घण्टे "किशोर पुस्तकालय", जो कि पुस्तकालय के साथ वाचनालय भी था, में बीतते थे। सो पढ़ने को मिलता था कि अमिताभ को फिल्में नहीं मिल रहीं थी, हाँ मॉडलिंग के ऑफर जरूर मिल रहे थे पर मॉडलिंग वे करना नहीं चाहते थे। जलाल आगा की विज्ञापन कम्पनी में, जो विविध भारती के लिए विज्ञापन बनाती थी, वे अपनी आवाज अवश्य दे देते थे ताकि जीवन-यापन के लिए सौ-पचास रुपये मिलते रहें, आखिर सात हिन्दुस्तानी फिल्म के मेहनताने के रूप में मिले पाँच हजार रुपये कब तक चलते?
फिर सुनील दत्त की फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ (1971) में उन्हें काम मिला। उस फिल्म में उन्होंने एक गूँगे का का किरदार अदा किया। विचित्र सा लगता है कि फिल्म भुवन सोम में अमिताभ की आवाज थी तो वे स्वयं नहीं थे और रेशमा और शेरा में अमिताभ थे तो उनकी आवाज नहीं थी। 1971 में ही प्रदर्शित उनकी अन्य फिल्में थीं संजोग, परवाना और आनंद। संजोग चली ही नहीं, परवाना कुछ चली किन्तु उसमें अमिताभ का रोल एंटी हीरो का था, इसलिए फिल्म के चलने का श्रेय हीरो नवीन निश्चल को अधिक मिला, आनन्द खूब चली किन्तु फिल्म का हीरो उन दिनों के सुपर स्टार राजेश खन्ना के होने से अमिताभ बच्चन को फिल्म का फायदा कम ही मिला पर इतना जरूर हुआ कि अमिताभ बच्चन दर्शकों के बीच और भी अधिक स्थापित हो गए।
ऋषि दा ने अपनी फिल्म गुड्डी में भी अतिथि कलाकार बनाया पर इससे अमिताभ को कुछ विशेष फायदा नहीं मिला। फिर उन्हें रवि नगाइच के फिल्म प्यार की कहानी (1971) में मुख्य भूमिका मिली। नायिका तनूजा और सह कलाकार अनिल धवन के होने के बावजूद भी फिल्म चल नहीं पाई और अमिताभ के संघर्ष के दिन जारी ही रहे। उन दिनों अमिताभ बच्चन को जैसा भी रोल मिलता था स्वीकार कर लेते थे।
सन् 1972 में आज के महानायक की फिल्में थीं – बंशी बिरजू, बांबे टू गोवा, एक नजर, जबान, बावर्ची (पार्श्व उद्घोषक) और रास्ते का पत्थर। बी.आर. इशारा की फिल्म एक नजर में उनके साथ हीरोइन जया भादुड़ी थीं। फिल्म के संगीत को बहुत सराहना मिली पर फिल्म फ्लॉप हो गई। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि फिल्म एक नजर के गाने आज भी संगीतप्रेमियों के जुबान पर आते रहते हैं खासकर ‘प्यार को चाहिये क्या एक नजर…….’, ‘पत्ता पत्ता बूटा बूटा…….’, ‘पहले सौ बार इधर और उधर देखा है…….’ आदि। इसी फिल्म से अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी एक दूसरे को चाहने लगे। ये जया भादुड़ी ही थीं जिन्होंने संघर्ष के दिनों में अमिताभ को संभाले रखा।
सन् 1973 में अमिताभ जी की फिल्में बंधे हाथ, गहरी चाल और सौदागर विशेष नहीं चलीं। पर प्रकाश मेहरा की फिल्म जंजीर की अपूर्व सफलता और उनके एंग्री यंगमैन के रोल ने उन्हें विकास के रास्ते पर ला खड़ा किया। फिल्म जंजीर के बाद अमिताभ बच्चन सफलता की राह पर ऐसे बढ़े कि फिर उन्होंने मुड़कर पीछे कभी नहीं देखा।
तो मित्रों जीवन के संघर्ष को अमिताभ जी के जैसे ही दृढ़ संकल्प शक्ति और पुरुषार्थ से ही जीता जा सकता है क्योंकि मुश्किलें होती हैं आसान बड़ी मुश्किल से।
2 comments:
प्रारम्भिक असफलतायें आगामी सफलता का मार्ग तैयार करती हैं।
धर्मवीर भारती के गुनाहों के देवता पर बनी फिल्म एक था चंदर एक थी सुधा,अमिताभ-जया जोड़ी की पहली फिल्म थी शायद.
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