मोहन जोदड़ो की खुदाई में मिले विशाल नगर के अवशेष ने यह तो सिद्ध कर दिया है कि आज से लगभग पाँच हजार साल पहले भारत में नगर हुआ करते थे जो आज के आधुनिक नगरों जैसे ही होते थे। सन् 2001 में खम्बात की खाड़ी में समुद्र के भीतर 120 फुट नीचे एक नगर का अवशेष मिला जो कि, कार्बन डेटिंग के अनुसार, 9500 वर्ष पुराना है। (लिंक) इससे सिद्ध होता है कि भारत में हड़प्पा सभ्यता के लगभग 4500 वर्ष पहले भी नगर थे।
ये तो हुए पुरातात्विक साक्ष्य! पर प्राचीन भारत में विशाल नगरों के साक्ष्य विभिन्न प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में भी मिलते हैं। वाल्मीकि रचित रामायण में अयोध्या नगरी, मिथिला नगरी, लंकापुरी, विशाला नगरी आदि के विस्तृत विवरण हैं।रामायण में लिखा है कि उन भव्य नगरों में सुन्दर मन्दिर, विशाल अट्टालिकायें, सुन्दर-सुन्दर वाटिकाएँ, बड़ी बड़ी दुकानें इत्यादि हुआ करती थीं। अमूल्य आभूषणों को धारण किये हुये स्त्री-पुरुष आदि नगर की सम्पन्नता का परिचय देते थे। चौड़ी-चौड़ी और साफ सुथरी सड़कों को देख कर ज्ञात होता था कि नगर के रख-रखाव और व्यवस्था बहुत ही सुन्दर और प्रशंसनीय होती थी।
उपरोक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि उस काल में आज की ही तरह से नगरों का निर्माण तथा उनका रख-रखाव हुआ करता था। नगरों की साफ-सफाई तथा रख-रखाव के लिए अवश्य ही आज के जैसे ही स्वायत्तशासी संस्थाएँ भी रहा करती होंगी।
भारत में अत्यन्त प्राचीन काल में भी विशाल नगरों का होना भारत के गौरव का द्योतक है तथा भारत का यह गौरव विश्व भर में भारत को एक विशिष्ट स्थान प्रदान करता है। भारत को विश्व भर में विशिष्ट स्थान प्राप्त होना यूरोपियनों, विशेषकर अंग्रेजों, को बिल्कुल पसन्द नहीं आया क्योंकि वे स्वयं को भारतीयों से श्रेष्ठ समझते थे। इसलिए अंग्रेजों ने भारत में अपना उपनिवेश बनाने के बाद सबसे पहला काम तो यह सिद्ध करने का किया कि प्राचीन भारत में सही ढंग से इतिहास लिखने की प्रथा ही नहीं थी और जो भी प्राचीन भारतीय ग्रंथ हैं उनमें इतिहास है ही नहीं, जो कुछ भी है वह गल्प मात्र है। सन् 1909 में प्रकाशित इम्पीरियल गजेटियर कहता है "ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में हिन्दुओं ने कभी भी सही इतिहास लिखने का प्रयास ही नहीं किया। उन्होंने केवल सामान्य साहित्य ही छोड़ा है जिसमें कहीं-कहीं पर ऐतिहासिक वर्णन भी है, किन्तु, जैसा कि स्पष्ट दिखाई देता है, केवल आकस्मिक वर्णन को इतिहास नहीं समझा जा सकता।" (देखें इम्पीरियल गजेटियर का निम्न स्नैपशॉट)
उसी गजेटियर में एक अन्य स्थान पर लिखा है "यह पहले ही कहा जा चुका है कि हिन्दुओं ने अपने वसीयत के रूप में हमें कोई भी ऐसी ऐतिहासिक वस्तु नहीं दी है जिसे कि सच्चा इतिहास माना जा सके......" (देखें स्नैपशॉट)
कहने का तात्पर्य यह है कि अंग्रेजों ने अपनी श्रेष्ठता बताने के लिए हमारे ग्रन्थों को झुठलाया, एक स्थान पर तो गजेटियर यह भी कहता है कि 'यद्यपि हिन्दू रामायण को महाभारत से प्राचीन मानते हैं किन्तु उसमें निहित सामग्री को पढ़ने से यूरोपियन विद्वानों को यही प्रतीत होता है कि रामायण की रचना महाभारत के बाद हुई है और यूरोपियन विद्वान महाभारत काल को रामायण काल से पहले का काल मानते हैं'।
हमारे ग्रन्थों के अर्थ तो उन्हों तोड़ा-मरोड़ा ही, साथ ही उन्होंने भारत पर आर्यों का आक्रमण जैसे कपोल-कल्पना को भी जन्म दे दिया ताकि भारत की श्रेष्ठता कभी सिद्ध ही न हो सके।
आज जो भारत का इतिहास पढ़ाया जाता है उसे कोई भी जरा सी भी बुद्धि रखने वाला व्यक्ति भारत का इतिहास मान ही नहीं सकता। वह तो भारत के दुश्मनों के द्वारा लिखा गया उनका स्वयं का इतिहास है जिसमें उन्होंने, चाहे वे मुगल रहे हों या फिर अंग्रेज, स्वयं को भारतीयों से श्रेष्ठ दर्शाया है। और सबसे बड़े दुःख की बात तो यह है कि उसी झूठे इतिहास को आज भी हमारे देश में पढ़ाया जाता है।
कोई भी गुलाम देश जब आजाद होता है तो सबसे पहले वह गुलाम बनाने वालों की भाषा, संस्कृति, उनके द्वारा रचे गए इतिहास इत्यादि को त्याग कर अपनी भाषा, अपनी संस्कृति और अपने द्वारा रचे गए सच्चे इतिहास को अपनाता है, अपनी संस्कृति के आधार पर संविधान, शिक्षा-नीति इत्यादि का निर्माण करता है। किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् तत्कालीन तथाकथित राष्ट्रनिर्माताओं ने हमारे देश में ऐसा कुछ भी नहीं किया। अपने देश की मूल भाषा संस्कृत को रसातल में ढकेल कर अंग्रेजी को महत्वपूर्ण बना दिया। अब जब हम अपनी मूलभाषा को ही नहीं जानेंगे तो भला अपनी संस्कृति को कैसे समझ पाएँगे? अपना सच्चा इतिहास कहाँ से रच पाएँगे?
1 comment:
यही मानसिकता को गुलाम बनाने का प्रथम पग था, हमारी आस्थाओं को नीचा दिखाना।
Post a Comment