(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
कुछ ऐसे भी होते हैं जो,
गुणहीन हुआ करते हैं;
पर तिकड़मबाजी के कारण
गुणवान दिखा करते हैं।
असलियत छिपाने को अपनी,
ये व्यूह रचा करते हैं;
पद लोलुपता में माहिर ये,
कुर्सी पर पग धरते हैं।
टांग अड़ाते कदम कदम पर,
काम-धाम में अलसाये,
बस यही चाहते हैं झटपट,
माला कोई पहनाये।
तड़क-भड़क में डूबे रहते,
गला फाड़ कर चिल्लाते हैं;
कीड़े जैसे काव्य कुतरते,
गिद्ध बने मँडराते हैं।
ऐसों में कोई कवि हो तो,
कविता चोरी करता है;
अपनी रचना कह कर उसको,
झूम झूम कर पढ़ता है।
जब जब ऐसी कविता सुनते,
याद उसी की आती है;
चोरी की कविता का संग्रह,
जिसकी अनुपम थाती है।
और अगर ऐसा पद लोलुप,
निर्लज्ज कहीं होता है;
तो अच्छे अच्छों को अपने,
तिकड़म जल से धोता है।
सभी जगह मिलते हैं ऐसे,
गुणहीनों की बस्ती है;
मँहगा है गुण पाना जग में,
तिकड़मबाजी सस्ती है।
नाम डूबता ऐसों से ही,
राष्ट्रों का, संस्थाओं का;
जो योग्य हुआ करते हैं उन-
पुरुषों का महिलाओं का।
(रचना तिथिः शनिवार 31-01-1987)
1 comment:
बड़ी ही सार्थक रचना, तिकड़मबाजी ने देश डुबो दिया है।
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