Wednesday, December 21, 2011

साहिर लुधियानवी की नजरों में ताजमहल

ताज़ तेरे लिये इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही
तुम को इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझ से
ताज तुम्हारे लिए प्यार का एक प्रतीक सही और तुम्हारे दिल में इस रमणीक स्थान के लिए सम्मान सम्मान भी सही, पर मेरे प्रिय, मुझसे कहीं और मिला कर।
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त जिस राह पे हों सतवत-ए-शाही के निशाँ
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी
शाही दरबार में गरीबों के बसर भला क्या मायने रखता है? और जिस राह पर शाही शान को उकेरा गया है उसमें प्यार भरी आत्माओं का चलना क्या मायने रखता है?
मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तसीर-ए-वफ़ा
तू ने सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलनेवाली
अपने तारीक मकानों को तो देखा होता
मेरे प्रिय, काश तुमने प्यार के इस विज्ञापन के पीछे छुपे धन-दौलत के निशानों को देखा होता। ऐ शाही मकबरे से बहलने वाली, काश तूने गरीबों के अंधेरे मकानों को भी देखा होता।
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके
लेकिन उनके लिये तशहीर का सामान नहीं
क्यूँ के वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे
दुनिया में अनगिनत लोगों ने प्यार किया है। कौन कह सकता है कि उनकी भावनाएँ सच्ची नहीं थीं? लेकिन उनके पास अपने प्यार के विज्ञापन के लिए सामान नहीं था अर्थात दौलत नहीं थी क्योंकि वे लोग भी हमारी ही तरह गरीब थे।
ये इमारात-ओ-मक़ाबिर ये फ़सीलें, ये हिसार
मुतल-क़ुल्हुक्म शहनशाहों की अज़मत के सुतूँ
दामन-ए-दहर पे उस रंग की गुलकारी है
जिस में शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का ख़ूँ
ये इमारतें, ये मकबरे, ये किले और उनकी दीवारें, ये स्वार्थी शहनशाहों के बड़प्पन की निशानियाँ जिनके ऊपर सुन्दर गुलकारियाँ हैं, उन गुलकारियों के रंगों में तेरे और मेरे पूर्वजों के खून मिला हुआ है।
मेरी महबूब! उन्हें भी तो मुहब्बत होगी
जिनकी सन्नाई ने बख़्शी है इसे शक्ल-ए-जमील
उन के प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद
आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़ंदील
मेरे प्रिय, जिन्होंने प्यार के इस प्रतीक को इतनी सुन्दर शक्ल दी है उन्होंने भी तो प्यार किया होगा। पर उनके मकबरों पर उनका नाम तक नहीं लिखा गया है और न किसी ने वहाँ जाकर एक मोमबत्ती जलाई है।
ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़श दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़
इक शहनशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे!
ये बाग-बगीचे, ये यमुना का किनारा, ये महल, ये रमणीक दरो-दीवारें! एक शहनशाह ने अपनी दौलत से इन्हें ये रूप दिया है। उस शहनशाह ने दौलत का सहारा लेकर हम गरीबों के प्यार का मजाक उड़ाया है।

इसलिए मेरे प्रिय, तू मुझसे कहीं और मिला कर।

3 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

बेहद शानदार... वाह..

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

@मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे!

सुर्या में - :))

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

ऐसे हसीन चित्र साहिर जी ही खींच सकते हं,सानुवाद सुंदर प्रस्तुति.