Thursday, April 5, 2012

विक्रम बेताल - भ्रष्टाचार कथा

हमेशा की तरह बेताल ने कहानी शुरू की, "सुन विक्रम! जिसे तू जम्बूद्वीप अथवा आर्यावर्त के नाम से जानता है, कालान्तर में उस देश का नाम भारतवर्ष हो गया। भारतवर्ष में अनेक राज्य थे और विभिन्न राजा उन राज्यों में राज्य किया करते थे। राष्ट्रीय भावना की कमी होने के कारण वे राजा आपस में ही लड़ते रहते थे। उनकी आपसी फूट की इस कमजोरी का लाभ विदेशियों ने उठाया और भारतवर्ष पहले तो यवनों और बाद में मलेच्छों के अधीन हो गया। सहस्र से भी अधिक वर्षों तक भारत परतन्त्र ही रहा। जब भारतवर्ष मलेच्छों के अधीन था तो उसी समय द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया। इस विश्वयुद्ध ने मलेच्छों की शक्ति को क्षीण कर दिया जिसके कारण मलेच्छों को भारतवर्ष को स्वतन्त्र करने के लिए विवश होना पड़ा।

"भारतवर्ष के स्वतन्त्र हो जाने के बाद 64 वर्षों तक निरन्तर विकास की गंगा बहती रही। किन्तु विकास की गति से कई गुना अधिक गति से भ्रष्टाचार भी निरन्तर बढ़ता गया। अनेक प्रकार के घोटाले हुए। देश का धन काले धन के रूप में विदेशी बैंकों में जमा होने लगा।"

इतनी कथा सुनाकर बेताल ने विक्रम से पूछा, "बता विक्रम स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत में भ्रष्टाचार तीव्र गति से क्यों बढ़ा?"

विक्रम ने उत्तर दिया, "द्वितीय विश्वयुद्ध भारत तथा उन अन्य देशों के लिए जो मलेच्छों के गुलाम थे, एक वरदान सिद्ध हुआ। इसी वरदान स्वरूप भारत को स्वतन्त्रता मिली। किन्तु भारत को अभिशाप स्वरूप ऐसे राजनेता भी मिले जिन्होंने अपने स्वार्थपूर्ति के लिए देश को गर्त में ढकेल दिया। उन राजनेताओं के प्रचार स्वरूप भारत की प्रजा समझने लगी कि भारत का विकास हो रहा है जबकि विकास के नाम पर विदेशी शिक्षा, सभ्यता, संस्कृति को ही उन राजनेताओं ने भारत में पनपाया और आगे बढ़ाया। मलेच्छों का एकमात्र उद्देश्य था भारत को लूटना। अतः उन्होंने अपने इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही भारत में ऐसा संविधान बनाया था जो लुटेरों के पक्ष में हो। भारत की प्रजा को मानसिक रूप से सदा के लिए गुलाम बनाने के लिए भी उन्होंने विशेष शिक्षा-नीति तैयार किया था। जहाँ भारत की प्राचीन शिक्षा-नीति परोपकार, कर्तव्यनिष्ठा, धैर्य, सन्तोष आदि की शिक्षा देती थी वहीं मलेच्छों की शिक्षा-नीति व्यक्ति को स्वार्थ, भ्रष्टाचार आदि की शिक्षा देती थी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारत की बागडोर जिन राजनेताओं के हाथ में आई वे वस्तुतः दिखने में भारतीय तो थे किन्तु मन से अंग्रेज ही थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा भी अंग्रेजों के देश में हुई थी। उन राजनेताओं का भी उद्देश्य अंग्रेजों की भाँति भारत को लूटना ही था। इसी कारण से उन्होंने अंग्रेजों के बनाए संविधान, न्याय-व्यवस्था, शिक्षा-नीति आदि को ज्यों का त्यों, या किंचित फेर-बदल के साथ अपना लिया ताकि भारत को लूटने का कार्य आगे भी जारी रहे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी जो देश अपनी संस्कृति और सभ्यता को भूल कर विदेशी संस्कृति और सभ्यता को ही अपनाता है उस देश का पतन निश्चित होता है और उस देश में भ्रष्टाचार तथा घोटालों का तीव्र गति से बढ़ना एक सामान्य बात होती है।"

विक्रम के उत्तर देते ही बेताल वापस पेड़ पर जाकर लटक गया।

5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

मुँह खोलते ही निकल भागता है।

MD. SHAMIM said...

SIR JI, KAHANI KE JARIYE AAPNE 1 KADWI HAKIKAT KO SAMNE RAKHA HAI, AAPKA PRAYAS SASAL HUA.
LEKIN SIR JI, AAPKO KYA LAGTA HAI DESH KE HAAHAAT KAB AUR KAISE SUDHRENGE?

Shivnath Bairwa said...

राम-राम श्रीमन जी!
आपने सफलतापूर्वक विक्रम बेताल की कहानी के माध्यम से महत्वपूर्ण, विचारात्मक इतिसत्य को मनोरंजक रूप मेँ सुन्दर तरिके से प्रस्तूत किया है।
बहुत धन्यवाद!
महोदय यह बड़ा दुखदायी सत्य है कि आज भी अधिकतर भारतीयोँ का यही भ्रम हैँ कि भारत हर क्षेत्र मे हमेशा सेँ पिछड़ा हुआ देश है। चाहे वो शिक्षा का हो, चिकित्सा का हो या फिर विज्ञान का। यह उसी शिक्षा नीती का तो परिणाम है जो अंग्रेजोँ ने पढ़ाई थी। और आज भी उसके दुष्परिणाम भुगत रहे हैँ।

Ramakant Singh said...

beautiful post .nice story narration

Asha Lata Saxena said...

बढ़िया लिखा है |
आशा