पूरन पूरी हो या दाल बाटी, तंदूरी रोटी हो या शाही पुलाव, पंजाबी खाना हो या मारवाड़ी खाना, जिक्र चाहे जिस किसी का भी हो रहा हो, केवल नाम सुनने से ही भूख जाग उठती है। भारतीय भोजन की अपनी एक विशिष्टता है और इसी कारण से आज संसार के सभी बड़े देशों में भारतीय भोजनालय पाये जाते हैं जो कि अत्यंत लोकप्रिय हैं। विदेशों में प्रायः सप्ताहांत के अवकाशों में भोजन के लिये भारतीय भोजनालयों में ही जाना अधिक पसंद करते हैं।
इस बात में तो दो मत हो ही नहीं सकता कि भारतीय खाना 'स्वाद और सुगंध का मधुर संगम' होता है!
स्वादिष्ट खाना बनाना कोई हँसी खेल नहीं है। इसीलिये भारतीय संस्कृति में खाना बनाने को कला माना गया है अर्थात् खाना बनाना एक कला है। भारतीय भोजन तो विभिन्न प्रकार की पाक कलाओं का संगम ही होता है! इसमें पंजाबी खाना, मारवाड़ी खाना, दक्षिण भारतीय खाना, शाकाहारी खाना, मांसाहारी खाना आदि सभी सम्मिलित हैं।
भोजन की सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि यदि पुलाव, बिरयानी, मटर पुलाव, वेजीटेरियन पुलाव, दाल, दाल फ्राई, दाल मखणी, चपाती, रोटी, तंदूरी रोटी, पराठा, पूरी, हलुआ, सब्जी, हरी सब्जी, साग, सरसों का साग, तंदूरी चिकन न भी मिले तो भी आपको आम का अचार या नीबू का अचार या फिर टमाटर की चटनी से भी भरपूर स्वाद प्राप्त होता है।
भारत में पाककला का अभ्युदय हजारों वर्षों पहले हुआ था। वाल्मीकि रामायण में निषादराज गुह के द्वारा राम को भक्ष्य, पेय, लेह्य आदि, जिनका निर्माण पकाये गए अन्नादि से होता था, भेंट करने का वर्णन आता है। इसका अर्थ यह हुआ कि रामायण काल में भी भारत में भोजन बनाने की परम्परा रही है। सुश्रुत के अनुसार भोजन छः प्रकार के होते हैं - चूष्म, पेय, लेह्य, भोज्य, भक्ष्य और चर्व्य। भोज्य पदार्थों को सुश्रुत के द्वारा इस प्रकार से विभाजन भी भारत में पाककला के अत्यन्त प्राचीन होने को इंगित करता है। यहाँ तक माना जाता है कि भारत में पाककला उतना ही पुराना है जितना कि स्वयं मनुष्य।
इन हजारों वर्षों के दौरान भारत में अनेकों शासक हुए जिनके प्रभाव से भारतीय पाककला भी समय समय में परिवर्तित होती रही। विभिन्न देशों से आने वाले पर्यटकों का भी यहाँ के पाककला का प्रभाव पड़ता रहा। आइये देखें कि विभिन्न काल में भारतीय पाककला में कैसे कैसे परिवर्तन हुएः
माना जाता है कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता के काल में, जो कि ईसा पूर्व 2000 का काल था, तथा उससे भी पूर्व भारत में भोजन पकाने की आयुर्वेदिक परम्परा थी। भोजन पकाने की यह आयुर्वेदिक परम्परा इस अवधारणा पर आधारित थी कि हमारे द्वारा भक्ष्य भोजन का हमारे तन के साथ ही साथ मन पर भी समुचित प्रभाव पड़ता है। इस कारण से उस काल में भोजन की शुद्धता पर अत्यधिक ध्यान दिया जाता था। भोजन में षट्रस, अर्थात मीठा, खट्टा, नमकीन, तीखा, कसैला एवं कड़वा, के सन्तुलन को भी महत्वपूर्ण माना जाता था।
ईसा पूर्व 1000 के काल में अनेक विदेशी यात्रियों का आगमन होना आरम्भ हो चुका था। इन यात्रियों की अपनी-अपनी अलग-अलग खाना बनाने की पद्धतियाँ हुआ करती थीं जिनका प्रभाव भारतीय पाककला पर पड़ते गया और भारत में खाना बनाने की विभिन्न प्रणालियाँ विकसित होती चली गईं।
ईसा पूर्व 600 में भारत में बौद्ध तथा जैन धर्म का आविर्भाव हुआ और इन धर्मों का समुचित प्रभाव भारतीय पाककला पर भी पड़ा। इस काल में मांस भक्षण तथा लहसुन एवं प्याज से बने भोज्य पदार्थों को त्याज्य मानने की परम्परा बनी।
मौर्य साम्राज्य तथा सम्राट अशोक के काल में, जो कि ईसा पूर्व 400 बौद्ध धर्म अपने चरम विकास पर पहुँचा तथा बौद्ध धर्म का प्रचार विदेशों में भी होने लगा। इस प्रकार से भारत से विदेशों में जाने वाले प्रचारकों के साथ भारतीय पाक प्रणालियाँ विभिन्न देशों में पहुँचती चली गईं। साथ ही उन प्रचारकों के वापस भारत आने पर अन्य देशों की भोजन पद्धतियाँ उनके साथ यहाँ आईं और उनका प्रभाव भारतीय पाककला पर पड़ा।
कहने का तात्पर्य है कि विभिन्न कालों में भारतीय पाककला पर विभिन्न प्रकार के प्रभाव पड़ते रहे तथा उसमें अनेक परिवर्तन होते चले गए। भारत में मुस्लिम साम्राज्य हो जाने पर भारतीय पाककला पर सबसे अधिक प्रभाव मुस्लिम खान-पान का ही पड़ा। उसके पश्चात् भारत में अंग्रेजों का अधिकार हो जाने के कारण भारतीय पाककला पर पश्चिमी प्रकार से खाना बनाने की विधियों का प्रभाव पड़ने लगा। आलू, टमाटर, लाल मिर्च आदि वनस्पतियों का, जिनके विषय में भारत में पोर्तुगीजों तथा अंग्रेजों के आने के पहले जानकारी ही नहीं थी, वर्चस्व भारतीय भोजन में बढ़ने लगा।
इस प्रकार से समय समय में अनेक परिवर्तन होने के कारण आज भारत में विभिन्न प्रकार से भोजन बनाने का प्रचलन है।
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